bhakti ki kahani
bhakti ki kahani

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

सांझ होते ही दादी अपने मोहल्ले के छोटे बड़े बच्चों को पास बिठाकर बहुत ही रंगीन मिजाज के साथ कहानी सुनाती थी। बच्चे शाम होने की राह देखते, जैसे चातक पक्षी प्यास बुझाने के लिए सावन की पहली बूंद का इंतजार करता है, उसी तरह सभी बच्चे कहानी सुनने के लिए दादी की राह तकते। दादी भी दिन भर के कामकाज को निपटा कर राह में पड़े पत्थरों से लड़खड़ाते हुए लाठी के सहारे आखिर कट्टे तक पहुंच ही जाती और बच्चों को बड़ा आनंद होता। दादी अपने चेहरे के हाव-भाव से अनेक पात्रों को गढ़ती और हाथों के अभिनय से ऐसे संदर्भो को जोड़कर उनके समक्ष खड़ा कर देती मानो सारे किरदार उनके हाथ की कठपुतली हो।

देवता-दैत्य, सांप-नेवला, चोर-डाकू, भूत-प्रेत, राजा-रानी की कहानियाँ सभी बच्चों को भा जाती। दादी ने पूछा कल की कहानी पसंद आई सबको, मोहन्या ने कहा, हूं दादी, गरीब लड़की राजा की रानी बन गई, बड़ा अच्छा लगा। आज मैं तुम्हें, बीच में ही चंदर ने कहा, दादी तुम भक्ति की, नीति की कहानी सुनाओ न, दादी कुछ क्षण स्तब्ध हो गई, फिर कुछ समय बाद चंदर से कहा, चंदर मैं आज तक यही समझती आयी थी कि बच्चे हैं उनका थोड़ा-सा मनोरंजन करूं, और बुढ़ापे में सब बच्चों के साथ वक्त गुजारकर मैं भी सुकून के चन्द पल जी लूं, आज तो गजब हो गया, भक्ति के मार्ग की ओर रुख करने की अभिलाषा ने भक्ति से जुड़े हुए वे अनेक संदर्भ चंदर के जरिए फिर से स्मृति में आ खड़े हुए।

दादी ने पुलकित होकर कहा, वाह बेटा! कितनी अच्छी बात है, कल मैं चंदर के साथ-साथ सभी बच्चों को लेकर भक्ति की विशाल परिक्रमा करवाऊंगी। तुम ठीक समय पर कट्टे पर इकट्ठा हो जाना हं, चंदर ने धीरे से कहा, हं दादी, शाम को सही, दूसरे दिन संध्या के धुंधलके के बीच घासलेट का टिमटिमाता दीया अपने ही उफान पर था और चंदर भी हल्की-सी रोशनी में दादी के चेहरे पर नजर टिकाए बैठा था, दादी चुप क्यों हैं? बोल क्यों नहीं रही? दादी के किस्सों के पिटारे में से आज कौन-सी नयी कहानी निकलेगी? एक सन्नाटा-सा छा गया, अचानक ही सिरप्या ने कहा, दादी सुनाओ न कहानी? पास बैठी गंगी ने भी धीरे से कहा, शुरू कर दो न दादी? बहुत देर तक चुप रही चंदी भी बुदबुदाने लगी, सारे के सारे खुसर-पुसर करने लगे, फिर भी दादी शांत, कहीं खोई हुई थी, नंदू ने दादी की ओर इशारा करते हुए कहा, उधर देखो, दादी की ओर, कहानी याद कर रही है शायद? भीम्मण्णा ने कहा, चुप! कल्ला, मल्ला, नागू केरा, धोंडया, लक्षी सब के सब चुप बैठ जाओ, अब कहीं से भी आवाज आयी, तुम्हारी खैर नहीं, समझे?

दादी ने बच्चों के कुतूहल भरे इंतजार को लंबा न खींचते हुए कहा, यह कहानी बहुत पुरानी है, मेरे दादा, उनके दादा से, दादा के दादा, परदादा के दादा, अनेक पीढ़ियों की कड़ी से जुड़ी है ये कहानी। बीच में ही मल्ला ने दादी से पूछा, दादी, परदादा के दादा से तुमने ये कहानी सुनी थी?

