Kids story in hindi: कम्मो दीदी रोज सुबह-सुबह तैयार होकर, कंधे पर बस्ता टाँग स्कूल क जाती, तो कुक्क अचरज से आँखें फाड़े देखा करता था। कम्मो दीदी को हँसी आ जाती। कहती, “तू भी बिल्कुल बुद्धू है कुक्कू! पता नहीं, मैं स्कूल जा रही हूँ, स्कूल? पढ़ने के लिए। इसमें इतना हैरान होने की क्या बात है?”
पर कितना ही दिमाग लगाए कुक्कू, उसकी समझ में ही नहीं आता था कि स्कूल क्या चीज है। वहाँ कैसे पढ़ते हैं?
एक दिन कम्मो दीदी ने खेल-खेल में ही पूछ लिया, “अच्छा कुक्कू, तू भी स्कूल जाएगा मेरे साथ?” और कुक्कू ने बगैर सोचे, खेल-खेल में ही जवाब दिया, “हाँ-हाँ दीदी, जरूर।”
तब कुक्कू को स्कूल का कुछ पता नहीं था। बस, इतना पता था कि कम्मो दीदी ने जब से स्कूल जाना शुरू किया था, वह दिन भर सहेलियों के आगे अपने स्कूल के किस्से सुनाती रहती है। और इधर तो उसका हर किस्सा स्कूल से शुरू होकर स्कूल पर ही खत्म होता था, जिसमें कभी मास्टर जी की बात चलती, तो कभी सुंदर-सुंदर रंग-बिरंगी किताबों की, जिनमें शेर, हाथी, भालू, हिरन, खरगोश और न जाने कौन-कौन से जानवर बने होते थे।
कुक्कू कम्मो दीदी की बातें सुनता था बड़े अचरज से मुँह बाए और कभी-कभी खुशी के मारे “हैं …!” कहकर जोर की ताली बजा देता। सब हँसने लगते। कहते, “कम्मो, लगता है कुक्कू को तो तेरा स्कूल कुछ ज्यादा ही पसंद आ गया है। तू इसे अपने साथ क्यों नहीं ले जाती?”
सुनकर कम्मो के दिमाग में भी आइडिया आया, “हाँ सचमुच, कुक्कू भी चले तो कितना मजा आएगा। दोनों एक साथ जाया करेंगे काली तख्तियाँ चमकाकर…!”
उसने कुक्कू से पूछा और कुक्कू उत्साह में आकर झटपट बोला, “चलूँगा, चलूँगा कम्मो दीदी!”
उसी दिन कम्मो दीदी ने बलराम भैया से पूछा तो वे बेफिक्री से बोले, “ठीक है, नाम लिखवा देंगे अगले हफ्ते।”
“पर यह तो कल से ही जाने के लिए बोल रहा है भैया।”
“तो ठीक है, कल ले जा। हैडमास्टर जी से कह देना कि हमारे भैया दो-चार रोज बाद आकर नाम लिखवा देंगे। बोल देना, मैं बलराम की बहन हूँ। वे कुछ नहीं कहेंगे।”
“ठीक है।” कम्मो दीदी बोली।
उसे पता था, हैडमास्टर बाँकेबिहारीजी भैया को अच्छी तरह जानते हैं। कैसे न जानेंगे? कुछ साल स्कूल में पहले पढ़ते थे तो इतने होशियार थे कि हमेशा फर्स्ट आते थे।
कम्मो दीदी कुक्कू को हैडमास्टर जी के पास ले गई, तो वे हँसकर बोले, “अरे, यह तो बड़ा हँसमुख बच्चा है। क्या बिटर-बिटर देख रहा है मुझे!” फिर बोले, “कम्मो, तुम खुद जाकर इसे कच्ची वाली क्लास में बैठा दो। वहाँ तिवारी मास्टर जी होंगे, बड़े से चश्मे वाले। कहना, हैडमास्टर जी ने भेजा है।”
कम्मो ने कुक्कू को पहले तो अपनी क्लास दिखा दी। फिर उसे कच्ची वाली क्लास में बैठा आई, जहाँ तिवारी मास्टर जी हँस-हँसकर गोगी खरगोशनी की कहानी सुना रहे थे। कुक्कू डरा-झिझका हुआ-सा क्लास में सबसे पीछे पट्टी पर बैठा था। मजे में वह भी कहानी सुनने लगा।
साथ ही तिवारीजी के चेहरे को भी वह ध्यान से देख रहा था। लंबे, दुबले और प्यारे-से तिवारी जी। आँख पर भारी-सा चश्मा। बड़ी-बड़ी मूँछें। तिवारीजी बात-बात पर हँसते थे तो साथ ही उनकी मूँछें भी हँसती थीं, चश्मा भी हँसता था।
कहानी खत्म होने पर तिवारीजी ने कुक्कू को पास बुलाया। फिर हँसते हुए पूछा, “ओहो, तुम तो अभी बहुत छोटे-से हो। तुम्हारा नाम क्या है?”
