gareebon kee haay by munshi premchand
gareebon kee haay by munshi premchand

पत्नी मूंगा से नहीं, परन्तु उसके बयान से बहुत डरती थी, तो भी उसे विश्वास था कि मैं बोलने में उसे जरूर नीचा दिखा सकती हूं। संभल कर बोली – कहो तो मैं उससे दो-दो बातें कर लूं। परन्तु मुंशीजी ने मना किया।

दोनों आदमी पैर दबाए हुए ड्यौढ़ी में गए और दरवाजे से झांककर देखा, मूंगा की धुंधली मूरत धरती पर पड़ी थी और उसकी सांस तेजी से चलती सुनाई देती थी। रामसेवक के लहू और मांस की भूख से वह अपना लहू और मांस सुखा चुकी थी। एक बच्चा भी उसे गिरा सकता था, परन्तु उससे सारा गांव थर-थर कांपता। हम जीते मनुष्य से नहीं डरते, पर मुरदे से डरते हैं। रात गुजरी, दरवाजा बन्द था, पर मुंशीजी और उनकी पत्नी ने बैठकर रात काटी। मूंगा भीतर नहीं घुस सकती थी, पर उसकी आवाज को कौन रोक सकता था। मूंगा से अधिक डरावनी उसकी आवाज थी।

भोर को मुंशीजी बाहर निकले और मूंगा से बोले- यहां क्यों पड़ी है?

मूंगा बोली – तेरा लहू पीऊंगी।

पत्नी ने बल खाकर कहा – तेरा मुंह झुलस दूंगी।

पर पत्नी के विषय ने मूंगा पर कुछ असर न किया। उसने जोर से ठहाका लगाया, पत्नी खिसियानी हो गई। हंसी के सामने मुंह बंद हो जाता है। मुंशीजी फिर बोले – यहां से उठ जा।

‘न उठूंगी।’

‘कब तक पड़ी रहेगी?’

‘तेरा लहू पीकर जाऊंगी।’

मुंशीजी की प्रखर लेखनी का यहां कुछ जोर न चला और उनकी पत्नी की आग भरी बातें यहां सर्द हो गयी। दोनों घर में जाकर सलाह करने लगे, यह बला कैसे टलेगी। इस आपत्ति से कैसे छुटकारा होगा।

देवी आती है तो बकरे का खून पीकर चली जाती है, पर यह डायन मनुष्य का खूब पीने आई है। वह खून, जिसकी अगर एक बूंद भी कलम बनाने के समय निकल पड़ती थी, तो अठवारों और महीनों सारे कुनबे को अफसोस रहता, और यह घटना गांव में घर-घर फैल जाती थी। क्या यही लहू पीकर मूंगा का सूखा शरीर हरा हो जाएगा?

गांव में यह चर्चा फैल गई, मूंगा मुंशीजी के दरवाजे पर धरना दिए बैठी है। मुंशीजी के अपमान में गांव वालों को बड़ा मजा आता था। देखते-देखते सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गई। इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी। यह भीड़ रामगुलाम को पसंद न थी। मूंगा पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि यदि उसका बस चलता तो वह उसे कुंए में धकेल देता। इस तरह का विचार उठते ही रामगुलाम के मन में गुदगुदी समा गई, और वह बड़ी कठिनाई से अपनी हंसी रोक सका। अहा, वह कुएं में गिरती तो क्या मजे की बात होती। परन्तु वह चुड़ैल यहां से टलती ही नहीं, क्या करूं? मुंशीजी के घर में एक गाय थी जिसे खली, दाना और भूसा तो खूब खिलाया जाता, पर वह सब उसकी हड्डियों में मिल जाता, उसका ढांचा पुष्ट होता जाता था। रामगुलाम ने उसी गाय का गोबर एक हांडी में घोला और सब का – सब बेचारी मूंगा पर उड़ेल दिया। उसके थोड़े बहुत छींटे दर्शकों पर भी डाल दिए। बेचारी मूंगा लदफद हो गई और लोग भाग खड़े हुए कहने लगे, यह मुंशी रामगुलाम का दरवाजा है। यहां इसी प्रकार का शिष्टाचार किया जाता है। जल्द भाग चलो, नहीं तो अबकी इससे भी बढ़कर खातिर की जाएगी। इधर भीड़ कम हुई, उधर रामगुलाम घर में जाकर खूब हंसा और तालियां बजायी। मुंशी जी ने इस व्यर्थ की भीड़ को ऐसे सहज में और ऐसे सुंदर रूप से हटा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के की पीठ ठोंकी। सब लोग तो चम्पत हो गए, पर बेचारी मूंगा ज्यों-की-त्यों बैठी रह गई।

