Khuchhad by munshi premchand
Khuchhad by munshi premchand

एक दिन कुंदनलाल ने कई मित्रों की दावत की! रामेश्वरी सवेरे से रसोई में घुसी, तो शाम तक सिर न उठा सकी। उसे यह बेगार बुरी मालूम हो रही थी।? अगर दोस्तों की दावत करनी, तो खाना बनवाने का कोई प्रबंध क्यों नहीं किया! सारा बोझ उसी के सिर क्यों डाल दिया? उससे एक बार पूछ तो लिया होता कि दावत करूँ, या न करूँ। होता तब भी यही, जो अब हो रहा था। यह दावत के प्रस्ताव का बड़ी खुशी से अनुमोदन करती। तब वह समझती, दावत मैं कर रही हूँ। अब वह समझ रही थी मुझसे बेगार ली जा रही है। खैर, भोजन तैयार हुआ, लोगों ने भोजन किया और चले गये, मगर मुंशीजी मुँह फुलाए बैठे हुए थे। रामेश्वरी ने कहा- तुम क्यों नहीं खा लेते, या अभी सवेरा है?

बाबू साहब ने आये फाड़कर कहा- क्या खा लूँ यह खाना है या बैलों की सानी।

रामेश्वरी के सिर से पाँव तक आग लग गई। सारा दिन चूल्हे के सामने जली, उसका यह पुरस्कार। बोली- मुझसे जैसा हो सका, बनाया। जो बात अपने बस की नहीं है, उसके लिए क्या करती?

पूरियां सब सेवड़ी हैं।

होंगी।

कचौड़ी में इतना नमक था कि किसी ने छुआ तक नहीं।

होगा।

हलुआ अच्छी तरह भुना नहीं- कचाइँध आ रही थी।

आती होगी।

शोरबा इतना पतला था, जैसे चाय।

होगा।

स्त्री का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम में चतुर हो।

फिर उपदेशों का तार बँधा, यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊब कर चली गई।

पाँच-छह महीने गुजर गए। एक दिन कुंदनलाल के एक दूर के संबंधी उनसे मिलने आये। रामेश्वरी को ज्यों ही उनकी खबर मिली, जल-पान के लिए मिठाई भेजी और महरी से कहला भेजा- आज यहीं भोजन कीजिएगा। वह महाशय फूले न समाए। बोरिया-बँधना लेकर पहुंच गए और डेरा डाल दिया। एक हफ़्ता गुजर गया, मगर आप टलने का नाम भी नहीं लेते। आव-भगत में कोई कमी होती, तो शायद उन्हें कुछ चिन्ता होती, पर रामेश्वरी उनके सेवा-सत्कार में जी-जान से लगी हुई थी। फिर वह काहे को हटने लगे?

एक दिन कुंदनलाल ने कहा- तुमने यह बुरा रोग पाला।

रामेश्वरी ने चौंक कर पूछा- कैसा रोग।

इन्हें टहला क्यों नहीं देतीं?

मेरा क्या बिगाड़ रहे हैं?

कम-से-कम एक रुपये की रोज चपत दे रहे हैं। और अगर यही खातिरदारी रही, तो शायद जीते-जी टलेंगे भी नहीं।

मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि कोई दो-चार दिन के लिए आ जाए तो उसके सिर हो जाऊं। जब तक उनकी इच्छा हो रहें।

ऐसे मुफ्तखोरों का सत्कार करना पाप है। अगर तुमने इसे इतना सिर न चढ़ाया होता, तो अब तक लम्बा हुआ होता। जब दिन में तीन बार भोजन और पचासों बार पान मिलता है, तो उसे कुत्ते ने काटा है, जो अपने घर जाए।

रोटी का चोर बनना तो अच्छा नहीं?

कुपात्र और सुपात्र का विचार तो कर लेना चाहिए। ऐसे आलसियों को खिलाना-पिलाना वास्तव में उन्हें जहर देना है। जहर से तो केवल प्राण निकल जाते हैं, यह खातिरदारी तो आत्मा का सर्वनाश कर देती है। अगर यह हजरत महीने भर भी यहाँ रह गए, तो फिर जिन्दगी भर के लिए बेकार हो जाएँगे।

तर्क का ताँता बँध गया। प्रमाणों की झड़ी लग गई। रामेश्वरी खिसिया कर चली गयी। कुंदनलाल उससे कभी संतुष्ट भी हो सकते हैं, उनके उपदेशों की वर्षा कभी बंद भी हो सकती है, यह प्रश्न उसके मन में बार-बार उठने लगा।

एक दिल देहात से भैंस का ताजा घी आया। इधर महीनों से बाजार का घी खाते- खाते नाक में दम हो रहा था। रामेश्वरी ने उसे खौलाया, उसमें लौंग डाली और कड़ाह से निकालकर एक मटकी में रख दिया। उसकी सोंधी-सोंधी सुगंध से सारा घर महक रहा था। महरी चौका-बरतन करने आयी, तो उसने चाहा कि मटकी चौके से उठाकर छीके या आले पर रख दे। पर संयोग की बात, उसने मटकी उठायी तो वह उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी। सारा घी बह गया। धमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो महरी रो रही थी, और मटकी चूर-चूर हो गई थी। तड़प कर बोली- मटकी कैसे टूट गई? मैं तेरी तलब से काट लूँगी। राम-राम, सारा घी मिट्टी में मिला दिया। तेरी आँखें फूट गई थीं क्या या हाथों में दम नहीं था? इतनी दूर से मँगाया, इतनी मेहनत से गर्म किया, मगर एक बूंद भी गले के नीचे न गया। अब खड़ी बिसूर क्या रही है, जा अपना काम कर ।

महरी ने आँसू पोंछकर कहा- बहू जी, अब तो चूक हो गई। चाहे तलब काटी, चाहे जान मारो। मैंने तो सोचा, उठाकर आले पर रख दूँ तो चौका लगाऊँ। क्या जानती थी कि भाग्य में यह लिखा है। न जाने किस अभागे का मुँह देखकर उठी थी।

रामेश्वरी- मैं कुछ नहीं जानती, सब रुपये तेरी तलब से वसूल कर लूँगी। एक रुपया जुर्माना न किया तो कहना।

महरी- मर जाऊंगी सरकार, कहीं एक पैसे का ठिकाना नहीं है।

रामेश्वरी- मर जा या जी जा, मैं कुछ नहीं जानती।

महरी ने एक मिनट तक कुछ सोचा और बोली- अच्छा, काट लीजिएगा सरकार। आपसे सब्र नहीं होता, मैं सब्र कर लूँगी। यही न होगा, भूखों मर जाऊंगी। जीकर ही कौन-सा सुख भोग रही हूँ कि मरने को डरें, समझ लूंगी, एक महीना कोई काम नहीं किया। आदमी से बड़ा-बड़ा नुकसान हो जाता है, यह तो घी ही था।

रामेश्वरी को एक ही क्षण में महरी पर दया आ गई। बोली- तू भूखों मर जाएगी, तो मेरा काम कौन करेगा?

महरी- काम कराना होगा, खिलायेगा, न काम कराना होगा, भूखों मारिएगा। आज से आप ही के द्वार पर सोया करूंगी।

रामेश्वरी- सच कहती हूँ आज तूने बड़ा नुकसान कर डाला।