महरी- मैं तो आप ही पछता रही हूँ सरकार।
रामेश्वरी- जा, गोबर से चौका लीप दे, मटकी के टुकड़े दूर फेंक दे और बाजार से घी लेती आ।
महरी ने खुश होकर चौका गोबर से लीपा, और मटकी के टुकड़े बटोर रही थी कि कुंदनलाल आ गए- और हाँडी टूटी देखकर बोले- यह हाँडी कैसे टूट गयी?
रामेश्वरी ने कहा- महरी उठाकर ऊपर रख रही थी, उसके हाथ से छूट पड़ी।
कुंदनलाल ने चिल्लाकर कहा- तो सब घी बह गया।
और क्या कुछ बच भी रहा?
तुमने महरी से कुछ कहा नहीं।
क्या कहती। उसने जान-बूझकर तो गिरा नहीं दिया।
यह नुकसान कौन उठाएगा?
हम उठाएँगे, और कौन उठाएगा। अगर मेरे ही हाथ से छूट पड़ती, तो क्या हाथ काट लेती।
कुंदनलाल ने ओठ चबाकर कहा- तुम्हारी कोई बात समझ में नहीं आती। जिसने नुकसान किया है, उससे वसूल होना चाहिए। यही ईश्वरीय नियम है। आँख की जगह आंख, प्राण के बदले प्राण-ईसामसीह जैसे दयालु पुरुष का कथन है। अगर दंड का विधान संसार से उठ जाए, तो यहाँ रहे कौन? सारी पृथ्वी रक्त से लाल हो जाए, हत्यारे दिनदहाड़े लोगों का गला काटने लगें। दंड ही से समाज की मर्यादा कायम है। जिस दिन दंड न रहेगा, संसार न रहेगा। मनु आदि स्मृतिकार बेवकूफ नहीं थे कि दंड-न्याय को इतना महत्त्व दे गए। और किसी विचार से नहीं, तो मर्यादा की रक्षा के लिए दंड अवश्य देना चाहिए। ये रुपये महरी को देने पड़ेंगे। उसकी मजदूरी काटनी पड़ेगी। नहीं, आज तो उसने घी का घड़ा लुढ़का दिया है, कल कोई और नुकसान कर देगी।
रामेश्वरी ने डरते-डरते कहा- मैंने तो क्षमा कर दिया है।
कुंदनलाल ने आंखें निकालकर कहा- लेकिन मैं नहीं क्षमा कर सकता। महरी द्वार पर खड़ी यह विवाद सुन रही थी। जब उसने देखा कि कुंदनलाल का क्रोध बढ़ता जाता है और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड़कियां सुननी पड़ रही हैं, तो यह सामने जाकर बोली- बाबूजी, अब तो कसूर हो गया। आप सब रुपये मेरी तलब से काट लीजिए। रुपये हैं नहीं, अभी लाकर आपके हाथ पर रख देती।
रामेश्वरी ने मुड़कर कहा- जा, भाग यहाँ से, तू क्या करने आयी? बड़ी रुपये वाली बनती है।
कुंदनलाल ने पत्नी की ओर कठोर नेत्रों से देखा कहा- तुम क्यों उसकी वकालत कर रही हो? यह मोटी-सी बात है, और इसे एक बच्चा भी समझता है कि जो नुकसान करता है, उसे उसका दण्ड भोगना पड़ता है। मैं क्यों पाँच रुपये का नुकसान उठाऊं? कोई वजह? क्यों नहीं इसने मटके को संभालकर पकड़ा, क्यों इतनी जल्दबाजी की, क्यों आकर मदद नहीं ली? यह साफ इसकी लापरवाही है।
यह कहते हुए कुंदनलाल बाहर चले गए।
