manto story in hindi,

Manto story in Hindi: उनका नाम मिसेज स्टैला जैक्सन था, मगर सब उन्हें मम्मी कहते थे। वह दर्मियाने कद की अधेड़ उम्र की स्त्री थीं। उनका पति जैक्सन प्रथम महायुद्ध में मारा गया था। सिसकी पेंशन स्टैला को लगभग दस वर्ष से मिल रही थी।

वह पूना में कैसे आई, कब से वहां थी, इसके बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं। दरअसल मैंने उनके बारे में कुछ जानने की कभी कोशिश नहीं की। वह इतनी दिलचस्प स्त्री थी कि उनसे मिलकर सिवास उसके व्यक्तित्व के और किसी चीज से दिलचस्पी नहीं रहती थी। उससे कौन सम्बन्धित हैं, यह जानने की आवश्यकता ही महसूस न होती थी, क्योंकि वह पूना के जर्रे-जर्रे से परिचित थी। हो सकता है कि एक हद तक यह अतिशयोक्ति हो, लेकिन मेरे लिए पूना वही पूना है उसके वही कण उसके तमाम कण हैं, जिसके साथ मेरी कुछ यादें जुड़ी हुई हैं और मम्मी का विचित्र व्यक्तित्व उनमें से हर एक में विद्यमान है।

उनसे मेरी पहली मुलाकात पूना में ही हुई। में बहुत ही सुस्त किस्म का आदमी हूं। यूं घुमक्कड़ी की बड़ी-बड़ी उमंगें मेरे दिल में मौजूद हैं और अगर आप मेरी बातें सुने तो आपको लगेगा कि मैं कंचनजंघा या हिमालय की इसी तरह की किसी अन्य चोटी को लांघने के लिए निकल जाने वाला हूं। ऐसा हो सकता है, लेकिन इससे भी अधिक संभावना इस बात की है कि वह चोटी लांघकर मैं वहीं का ही रहूं।

खुदा जाने कितने बरसों से मैं बम्बई में था। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि जब मैं पूना गया, तो मेरी बीबी मेरे साथ थी। एक लड़का हुआ था। उसका मरे करीब-करीब चार बरस हो गए थे। इस बीच मैं….ठहरिए, मैं हिसाब लगा लूं…आप यह समझ लीजिए कि आठ बरसों से बम्बई में था, लेकिन उस बीच मुझे वहां का विक्टोरिया गार्डन और म्यूजियम देखने की भी फुर्सत नहीं मिली थी। यह तो केवल संयोग की बात थी कि मैं एकदम पूना जाने को तैयार हो गया। जिस फिल्म कम्पनी में नौकर था, उसके मालिकों से एक मामूली-सी बात पर मनमुटाव हो गया और मैंने सोचा कि यह कटुता दूर करने के लिए पूना हो आऊं। वह भी इसलिए कि वह पास था और मेरे कुछ मित्र वहां रहते थे।

मुझे प्रभात नगर जाना था, जहां मेरा फिल्मों का एक पुराना साथी रहता था। स्टेशन से बाहर निकलने पर मालूम हुआ कि वह जगह काफी दूर हैं, लेकिन तब तक हम तांगा ले चुके थे।

सुस्त रफ्तार से चलने वाली चीजों से मेरी तबीयत बहुत घबराती है, लेकिन अपने दिल की चिंता को दूर करने के लिए यहां आया था, इसलिए मुझे प्रभात नगर जाने की बहुत जल्दी थी। तांगा बहुत ही वाहियात किस्म का था, अलीगढ़ के इक्कों से भी ज्यादा वाहियात, जिसमें हर समय गिरने का खतरा बना रहता है। घोड़ा आगे चलता है और सवारियों पीछे। एक-दो गर्द से अटे बाजारों और सड़कों को पार करते-करते मेरी तबीयत घबरा गई। मैंने अपनी बीबी से मशविरा किया और पूछा कि ऐसी हालत में क्या करना चाहिए? उसने कहा कि धूप तेज है। मैंने जो और तांगे देखे हैं, वे भी इसी तरह के हैं। अगर इसे छोड़ दिया, तो पैदल चलना होगा, जो जाहिर है कि इस सवारी से ज्यादा तकलीफदेह है। बात ठीक लगी। धूप सचमुच बहुत तेज थी।

घोड़ा एक फलांग आगे बढ़ा होगा कि पास से वैसा ही वाहियात किस्म का तांगा गुजरा। मैंने सरसरी तौर पर उधर देखा। तभी एकदम कोई चिल्लाया, “ओए मंटो के घोड़े!”

मैं चौंक पड़ा। चड्ढा था, एक घिसी हुई मेम के साथ। दोनों साथ-साथ जुड़कर बैठे थे। मेरी पहली प्रतिक्रिया बहुत दुखद थी कि चड्ढे की सौन्दर्यप्रियता कहां गई, जो ऐसी लाल लागमी1 के साथ बैठा है। उम्र का ठीक अंदाज तो मैंने उस समय नहीं किया था, मगर उस स्त्री की झुर्रियां पाउडर और रूज की तहों में से भी साफ दिखाई देती थी। इतना शोख मेकअप था कि देखने से आंखों को कष्ट होता था।

मैंने चड्ढे को काफी समय के बाद देखा था। वह मेरा बेतकल्लुफ दोस्त था। ‘ओए मंटो के घोड़े!’ के जवाब में मैंने भी कुछ इसी किस्म का नारा लगाया होता, लेकिन उस स्त्री को उसके साथ देखकर मेरी सारी बेतकल्लुफी झीर-झीर हो गई।

मैंने अपना तांगा रुकवा दिया। चड्ढे ने भी अपने कोचवान से ठहरने के लिए कहा, फिर उसने उस स्त्री से अंग्रेजी में कहा, “मम्मी, जस्ट ए मिनिट।”

तांग से कूदकर वह मेरी ओर अपना हाथ बढ़ाते हुए चिल्लाया, “तुम! तुम यहां कैसे आए?” फिर अपना बढ़ा हुआ हाथ बड़ी बेतकल्लुफी से मेरी पुरतकल्लुफी

बीबी से मिलाते हुए कहा, “भाभीजान, आपने कमाल कर दिया! इस गुलमुहम्मद को आखिर आप खींचकर यहां ले आई।”

मैंने उससे पूछा, “तुम जा कहां रहे हो?”

