nanha sa khushshoo kharagosh Motivational story
nanha sa khushshoo kharagosh Motivational story

एक था कुक्कू। बहुत छोटा-सा। होगा कोई पाँच-छह बरस का। उसे घूमना पसंद था। पर अकेला भला उसे कौन जाने देता? छोटा-सा कसबा था मानपुर, जहाँ वह रहता था। घर में माँ, पिता, भाई- बहन सब थे। पर सबसे ज्यादा प्यार करती थीं माँ। एक बार की बात, कुक्कू की माँ तालाब पर कपड़े धोने के लिए जा रही थीं। कुक्कू बोला, “माँ-माँ, मैं भी साथ चलूँगा।” माँ बोलीं, “ठीक है कुक्कू, चल।”

माँ सिर पर कपड़े की बड़ी सी पोटली लिए आगे-आगे थीं और पीछे-पीछे कुक्कू चल रहा था। तालाब के पास पहुँचकर माँ ने कपड़ों की पोटली रख दी। जितनी देर माँ कपड़े धोती रहीं, कुक्कू आसपास के खेतों में दौड़ता, भागता, खेलता रहा। हलकी-हलकी सर्दियाँ शुरू हो गई थीं। आसपास वनफूलों की बहार थी। तालाब के चारों ओर झाड़ियों में खिले तुरही जैसे पीले-पीले फूल उसे भा गए। उन्हें देख-देखकर वह खुश होता। फूलों को तोड़ता और उनके साथ खेलता। कभी-कभी माँ कोई छोटा-मोटा कपड़ा सुखाने के लिए कहतीं, तो उसे सुखा देता। या फिर माँ को कोई चादर या बड़ा कपड़ा सुखाने में मदद करता। माँ बोलीं, “देख कुक्कू, इतने सारे कपड़े सूख रहे हैं।

इनका खयाल रखना। कहीं जाना मत, यहीं रहना।” कुक्कू सूख रहे उन कपड़ों के आसपास ही खेलने लगा, ताकि कपड़ों की निगरानी भी होती रहे। इतने में उसे दिखाई दी एक पुरानी – सी किताब। कुक्कू ने उठाकर देखा, वह बालपोथी थी, जैसी वह खुद भी क्लास में पढ़ता था। बालपोथी के पन्ने कहीं-कहीं फट गए थे। फिर भी साफ-साफ पढ़ा जा रहा था। कुक्कू हैरान होकर सोच रहा था, “अरे, यह बालपोथी कहाँ से आ गई? जरूर कोई और छोटा-सा बच्चा यहाँ कभी आया होगा। उसी की किताब यहाँ छूट गई।” “मैं इस किताब को पढ़कर यहीं वनफूलों की झाड़ी के पास रख जाऊँगा। वह बच्चा दोबारा आएगा, तो उसे यह मिल जाएगी।” उसने सोचा। फिर कुक्कू मजे से किताब पढ़ने लगा। क से कबूतर, ख से खरगोश, ग से गमला…! पढ़ते हुए वह थोड़ा जोर-जोर से बोल भी रहा था, ताकि उसका ध्यान इधर-उधर भटके नहीं। पर तभी उसे लगा, कोई चुपचाप आकर उसकी बगल में बैठ गया है और बड़े ध्यान से उसे देख रहा है। कुक्कू ने गरदन घुमाकर देखा, तो दिखलाई दिया नन्हा सा खुश्शू खरगोश। काली चित्तियों वाला, बड़ा ही सुंदर खरगोश। “मेरा नाम क्यों ले रहे थे?” खुश्शू खरगोश ने हँसते हुए कहा। “अरे, मैं तुम्हारा नाम थोड़े ही ले रहा था। मैं तो अपना पाठ याद कर रहा था, क से कबूतर, ख से खरगोश …! पता नहीं कौन बच्चा है, जो यह किताब छोड़ गया?” “पर यह तो मेरी किताब है। मैंने ही तो इसे छिपाकर रखा था झाड़ियों के बीच!” खुश्शू खरगोश बोला। “तुमने …? भला तुमने क्यों? क्या तुम्हें किताब पढ़नी आती है?” कुक्कू ने अचरज से भरकर पूछा। “आती नहीं है तो क्या हुआ, सीख जाऊँगा।” खुश्शू हँसकर बोला। “मगर…कैसे? मेरा मतलब तुम