रामेश्वरी इस अपमान से आहत हो उठी। डांटना ही था, तो कमरे में बुलाकर एकांत में डांटते। महरी के सामने उसे रूई की तरह धुन डाला। उसकी समझ ही में न आता था, यह किस स्वभाव के आदमी हैं। आज एक बात कहते हैं, कल उसी को काटते हैं, जैसे कोई झक्की आदमी हो। कहां तो दया और उदारता के अवतार बनते थे, कहाँ आज पाँच रुपये के लिए प्राण देने लगे। बड़ा मजा जा जाय, जो कल महरी बैठ रहे। कभी तो इनके मुख से प्रसन्नता का एक शब्द निकला होता। अब मुझे भी अपना स्वभाव बदलना पड़ेगा। यह सब मेरे सीधे होने का फल है। ज्यों-ज्यों मैं तरजीह देती हूँ आप जामे से बाहर होते हैं। इनका इलाज यही है कि एक कहें, तो दो सुनाऊं। आखिर कब तक और कहाँ तक सहे? कोई हद भी है। जब देखो, डाँट रहे हैं। जिसके मिजाज़ का कुछ पता ही न हो, उसे कौन खुश रख सकता है? उस दिन जरा-सा बिन्नी को मार दिया, तो आप दया का उपदेश करने लगे। आज यह दया कहां गई? इनको ठीक करने का उपाय यही है कि समझ लूँ कोई कुत्ता भौंक रहा है। नहीं, ऐसा क्यों करूँ? अपने मन के कोई काम ही न करूँ, जो यह कहें, वही करूं, जौ-भर कम, न जौ भर ज्यादा। जब इन्हें मेरा कोई काम पसंद ही नहीं आता, मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बरबस अपनी टाँग अड़ाऊं बस यही ठीक है।
वह रात भर इसी उधेड़-बुन में पड़ी रही। सवेरे कुंदनलाल नदी-स्नान करने गये। लौटे, तो नौ बज गए थे। घर में जाकर देखा, तो चौका-बरतन न हुआ था। प्राण सूख गए। पूछा-क्या महरी नहीं आयी?
रामेश्वरी- नहीं।
कुंदनलाल- तो फिर?
रामेश्वरी- जो आपकी आज्ञा।
कुंदनलाल- यह तो बड़ी मुश्किल है।
रामेश्वरी- हां, है तो।
कुंदनलाल- पड़ोस की महरी को क्यों न बुला लिया?
रामेश्वरी- किसके हुक्म से बुलाती? अब हुक्म हुआ है, बुलाए लेती हूँ।
कुंदनलाल- अब बुलाऊंगी, तो खाना कब बनेगा? नौ बज गए हैं। इतना तो तुम्हें अपनी अक्ल से काम लेना चाहिए था कि महरी नहीं आयी तो पड़ोस वाली को बुला लें।
रामेश्वरी- अगर उस वक्त सरकार पूछते, क्यों दूसरी महरी क्यों बुलाई, तो क्या जवाब देती? अपनी अक्ल से काम लेना छोड़ दिया। अब तुम्हारी अक्ल से काम लूंगी। मैं यह नहीं चाहती कि कोई मुझे आँखें दिखाए।
कुंदनलाल- अच्छा तो इस वक्त क्या होना है?
रामेश्वरी-जो हुजूर का हुक्म हो।
कुंदनलाल-तुम मुझे बनाती हो?
रामेश्वरी- मेरी इतनी मजाल कि आपको बनाऊं मैं तो हुजूर की लौंडी हूँ। जो कहिए वह करूँ।
कुंदनलाल- मैं तो जाता हूँ तुम्हारा जो जी चाहे करो।
रामेश्वरी- जाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूंगी।
कुंदनलाल- आखिर तुम क्या खाओगी?
रामेश्वरी- जो आप दे देंगे, वही खा लूंगी।
कुंदनलाल- लाओ, बाजार से पूरियां ला दूँ।
रामेश्वरी- रुपया निकाल लाई। कुंदनलाल पूरियां लाये। इस वक्त का काम चला। दफ्तर गये। लौटे, तो देर हो गई थी। आते-ही-आते पूछा-महरी आयी।
रामेश्वरी- नहीं।
कुंदनलाल- मैंने तो कहा था, पड़ोस वाली को बुला लेना।
