masterji moral story
masterji moral story

प्रशांत को सबसे अच्छे लगते हैं मास्टर अयोध्यानाथ जी। उसके स्कूल जानकीदेवी हाईस्कूल में सबसे अलग और सीधे-सादे। पर उनकी बातों में कुछ ऐसा जादू है कि प्रशांत को लगता है, वह बस सुनता रहे, सुनता रहे।

उसे हैरानी होती है, कैसे मास्टर अयोध्यानाथ जी को सारी दुनिया की जानकारी है। और वे बताते इतने दिलचस्प अंदाज में हैं कि लगता है, सारी दुनिया का ज्ञान-विज्ञान उनके शब्दों से होकर हमारे भीतर समा रहा है। इसीलिए सिर्फ मास्टर अयोध्यानाथ जी का पीरियड ऐसा है कि कभी-कभी तो प्रशांत सोचने लगता हैं, ”क्या मास्टर अयोध्यानाथ जी पूरे आठ घंटे तक नहीं पढ़ा सकते? स्कूल शुरू होने से लेकर खत्म होने तक! तब तो स्कूल मेरे लिए ऐसी जगह हो जाएगी, जहाँ मैं दौड़-दौड़कर आऊँगा, ताकि मास्टर जी का एक शब्द भी मेरे कानों में पड़ने से छूट न जाए।”

असल में मास्टर अयोध्यानाथ जी जो बताते हैं, वह कोई और नहीं बताता। मास्टर अयोध्यानाथ जी ने ही एक दिन प्रशांत को बताया था कि जो थोड़ी सी खुशी भी दूसरों को नहीं बाँट सकता, उसके जीने और न जीने में कोई फर्क नहीं है।

और जब वे यह बता रहे थे, प्रशांत की आँखें नीची थीं।

प्रशांत को याद आ रहा था वह दिन, किसी चलचित्र की तरह। उस दिन उसने बड़ी अजीब सी शरारत की थी। मास्टर जी तब स्कूल में नए-नए आए थे। शायद पहला ही दिन था। वे जैसे ही क्लास में पढ़ाने के लिए आए थे, प्रशांत ने उनके सीधे-सादेपन और मोटी खादी के कुरते-पायजामे को देखकर अपने दोस्तों को इशारा कर दिया। वे बेंच में नीच मुँह छिपाकर एक साथ चिल्लाए, ”खद्दर मास्टर…खद्दर मास्टर!”

मास्टर अयोध्यानाथ जी तब एक क्षण के लिए अचकचाए थे। फिर हँस पड़े थे। बोले, ”वाह, खद्दर मास्टर! बहुत अच्छा नाम आप लोगों ने मुझे दिया है। जिसके दिमाग की यह सूझ हो, खड़ा होकर अपना नाम बताए। मैं उसे पुरस्कार दूँगा।”

सुनकर प्रशांत तो गुमसुम, जैसे उस पर घड़ों पानी पड़ गया हो। यही हाल उसके दोस्तों का था। पूरी क्लास को चुप देखकर मास्टर जी मुसकराए थे, ”नहीं-नहीं, बिलकुल डरिए नहीं। मैं सच कह रहा हूँ। पुरस्कार ही दूँगा, दंड नहीं।”

और फिर उन्होंने खुद ही अपने जीवन का वह प्रसंग बताया था, जब उन्होंने जीवन भर खद्दर धारण करने का संकल्प किया था। मास्टर जी उन दिनों कानपुर में थे और पढ़ाई कर रहे थे। वे हाईस्कूल के छात्र थे। लेकिन जब सुना कि गाँधी जी रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे हैं और वे कानपुर से होकर जाएँगे, तो उनका स्वागत करने के लिए पहुँच गए थे। वे जोर-जोर से मातृभूमि की स्वाधीनता के नारे लगा रहे थे। उस समय जाने क्या था कि उनके चेहरे पर, जिसने गाँधी जी के दिल को छू लिया। लिहाजा उस भीड़-भाड़ में भी गाँधी जी ने पास बुलाकर उनसे बातें की थीं और एक ही मूल मंत्र दिया था, ”आज से खादी के कपड़े पहनने का व्रत लो।” बस, तभी से न सिर्फ अयोध्यानाथ जी ने खादी के कपड़े पहनने का संकल्प ले लिया, बल्कि उनका पूरा जीवन ही बदल गया।

इस तरह की ढेरों बातें मास्टर जी ने पहले दिन ही बताई थीं। और प्रशांत को लगा था, मास्टर अयोध्यानाथ जी के शब्दों में जादू है। वे अपने शब्दों को सबको बाँध लेते हैं। उसी दिन पीरियड खत्म होने पर वह उनके पास गया था। शर्म से सिर नीचा करके बोला था, ”सॉरी सर…!” उसकी दोनों आँखों से आँसू बह रहे थे।