दोपहर हुई। मूंगा ने कुछ नहीं खाया। सांझ हुई, हजार कहने-सुनने से भी उसने खाना नहीं खाया। गांव के चौधरी ने बड़ी खुशामद की। यहां तक कि मुंशीजी ने हाथ तक जोड़े, पर देवी प्रसन्न न हुई। निदान मुंशी जी उठकर भीतर चले गए। वह कहते थे कि रूठने वाले को भूख आप ही मना लिया करती है। मूंगा ने यह रात भी बिना दाना-पानी के काट दी। लालाजी और लालाइन ने आज फिर जाग-जागकर भोर किया। आज मूंगा की गरज और हंसी बहुत कम सुनाई पड़ती थी। घरवालों ने समझा, बला टली। सवेरा होते ही जो दरवाजा खोलकर देखा, तो वह अचेत पड़ी थी, मुंह पर मक्खियां भिनभिना रही हैं और उसके प्राणपखेरू उड़ चुके हैं। वह इस दरवाजे पर मरने ही आयी थी। जिसने उसके जीवन की जमा पूंजी हर ली थी, उसी को अपनी जान भी सौंप दी। अपने शरीर की मिट्टी तक उसकी भेंट कर दी। धन से मनुष्य को कितना प्रेम होता है। धन अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा होता है। विशेषकर बुढ़ापे में। ऋण चुकाने के दिन ज्यों-ज्यों पास आते-जाते हैं, त्यों-त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है।

यह कहना यहां व्यर्थ है कि गांव में इस घटना से कैसी हलचल मची और मुंशी रामसेवक कैसे अपमानित हुए। एक छोटे-से गांव में ऐसी असाधारण घटना होने पर जितनी हलचल हो सकती थी। उससे अधिक ही हुई। मुंशीजी का अपमान जितना होना चाहिए था, उससे बाल बराबर भी कम न हुआ। उनका बचा-खुचा पानी भी इस घटना से चला गया। अब गांव का चमार भी उनके हाथ का पानी पीने या उन्हें छूने का रवादार न था। यदि किसी घर में कोई गाय खूंटे पर मर जाती है तो वह आदमी महीनों द्वार-द्वार भीख मांगता फिरता है। न नाई उसकी हजामत बनाये, न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छुए। यह गो-हत्या का प्रायश्चित! ब्रह्म-हत्या का दंड तो इससे भी कड़ा है और इसमें अपमान भी बहुत है। मूंगा यह जानती थी और इसीलिए इस दरवाजे पर आकर मरी थी। वह जानती थी कि मैं जीते-जी जो कुछ नहीं कर सकती, मरकर उससे बहुत कर सकती हूं। गोबर का उपला जब जलकर खाक हो जाता है, तब साधु-संत उसे माथे पर चढ़ाते हैं। पत्थर का ठेला आग में जलकर आग से अधिक तीखा और मारक हो जाता है।