लो, कर लो बात, अक्ल की कच्ची? तब तो मैं पैदा भी नहीं हुई थी? पीढ़ी दर पीढ़ी ये कहानी कहते और सुनते आए हैं, मौल्या ने जिज्ञासु आंखें उठाई, मुँह में उंगली दबाएं रसिका शांत चित्त से बैठी दादी को निहारने लगी। जब मैं तुम्हारी उम्र की थी, कहानी सुनने का चस्का मुझे भी था। स्मरण करते हुए कहा, ये लगभग..अं–कुछ धुंधला-सा याद आ रहा है, ये.. कोई.. हं, ये लगभग तेरह सौ पचपन से आरंभ हुई भक्ति की ये परंपरा आज भी प्रवाह रुप में हुल्ल्याळ गाँव में कायम है। दादी सुनी-सुनाई कथा को इस कदर कह रही थी कि हर मिथक तथा तथ्य की वह गवाह रही हो। एक-एक वाक् सुनाते वक्त सुख और हर्ष उसके चेहरे के आभूषण बनकर उनके ढंग की मानो वकालत करने ठहर गए हो, किस्सागोई में माहिर दादी हमें अतीत की सैर करवाने लेकर निकल पड़ी और हम भी जिज्ञासा पाले हुए हमसफर बनने को तैयार हुए।

दादी ने मंदस्मित करते हुए कहा, भक्ति हृदय हर एक का होना चाहिए, भगवान से साक्षात्कार कराने का रास्ता है भक्ति, यहाँ मन को सुकून मिलता है, दुःख-दर्द नष्ट होते हैं, सुख समाधान के द्वार खुलते हैं, यहाँ से कोई भी रीता हाथ नहीं जाता. उनकी कपा सब पर बराबर रहती है. बस. कर्म तथा मार्ग. पवित्र एवं सरल होने चाहिए। इस मार्ग पर चलने वाला साधारण-सा मनुष्य भी असाधारण की कोटि में स्थान प्राप्त कर सकता है। ऐसे ही साधारण व्यक्ति से असाधारण रूप में अपने अस्तित्व को बनाए रखने की गजब की भक्ति रही है।

उत्तर कर्नाटक का इलाका भक्ति भाव में विभोर, जो अपनी ही सुंदरता एवं गुणों से युक्त था, यहाँ की संस्कृति एवं सभ्यता सभी भक्तों के लिए एक मिसाल बनी हुई है, घर के हर कोने-कोने में भक्ति के ओ रंग बिखरे हुए मिलेंगे, इस भू-भाग में भक्ति और श्रद्धा के फूल समय के अनुरूप खिलते नजर आते हैं। इसकी खुशबू से जिला बीदर के औराद तालुका के देवसंगम से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित छोटा-सा चांदोरी गाँव जहाँ घाळप्पा महाराज वास करते थे, महक उठा।

गरीब परिवार में जन्मे घाळप्पा महाराज को भक्ति के संस्कार उनके घर से ही मिले थे, भक्ति में मग्न रहे घाळप्पा महाराज एक गाँव से दूसरे गाँव भ्रमण करते थे. भजन कीर्तन के माध्यम से समाज प्रबोधन करते हुए अलमट्टी से पांच किलोमीटर दूरी पर स्थित ‘सीतेमनी मठ’ पहुँचे, जो घाळप्पा महाराज का गुरु घर था। यहाँ उन्होंने अपने गुरु से दीक्षा ली और कर्मभूमि चांदोरी लौट आए। वे श्री सदगुरु हुच्च बसवेश्वर के भक्त बन गये। भोर में उठकर स्नानादि कर, माथे पर इबिती लगाकर सूर्य देवता को जल अर्पण कर, नंदी और शिवपिंड की पूजा कर, लंबे समय तक ध्यान में व्यस्त रहते थे और सारे मानव जाति के कल्याण की कामना करते थे। भक्ति और नीति उनके अपने साधन थे, इसी को ही गुरु मंत्र के रूप में स्वीकार कर भक्ति के उन्नत शिखर को छू लिया था।