कुक्कू को इतना पता था कि घर में उससे सब कुक्कू बुलाते हैं। तो फिर यही तो उसका नाम हुआ। लिहाजा उसने जवाब दिया, “कुक्कू…!”
“क्या?” मास्टर जी ने अजब-सा मुँह बनाकर कहा, “घुग्घू…?”
इस पर कुक्कू ने उनकी गलतफहमी दूर करने के लिए और भी जोर से चिल्लाकर कहा, “घुग्घू नहीं मास्टर जी, कुक्कू, कुक्कू…!!”
“क्या कहा, घुग्घू…?” मास्टर जी ने फिर पूछा। हँसते-हँसते। इस बार उनकी मूँछें भी फुरफुरा रही थीं।
अब तो कुक्कू का धैर्य जवाब दे गया। वह दौड़ा-दौड़ा गया और अपनी कम्मो दीदी को बुला लाया, जो कक्षा दो में पढ़ती थी। बोला, “कम्मो दीदी, ये मास्टर जी मेरा नाम पूछ रहे हैं। जरा बता दो।”
कम्मो दीदी कुक्कू से दो साल बड़ी थी। तो जानती थी कि घर में सब कुक्कू कहकर बुलाते हैं, पर असली नाम तो चंद्रप्रकाश है। उसने कहा, “मास्टर जी, इसका स्कूल वाला नाम है, चंद्रप्रकाश।”
इस पर तिवारी मास्टर जी पहले की ही तरह अपने होंठों को खूब फैलाकर बोले, “चंटपरकास…!!” चश्मे से झाँकती उनकी आँखों में बड़ी शरारती हँसी थी।
कम्मो दीदी जितनी बार भी कहती, “नहीं मास्टर जी, चंट परकास नहीं, चंद्रप्रकाश…!” उतनी बार मास्टर जी मुँह फैलाकर हँसते हुए कहते, “क्या कहा, चंट परकास? पर यह तो जरा भी चंट नहीं लगता!”
फिर आखिर में बोले, “अच्छा भाई अच्छा, समझ गया! कुक्कू… कुक्कू, कुक्कू माने चंद्रप्रकाश।”
इस पर कम्मो दीदी ही नहीं, क्लास के बच्चे भी हँसे, कुक्कू भी। कुक्कू को तिवारी मास्टर जी की बाँकी अदा भा गई। उस दिन घर जाकर उसने मम्मी-पापा और बलराम भैया को बताया, तो वे भी हँसे।
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कुक्कू समझ गया कि तिवारी मास्टर जी मुझे बहुत प्यार करते हैं। जो कुछ मास्टर जी पढ़ाते, वह झट से याद कर लेता। क कबूतर, ख खरगोश। गिनती भी। फिर वह सुनाता, तो मास्टर जी हँसकर कहते, “शाबाश!” साथ ही वे प्यार से गिनती और क, ख, ग लिखना भी सिखाते। थोड़े ही दिनों में कुक्कू बीस तक गिनती भी सीख गया। दो का पहाड़ा भी।
कुक्कू को स्कूल अच्छा लगने लगा और सबसे अच्छे लगते चश्मे वाले मास्टर जी। वे हँसते हुए पढ़ाते थे। सब कुछ बड़ी जल्दी याद हो जाता था। फिर वे रोज एक कहानी सुनाते, कविता भी याद कराते।
कुछ समय बीता, अब कुक्कू तरक्की पाकर पहली क्लास में पहुँच गया था। पता चला, अब चश्मे वाले तिवारी मास्टर जी नहीं पढ़ाएँगे। भोलानाथ मास्टर जी पढ़ाएँगे। थोड़े गुस्से वाले भोलानाथ मास्टर जी। कुक्कू को उनसे डर लगता था।
कभी-कभी तिवारीजी कुक्कू की क्लास में आकर पूछ लेते, “अरे कुक्कू, तुम्हारे क्या हाल हैं? खुश हो ना बच्चे। कोई मुश्किल तो नहीं?”