चड्ढे ने ऊंचे स्वर में कहा, “एक काम से जा रहा हूं। तुम ऐसा करो, सीधे……” वह एकदम पलटकर मेरे तांगे वाले से मुखातिब हुआ, “देखो, साहब को हमारे घर ले जाओ। किराया-विराया मत लेना इनसे।” उधर से तुरंत ही निपटकर उसने निश्चित-सा होकर मुझसे कहा, “तुम जाओ, नौकर वहां होगा, बाकी तुम देख लेना।”

और वह फुदककर अपने तांगे में उस बूढ़ी मेम के साथ जा बैठा, जिसको उसने मम्मी कहा था। इससे मुझे एक प्रकार का सन्तोष हुआ था, बल्कि यूं कहिए कि जो बोझ एकदम उन दोनों को साथ-साथ देखकर मेरे सीने पर आ पड़ा था, काफी हद तक हल्का हो गया था।

उसका तांगा चल पड़ा। मैंने अपने तांगे वाले से कुछ न कहा। तीन या चार फलांग चलकर वह एक डाक बंगले की तरह की इमारत के पास रुका और नीचे उतरकर बोला, ‘चलिए साहब……’

मैंने पूछा, ‘कहां?’ उसने जवाब दिया, “चड्ढा साहब का मकान यही है।”

‘ओह!’ मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से अपनी बीवी की ओर देखा। उसके तेवरों ने मुझे बताया कि वह चड्ढे के मकान में रहने के हक में नहीं थी। उसको यकीन था कि मुझको वहां पीने-पिलाने वाले दोस्त मिल जाएंगे। मन:संतोष दूर करने का बहाना पहले से ही मौजूद है, इसलिए रात-दिन उड़ेगी। मैं तांगे से उतर गया। छोटा-सा अटैची केस था, वह मैंने उठाया और अपनी बीवी से कहा, “चलो।”

वह शायद मेरे तेवरों से भाप गई थी कि हर हालत में उसे मेरा फैसला मानना होगा, इसलिए उसने कोई हील-हुज्जत न की और चुपचाप मेरे साथ चल पड़ी।

बहुत मामूली किस्म का मकान था। ऐसा मालूम होता था कि मिलिट्री वालों ने टेम्परेरी तौर पर एक छोटा-सा बंगला बनवाया था। कुछ दिन उसे इस्तेमाल किया और फिर छोड़कर चलते बने। चूने की कीच का काम बड़ा कच्चा था। जगह-जगह से पलस्तर उखड़ा रहा था और घर के भीतर का भाग वैसा ही था, जैसाकि एक लापरवाह कुंआरे का हो सकता है, जो फिल्मों का हीरो हो और ऐसी कम्पनी का नौकर हो, जहां महीने की तनख्वाह ही तीसरे महीने मिलती हो और वह भी कई किस्तों में।

मुझे इस बात का पूरा अहसास था कि वह स्त्री, जो बीवी हो, ऐसे गंदे वातावरण में निश्चय ही परेशानी और घुटन महसूस करेगी, लेकिन मैंने सोचा था कि चड्ढा आ जाए तो उसके साथ ही प्रभात नगर चलेंगे। वहां जो मेरा फिल्मों का पुराना साथी रहता था, उसकी बीवी और बाल-बच्चे भी थे। वहां के वातावरण में मेरी बीवी जैसे-तैसे दो-तीन दिन काट सकती थी।

नौकर भी अजीब बेफिक्रा आदमी था। जब हम उस घर में पहुंचे, तो सब दरवाजे खुले थे और वह मौजूद नहीं था। जब वह आया, तो उसने हमारी मौजूदगी की ओर कोई ध्यान न दिया, जैसे हम बरसों से वहीं बैठे थे और इसी तरह बैठे रहने का इरादा किए हुए थे।

जब वह कमरे में प्रवेश कर हमें देखे बिना पास से गुजर गया, तो मैंने समझा कि कोई मामूली एक्टर है, जो चड्ढा के साथ रहता है। लेकिन मैंने उससे नौकर के बारे में पूछताछ की, तो मालूम हुआ कि वह हजरत चड्ढा के चहेते नौकर थे।

मुझे और मेरी बीवी दोनों को प्यास लग रही थी। उसने पानी लाने को कहा तो वह गिलास ढूंढ़ने लगा। बड़ी देरी के बाद उसने एक टूटा हुआ जग अलमारी के नीचे से निकाला और बड़बड़ाया, “रात एक दर्जन गिलास साहब ने मंगवाए थे मालूम नहीं किधर गए।”

मैंने उसके हाथ में पकड़े हुए जग की ओर इशारा किया, “क्या आप इसमें तेल लेने जा रहे हैं?”