मुंशी रामसेवक कानूनदां थे। कानून ने उन पर कोई दोष नहीं लगाया था। मूंगा किसी कानूनी दफा के अनुसार नहीं मरी थी। ताजीरात हिंद में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता था। इसलिए जो लोग उनसे प्रायश्चित करवाना चाहते थे, उनकी भारी भूल थी। कुछ हर्ज नहीं, कहार पानी न भरे न सही, वह आप पानी भर लेंगे। अपना काम आप करने में भला लाज ही क्या? बला से नाई बाल न बनायेगा। हजामत बनाने का काम ही क्या है? दाढ़ी बहुत सुन्दर वस्तु है। दाढ़ी मर्द की शोभा और श्रृंगार है। और जो फिर बालों से ऐसी घिन होगी तो एक-एक आने में तो उस्तरे मिलते हैं। धोबी कपड़े न धोयेगा, इसकी भी कुछ परवाह नहीं। साबुन तो गली-गली कौड़ियों के मोल आता है। एक बट्टी साबुन में दर्जनों कपड़े ऐसे साफ हो जाते हैं जैसे बगुले के पर। धोबी क्या खाक ऐसा साफ कपड़ा धोयेगा। पत्थर पर पटक-पटककर कपड़ों का लत्ता निकाल लेता है। आप पहने दूसरे को भाड़े पर पहनाये? भट्टी में चढ़ावे, रेह में भिगाेये – कपड़ों की तो दुर्गति कर डालता है। तभी तो कुरते दो तीन-साल से अधिक नहीं चलते। नहीं तो दादा हर पांचवें बरस दो अचकन और दो कुरते बनवाया करते थे। मुंशी रामसेवक और उनकी स्त्री ने दिनभर तो यों की कहकर अपने मन को समझाया। सांझ होते ही उनके तर्क शिथिल हो गये।

अब उनके मन पर भय ने चढ़ाई की। जैसे-जैसे रात बीतती थी, भय भी बढ़ता जाता था। बाहर का दरवाजा भूल से खुला रह गया था, पर किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि जाकर बंद तो कर आये। पत्नी ने हाथ में दिया लिया, मुंशीजी ने कुल्हाड़ा, रामगुलाम ने गंडासा, इस ढंग से तीनों चौंकते हिचकते दरवाजे पर आए। यहां मुंशीजी ने बड़ी बहादुरी से काम लिया। उन्होंने निधड़क दरवाजे से बाहर निकलने की कोशिश की। कांपते हुए, पर ऊंची आवाज में पत्नी से बोले – तुम व्यर्थ डरती हो, वह क्या यहां बैठी है? पर उनकी प्यारी पत्नी ने उन्हें अंदर खींच लिया और झुंझलाकर बोली – तुम्हारा यही लड़कपन तो अच्छा नहीं। यह दंगल जीतकर तीनों आदमी रसोई के कमरे में आए और खाना पकने लगा।

परन्तु मूंगा उनकी आंखों में घुसी हुई थी। अपनी परछाई को देखकर मूंगा का भय होता था। अंधेरे कोनों में मूंगा बैठी मालूम होती थी। वह हड्डियों का ढांचा, वही बिखरे हुए बाल, वही पागलपन, वही डरावनी आंखें, मूंगा का नख-शिख दिखाई देता था। इसी कोठरी में आटे-दाल के कई मटके रखे हुए थे, वहां कुछ पुराने चिथड़े भी पड़े हुए थे। एक चूहे को भूख ने बेचैन किया,( मटकी ने कभी अनाज की सूरत नहीं देखी थी, पर सारे गांव में मशहूर था कि इस घर के चूहे गजब के डाकू हैं) तो वह उन दानों की खोज में जो मटकों से कभी नहीं गिरे थे, रेंगता हुआ इस चिथड़े के नीचे आ निकला। कपड़े में खड़खड़ाहट हुई। फैले हुए चिथड़े मूंगा की पतली टांगे बन गयी, मुंशी की पत्नी यह देखकर झिझकी और चीख उठी। मुंशीजी बदहवास होकर दरवाजे की ओर लपके, रामगुलाम दौड़कर इनकी टांगों में लिपट गया। चूहा बाहर निकल आया। उसे देखकर इन लोगों के होश ठिकाने हुए। अब मुंशीजी साहस करके मटके की ओर चले। पत्नी ने कहा – रहने भी दो, देख ली तुम्हारी मर्दानगी।