भक्ति का यह प्रवाह आगे बढ़ाने के लिए अपने शिष्य महार बसप्पा को उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त कर अपनी जन्मभूमि हुल्ल्याळ चले गये।

बसप्पा महाराज भी अपने गुरु घाळप्पा महाराज के उपदेशों का अनुसरण मन से करते थे। इनकी अपनी आराधना की खूबसूरती विशिष्ट थी, नंदी तथा शिव पिंड की पूजा बड़े ही भक्ति भाव से करते थे। बाराबंदी वस्त्र धारण कर अपने घोड़े पर सवार होकर खेत-खलिहानों की सैर करते थे। बसप्पा महाराज जो कुछ कहते वह सही साबित होता था। एक दिन बसप्पा महाराज अपने शिष्यों को धर्म, नीति, व्यवहार एवं आचरण पर उपदेश दे रहे थे, उन्होंने कहा, हर मनुष्य का आचरण शुद्ध एवं पवित्र होना चाहिए। भक्ति एवं अध्यात्म का अनसरण सभी के जीवन में अत्यावश्यक है। नैतिकता एवं आदर्श मानवता के दो स्तंभ है, इसके फलस्वरूप ही समाज सुधार की संभावना बढ़ती है। यह युग भक्ति एवं अध्यात्म से बंधा हुआ है, आगे तुम देखों, भक्ति के गढ़ ढह जाएंगे और यंत्रों के युग की ओर हम रुख करेंगे। बसप्पा महाराज ने कहा था कि माचिस की डिबिया इतना यंत्र बनेगा और लोग अपने आप से बात करते हुए इधर से उधर घूम रहे होंगे। ये बातें तब शायद सभी को चमत्कारी लगे या निरर्थक लेकिन आज दूरभाष यंत्र के कारण बसप्पा महाराज की वाणी सत्य साबित हो गई है।

बच्चों तुमने घोड़े और चील को देखा है, वहां बैठे बच्चों ने सकारात्मक सिर हिलाया, तो बताओ घोड़ा और चील कैसे चलते है? रघु ने कहा, दादी तू गलत सवाल कर रही है? घोड़ा चलता है चीन नहीं चलती हैं, अब तक तुमने नहीं देखा, नहीं तो? बताओ रघु, घोड़ा तेज दौड़ता है और चील आसमान में उड़ती है। हं, ये हुई न बात। बसप्पा महाराज ने कहा था कि घोड़े से भी तेज दौड़नेवाला यंत्र बनेगा और उसमें सैंकड़ों लोग बैठेंगे, तब सभी आश्चर्य चकित हो गये थे, लेकिन आज रेल सैंकड़ों लोगों को बिठाकर पटरी पर तेज दौड़ती-भागती है। बच्चों के चेहरे खिल गए, सवाल कुछ नहीं, पर सच्चाई देख-सुन दंग रह गए। चील का नाम लेते ही वसु ने कहा, दादी चील चलती नहीं उड़ती हैं, आसमान में उड़ते हुए मैंने देखा है, बहुत ऊपर उड़ती है, अच्छा, तू भी उड़ना चाहती है वसु, नहीं, मेरे पर कहाँ है? अगर होते तो मैं असमान को, नन्हें नन्हें तारों को मन भर के देखते ही रहती, कितना मजा आता। अब मैं तुम्हें बैठे-बैठे चील के साथ सैर करवाऊंगी, समझी वसु, हां दादी, देखो, चील आकाश को छूने की जिद्द पालती है, उसी के अनरूप अपने पंखों की गति को तेज कर आकाश में उडान भरती हैं. बच्चों, बसप्पा महाराज ने कहा था कि एक दिन ऐसा यंत्र बनेगा जिसमें बहुत सारे लोग बैठेंगे और चील की तरह आकाश में उड़ते हुए अपने मुकाम तक पहुंच जाएंगे, झिंगरा ने कहा, दादी सच, बसप्पा महाराज ने ऐसा भी कहा था? हां, मेरे दादा ने ऐसे ही सुनाया था और आज एरोप्लेन के संशोधन से बसप्पा महाराज की वाणी फिर एक बार सत्य साबित हुई।