“तेल लेने जाना” बम्बई का एक खास मुहावरा है। मेरी बीवी इसका मतलब न समझी, मगर हंस पड़ी। नौकर बौखला गया, “नहीं साहब……मैं तलाश कर रहा था कि गिलास कहां है।”

मेरी बीवी ने उसको पानी लाने से मना कर दिया। उसने वह टूटा हुआ जग वापस अलमारी के नीचे इस तरह से रखा कि जैसे वही उसकी जगह थी, अगर उसे कहीं और रख दिया, तो सारी व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी। इसके बाद वह यूं कमरे से बाहर निकला, जैसे उसे मालूम था कि हमारे मुंह में कितने दांत हैं।

मैं पलंग पर बैठा था, जो शायद चड्ढा का था। इससे कुछ दूर हटकर दो आराम कुर्सियां थीं। उनमें से एक पर मेरी बीवी बैठी पहलू बदल रही थी। काफी देर तक हम दोनों खामोश रहे। इतने में चड्ढा आ गया। वह अकेला था। उसको इस बात का बिलकुल अहसास नहीं था कि हम उसके मेहमान हैं और इस लिहाज से उसे हमारी खातिरदारी करनी चाहिए। कमरे में दाखिल होते ही उसने मुझसे कहा, “वेट इज वेट। तो तुम आ गए ओल्ड ब्वाय! चलो, जरा स्टूडियो तक हो आएं। तुम साथ होगे तो एडवांस मिलने में आसानी हो जाएगी…..आज शाम को…” मेरी बीवी पर उसकी नजर पड़ी तो वह रुक गया और खिलखिलाकर हंसने लगा। “भाभीजान, कहीं आपने इसे मौलवी तो नहीं बना दिया?” फिर और जोर से हंसा, “मौलवियों की ऐसी-तैसी! उठो मंटो, भाभीजान यहां बैठती हैं, हम अभी आ जाएंगे।”

मेरी बीवी जल-भुनकर पहले कोयला थी, तो अब बिलकुल राख हो गई थी। मैं उठा और चड्ढा के साथ हो लिया। मुझे मालूम था कि थोड़ी देर तक क्रोधित होकर वह सो जाएगी। अतः वहीं हुआ। स्टूडियो पास ही था। अफरा-तफरी में मेहता जी के सिर चढ़कर चड्ढा ने दो सौ रुपये वसूल कर लिए और पौन घंटे में जब हम वापस आए, तो देखा कि वह बड़े मजे से आराम कुर्सी पर सो रही थी। हमने उसे परेशान करना उचित न समझा और दूसरे कमरे में चले गए, जो कबाड़खाने से मिलता-जुलता था। इसमें जो चीजें थीं, वे अजीब तरीके से टूटी हुई थीं, जो सब मिलकर एक पूर्णता का दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं।

हर चीज़ पर गर्द जमी हुई थी और उस जमी हुई गर्द में भी एक प्रकार का अपनापन था, जैसे उसकी मौजूदगी उस कमरे में जरूरी हो। चड्ढा ने तुरन्त ही अपने नौकर को ढूंढ निकाला और उसे सौ रुपये का नोट देकर कहा, “चीन के शहजादे! दो बोतलें थर्ड क्लास रम की ले आओ…..मेरा मतलब है, ‘थ्री एक्स’ रम की और आधा दर्जन गिलास।”

मुझे बाद में मालूम हुआ कि उसका नौकर सिर्फ चीन का ही नहीं, दुनिया के हर बड़े देश का शहजादा था। चड्ढा की जबान पर जिस देश का नाम आ जाता, वह उसी का शहजादा बन जाता था। उस समय का चीन का शहजादा सौ का नोट उंगलियों से खड़बड़ाता हुआ चला गया।

चड्ढा ने टूटे हुए स्प्रिंगों वाले पलंग पर बैठकर अपने होंठ थ्री एक्स रम के स्वागत में चटखारते हुए कहा, “वेट इज वेट…..आफ्टर ऑल, तुम इधर आ ही निकले।” फिर एकदम चिन्तित होकर बोला, “यार, भाभी का क्या होगा? वह तो घबरा जाएगी!”

चड्ढा बिना बीवी के था, मगर उसको दूसरों की बीवियों का बहुत ख्याल रहता था। वह उनका इतना सम्मान करता था, मानो सारी उम्र कुंवारा रहना चाहता था। वह कहा करता था, ‘यह हीनता का भाव है, जिसने मुझे अब तक इस ईश्वरी सौगात से अलग रखा है। जब शादी का सवाल आता है, तो फौरन तैयार हो जाता हूं, लेकिन बाद में यह सोचकर कि मैं बीवी के काबिल नहीं हूं, सारी तैयारी ‘कोल्ड स्टोरेज’ में डाल देता हूं।’

रम बहुत जल्दी आ गई, गिलास भी। चड्ढा ने छ: मंगवाए थे और चीन का शहजादा तीन लाया था, बाकी तीन रास्ते में टूट गए थे। चड्ढा ने उनकी कोई परवाह न की और भगवान् को धन्यवाद दिया कि बोतलें सलामत रहीं। एक बोतल जल्दी-जल्दी खोलकर उसने कोरे गिलासों में रम डाली और कहा, “तुम्हारे पूना आने की खुशी में!”

हम दोनों ने लम्बे-लम्बे घुट भरे और गिलास खाली कर दिए।

दूसरा दौर शुरू करके चड्ढा उठा और कमरे में देखकर आया कि मेरी बीवी अभी तक सो रही है। उसको बहुत तरस आया। कहने लगा, “मैं शोर करता हूं, उनकी नींद खुल जाएगी….फिर ऐसा करेंगे……ठहरो…. पहले मैं चाय मंगवाता हूं,” यह कहकर उसने रम का एक छोटा-सा घूंट लिया और नौकर को आवाज दी, “जमैका के शहजादे!”

जमैका का शहजादा तुरन्त आ गया। चड्ढा ने उससे कहा, “देखो, मम्मी से कहो, एकदम फर्स्ट क्लास चाय तैयार करके भेज दे।”

नौकर चला गया। चड्ढा ने अपना गिलास खाली किया और शरीफाना पेग डालकर कहा, “मैं इस वक्त ज्यादा नहीं पीऊंगा। पहले चार पेग मुझे बहुत जज्बाती बना देते हैं। मुझे भाभी को छोड़ने तुम्हारे साथ प्रभात नगर जाना है।”

आधे घंटे के बाद चाय आ गई। बहुत साफ बरतन थे और बड़े सलीके से ट्रे में रखे हुए थे। चड्ढे ने टीकोजी उठाकर चाय की खुशबू सूंघी और प्रसन्नता प्रकट करता हुआ बोला, “मम्मी इज ए ज्यूल…..” फिर उसने इथेपिया के शहजादे पर बरसना शुरू कर दिया। उसने इतना शोर मचाया कि मेरे कान बिलबिला उठे। इसके बाद उसने ट्रे उठाई और मुझसे कहा, “आओ!’

