Master Deendayal
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

अमरपुर गांव में मास्टर दीनदयाल जी अपने परिवार सहित रहते थे। वे उसी गांव के प्राइमरी स्कूल में अध्यापन कार्य करते थे। वे बहुत मेहनत, ईमानदारी व निष्ठा से छात्रों को पढ़ाते थे। समय-समय पर वे उन गरीब छात्रों की आर्थिक मदद भी कर देते थे जो स्कूल फीस देने या कॉपी-किताबें खरीदने में असमर्थ होते थे।

एक बार मास्टर दीनदयाल जी शहर गए हुए थे। जब वे गांव लौट रहे थे तो रास्ते में उन्होंने देखा कि एक छोटा बच्चा अपनी मां के साथ खेत में काम कर रहा है। उन्होंने मन ही मन सोचा कि इस छोटे से बच्चे को तो स्कूल में पढ़ना चाहिए था जबकि यह यहां खेत में काम कर रहा है।

वे वहां पहुंचे और उन्होंने उस महिला को अपना परिचय देते हुए बच्चे की मां से पूछा, “आप अपने बच्चे के साथ मिलकर यहां खेत में काम कर रही हैं। आप ने अपने बेटे का दाखिला स्कूल में क्यों नहीं करवाया? आप इसे पढ़ाओगी तो यह जिंदगी में कुछ कर सकेगा। नहीं तो सारी उम्र पछतावा ही रहेगा।”

“मास्टर जी आप ठीक कहते हैं। पर क्या करूं। हम बहुत गरीब हैं और रोटी कमाने के लिए दोनों ही, लोगों के घरों व खेतों में काम करते हैं।” महिला ने मास्टर जी को अपनी व्यथा सुनाते हुए यह भी बताया कि उसके पति का तीन साल पहले निधन हो गया है।

“मास्टर जी स्कूल में इस बच्चे को पढ़ाने में बहुत खर्च होगा। इसी बात को सोचकर मैंने इसे स्कूल में दाखिल नहीं करवाया। अब यह छह साल का होने वाला है।”

उस महिला की करुण व्यथा सुनकर, मास्टर दीनदयाल जी की आंखे भर आई थीं।

उन्होंने मन ही मन सोच लिया था कि वे इस बच्चे के भविष्य को संवारने के लिए दिन-रात एक कर देंगे।

मास्टर दीनदयाल जी ने उस महिला से कहा, “बहन जी, आप दो दिन के बाद इस बच्चे को लेकर अमरपुर स्कूल में आ जाना। वे उसका दाखिला वहीं करवा देंगे।”

दो दिन बाद महिला अपने बेटे संजीव को लेकर स्कूल पहुंच गई। वहां पर मास्टर जी ने संजीव का दाखिला पहली कक्षा में करवा दिया। फिर उन्होंने संजीव के लिए स्कूल ड्रैस, किताबें-कॉपियां व अन्य सामान खरीदा।

जब महिला घर जाने लगी तो उन्होंने कुछ रुपये उसे देते हुए कहा था कि अब घर के लिए राशन खरीद लेना और कल सुबह बेटे को छोड़ने के लिए स्कूल आना।

महिला का घर स्कूल से दो किलोमीटर दूर था। संजीव को उसकी मां स्कूल छोड़कर चली गई थी।

संजीव को उसकी कक्षा वाले सहपाठी ऐसे देख रहे थे मानो वह जंगल से आया हुआ कोई रीछ हो। क्योंकि एक तो उसका कद बड़ा था और दूसरे, उसने कई महीनों से अपने बालों की हजामत नहीं करवायी थी।

मास्टर दीनदयाल जी ने स्कूल के सभी शिक्षकों से विनम्र निवेदन किया था कि वे संजीव को एक होनहार छात्र बनाने में उसकी मदद करें।

उनके स्टाफ रूम से जाते ही सारे अध्यापकों ने मास्टर दीनदयाल जी का मजाक उड़ाते हुए कहा कि सारे समाज का ठेका तो इन्हीं ने ले रखा है। जब देखो तब, छात्रों से चिपके रहते हैं। अपनी जेब से पैसा खर्च करके छात्रों की मदद करते रहते हैं। और तो और, छात्रों की खातिर ये अपने परिवार की भी परवाह नहीं करते। निःशुल्क ट्यूशन पढ़ाने में इन साहब को आत्म संतुष्टि मिलती है।

मास्टर दीनदयाल जी इन बातों की जरा भी परवाह नहीं करते थे।

एक दिन जब वे पहली कक्षा को पढ़ा रहे थे तो उन्होंने देखा कि संजीव कॉपी पर कुछ लिख रहा है। जब उन्होंने उसकी कॉपी जांची तो पाया कि वो एक मकान का चित्र बनाने का प्रयास कर रहा है।