और मास्टर जी ने मुसकराते हुए उसके गाल थपथपा दिए थे। बोले थे, ”कुछ बनो प्रशांत! जीवन में कोई बड़ा काम करके दिखाओ तो मुझे खुशी होगी।”

तब से प्रशांत के हृदय में मास्टर अयोध्यानाथ जी की तसवीर हमेशा-हमेशा के लिए अंकित हो गई थी। कोई भी काम करता, तो उसके मन में यह सवाल आता—मास्टर अयोध्यानाथ जी क्या कहेंगे। वे इसे पसंद करेंगे या नहीं? अपने जीवन की छोटी से छोटी बात वह मास्टर जी को न बता लेता, तो उसे चैन ही न पड़ता। वह कभी-कभी कहा भी करता था, ”मास्टर जी, मेरे मन में तो अँधेरा था। आपने दीया जला दिया। अब तो सब ओर प्रकाश ही प्रकाश लगता है।”

यों एक-एक कर कई वर्ष बीत गए। प्रशांत अब बारहवीं कक्षा में पढ़ रहा था। लेकिन सप्ताह में कम से कम एक बार मास्टर जी के घर जाकर उनसे मिले बगैर उसे चैन नहीं पड़ता था। वे उसे हमेशा कला और वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उनकी पत्नी देवयानी भी उसे बहुत प्यार करती थीं और उसे वे अपनी माँ जैसी लगती थीं। उन्होंने ही उसे सिखाया था, ”जीवन का हर दिन त्योहार है। त्योहार माने सच्ची खुशी!”

प्रशांत ने इसे भी गाँठ बाँधकर रख लिया था।

आज दीवाली का दिन था। प्रशांत सुबह से ही खुशी-खुशी शाम के कार्यक्रम की तैयारियों में व्यस्त हो गया था। उसने इस बार दीवाली मनाने का अनोखा कार्यक्रम बनाया था। सभी मित्र एक जगह इकट्ठे होंगे। गपशप और चुहल होगी। गाने भी सुनाए जाएँगे। फिर सब एक साथ मिलकर पटाखे और फुलझड़ियां छुड़ाएँगे! प्रशांत ने मम्मी से कहकर अपने दोस्तों के लिए मिठाई का इंतजाम भी करा लिया था।

शाम होते ही प्रशांत के दोस्त धीरज, दीपक, पुनीत, विशाल और अरुण आ गए। प्रशांत का जोश और तैयारियाँ देखकर सब चकित थे।

प्रशांत ने अपने कमरे में एक गत्ते पर रंग-बिरंगे अक्षरों में ‘दीपावली स्वागतम्’ लिखकर टाँग दिया था। पूरे कमरे में गुब्बारे और रंग-बिरंगी झालरें झलमल-झलमल कर रही थीं। ऐसे में भला किसका गाने का मन न होता? सो धीरज ने एक प्यारा सा गीत सुनाया। विशाल और अरुण ने ढोलकी पर उसका साथ दिया।

पुनीत ने दीपावली पर एक प्यारा सा गीत लिखा था, ”दीए जलाओ रे!… दीए जलाओ रे!” उसने झूम-झूमकर अपना वही गीत गाया, जिसे सबने मिलकर दोहराया।

फिर सबने मिलकर खूब पटाखे और फुलझड़ियां छुड़ाईं। अनार, चकरी, राकेट और तरह-तरह की फुलझड़ियों की रँगारंग रोशनी और धूँ-धुम्म आवाजें। इनमें सभी की हँसी और कहकहे भी शामिल थे।

प्रशांत के दोस्त विदा हुए, तो वह भी उन्हें गली के मोड़ तक छोड़ने आया। अचानक उसका ध्यान मास्टर अयोध्यानाथ जी की ओर गया, ”अरे, आज मैं कैसे भूल गया? आज दीपावली का दिन है! मुझे मास्टर जी का आशीर्वाद लेने जाना चाहिए था।”

प्रशांत के कदम खुद-ब-खुद मास्टर अयोध्यानाथ जी के घर की ओर मुड़ गए। उनका घर गली के मोड़ पर ही था। प्रशांत ने देखा, वहाँ तो बिल्कुल अँधेरा है। एक भी दीया नहीं जल रहा।

”अरे! कहीं कुछ बात तो नहीं?” प्रशांत परेशान हो गया।

तेज कदमों से चलता हुआ वह मास्टर जी के घर आया। उसने देखा, मास्टर जी के घर का बाहर वाला दरवाजा थोड़ा सा खुला हुआ है। भीतर एक छोटा सा बल्ब जल रहा है। उस बल्ब की हलकी रोशनी कमरे में फैली हुई थी। एक ओर मास्टर जी चारपाई पर लेटे थे।