मेरी बीवी जाग रही थी। चड्ढा ने ट्रे बड़ी सफाई से टूटी हुई तिपाई पर रखी और बड़े अदब से कहा, “हाजिर है बेगम साहिबा!”

मेरी बीवी को यह मजाक पसन्द न आया, लेकिन चाय का सामान चूंकि साफ-सुथरा था, इसलिए उसने इनकार न किया और दो प्यालियां पी लीं। इनसे उसको कुछ ताजगी मिली। इसके बाद हम दोनों की ओर मुड़कर उसने रहस्यपूर्ण स्वर में कहा, “आप अपनी चाय तो पहले ही पी चुके हैं!”

मैंने जवाब न दिया, मगर चड्ढा ने झुककर बड़ी ईमानदारी दर्शाते हुए कहा, “जी हां, यह गलती हमसे हो चुकी है, लेकिन हमें यकीन था कि आप जरूर माफ कर देंगी।”

मेरी बीवी मुस्कराई, तो वह खिलखिलाकर हंसा, “हम दोनों बहुत ऊंची नस्ल के सुअर हैं, जिन पर हर हराम चीज हलाल है। चलिए, अब हम आपको मस्जिद तक छोड़ आएं।”

मेरी बीवी को फिर चड्ढा का यह मजाक पसन्द न आया। वास्तव में उसको चड्ढा ही से घृणा थी या यूं कहिए कि उसे मेरे हर दोस्त से घृणा थी और चड्ढा उनमें सबसे ज्यादा खलता था, क्योंकि कभी-कभी वह बेतकल्लुफी की हदें भी फांद जाता था, लेकिन चड्ढा को इसकी कोई परवाह नहीं थी। मेरा ख्याल है कि उसने कभी इसके बारे में सोचा ही नहीं था। वह ऐसी बेकार की बातों में दिमाग खर्च करना एक ऐसा ‘इन डोर गेम’ समझता था, जो लूडो से कहीं अधिक बेमानी होती है। उसने मेरी बीवी के बिगड़े तेवरों को बड़ी खुश-खुश नजरों से देखा और नौकर को आवाज दी, “ओ कब्रिस्तान के शहजादे! एक अदद तांगा लाओ। रोल्स रायस किस्म का।”

कब्रिस्तान का शहजादा चला गया और साथ ही चड्ढा भी। वह शायद दूसरे कमरे में गया था। एकान्त मिला, तो मैंने अपनी बीवी को समझाया कि कवाब होने की कोई जरूरत नहीं। आदमी की जिन्दगी में ऐसे क्षण आ ही जाया करते हैं, जिनका कभी ख्याल तक नहीं आता। उनसे गुजरने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उनको गुजर जाने दिया जाए, लेकिन नियमानुसार उसने मेरी इस सीख पर कोई ध्यान नहीं दिया और बड़बड़ाती रही। इतने में कब्रिस्तान का शहजादा रोल्स रायस किस्म का तांगा लेकर आ गया और हम प्रभात नगर के लिए चल पड़े।

बहुत ही अच्छा हुआ कि मेरा फिल्मों का पुराना साथी घर में मौजूद नहीं था, उसकी बीवी थी। चड्ढा ने मेरी बीवी उसके सुपुर्द की और कहा, “खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग पकड़ता है। बीवी बीवी को देखकर रंग पकड़ती है, यह हम अभी आकर देखेंगे,” फिर वह मुझसे बोला, “चलो मंटो, स्टूडियो में तुम्हारे दोस्त को पकड़े।”

चड्ढा कुछ ऐसी हडबोंग मचा दिया करता था कि दूसरों को सोचने-समझने का बहुत कम मौका मिलता था। उसने मेरी बांह पकड़ी और बाहर ले गया और मेरी बीवी सोचती ही रह गई। तांगे में सवार होकर अब चड्ढे ने कुछ सोचने के ढंग से कहा, “यह तो हो गया, अब क्या प्रोग्राम है?” फिर खिलखिलाकर हंसा, “मम्मी…..ग्रेट मम्मी!”

मैं उससे पूछने ही वाला था कि यह मम्मी किस चिड़ीमार की औलाद है कि चड्ढे ने बातों का ऐसा सिलसिला शुरू कर दिया कि मेरा प्रश्न बेमौत मर गया।

तांगा वापस उस डाकबंगलेनुमा कोठी पर पहुंचा, जिसका नाम सईदा कॉटेज था, लेकिन चड्डा उसको ‘रंजीदा कॉटेज’ कहा करता था, क्योंकि उसमें रहने वाले सबके सब रंजीदा (चिंतित) रहते हैं। हालांकि यह गलत था, जैसाकि मुझे बाद में मालूम हुआ।