मास्टर जी समझ गए कि इसमें चित्रकारी करने का हुनर है। शाम को उन्होंने उसे ड्रॉइंग की एक कॉपी लाकर दी और उससे कहा कि वह इसमें हर रोज कुछ न कुछ जरूर बनाए।

उस दिन मास्टर जी उसे अपनी साइकिल से उसके घर छोड़ आए थे।

शुरू-शुरू में तो संजीव पढ़ाई में कमजोर था। अन्य शिक्षक नहीं चाहते थे कि मास्टर जी का यह चेला आगे बढ़े। इसलिए वे उससे अटपटे सवाल पूछते थे जिसका वो जवाब नहीं दे पाता था। और वह सभी छात्रों के बीच हंसी का पात्र बन जाता था।

मास्टर दीनदयाल जी की अथक मेहनत से संजीव ने अब पांचवीं कक्षा अच्छे अंकों में पास कर ली थी। उन्होंने ही उसका दाखिला सीनियर सेकेंडरी स्कूल में करवा दिया। एक बार जूनियर ड्रॉइंग कंपीटिशन में उसने प्रथम पुरस्कार जीतकर सबको चौंका दिया था। मास्टर दीनदयाल जी ने उसे खूब बधाई देते हुए 10 रुपये का नगद इनाम भी दिया था।

तब संजीव ने उनके पैर छूते हुए कहा था कि वह उनकी कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास करेगा।

जब बारहवीं की परीक्षा में उसने मेरिट में आठवां स्थान प्राप्त किया तो उसकी मां की आंखों से खुशी के आसू टपक पड़े थे। मास्टर दीनदयाल जी ने आग्रह किया कि अब वे संजीव को किसी अच्छे कॉलेज में ‘अचिंटेक्ट’ का डिग्री कोर्स करवाएं। संजीव को अब सरकार की ओर से स्कॉलरशिप भी मिलने लगी थी। एजुकेशन लोन लेकर संजीव अब अपनी आगे की पढ़ाई में जुट गया था।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के कुछ दिनों के बाद उसे एक अच्छी निजी कम्पनी में काम मिल गया था। वह बहुत मेहनत व लगन से काम करता था। जिसकी वजह से कम्पनी को बहत सारे प्रोजेक्ट मिलने लग पडे थे।

संजीव को जिस दिन पहला वेतन मिला वह अपनी मां को साथ लेकर मास्टर दीनदयाल जी के घर गया। उसने उनके लिए बहुत सारे उपहार खरीदे थे। जैसे ही दीनदयाल जी ने उसे देखा तो वे फूले नहीं समाए थे। उनकी अथक मेहनत से संजीव ने उनकी आंखों का संजोया हुआ सपना साकार कर दिया था।

मां कहने लगी, “आपने संजीव को नई जिंदगी दी है। आपके आशीर्वाद से ही ये सफल हो सका है।”

संजीव को कंपनी की ओर से अच्छा वेतन और रहने के लिए आवास मिला हुआ था। उसका सपना था कि वह गांव में अपने गुरुजी के पुराने मकान के साथ एक ऐसा होस्टल बनाए जहां पर लाइब्रेरी के साथ-साथ वहां ऐसे छात्रों को भी सुविधा मिल सके जो बहुत गरीब हों और वे पढ़ना चाहते हों। कुछ महीने बाद संजीव ने गुरु जी के मकान के साथ लगती जमीन पर होस्टल बनवा दिया। फिर उसने सरकार को एक खत लिखकर अपनी इच्छा व्यक्त की कि वह अमरपुर के प्राइमरी स्कूल के लिए एक लाइब्रेरी बनाना चाहता है, जहां बैठकर छोटे-छोटे बच्चे पढ़ सकें। वहां खाली पीरियड में कैरम बोर्ड, लूडो जैसी गेम खेल सकें। इसके लिए वह धनराशि व्यय करने के लिए तैयार है।

कुछ दिनों बाद सरकार की ओर से उसे इसकी अनुमति मिल गयी थी। उसने मास्टर दीनदयाल जी से मिलकर इस कार्य को पूरा किया और उन्हीं से इसका उद्घाटन करवाया। कल तक जो शिक्षक उसका मजाक उड़ाते थे, वे यह देखकर हैरान थे कि उस दीनदयाल जी के पढ़ाए छात्र ने बच्चों के मानसिक विकास के लिए बहुत अच्छी पहल की है।

कुछ दिनों बाद जब मास्टर दीनदयाल जी सेवानिवृत हो गए तो उनसे मिलने वे सभी छात्र आए जो अब ऊंचे-ऊंचे पदों पर सेवारत थे। ऐसे नायाब हीरों को मास्टर दीनदयाल जी ने तराशा था।

…आज इतने वर्षों बाद अखबार में मास्टर दीनदयाल जी के सम्मानित होने की खबर से दफ्तर में बैठे-बैठे ही संजीव को अपना गुजरा वक्त याद हो आया था।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’