बिहार के वैशाली जिले के उस छोटे से कस्बे में आज जश्न का माहौल है। हर कोई उमंग में डुबा हुआ है, और हो भी क्यों नए आखिर एक स्कूल मास्टर की बेटी का भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन जो हुआ है।

दीनदयाल सिंंह जी की इकलौती बेटी प्रतिभा ने अपनी अटूट मेहनत और लगन के बल पर आज वो मंजिल हासिल कर ली है, जिसे पाना किसी के लिए भी फक्र की बात है। वो दिन कभी नहीं भूल पाएंगे दीनदयाल जी, जिस दिन इस नन्ही सी गुड़िया ने उनकी और गायत्री जी की दुनिया में कदम रखा था। सारे रिश्तेदारों की स्वभाविक प्रतिक्रिया थी, पहली संतान है लड़का होता तो अच्छा होता।

गायत्री जी को कोई फर्क नहीं पड़ा, उनका यही सोचना था कि लड़का हो या लड़की, जब भगवान ने दिया है तो स्वस्थ रहे और जिंदगी में खुश रहे। उनकी इस सोच में दीनदयाल जी ने भी उनका पूरे दिल से साथ दिया था। गायत्री जी दसवीं पास एक समझदार और परिपक्व महिला थी। घर-गृहस्थी को बखूबी संभालते हुए वे जिंदगी के हर मोड़ पर अपने पति की ताकत बनकर उन्हें हौसला देती रहीं।

दीनदयाल जी भी अपना पति धर्म बखूबी निभा रहे थे, एक मर्द के स्वाभाविक लक्षण, जिसमें अक्सर वो खुद को अपनी पत्नी से अधिक समझदार मानता है और जहां पत्नी की बात से सहमत न हो उसे चुप कराकर, अपने सिर विजयश्री का थमा ले लेना है, जैसी आदतों से वे काफी दूर थे। एक औरत का सम्मान और उसकी भावनाओं की कद्र कैसे होनी चाहिए, वे बखूबी जानते थे।

दोनों ने अपनी सी गुड़िया काफी नाम प्रतिभा रखा और सोच लिया कि इस बच्ची को अच्छी परवरिश और अच्छे संस्कार देकर कुछ ऐसा बनाने की कोशिश करेंगे कि ये अपनी पहचान खुद गढ़ेगी। एक लड़के से किसी भी मामले में वे कम रखने की कोशिश नहीं करेंगे वे अपनी गुड़िया को।   

दीनदयाल जी ने इसी सोच के साथ एक फैसला और लिया कि वे दूसरे संतान को अब जन्म नहीं देंगे। उनके इस निर्णय पर गायत्री जी ये सोचकर थोड़ा डगमगाई कि रिश्तेदार और समाज क्या कहेगा, उनकी सोच से तो जीवन तभी सफल होता है, जब बेटे के हाथ से मुखाग्नि दी जाए।

यहां दीनदयाल जी ने गायत्री जीव को ये समझाकर उनके सोच की दिशा बदलने की कोशिश की कि एक लड़के के जन्म के बाद वे शायद प्रतिभा पर उतना ध्यान न दे पाए, जितना सोच रखा है क्योंकि कुछ मानवीय कमजोरियों से अगर वे डगमगा गए तो प्रतिभा के साथ पूरा न्याय नहीं कर पाएंगे और समाज का क्या है, उसे तो बोलने का बहाना चाहिए। हमें जो सही लगे, हमें वही करना चाहिए, गायत्री जी समझ गई।

दोनों ने प्रतिभा की परवरिश पर पूरा-पूरा ध्यान दिया, उसे कभी उसे ये आभास नहीं होने देने की कोशिश की वो लड़की है और इस कारण लड़कों से उसकी क्षमता और हिम्मत कम है। हाँ, साथ में संस्कारों और उसूलों से समझौता नहीं करने की प्रेरणा देने की कोशिश भी करते रहे।

प्रतिभा अपने नाम के अनुकूल ही प्रतिभावान निकली। हर क्लास में प्रथम तो नहीं आ पाती वो, पर टाॅप पांच में हमेशा रही वो। अपना रैंक और ऊपर करने की कोशिश में एक- दो बार निराश भी हुई, परंतु दीनदयाल जी ने समझाया उसे कि तुम कोशिश जारी रखो, कोई जरूरी नहीं कि प्रथम स्थान ही हासिल किया जाए। तुम अपनी क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करने की कोशिश करो। अपनी तरफ से कोई कमी न रहने देना, ज्ञान अर्जन पढ़ाई का मूल उद्देश्य होता है, इस तरह वे उसका हौसला बढ़ाते रहे।                                 

इन्हीं सब सीखों को आत्मसात करते हुए प्रतिभा बड़ी होती गई। 91 प्रतिशत नंबर के साथ उसने दसवीं में उत्तीर्णता हासिल की। इसके बाद 90प्रतिशत   नंबर के साथ उसने बारहवीं की परीक्षा पास की। इसके बाद राजनीति विज्ञान लेकर ग्रेजुएशन में दाखिला ले लिया, अब उसने मन ही मन अपनी मंजिल भारतीय प्रशासनिक सेवा को बनाने का सोच लिया था। यहां कुछ लोग दीनदयाल जी को ये सीख देने से न चूके कि प्रतिभा लड़की है वो इतना पढ़कर क्या करेगी। आखिर में संभालना तो रसोई ही है और इतना पढ़ा दोगे तो लड़का कहां से ढ़ूंढ़ोगे,  दीनदयाल जी बिना किसी की बातों पर ध्यान दिए प्रतिभा का साथ देते रहे। समय अपनी गति से चलता रहा, प्रतिभा ने ग्रेजुएशन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।

अब उसकी मंजिल उसके करीब आ रही थी, जब उसे अपनी पूरी ताकत और क्षमता के साथ कदम रखना था। उसने जी तोड़ मेहनत और लगन तैयारी करते हुए यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन की परीक्षा में बैठी और ये उसकी आज तक की जी जान से की गई मेहनत का फल मिला तो एक-एक बार में ही उसने प्राथमिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार में कामयाबी हासिल कर ली और नतीजा आज खुशी के इन पलों के रूप में सबके सामने है। आज इस खुशी में वे सब लोग उनके साथ हैं, जिन्होंने अपनी पूर्वाग्रह ग्रसित मानसिकता के कारण हर कदम पर उन्हें रोकने की कोशिश की थी। आज उन सबकी सोच को एक नया आयाम मिल चुका था।

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