उस कॉटेज में काफी आदमी रहते थे, हालांकि ऊपरी ढंग से देखने में यह जगह बिलकुल गैरआबाद मालूम होती थी। सबके सब उसी फिल्म कम्पनी के नौकर थे, जो महीने की तनख्वाह हर तीन महीने बाद देती थी और वह भी कई किस्तों में। एक-एक करके जब वहां के निवासियों से मेरा परिचय हुआ, तो पता चला कि सबके सब असिस्टैंड डायरेक्टर थे, कोई चीफ असिस्टैंड डायेक्टर, कोई उसका सहायक और कोई उस सहायक का सहायक। हर दूसरा किसी पहले का सहायक था और अपनी निजी फिल्म कम्पनी की नींव डालने के लिए पैसा इकट्ठा कर रहा था। अपने पहनावे और हाव-भाव से हर कोई हीरो मालूम होता था। कंट्रोल का, जमाना था, लेकिन किसी के पास राशन कार्ड नहीं था। वे चीजें थीं, जो थोड़ी-सी तकलीफ के बाद आसानी से कम कीमत पर मिल सकती थी, ये लोग ब्लैक मार्केट से खरीदते थे। पिक्चर जरूर देखते थे, रेस का जमाना होता, तो रेस खेलते थे, नहीं तो सट्टा। जीततें कभी-कभार ही थे, लेकिन हारते हर रोज थे।

सईदा कॉटेज की आबादी बहुत घनी थी। चूंकि जगह कम थी, इसलिए मोटर गैरेज को भी रहने का काम में लाया जाता था। उसमें एक फैमिली रहती थी। शीरी नाम की एक स्त्री थी, जिसका पति शायद एकरूपता तोड़ने के लिए सहायक डायरेक्टर नहीं था। वह उसी फिल्म कम्पनी में नौकर था, लेकिन मोटर ड्राइवर था। मालूम नहीं वह कब आता था और कब जाता था, क्योंकि मैंने उस शरीफ आदमी को वहां कभी नहीं देखा। शीरी का एक छोटा-सा लड़का था, जिसको सईदा कॉटेज के सभी निवासी फुरसत के समय प्यार करते। शीरी, जो काफी सुन्दर थी, अपना अधिकतर समय गैरेज में गुजारती थी।

कॉटेज का सम्मानित भाग चड्ढा और उसके दो साथियों के पास था। वे दोनों भी एक्टर थे, लेकिन हीरो नहीं थे। एक सईद था, जिसका फिल्मी नाम रंजीत कुमार था। चड्ढा कहा करता था कि सईदा कॉटेज उसी गधे के नाम से प्रसिद्ध है अन्यथा उसका नाम ‘रंजीदा कॉटेज’ ही था। वह काफी सुन्दर और कम बोलने वाला था। चड्ढा कभी-कभी उसे कछुआ कहा करता था, क्योंकि वह हर काम बहुत धीरे-धीरे करता था।

दूसरे एक्टर का नाम मालूम नहीं क्या था, लेकिन सब उसे गरीब नवाज कहते थे। वह हैदराबाद के खाते-पीते घराने से सम्बन्ध रखता था। और एक्टिंग के शौक में यहां चला आया था। तनख्वाह ढाई सौ रुपये माहवार मुकर्रर थी, लेकिन उसे नौकर हुए एक बरस हो गया था और इस बीच उसने केवल एक बार ढाई सौ रुपये एडवांस के रूप में लिए थे वह भी चड्ढा के लिए, जिसे एक खूंखार पठान की अदायगी करनी थी। ऊटपटांग किस्म की भाषा में फिल्मी कहानियां लिखना उसका शगल था और कभी-कभी वह शायरी भी कर लिया करता था। कॉटेज का हर आदमी उसका ऋणी था।

शकील और अकील दो भाई थे। दोनों किसी असिस्टैंड डायरेक्टर के असिस्टैंड थे और सबकी तरह अपनी फिल्म कम्पनी बनाने के लिए पैसे जुटाने के चक्कर में थे।

तीन बड़े यानी चड्ढा, सईद और गरीबनवाज शीरी का बहुत खयाल रखते थे, लेकिन तीनों कभी इकट्ठे गैरेज में नहीं जाते थे। हालचाल पूछने का उनका कोई समय भी निश्चित न था। तीनों जब कॉटेज के बड़े कमरे में इकट्ठे होते, तो उसमें से एक उठकर गैरेज में चला जाता और कुछ देर वहां बैठकर शीरी से घरेलू मामलों में बातचीत करता रहता। बाकी दो अपने-अपने काम में लगे रहते।

जो असिस्टैंड किस्म के लोग थे, वे शीरी का हाथ बंटाया करते थे। कभी उसको बाजार से सौदा-सुलफ ला दिया, कभी लांड्री में उसके कपड़े धुलने दे आए और कभी उसके रोते बच्चे को बहला दिया। उनमें से ‘रंजीदा’ कोई भी न था, सबके सब प्रसन्न थे। अपनी कठिन परिस्थितियों की चर्चा भी करते बड़े उल्लास से। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी जिंदगी बड़ी दिलचस्प थी।

हम कॉटेज के गेट में दाखिल होने जा रहे थे कि गरीबनवाज साहब बाहर आ रहे थे। चड्ढा ने उनकी ओर ध्यान से देखा और अपनी जेब में हाथ डालकर नोट निकाले। बिना गिने उसने कुछ गरीबनवाज को दे दिए और कहा, “चार बोतलें स्कॉच ही चाहिए। कमी आप पूरी कर दीजिएगा, बेशी हों, तो मुझे वापस मिल जाएं।”

गरीबनवाज के हैदराबादी होंठों पर गहरी सांवली मुस्कराहट आ गई। चड्ढा खिलखिलाकर हंसा और मेरी ओर देखकर उसने गरीबनवाज से कहा, “यह मिस्टर मंटो हैं….लेकिन इनसे तफसीली मुलाकात की इजाजत इस वक्त नहीं मिल सकतीं। यह रम पिए हैं। शाम को स्कॉच आ जाए तो….लेकिन आप जाइए।”

गरीबनवाज चला गया। हम अन्दर दाखिल हुए। चड्ढा ने एक जोर की जम्हाई ली और रम की बोतल उठाई, जो आधी से ज्यादा खाली थी। उसने रोशनी में उसकी मात्रा का सरसरी तौर पर अनुमान लगाया और नौकर को आवाज दी, कजाकिस्तान के शहजादे!” जब वह न आया तो उसने अपने गिलास में एक बड़ा पेग डालते हुए कहा, “ज्यादा पी गया है कमबख्त।”