मुंशीजी अपनी प्रिया पत्नी के इस अनादर पर बहुत बिगड़े – क्या तुम समझती हो मैं डर गया? भला डर की क्या बात थी। मूंगा मर गई। क्या वह बैठी है? मैं कल नहीं दरवाजे के बाहर निकल गया था – तुम रोकती रही, मैं न माना।

मुंशीजी की इस दलील ने पत्नी को निरुत्तर कर दिया। कल दरवाजे के बाहर निकल आया या निकलने की कोशिश करना साधारण काम न था जिसके साहस का ऐसा प्रमाण मिल चुका है, उसे डरपोक कौन कह सकता है? यह पत्नी की हठधर्मी थी।

खाना खाकर तीनों आदमी सोने के कमरे में आए परन्तु मूंगा ने यहां भी पीछा न छोड़ा, बातें करते थे, दिल को बहलाते थे। पत्नी ने राजा हरदौल और रानी सारंधा की कहानियां कहीं। मुंशीजी ने फौजदारी के कई मुकदमों का हाल कह सुनाया। परंतु इन उपायों से भी मूंगा की मूर्ति उनकी आंखों के सामने से न हटती थी। जरा भी खनखनाहट होती कि तीनों चौक पड़ते। इधर पत्तियों में सनसनाहट हुई कि उधर तीनों के रोंगटे खड़े हो गए? रह-रहकर एक धीमी आवाज धरती के भीतर से उनके कानों में आती थी – तेरा लहू पीऊंगी।

आधी रात को पत्नी नींद से चौक पड़ी। वह इन दिनों गर्भवती थी। लाल-लाल आंखों वाली, तेज और नुकीले दांतों वाली मूंगा उसकी छाती पर बैठी हुई जान पड़ती थी। नागिन चीख पड़ती। बावली की तरह आंगन में भाग आयी और यकायक धरती पर चित्त गिर पड़ी। सारा शरीर पसीने-पसीने हो गया। मुंशीजी भी उसकी चीख सुनकर चौंके, पर डर के मारे आंखें न खुली। अंधों की तरह दरवाजा टटोलते रहे। बहुत देर के बाद उन्हें दरवाजा मिला। आंगन में आये। पत्नी जमीन पर पड़ी हाथ-पांव पटक रही थी। उसे उठाकर भीतर लाए, पर रात भर उसने आंखें न खोली। भोर को अक-बक बकने लगी। थोड़ी देर में ज्वर हो आया। बदन लाल तवा-सा हो गया। सांझ होते होते उसे सन्निपात हो गया और आधी रात के समय जब संसार में सन्नाटा छाया हुआ था, पत्नी इस संसार से चल बसी। मूंगा के डर ने उसकी जान ली। जब तक मूंगा जीती रही, वह पत्नी (नागिन) की फुफकार से सदा डरती रही। पगली होने पर भी उसने कभी मुंशी की पत्नी (नागिन) का सामना नहीं किया, पर अपनी जान देकर उसने आज नागिन की जान ली। भय में बड़ी शक्ति है। मनुष्य हवा में एक गिरह भी नहीं लगा सकता, पर इसने हवा में एक संसार रच डाला है।

रात बीत गयी। दिन बढ़ता आता था, पर गांव का कोई आदमी मुंशी की पत्नी की लाश उठाने को आता न दिखाई दिया। मुंशी जी घर-घर घूमे, पर कोई नहीं निकला। भला हत्यारे के दरवाजे पर कौन जाय? हत्यारे की लाश कौन उठाये, इस समय मुंशीजी का रोब-दाब, उनकी प्रबल लेखनी का भय और उनकी कानूनी प्रतिभा एक भी काम न आयी। चारों ओर से हारकर मुंशीजी फिर अपने घर आए। यहां उन्हें अंधकार-ही-अंधकार दीखता था। दरवाजे तक तो आए, पर भीतर पत्नी की लाश। जी को कड़ा करके हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए घर में घुसे। उस समय उनके मन पर जो बीतती थी, वही जानते थे। उसका अनुमान करना कठिन है। घर में लाश पड़ी हुई, न कोई आगे, न पीछे। दूसरा ब्याह तो हो सकता था। अभी इसी फागुन में तो पचासवां लगा है, पर ऐसी सुयोग्य और मीठी बोलने वाली स्त्री कहां मिलेगी? अफसोस! अब तगादा करने वालों से बहस कौन करेगा, कौन उन्हें निरुत्तर करेगा? लेन-देन का हिसाब-किताब कौन इतनी खूबी से करेगा? किसकी कही आवाज तीर की तरह तगादेदारों की छाती में चुभेगी? यह नुकसान अब पूरा नहीं हो सकता। दूसरे दिन मुंशीजी लाश को ठेले गाड़ी पर लादकर गंगाजी की तरफ चले।

