मुंशी रामसेवक भौहें चढ़ाये हुए घर से निकले और बोले – इस जीने से तो मरना भला है। मृत्यु को प्रायः इस तरह के जितने निमंत्रण दिये जाते हैं, यदि वह सबको स्वीकार करती तो आज संसार उजाड़ दिखाई देता।
मुंशी रामसेवक चांदपुर गांव के एक बड़े रईस थे। रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। मानव-चरित्र की दुर्बलताएं उनके जीवन का आधार थी। वह नित्य मुंसिफी कचहरी के हाते में एक नीम के पेड़ के नीचे कागजों का पुलिंदा- खोले एक छोटी-सी चौकी पर बैठे दिखाई देते थे। किसी ने कभी उन्हें किसी इजलास पर कानूनी बहस या मुकदमे की पैरवी करते नहीं देखा। परन्तु उन्हें सब लोग मुख्तार साहब कहकर पुकारते थे। चाहें तूफान आवे, पानी बरसे, ओले गिरे पर मुख्तार साहब वहां से टस-से-मस न होते। जब वह कचहरी चलते तो देहातियों के झुंड-के-झुंड उनके साथ हो लेते। चारों ओर से उन पर विश्वास और आदर की दृष्टि पड़ती। सबमें प्रसिद्ध था कि उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती है। इसे वकालत कहो या मुख्तारी, परन्तु यह केवल कुल मर्यादा की प्रतिष्ठा का पालन था। आमदनी अधिक न होती थी। चांदी के सिक्के की तो चर्चा ही क्या, कभी-कभी तांबे के सिक्के भी निर्भय उनके पास आने में हिचकते थे। मुंशीजी की कानून में कोई सन्देह न था परन्तु पास के बखेड़े ने उन्हें विवश कर दिया था। खैर, जो हो, उनका यह पेशा केवल प्रतिष्ठा-पालन के निमित्त था।
नहीं तो उनके निर्वाह का मुख्य साधन आस-पास की अनाथ पर खाने-पीने में सुखी विधवाओं और भोले-भाले किन्तु धनी वृद्धों की श्रद्धा थी। विधवाएं अपना रुपया उनके यहां अमानत रखतीं। बूढ़े अपने कपूतों के डर से अपना धन उन्हें सौंप देते। पर रुपया एक बार उनकी मुट्ठी में जाकर फिर निकलना भूल जाता था। वह जरूरत पड़ने पर कभी-कभी कर्ज ले लेते थे। भला बिना कर्ज लिये किसी का काम चल सकता है? भोर को सांझ के करार पर रुपया लेते, पर सांझ कभी नहीं आती थी। सारांश, मुंशीजी कर्ज लेकर देना सीखे नहीं थे। यह उनकी कुल-प्रथा थी। यही सब मामले बहुधा मुंशीजी के सुख-चैन में विघ्न डालते थे। कानून और अदालत का तो उन्हें कोई डर न था। इस मैदान में उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था। परन्तु जब कोई दुष्ट उनसे भिड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर संदेह करता और उनके मुंह पर बुरा-भला कहने पर उतारू हो जाता, तब मुंशीजी के हृदय पर बड़ी चोट लगती। इस प्रकार की दुर्घटनाएं प्रायः होती रहती थी। हर जगह ऐसे ओछे रहते हैं, जिन्हें दूसरों को नीचा दिखाने में ही आनन्द आता है। ऐसे ही लोगों का सहारा पाकर कभी-कभी छोटे आदमी मुंशीजी के मुंह लग जाते थे। नहीं तो, एक कुंजड़िन की इतनी मजाल नहीं थी कि उनके आंगन में जाकर उन्हें बुरा-भला कहे। मुंशीजी उसके पुराने ग्राहक थे, बरसों तक उससे साग-भाजी ली थी। यदि दाम न दिया तो कुंजड़िन को संतोष करना चाहिए था। दाम जल्दी या देर से मिल ही जाता। परन्तु यह मुंहफट कुंजड़िन दो ही बरसों में घबरा गयी, और उसने कुछ आने पैसों के लिए एक प्रतिष्ठित आदमी का पानी उतार लिया। झुंझलाकर मुंशीजी अपने को मृत्यु का कलेवा बनवाने पर उतारू हो गए तो इसमें उनका कुछ दोष न था।