प्रशांत भीतर चला आया। मास्टर जी की चारपाई के पास खड़े होकर उसने देखा कि उनका चेहरा इतना पीला पड़ गया है कि पहचानना मुश्किल है। वे कमजोर भी बहुत लग रहे थे।

”मास्टर जी!” प्रशांत ने हौले से आवाज दी।

कोई उत्तर न पाकर उसने फिर दोहराया, ”मास्टर जी, मैं प्रशांत हूँ।”

मास्टर अयोध्यानाथ जी ने धीरे से आँखें खोलीं और प्रशांत को देखकर कहा, ”आओ बैठो, दीवाली अच्छी तरह से बनाई न!”

”हाँ मास्टर जी, पर आप…?”

”कुछ नहीं, थोड़ा बुखार है।” कहते-कहते मास्टर जी की साँस फूल गई।

प्रशांत मास्टर जी की आवाज और चेहरे से भाँप गया कि उनकी तबीयत काफी खराब है। उसने हाथ से छूकर देखा। मास्टर जी का बदन तप रहा था।

”मास्टर जी, आपको तो तेज बुखार है!” प्रशांत ने घबराकर कहा।

मास्टर जी ने दुख में भी चेहरे पर मुसकराहट लाते हुए कहा, ”हाँ बेटा, पर चिंता की कोई बात नहीं है। ठीक हो जाएगा।”

”पर घर में तो कोई और दिखाई नहीं पड़ रहा।” प्रशांत ने इधर-उधर नजरें दौड़ाकर कहा, ”आपकी सेवा कौन करेगा? मीनू और विपिन भैया कहाँ हैं?”

”वे लोग अपने नाना के यहाँ गए हैं। सभी वहाँ मिलकर दीवाली मनाएँगे। मुझे काम था, इसलिए यहीं रुक गया। पर इस बीच बुखार आ गया।” मास्टर जी ने मुसकराते हुए कहा।

”मास्टर जी, मैं अभी डाक्टर को बुलाकर लाता हूँ। आप चिंता न करें।’ प्रशांत ने उठते हुए कहा।

”रहने दे प्रशांत! मैं खुद सवेरे जाकर दिखा लूँगा। यों भी त्योहार है, किसे फुर्सत होगी?” मास्टर जी ने जबरन अपनी कराह को दबाया।

प्रशांत ने एक क्षण में अपना कर्तव्य तय कर लिया। उसने रूमाल भिगोकर ठंडे पानी की पट्टी मास्टर जी के माथे पर रखी। थोड़ी-थोड़ी देर बाद उसे बदलता और फिर पानी से भिगोकर ले आता।

मास्टर जी को कुछ आराम मिला, तो वह दौड़ा-दौड़ा गया। डॉक्टर भटनागर को बुला लाया। वे भले आदमी थे। और फिर मास्टर जी का नाम सुनकर भला कैसे न आते!

डॉक्टर भटनागर ने मास्टर जी की अच्छी तरह जाँच करने के बाद एक परचे पर दवा लिख दी। प्रशांत से कहा, ”तुम जाओ, मेरे दवाखाने से दवा ले आओ। तब तक मैं मास्टर जी के पास बैठता हूँ।”

प्रशांत दवा लेकर आया, तब तक मास्टर जी को कुछ आराम आ चुका था। दवा लेने के बाद उन्होंने कुछ और अच्छा महसूस किया।

डॉक्टर भटनागर के जाने के बाद प्रशांत ने देखा कि बरामदे में एक ओर कुछ दीए रखे हैं। रूई और तेल भी। शायद मास्टर जी दीए जलाना चाहते थे। पर कमजोरी के कारण जला नहीं पाए होंगे।

उसने पहले रूई की पतली-पतली बत्तियाँ बनाईं। फिर उन दीयों में तेल-बत्ती डालकर उन्हें जलाकर आँगन, देहरी और चबूतरों पर सजा दिया। मास्टर जी का घर जो अभी तक अँधेरे से घिरा हुआ था, अब रोशनी से जगमगाने लगा था।

रात बहुत हो चुकी थी। मास्टर जी ने खुशी से छलछलाती आँखों से प्रशांत को आशीर्वाद दिया और घर जाने के लिए कहा। बोले, ”अब मैं ठीक हूँ। बिल्कुल चिंता न करना।”

”कल मैं फिर आऊँगा मास्टर जी।” दोनों हाथ जोड़, मास्टर जी को प्रणाम करके प्रशांत घर की ओर चला। उसे लगा, उसके दिल में खुशी के अनेकों दीए एक साथ झिलमिला उठे हैं, जिनकी रोशनी कभी कम न होगी।