गिलास खत्म करते हुए वह कुछ चिन्तित हो गया, “यार, भाभी को तुम ख्वामख्वाह यहां लाए। खुदा कसम, मुझे अपने सीने पर एक बोझ-सा महसूस हो रहा है,” फिर स्वयं ही उसने अपने को धैर्य बंधाया, “लेकिन मेरा ख्याल है कि वे बोर नहीं होंगी वहां।”

मैंने कहा, “हां, वहां रहकर वह मेरे कत्ल का जल्दी इरादा नहीं कर सकती।” यह कहकर मैंने अपने गिलास में रम डाली, जिसका स्वाद बुसे हुए गुड़ जैसा था।

जिस कबाड़खाने में हम बैठे थे, उसमें सलाखों वाली दो खिड़कियां थीं, जिनसे बाहर का खाली-खाली-सा भाग नजर आता था। इधर से किसी ने चड्ढे का नाम लेकर जोर से पुकारा। मैं चौक पड़ा और देखा कि म्यूजिक डायरेक्टर वनकसरे हैं। कुछ समझ में नहीं आता कि वह किस नस्ल का है मंगोल है, हब्शी है, आर्य है या क्या बला है! कभी-कभी उसके नख-शिख को देखकर आदमी किसी परिणाम पर पहुंचने ही वाला होता था कि उसके बदले में कोई ऐसा चिह्न नजर आ जाता कि तुरंत ही नये सिरे से विचार करना पड़ जाता। वैसे वह मराठा था, लेकिन शिवाजी की तीखी नाक के बजाय उसके चेहरे पर बड़े आश्चर्यजनक ढंग से मुड़ी हुई चपटी नाक थी, जो विचारानुसार उन सुरों के लिए बहुत जरूरी थी, जिसका सीधा सम्बन्ध नाम से होता है। उसने मुझे देखा, तो चिल्लाया, “मंटो सेठ!”

चड्ढे ने उससे ज्यादा ऊंची आवाज में कहा, “सेठ की ऐसी-तैसी, चल, अन्दर आ!”

वह तुरन्त अन्दर आ गया। अपनी जेब से उसने हंसते हुए रम की एक बोतल निकाली और तिपाई पर रख दी, “मैं साला उधर मम्मी के पास गया। वह बोला, ‘तुम्हारा फरेण्ड आए ला।’ मैं बोला, ‘साला यह फरेण्ड कौन होने का सकता…साला मालूम न था साला मंटो है!’”

चड्ढा ने वनकतरे के कद्दू जैसे सिर पर एक धौल जमाई, “अबे चुप कर साले…तू रम ले आया…बस ठीक है!” वनकतरे ने अपना सिर सहलाया और मेरा खाली गिलास उठाकर अपने लिए पेग बनाया, “मंटो, यह साला आज मिलते ही कहने लगा, ‘आज पीने को जी चाहता है’….मैं एकदम कड़का……सोचा, क्या करूं….”

चड्ढे ने एक और धप्पा उसके सिर पर जमाया, “बैठ बे, जैसे तूने सचमुच ही कुछ सोचा होगा!”

“सोचा नहीं तो साला इतनी बड़ी बाटली कहां से आया, तेरे बाप ने दिया?” वनकतरे ने एक ही घूंट में रम खत्म कर दी। चड्ढा ने उसकी बात सुनी-अनसुनी कर दी और उससे पूछा, “तू यह तो बता कि मम्मी क्या बोली?….बोली थी कि मोजेल कब आएगी?….अरे हां….वह प्लेटीनम ब्लौंड!”

वनकतरे ने जवाब में कुछ कहना चाहा, लेकिन चड्ढा ने मेरी बांह पकड़कर कहना शुरू कर दिया, “मंटो, खुदा की कसम, क्या चीज है! सुना करते थे कि एक चीज प्लेटीनम ब्लौंड भी होती है, मगर देखने का मौका कल मिला। बाल हैं, जैसे चांदी के महीन-महीन तार…..ग्रेट…..खुदा की कसम, मंटो, बहुत ग्रेट……मम्मी जिन्दाबाद!” फिर उसने क्रोधित नजरों से वनकतरे की ओर देखा और कड़कर कहा, “कनकुतरे के बच्चे, नारा क्यों नहीं लगाता, मम्मी जिन्दाबाद!”

चड्ढे और वनकतरे दोनों ने मिलकर ‘मम्मी जिन्दाबाद!’ के कई नारे लगाये। इसके बाद वनकतरे ने चड्ढा के बातों पर फिर जवाब देना चाहा, लेकिन उसने उसे चुप करा दिया, “छोड़ो यार, मैं जज्बाती हो गया हूं इस वक्त, यह सोच रहा हूं कि आम तौर पर माशूकों के बाल काले होते हैं, जिन्हें काली घटा कहा जाता रहा है, मगर यहां कुछ और ही मामला हो गया?” फिर वह मुझसे सम्बोधित हुआ, ‘मंटो, बड़ी गड़बड़ हो गई है, उसके बाल चांदी के तारों जैसे हैं। चांदी का रंग भी नहीं कहा जा सकता। मालूम नहीं, प्लेटीनम का रंग कैसा होता है, क्योंकि मैंने अभी तक वह धातु देखी नहीं, कुछ अजीब-सा रंग है। फौलाद और चांदी दोनों मिला दिये जाएं…”

वनकतरे ने दूसरा पेग खत्म करते हुए कहा, “और उसमें थोड़ी-सी थ्री एक्स रम मिक्स कर दी जाए…….”