इसी गांव में मूंगा नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहती थी। उसका पति बर्मा की काली पल्टन में हवलदार था और लड़ाई में वहीं मारा गया। सरकार की ओर से उसके अच्छे कामों के बदले मूंगा को पांच सौ रुपये मिले थे। विधवा स्त्री, जमाना नाजुक था, बेचारी ने ये सब रुपये मुंशी रामसेवक को सौंप दिये, और महीने-महीने थोड़ा-थोड़ा उसमें से मांगकर अपना निर्वाह करती रही।
मुंशीजी ने यह कर्त्तव्य कई वर्ष तक तो बड़ी ईमानदारी के साथ पूरा किया। पर जब बूढ़ी होने पर भी मूंगा नहीं मरी और मुंशीजी को यह चिन्ता हुई कि शायद उसमें से आधी रकम भी स्वर्ग-यात्रा के लिए नहीं छोड़ना चाहती, तो एक दिन उन्होंने कहा – मूंगा! तुम्हें मरना है या नहीं? साफ-साफ कह दो कि मैं ही अपने मरने की फिक्र करूं। उस दिन मूंगा की आंखें खुली, उसकी नींद टूटी, बोली – मेरा हिसाब कर दो। हिसाब का चिट्ठा तैयार था। अमानत में अब एक कौड़ी बाकी न थी। मूंगा ने बड़ी कड़ाई से मुंशी का हाथ पकड़ लिया और कहा – अभी मेरे ढाई सौ रुपये तुमने दबा रखे हैं। मैं एक कौड़ी भी न छोडूंगी। परन्तु अनाथों का क्रोध पटाखा की आवाज है, जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता। अदालत में उसका कुछ जोर न था। न लिखा पड़ी थी, न हिसाब-किताब । हां, पंचायत से कुछ आसरा था। पंचायत बैठाई। कई गांव के लोग इकट्ठे हुए। मुंशीजी नीयत और मामले के साफ थे। सभा में खड़े होकर पंचों से कहा –
भाइयों, आप सब लोग सत्यपरायण और कुलीन हैं। मैं आप सब साहबों का दास हूं। आप सब साहबों की उदारता और कृपा से, दया और प्रेम से, मेरा रोम-रोम कृतज्ञ है। क्या आप लोग सोचते हैं कि मैं इस अनाथिनी और विधवा स्त्री के रुपये हड़प कर गया हूं? पंचों ने एक स्वर में कहा – नहीं, नहीं! आपसे ऐसा नहीं हो सकता।
रामसेवक – यदि आप सब सज्जनों का विचार हो कि मैंने रुपये दबा लिए तो मेरे लिए डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं। मैं धनाढ्य नहीं हूं, न मुझे उदार होने का घमंड है। पर अपनी कलम की कृपा से, आप लोगों की कृपा से किसी का मुहताज नहीं हूं। क्या मैं ऐसा ओछा हो जाऊंगा कि एक अनाथिनी के रुपये पचा लूं?
पंचों ने एक स्वर से फिर कहा – नहीं, नहीं, आपसे ऐसा नहीं हो सकता। मुंह देखकर टीका काढ़ा जाता है। पंचों ने मुंशीजी को छोड़ दिया। पंचायत उठ गयी। मूंगा ने आह भरकर सन्तोष किया और मन में कहा – अच्छा! यहां न मिला तो न सही, वहां कहां जाएगा।
अब कोई मूंगा का दुःख सुनने वाला और सहायक न था। दरिद्रता से जो कुछ दुःख भोगने पड़ते हैं, वह सब उसे झेलने पड़े। वह शरीर से पुष्ट थी, चाहती तो परिश्रम कर सकती थी। पर जिस दिन पंचायत पूरी हुई, उसी दिन से उसने काम न करने की कसम खा ली। अब उसे रात-दिन रुपये की रट लगी रहती। उठते-बैठते, सोते-जागते, उसे केवल एक काम था, और वह मुंशी रामसेवक का भला मनाना। झोंपड़े के दरवाजे पर बैठी हुई रात-दिन, उन्हें सच्चे मन से असीस दिया करती। बहुधा अपनी असीस के वाक्यों में ऐसे कविता के भाव और उपमाओं का व्यवहार करती कि लोग सुनकर अचंभे में आ जाते। धीरे-धीरे मूंगा पगली हो चली। नंगे सिर, नंगे शरीर, हाथ में एक कुल्हाड़ी लिये हुए सुनसान स्थानों में जा बैठती। झोंपड़े के बदले अब वह मरघट