पर कुक्कू तो सचमुच मुसीबत में पड़ गया था। मगर समझ में नहीं आता था, किससे कहे? असल में ये जो दूसरे वाले भोलानाथ मास्टर जी आए थे, बिल्कुल हँसते ही नहीं थे। बच्चों से ज्यादा बात भी नहीं करते थे। तो फिर कुक्कू को भला पाठ कैसे समझ में आए? कैसे गिनती और पहाड़े याद हों? बल्कि जो याद था, वह भी भूल जाता।
भोलानाथ मास्टर जी गुस्से से घूरते। कहते, “अरे, कल तो दो का पहाड़ा सुनाया था तुमने, आज कैसे भूल गए? यह तो बुरी बात है। जल्दी सुनाओ, नहीं तो पिटाई होगी।”
सुनकर कुक्कू चुप। आँखों में आँसू आ जाते। उसे खुद पता नहीं था, वह कैसे भूलने लगा है।
एक बार भोलानाथ मास्टर जी को ज्यादा गुस्सा आ गया। बोले, “अच्छा खड़े हो जाओ दीवार के साथ। मेरे साथ-साथ जोर से दो का पहाड़ा बोलो, तब याद होगा।”
कुक्कू जोर-जोर से दो- एकम-दो, दो-दूनी-चार बोल रहा था, तभी तिवारी मास्टर जी वहाँ से निकले। कुक्कू को खड़ा देखा तो चौंके। पास आकर बोले, “अरे, यह हमारा प्यारा खरगोश कुक्कू खड़ा क्यों है? कुक्कू! क्यों परेशान है भाई?”
भोलानाथ मास्टर जी शिकायती चेहरा बनाकर बोले, “इसे तो कुछ याद ही नहीं होता। कितने दिन हो गए, दो का पहाड़ा ही याद नहीं हो पा रहा।”
तिवारी मास्टर जी एक पल के लिए हैरान हुए। फिर हँसकर बोले, “ओहो, आपने ठीक से याद नहीं कराया होगा। आप गुस्से में तो नहीं बोले थे? मैं तो हँसकर पढ़ाता था तो फट फट सुना दिया करता था, क्लास में सबसे पहले!”
फिर कुक्कू . से बोले, “अरे कुक्कू, जरा मेरे सामने सुनाओ तो सही। मैंने तुम्हें याद कराया था न!” तिवारी मास्टर जी की चश्मे के पीछे से झाँकती निगाहें। उनमें मीठी-सी हँसी थी।
साथ ही उनकी मूँछें फुरफुरा रही थीं, जैसे कह रही हों, “देखना, अभी सुनाएगा कुक्कू, अभी सुनाएगा।”
सामने चश्मे वाले तिवारी मास्टर जी को देखा तो कुक्कू का तो डर एकदम खत्म। जो कुछ भूला था, वह याद आ गया। उसने झटपट पूरा पहाड़ा सुना दिया।
देखकर तिवारी मास्टर जी बोले, “देखो ना, इसे तो याद है, पूरा याद है। आपने गुस्सा किया तो भूल गया।”
यही बात तो कुक्कू कहना चाहता था भोलानाथ मास्टर जी से, पर कह नहीं पा रहा था। पर तिवारीजी ने कह दी।
अब भोलानाथ मास्टर जी अचकचाए। फिर एकाएक हँसकर बोले, “अरे तिवारीजी, यह तो चमत्कार कर दिया आपने। मुझे इसका पता ही नहीं था। सोचता था, थोड़े शैतान बच्चे हैं, शोर न करें, इसलिए डाँटना चाहिए। पर लगता है, कुछ गड़बड़ हो गई…!”
“शैतान…? अरे, ये तो छोटे-छोटे खरगोश हैं, खरगोश। कुक्कू खरगोश, मोहना खरगोश, माधव खरगोश, राधा खरगोशनी …! इनको तो आप बस, हँसाते रहो। खेल-खेल में खुद ही सब कुछ सीख जाएँगे।”
सुनकर भोलानाथ मास्टर जी जोर से हँसने लगे। हँसते-हँसते बोले, “पर अब आप जैसी हँसी कहाँ से लाऊँ तिवारी जी?”
तिवारी जी और भी जोर से हँसकर बोले, “बच्चों से प्यार करो, तो हँसी भी बच्चों जैसी बन जाती है। अरे भई, ये सारे के सारे बच्चे तो हँसी के गुब्बारे हैं।”
सुनकर तिवारी मास्टर जी के साथ-साथ भोलानाथ मास्टर जी, कुक्कू और क्लास के सब बच्चे भी हँसने लगे थे।
कुछ दिन पहले कुक्कू सोच रहा था, किसी तरह भोलानाथ मास्टर जी चले जाएँ। फिर से चश्मे वाले तिवारी मास्टर जी पढ़ाने लगें, तो मजा आ जाए। पर अब तो भोलानाथ भी तिवारी मास्टर जी बन गए थे। कुक्कू को अब सारे पाठ झटपट याद होने लगे थे।
ये कहानी ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – 21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)