शव के साथ जानेवाले की संख्या कुछ भी न थी। एक स्वयं मुंशीजी, दूसरे उनके पुत्र रत्न रामगुलाम जी! इस बेइज्जती से मूंगा की लाश भी नहीं उठाई।

मूंगा ने पत्नी की जान लेकर भी मुंशीजी का पिंड न छेड़ा। उनके मन में हर घड़ी मूंगा की मूर्ति विराजमान रहती थी। कहीं रहते, उनका ध्यान इसी ओर रहा करता था। यदि दिल-बहलाव का कोई उपाय होता तो शायद वह इतने बेचैन न होते, पर गांव का एक पुतला भी उनके दरवाजे की ओर न झांकता था। बेचारे अपने हाथों पानी भरते, आप ही बरतन धोते। सोच और क्रोध, चिंता और भय, इतने शत्रुओं के सामने एक दिमाग कब तक ठहर सकता था। विशेषकर वह दिमाग जो रोज कानून की बहस में खर्च हो जाता था।

अकेले कैदी की तरह उनके दस-बारह दिन तो ज्यों-त्यों कटे। चौदहवें दिन मुंशीजी ने कपड़े बदले और बोरिया-बस्ता लिए हुए कचहरी चले। आज उनका चेहरा कुछ खिला हुआ था। जाते ही मेरे मुवक्किल मुझे घेर लेंगे। मेरी मातमपुर्सी करेंगे। मैं आंसुओं की दो-चार बूंदें गिरा दूंगा। फिर बैनामों, रेहन-नामों और सुलहनामों की भरमार हो जायेगी। मुट्ठी गरम होगी। शाम को जरा नशे पानी का रंग जम जायेगा, जिसके छूट जाने से जी और भी उचट रहा था। इन्हीं विचारों में मग्न मुंशीजी कचहरी पहुंचे।

पर वहां रेहननामों की भरमार और बेनामों की बाढ़ और मुवक्किलों की चहल-पहल के बदले निराशा और रेतीली भूमि नजर आयी। बस्ता खोले घंटों बैठे रहे पर कोई नजदीक भी न आया। किसी ने इतना भी न पूछा कि आप कैसे हैं। नये मुवक्किल तो खैर, बड़े-बड़े पुराने मुवक्किल जिनका मुंशीजी से कई पीढ़ियों से सरोकार था, आज उनसे मुंह छिपाने लगे। वह नालायक और अनाड़ी रमजान, जिसकी मुंशीजी हंसी उड़ाते थे और जिसे शुद्ध लिखना भी न आता था, आज गोपियों में कन्हैया बना हुआ था। वाह रे भाग्य? मुवक्किल यों मुंह फेरे चले जाते हैं मानों किसी की जान-पहचान ही नहीं। दिन भर कचहरी की खाक छानने के बाद मुंशीजी घर चले, निराशा और चिंता में डूबे हुए। ज्यों-ज्यों घर के निकट आते थे, मूंगा का चित्र सामने आता जाता था। यहां तक कि जब घर का द्वार खोला और दो कुत्ते, जिन्हें रामगुलाम ने बंद कर रखा था, झपटकर बाहर निकले तो मुंशी के होश उड़ गए, एक चीख मारकर जमीन पर गिर पड़े।