फिर आगे क्या हुआ दादी? आगे क्या? फिर एक नया किस्सा, रोज की तरह बसप्पा महाराज अपने घोड़े पर सवार होकर निकले थे, तेज धूप के कारण छायादार वृक्ष के नीचे घोड़े को बांध दिया और विश्राम करने लगे, पवन के ठंडे झोंके से महाराज की आंख लगी, जब वे जगे, तब अपने घोड़े को खेत की मेड़ों पर चारा खाने के लिए छोड़ा था, मुक जानवर ने चारा खाते-खाते गुंडाजी पाटिल की फसल पर मुंह मारा न मारा कि गुंडाजी पाटिल ने आवाज लगाई- महाराज! ओ महाराज! तुम्हारा घोड़ा फसल खा रहा है, कहकर हाथ में डंडा लेकर मारना शुरू किया, हट, चल हट, वह जूते पहने पांव से मार रहा था कि बसप्पा महाराज ने कहा, “क्या पाटिल ये कोई तरीका है मूक जानवर को मारने का?”

पाटिल ने तल्खी भरी बातें सुनाई। बसप्पा महाराज को बहुत पीड़ा हुई उन्होंने कहा, गुंडा जी पाटिल तुमने घोड़े को जूते से मार कर बहुत गलत काम किया है? तुम आज से जूता कभी नहीं पहनेंगे? गुंडप्पा को अपनी जाति का अभिमान था, कहा- महार बसप्पा महाराज के कहने से मेरा कछ बिगड़ने वाला नहीं है? बसप्पा महाराज शांत चित्त से बंगले की ओर चले गए, प्रतिदिन की तरह पूजा-पाठ में व्यस्त थे कि तुकाराम ने दूर से ही चिल्लाते भागते हुए आकर कहा, महाराज कल तुम्हारे घोड़े को पांव से मारा था, उस पैर में बड़ा जख्म हो गया है, गुंडाजी को चलना-फिरना मुश्किल हो रहा है, बसप्पा महाराज शांत खड़े रहे, कुछ कहे बिना बंगले में चले गए। तुकाराम भी वहां से घर की ओर चला गया, घर जाते वक्त तुकाराम के मन में सवाल उठा कि महाराज के कुछ भी न कहने का संकेत क्या हो सकता है? जब कोई भी व्यक्ति किसी भी तरह की समस्या से ग्रस्त होता है तब बसप्पा महाराज उसका निदान कर समस्या का समाधान करते हैं। आज अजीब-सी हलचल देखी है मैंने? बसप्पा महाराज को इतने अस्वस्थ पहले कभी नहीं देखा था। जाने दो, मुझे क्या करना है? दूसरे दिन गुंडाजी के पांव का जख्म और अधिक बढ़ गया, उसमें पीप भर गया था, पीड़ा अधिक होने लगी थी, उनके बच्चे परशुराम और सुदाम ने जड़ी-बूटी लगवाई। जख्म और भी बढ़ता गया, उन्होंने अपने पिताजी को उदगीर के अस्पताल में भर्ती कराया, वहां एक-दो दिन चिकित्सा की गई फिर भी जख्म कम नहीं हुआ था। तब उनके बेटे से कहा गया था कि यहाँ इनका इलाज नहीं हो सकता, इन्हें लातूर लें जाइए, परशुराम ने अपने पिता को लातूर के अस्पताल में भर्ती कराया, वहां उनका ऑपरेशन किया गया फिर भी जख्म कम हो ही नहीं रही थी। वहां से पूना, पूना से बीदर, और बीदर से चांदोरी वापस ले आएं। दर्द से निजात पाने के लिए गुंडाप्पा आखिर बसप्पा महाराज के बंगले पर आये, महाराज, महाराज की आवाज लगाई, बसप्पा महाराज ध्यान में लीन थे, बाहर गुंडाजी को लंबा इंतजार करना पड़ा था। बसप्पा महाराज ने बाहर आकर देखा तो गुंडा जी पाटिल दर्द से तड़प रहे थे और कह रहे थे कि महाराज अब मेरे दर्द की दवा तुम्हारे पास ही मिलेगी?