चड्ढे ने भन्नाकर उसे एक बहुत ही मोटी गाली दी। “….बकवास न कर!” फिर उसने बड़ी दयनीय नजरों से मेरी ओर देख, “यार…. मैं

जज्बाती हो गया हूं….हां.. वह रंग, खुदा की कसम, लाजवाब रंग है…वह तुमने देखा है…वह, जो मछलियों के पेट पर होता है?…नहीं-नहीं, हर जगह होता, पौमफ्रे मछली…उसके वे क्या होते हैं?…नहीं-नहीं, सांपों के ….वे नन्हें-नन्हें खपरे….हां, खपरे…बस उनका रंग….खपरे……यह शब्द मुझे हिन्दुस्तोड़े ने बताया था…इतनी खूबसूरत चीज और ऐसा भोंडा नाम….पंजाबी में हम इन्हें चाने कहते हैं। इस शब्द में चिन-चिनाहट है….यही, बिलकुल वही, जो उसके बालों में है। लटें नन्हीं-नन्ही संपोलियां मालूम होती हैं, जो लोट लगा रही हो…..’ वह एकदम उठा, “संपोलियों की ऐसी-तैसी! मैं जज्बाती हो गया हूं।”

वनकतरे ने बड़े भोलेपन से पूछा, “वह क्या होता है?”

“सेण्टीमेण्टल,” चड्ढा ने जवाब दिया, “लेकिन तू क्या समझेगा बालाजी बाजीराव और नाना फड़नवीस की औलाद….!”

वनकतरे ने अपने लिए एक और पेग बनाया और मुझे संबोधित होकर कहा, “यह साला चड्ढा समझता है कि मैं इंगलिश नहीं समझता हूं। मैट्रीक्यूलेट हूं…साला मेरा बाप मुझसे बहुत मोहब्बत करता था….उसने…..”

चड्ढा ने चिढ़कर कहा, “उसने तुझे तानसेन बना दिया और तेरी नाक मरोड़ दी, ताकि निगोड़े सुर आसानी से तेरी नाक से निकल सकें। बचपन में ही उसने तुझे ध्रुपद गाना सिखा दिया था और दूध पीने के लिए तूं मियां की तोड़ी में रोया करता था और पेशाब करते वक्त अड़ाना में और तूने पहली बात पटदीप में की थी….और तेरा बाप….जगत उस्ताद था, बैजू बावरे के भी कान काटता था….और तू आज उसके कान काटता है, इसलिए तेरा नाम कनकुतरे है,” इतना कहकर वह मेरी ओर मुड़ा, ‘मंटो, यह साला जब भी पीता है, अपने बाप की तारीफ शुरू कर देता है। वह इससे मोहब्बत करता था, तो मुझपर उसने क्या अहसान किया और उसने इसे मैट्रीक्यूलेट बना दिया, तो इसका यह मतलब नहीं कि मैं अपनी बी.ए. की डिग्री फाड़कर फेंक दूं।”

वनकतरे ने इस बौछार पर आपत्ति प्रकट करनी चाही, मगर चड्ढे ने उसे वहीं दबा दिया, “चप रह…मैं कह चुका हैं कि मैं सेण्टीमेण्टल हो गया हूं….हां, वे रंग, पौमफ्रेट मछली के ….नहीं-नहीं, सांप के नन्हें-नन्हें खपरे….बस, इन्हीं का रंग मम्मी ने खुदा जाने अपनी बीन पर कौन-सा राग बजाकर उस नागिन को बाहर निकाला है।”

वनकतरे सोचने लगा, “पेटी मंगाओ, मैं बजाता हूं।”

चड्ढा खिलखिलाकर हंसने लगा, “बैठ बे मैट्रीक्यूलेट के चाकुलेट!” उसने रम की बोतल में से बची हुई रम को अपने गिलास में उड़ेल दिया और मुझसे कहा, “मंटो, अगर वह प्लेटीनम ब्लौंड न पटी, तो चड्ढा हिमालय पहाड़ की किसी चोटी पर धूनी रमाकर बैठ जाएगा….।” और उसने गिलास खाली कर दिया।

वनकतरे ने अपनी लाई हुई बोतल खोलनी शुरू की, “मंटो, मुगली एकदम चांगली है।”

मैंने कहा, “देख लेंगे।”

“आज ही रात, आज रात मैं एक पार्टी दे रहा हूं। यह बहुत ही अच्छा हुआ कि तुम आ गए और श्री एक सौ आठ मेहता जी ने तुम्हारी वजह से एडवांस दे दिया, नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती….आज रात…..आज की रात……” चड्ढे ने बड़े भौंडे सुरों में गाना शुरू कर दिया, “आज की रात साजे-दर्द न छेड़!”

बेचारा वनकतरे उसकी इस ज्यादती पर एक बार फिर आपत्ति करने ही वाला था कि तभी गरीबनवाज और रंजीतकुमार आ गए। दोनों के पास स्कॉच की दो-दो बोतलें थीं। वे उन्होंने मेज पर रख दीं।

रंजीतकुमार से मेरे अच्छे-खासे सम्बन्ध थे, लेकिन बेतकल्लुफी नहीं थी, इसलिए हम दोनों ने थोड़ी-सी ‘आप कब आए?’, ‘आज ही आया’ ऐसी रस्मी बातें की और गिलास टकरा कर पीने लग गए।