कैसे सीखोगे? तुम कोई मेरी तरह बच्चे थोड़े ही हो।” कुक्कू ने कहा। “तुम्हारी तरह नहीं हूँ तो क्या…? हूँ तो बच्चा ही। मेरे मम्मी-पापा भी हैं तुम्हारी तरह। यहीं झाड़ियों के पास है हमारा घर।” कहकर उसने दूर झाड़ी के पास वाले एक टीले की ओर इशारा किया। कुक्कू को हैरानी हुई। बोला,” तो क्या तुम थोड़ा-थोड़ा पढ़ लेते हो? क से कबूतर, ख से खरगोश…?” “सो तो नहीं, पर मैं तो चित्र देखता हूँ। चिड़िया का कबूतर का भालू का, हिरन और शेर का। बड़ा मजा आता है। मेरा तो यही पढ़ना है।” खुश्शू ने कहा। कुक्कू बोला, “अच्छा, तो कभी मेरे साथ स्कूल चलना। वहाँ भोलानाथ मास्टर जी हमें पढ़ाते हैं। बड़े अच्छे हैं।

उनके पास बड़ी सुंदर किताबें हैं, जिनमें शेर, हाथी, भालू, खरगोश के बड़े-बड़े चित्र हैं। वे जरूर कोई रंग-बिरंगे चित्रों वाली किताब तुम्हें देंगे। उसे पढ़ना। वह तुम्हें बहुत अच्छी लगेगी।” “ठीक है, कल मैं तुम्हारे साथ चलूँगा कुक्कू, जरूर चलूँगा।” खुश्शू खुश होकर बोला। कुक्कू को बड़ा अच्छा लगा। कपड़े सूखे तो खरगोश को बाय करके वह माँ के साथ घर चलने लगा। * अगले दिन कुक्कू कंधे पर बस्ता टाँगे स्कूल जाने के लिए घर से निकला। वह सोच रहा था, “अरे! खुश्शू खरगोश भी तो मेरे साथ स्कूल जाना चाहता था। पर पता नहीं, कहाँ होगा वह? काश, वह भी मेरे साथ स्कूल चलता, तो कितना मजा आता!” अभी वह यह सोच ही रहा था कि एक महीन – सी आवाज सुनाई दी, “सुनो कुक्कू, सुनो! मैं यहाँ हूँ।” कुक्कू बड़ा हैरान था। सचमुच खरगोश उसके पैरों के पास ही खड़ा था और अब वह उछलता-कूदता, फुदकता हुआ साथ चल रहा था। कभी-कभी कोई कुत्ता तंग करता तो वह तेजी से आगे दौड़ लगा देता। थोड़ी देर में कुक्कू के साथ खरगोश भी स्कूल पहुँचा तो देखकर सब हैरान रह गए, “अरे, यह क्या?” भोलानाथ मास्टर जी भी बड़े अचंभे से देख रहे थे। “मास्टर जी, यह खुश्शू खरगोश है।” कुक्कू ने बताया, “खुश्शू कह रहा था कि मैं भी पढूँगा। कल मैं माँ के साथ तालाब पर गया, तो वहाँ यह मिला और हमारी दोस्ती हो गई। वहीं मुझे इसकी बालपोथी भी मिली। खुश्शू खरगोश उसमें जानवरों के चित्र देखता है।” सुनकर मास्टर भोलानाथ जी को हँसी आ गई। उन्होंने खुश्शू से कहा, “तुम सामने वाली डेस्क पर बैठ जाओ। इसलिए कि तुम बिल्कुल छोटे-से हो। नीचे बैठोगे तो किसी को दिखाई नहीं दोगे।” खुश्शू खरगोश फौरन उछला और ऊपर डेस्क पर जाकर बैठ गया। सब देख रहे थे और हँस रहे थे। खुश्शू खरगोश भी इतने सारे बच्चों के बीच बड़ा खुश था। मास्टर जी ने खुश्शू की बालपोथी देखी तो बोले, “अरे, मुझे पता नहीं था, तुम पढ़ भी सकते हो। मैं तुम्हें दूसरी किताब दूँगा। उसमें बड़े-बड़े रंगीन चित्र हैं। तुम्हें अच्छी लगेगी। जब तक मन हो, आराम से पढ़ते रहो।” कहकर मास्टर जी ने अलमारी में से एक सुंदर-सी, रंग-बिरंगी किताब निकालकर खुश्शू को दी। फिर क्लास में बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। खुश्शू खरगोश भी ध्यान से मास्टर जी की बातें सुनता रहा। बीच-बीच में शेर, हाथी, हिरन, भालू के बड़े-बड़े चित्र देखने में मगन हो जाता। देखते-देखते चौंकता, फिर अचानक जोर से हँस पड़ता। सारी क्लास का खूब मनोरंजन हो रहा था। इंटरवल हुआ तो सब बच्चे बाहर खेलने के लिए जाने लगे। मास्टर जी बोले, “अभी आधी छुट्टी हुई है। खुश्शू, चाहो तो तुम भी बच्चों के साथ खेलो।” सब बच्चे खुश। खुश्शू भी। वह जोश में सबके साथ खूब भाग-दौड़, उछल-कूद करने लगा। बात की बात में उसने एक से बढ़कर एक कमाल दिखाए। एक-दो तो बिल्कुल सर्कस वाले तमाशे। इनमें चकरी की तरह हवा में गोल-गोल घूमने वाला खेल तो गजब का था। पता नहीं, कहाँ से सीख लिए ये सर्कस वाले अजब खेल-तमाशे इसने? सोच-सोचकर कुक्कू हैरान। फिर स्कूल के बड़े वाले मैदान में बच्चों के साथ खुश्शू की खूब लंबी रेस हुई। खुश्शू ऐसे दौड़ा कि जैसे पैरों में बिजली हो। बच्चे कहने लगे, “अरे, राम – राम! यह तो पूरा जादूगर है। हम भला इससे कैसे जीतेंगे?” बीच-बीच में मौज में आकर वह कलामुंडियाँ भी खाने लगता। कभी फिरकी की तरह नाचता। देखकर सभी हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। और सचमुच थोड़ी ही देर में खुश्शू खरगोश ने रेस जीत ली। सब बच्चे जोर-जोर से तालियाँ बजा रहे थे और वाह वाह कर रहे थे। एक लंबे कद वाले लड़के रामू भोला ने उसे कंधे पर बैठाया और मैदान में खुश्शू खरगोश का जुलूस निकलने लगा। सारे बच्चे ‘खुश्शू जिंदाबाद!’ के नारे लगा रहे थे। तभी खुश्शू खरगोश को मम्मी-पापा की याद आई। सोचने लगा, ‘अरे, मैं उन्हें बताकर तो आया नहीं। वे जरूर मुझे ढूँढ़कर परेशान हो रहे होंगे।’ सोचकर खुश्शू कूदा तो बच्चे हैरान, “अरे-अरे, अचानक खुश्शू को क्या हुआ?” मगर खुश्शू तो दौड़ता जा रहा था। तेजी से दौड़ता – दौड़ता वह पहुँचा मास्टर भोलानाथ जी के पास। बोला, “मास्टर जी, मैं तो भूल ही गया। मेरे मम्मी-पापा मुझे तालाब के पास ही ढूँढ़ रहे होंगे। बहुत परेशान होंगे। मुझसे गलती हुई, उन्हें बताकर आना चाहिए था।” कहकर खुश्शू ने घर जाने की इजाजत माँगी। मास्टर जी बोले, “खुश्शू, यह चित्रों वाली किताब तुम अपने साथ ले जाओ। वैसे भी आज तुमने इतने कमाल दिखाए हैं कि तुम्हें इनाम तो मिलना ही चाहिए। यह सुंदर किताब ही तुम्हारा इनाम है। इसे घर पर आराम से पढ़ना। जब पढ़ लो तो मैं दूसरी किताब दूँगा। जब भी तुम्हारा मन करे, स्कूल आ जाया करो। तुम्हें यहाँ आने से कोई नहीं रोकेगा।” खुश्शू खरगोश ने खुश होकर कहा, “अच्छा मास्टर जी।” उसने किताब ली। फिर कुक्कू और सब बच्चों से विदा लेकर घर की ओर सरपट दौड़ लगा दी। ऐसा लग रहा था कि स्कूल आने की खुशी में खुश्शू के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे। मास्टर भोलानाथ जी, कुक्कू और सब बच्चे बड़ी हैरानी से उसे देख रहे थे और हाथ हिलाकर ‘बाय’ कह रहे थे।