बसप्पा महाराज ने पाटिल के हाथ को बड़े प्रेम से पकड़कर कट्टे पर बिठाया और कहा, मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी करेंगे भगवान शिव ही करेंगे? कहते हुए बंगले में जाकर भभूति उन्हें दी और कहा, आज बुधवार है, इसे सुबह-शाम लगाइए और रविवार के दिन ‘हुच्च बसवेश्वर’ के चरणों में श्रीफल, जल, फूल चढ़ाकर माथा टेक दीजिए, दूसरे दिन सारा दर्द गायब हो जाएगा।

गीता ने पूछा, दादी सच में दर्द कम हुआ? हां, दर्द भी कम हुआ और गुंडाजी पाटिल पांव में जुता भी पहनने लगे थे। गुंडाजी पाटिल जब तक जीवित थे तब तक हर अमावस्या, पूर्णिमा तथा प्रत्येक रविवार के दिन बंगले पर आकर श्रीफल फूल चढ़ाकर बसप्पा महाराज का आशीर्वाद लेते थे।

एक मान्यता यह भी थी कि बसप्पा महाराज और उनके साथी मालोजी, माणिक, शरणाप्पा, निवृत्ति, तुकाराम, भुजंगा, केशव, रामचंदर, एकनाथ, पांडुरंग श्री हुच्च बसवेश्वर के भजन करते थे, मृदंग, पेटी, तबला, मंजीरा और करतल ध्वनि से ऐसा समां बंध जाता कि सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता और भजन की मधुर ध्वनि आस-पास के गाँव के लोगों को सुनाई देता थी।

नंदी बेट मेले मंदी तोल

भजनी माडतावा नित्य तोल।

हरि निम्म पादक्के नमस्कारु

गूरुविन पादक्के नमस्कारु

गुरुविन पादक्के नमस्कारु

हुच्चन पादक्के नमस्कारु।

गुरुजी गुरुजी नम्म सैना

केशव गुरुजी नम्म सैना

मायेद कळसा मरतक्के बंदरे

मरुवदु करुवदु येणूल्लो

इ हुच्चन अर्थ के येनइल्लो।

भोपळ्याचा येल लिंबावरी गेला कडु कैसे झाला सांगा.

केळीच्या बनात बोरीयाच झाडं

एक पान नाही धड.।

अनेक भक्ति गीत, भाव गीत तथा नीतिपरक गीत सुरीली आवाज में गाकर समाज प्रबोधन करते थे। साथ ही भूत-प्रेत बाधा का निवारण, बांझ स्त्री को संतान प्राप्ति का आशीर्वाद देते थे।

एक दिन बसप्पा महाराज अपने घोड़े पर सवार होकर हुल्ल्याळ को जा रहे थे कि रास्ते में मालोजी से भेंट हुई। उन्होंने कहा, महाराज कहां जा रहे हैं? कहीं नहीं मैं अपने गुरु से मिलने जा रहा हूं, मालोजी ने कहा, कुछ ही दिनों में घाळप्पा महाराज की पुण्य तिथि है, हम सब मिलकर जायेंगे? उनके गुलाल में, मालु तुम यहीं रुको, कहते हुए बसप्पा महाराज चांदोरी से निकले, राह में मिले छोटे बड़ों से कहा, मैं जाता हूं, रुकम्मा माई से कहा, माई मैं जाता हूं, पाटिल मैं जाता हूं, गाँव के सभी लोगों ने चांदोरी छोड़कर न जाने की मिन्नतें की लेकिन बसप्पा महाराज मानें नहीं उन्होंने कहा था.. मैं यहाँ और नहीं रह सकता? मुझे जाना ही पड़ेगा? मेरा गुरु कहां है मैं वहीं जाऊंगा? जीवन के अंतिम क्षण उनके स्मारक के पास उनकी स्मृति में व्यतीत करुंगा। अपने ही मृत्यु का दिन घोषित करते हुए कहा, मालु पूर्णिमा के दिन घाळप्पा महाराज का गुलाल होता है, उस दिन तुम सब वहां आओगे, तब मैं नहीं रहूंगा और उसी दिन शिव में लीन हो गए। रुबाबदार मानव बसप्पा महाराज भगवान बन गए। ‘हुल्ल्याळ’ में उनके गुरु के दाएं ओर उनकी समाधि बनी हुई है।