पर, नदी के किनारे खंडहरों में घूमती दिखाई देती। बिखरी हुई लटें, लाल-लाल आंखें, पागलों-सा चेहरा, सूखे हुए हाथ-पांव। उसका यह स्वरूप देखकर लोग डर जाते थे। अब कोई उसे हंसी में भी नहीं छेड़ता। यदि वह कभी गांव में निकल आती तो स्त्रियां घरों के किवाड़ बन्द कर लेती। पुरुष कतरा कर इधर-उधर से निकल जाते और बच्चे चीख मारकर भागते। यदि कोई लड़का भागता न था तो वह मुंशी रामसेवक का सुपुत्र रामगुलाम था। बाप मैं जो कुछ कोर-कसर रह गई थी, वह बेटे में पूरी हो गई थी। लड़कों का उसके मारे नाक में दम था। गांव के काने और लंगड़े आदमी उसकी सूरत से चिढ़ते थे और गालियां खाने में तो शायद ससुराल में आने वाले दामाद को भी इतना आनन्द न आता हो। वह मूंगा के पीछे तालियां बजाता, कुत्तों को साथ लिए हुए उस समय तक रहता जब तक वह बेचारी तंग आकर गांव से निकल न जाती। रुपया-पैसा, होश-हवास खोकर उसे पगली की पदवी मिली और अब वह सचमुच पगली थी। अकेली बैठी अपने-आप घंटों बातें किया करती जिसमें रामसेवक के मांस, हड्डी, चमड़े, आंखें, कलेजा आदि को खाने, मसलने, नोचने-खसोटने की बड़ी इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी यह इच्छा सीमा तक पहुंच जाती तो वह रामसेवक के घर की ओर मुंह करके खूब चिल्लाकर और डरावने शब्दों में हांक लगाती – तेरा लहू पीऊंगी।
प्रायः रात के सन्नाटे में यह गरजती हुई आवाज सुनकर स्त्रियां चौक पड़ती थी। परन्तु इस आवाज से भयानक उसका ठठा कर हंसना था। मुंशीजी के लहू पीने की कल्पित खुशी में वह जोर से हंसा करती थी। इस ठठाने से ऐसी आसुरिक उद्दंडता, ऐसी पाशविक उग्रता टपकती थी कि रात में सुनकर लोगों का खून ठंडा हो जाता था। मालूम होता, मानों सैकड़ों उल्लू एक साथ हंस रहे हैं। मुंशी रामसेवक बड़े हौसले और कलेजे के आदमी थे। न उन्हें दीवानी का डर था, न फौजदारी का, परन्तु मूंगा के इन डरावने शब्दों को सुन वह भी सहम जाते। हमें मनुष्य के न्याय का डर न हो, परन्तु ईश्वर के न्याय का डर प्रत्येक मनुष्य के मन में स्वभाव से रहता है। मूंगा का भयानक रात में घूमना रामसेवक के मन में कभी-कभी ऐसी ही भावना उत्पन्न कर देता – उनसे अधिक उनकी स्त्री के मन में। उनकी स्त्री बड़ी चतुर थी। वह इनको इन सब बातों में प्रायः सलाह दिया करती थी। उन लोगों की भूल थी, जो लोग कहते थे कि मुंशीजी की जीभ पर सरस्वती विराजती है। वह गुण तो उनकी स्त्री को प्राप्त था। बोलने में वह इतनी ही तेज थी जितना मुंशीजी लिखने में थे और यह दोनों स्त्री-पुरुष प्रायः अपनी अवश दशा में सलाह करते कि अब क्या करना चाहिए।
आधी रात का समय था। मुंशीजी नित्य-नियम के अनुसार अपनी चिन्ता दूर करने के लिए शराब के दो चार घूंट पीकर सो गए थे। यकायक मूंगा ने उनके दरवाजे पर आकर जोर से हांक लगाई, ‘तेरा लहू पीऊंगी’ और खूब खिल-खिलाकर हंसी।
मुंशीजी यह भयानक आवाज सुनकर चौंक पड़े। डर के मारे पैर थर-थर कांपने लगे। कलेजा धक-धक करने लगा। दिल पर बहुत जोर डालकर उन्होंने दरवाजा खोला, जाकर पत्नी को जगाया। पत्नी ने झुंझलाकर कहा – क्या कहते हो? मुंशीजी ने दबी आवाज से कहा – वह दरवाजे पर आकर खड़ी है।
पत्नी उठ बैठी – क्या कहती है?
‘तुम्हारा सिर।’
‘क्या दरवाजे पर आ गई?’
‘हां, आवाज नहीं सुनती हो।