घाळप्पा महाराज तथा बसप्पा महाराज कि परंपरा को आगे बढाने का काम घाळप्पा का पोता, शरणाप्पा का पुत्र, बापूराव महाराज उनकी पत्नी कोंडाबाई बापूराव कर रहे हैं। घाळप्पा महाराज के नाम से पुष्य महीने की पहली पूर्णिमा हर जाति-धर्म के लोगों के लिए त्योहार से कम नहीं थी, सभी लोग बड़ी आस्था और श्रद्धा से पूजा की तैयारी करते, सिद्दम्मा, चंद्रा, सजाबाई, जनाबाई, विठाबाई, शाहुबाई, सभी अपने घर की लीपापोती कर आंगन में आटे से रंगोली बनाती। सारे लोग प्रफुल्लित हो उत्सव में जाने की तैयारी करते थे। सुभद्रा ने भी अपने आंगन में रंगोली बनाई थी, उसे लगता कि मेरे अलावा और कोई अच्छी रंगोली बना ही नहीं सकती, मन ही मन पुलकित हो कर आज्जी से पूछतीं, आज्जी बताओं न रंगोली कैसे बनीं है, बहुत अच्छी है, कब से देख रही हूं, उसी में ही सारा दिन लगायेगी क्या? चल हट यहाँ से? नैवेद्य बनाना, पूजा की थाली सजाना, बहुत सारे काम बाकी है, सुभद्रा ने अदब से कहा, आज्जी मैं ऐसे हाथ चलाऊंगी कि पलक झपकते ही सब कुछ तैयार कर दूंगी और हम सब मिलकर उत्सव में शामिल होकर घाळप्पा महाराज के दर्शन लेंगे।

उत्सव में तेलंगाना, मुंबई, पुना, तोरणा, एकबा, आंध्र प्रदेश, उदगीर, देवणी, दूर सुदूर के सभी जाति धर्म के लोग बड़ी आस्था लिए हुए यहाँ आते थे और आज भी आ रहे हैं। नीडेबन गाँव के पाटिल महार जाति के थे, श्री मल्हारराव पाटिल जब तक जीवित थे। वे भी बड़े उत्साह के साथ भाग लेते थे। उत्सव मूर्ति घाळप्पा महाराज को पालकी में बिठाकर संपूर्ण गाँव में जुलूस निकालकर उनके स्मारक तक ले जाते थे, हर एक व्यक्ति पूरन पोली, फल-फूल तथा जल अर्पित कर श्रद्धा से पूजा करता था। रात्रि में महाभोज रखा जाता था। प्रत्येक जाति-धर्म के लोग घाळप्पा महाराज का नाम स्मरण करके ही भोजन का प्रारंभ करते थे।

अगर किसी से पूछा जाए, तुम्हारी इच्छा पूर्ति कौन करता है? तो कहेंगे घाळप्पा महाराज ही कर सकते हैं। गहरी आस्था लिए हुए लोग स्मारक से मठ आकर वहां रात भर भजन-कीर्तन करते थे और आज भी यह परंपरा जारी है। केरा कुछ पूछने के लिए मुंह खोल रही थी कि दादी ने उसे चुप कराया। कहा, महार घाळप्पा महाराज के भक्ति में इतनी शक्ति थी कि जाति के सारे घेरों को तोड़ दिया, और वे जन जन के भगवान बन गए।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’