चड्ढा वाकई बहुत जज्बाती हो गया था। हर बात में उस प्लेटीनम ब्लौंड का जिक्र ले आता था। रंजीतकुमार दूसरी बोतल का चौथाई हिस्सा चढ़ा गया था। गरीबनवाज ने स्कॉच के तीन पेग पिए थे। नशे के मामले में उन सबकी हालत अब तक एक जैसी थी। मैं चूंकि ज्यादा पीने का आदी हूं, इसलिए मैं ज्यों का त्यों बैठा था। उनकी बातचीत से मैंने अन्दाजा लगाया कि वे चारों उस नई लड़की पर बहुत बुरी तरह मर मिटे थे, जो मम्मी ने कहीं से पैदा की थी। इस अमूल्य मोती का नाम फिलिस था। पूना में कोई हेअर ड्रेसिंग सैलून था, जहां वह नौकरी करती थी। उसके साथ आम तौर पर एक हिजड़ा-सा लड़का रहा करता था। लड़की की उम्र चौदह-पन्द्रह वर्ष के करीब थी। गरीबनवाज तो यहां तक उस पर फिदा था कि वह हैदराबाद में अपने हिस्से की जायदाद बेचकर भी दांव पर लगाने के लिए तैयार था। चड्ढे के पास तुरुप का केवल एक पत्ता था, अपनी सुन्दरता। वनकतरे का विचार था कि उसकी पेटी सुन वह परी जरूर शीशे में उतर आएगी और रंजीतकुमार जोर-जबरदस्ती को ही कारगर समझता था, लेकिन सब अन्त में यही सोचते थे कि देखिए, मम्मी किस पर कृपा करती हैं। इससे मालूम होता था कि उस प्लेटीनम ब्लौंड फिलिस को वह स्त्री, जिसे मैंने चड्ढा के साथ तांगे में देखा था, किसी के भी हवाले कर सकती थी।

फिलिस की बातें करते-करते चड्ढा ने अचानक अपनी घड़ी देखी और मुझसे कहा, “जहुन्नम में जाए यह छोकरी! चलो यार, भाभी वहां कवाब हो रही होंगी, लेकिन मुसीबत यह है कि मैं वहां भी कहीं सेण्टीमेण्टल न हो जाऊं। खैर, तुम मुझे संभाल लेना,” अपने गिलास की कुछ आखिरी बूंदें अपने कण्ठ में टपकाकर उसने नौकर को आवाज दी, “ममियों के मुल्क मिस्र के शहजादे!”

ममियों के मुल्क मिस्र का शहजादा इस तरह आंखें मलता वहां आया, जैसे उसे सदियों के बाद खोदकर बाहर निकाला गया हो। चड्ढे ने उसके मुंह पर रम के छींटे मारे और कहा, “दो अदद तांगे लाओ, जो मिस्र के रथ मालूम हों।”

तांगे आ गए। हम सब उन पर लदकर प्रभात नगर के लिए चल पड़े। मेरा पुराना फिल्मों का साथी हरीश घर पर मौजूद था। इतनी दूर-दराज जगह पर रहने के बावजूद उसने मेरी बीवी की खातिरदारी में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। चड्ढा ने आंख के इशारे से उसे सारा मामला समझा दिया, अतएव वह बहुत हितकर साबित हुआ। मेरी बीवी ने अपना गुस्सा व्यक्त नहीं किया। उसका समय वहां कुछ अच्छा ही बीता था। हरीश ने, जो स्त्रियों की प्रकृति का अच्छा जानकार था, बड़ी मजेदार बातें की और अन्त में मेरी बीवी से प्रार्थना की कि वह उसकी शूटिंग देखने चले, जो उस दिन होने वाली थी। मेरी बीबी ने पूछा, “कोई गाना फिल्मा रहे हैं आप?”

हरीश ने जवाब दिया, “जी नहीं, वह कल का प्रोग्राम है, मेरा ख्याल है, आप कल चलिएगा।”

हरीश की बीवी शूटिंग देख-देखकर और दिखा-दिखाकर तंग आई हुई थी। उसने तुरन्त मेरी बीवी से कहा, “हां, कल ठीक रहेगा,” फिर सबकी ओर देखकर बोली, “आज इन्हें सफर की थकान भी है।”

हम सबने सन्तोष की सांस ली। हरीश ने फिर कुछ देर तक मजेदार बातें की, अन्त में मुझसे कहा, “चलो यार, तुम चलो मेरे साथ,” फिर मेरे तीन साथियों की और देखा, “इनको छोड़ो, सेठ साहब तुम्हारी कहानी सुनना चाहते हैं।”

मैंने बीवी की ओर देखा और हरीश से कहा, “इनसे इजाजत ले लो।”

मेरी भोली-भाली बीवी जाल में फंस चुकी थी। उसने हरीश से कहा, “मैंने बम्बई से चलते वक्त इनसे कहा भी था कि अपना ‘डाकूमेण्ट केस’ साथ ले चलिए, लेकिन इन्होंने कहा, कोई जरूरत नहीं। अब ये कहानी क्या सुनाएंगे?”

हरीश ने कहा, “जबानी सुना देगा।” फिर उसने मेरी ओर यूं देखा, जैसे कह रहा हो कि जल्दी ‘हां’ कहो।

मैंने धीमे से कहा, “हां, ऐसा हो सकता है।”

चड्ढा ने उस ड्रामे ने अन्तिम टच दिया, “तो भई हम चलते हैं।” और तीनों सलाम-नमस्ते करके चले गए। थोड़ी देर के बाद मैं और हरीश निकले। प्रभात नगर के बाहर तांगे खड़े थे। चड्ढा ने हमें देखा और जोर से नारा नगाया, “राजा हरीशचन्द्र की जय!”

शाम को हमारी महफिल जमी मम्मी के घर।

यह भी एक कॉटेज था। शक्ल-सूरत और बनावट में सईदा कॉटेज जैसा मगर बहुत साफ-सुथरा, जिससे मम्मी के सलीके का पता चलता था। फर्नीचर मामूली था, लेकिन जो चीज जहां थी, सजी हुई थी। मैंने सोचा कि मम्मी का घर कोई वेश्यालय होगा, लेकिन उस घर की किसी चीज से भी नजरों में ऐसा सन्देह नहीं होता था। वह वैसा ही शरीफाना था, जैसा कि एक मध्यम वर्ग के ईसाई का होता है, लेकिन मम्मी की उम्र के मुकाबले में वह कुछ जवान-जवान-सा दिखाई देता था उस पर वह मेकअप नहीं था, जो मैंने मम्मी के झुर्रियों वाले चेहरे पर देखा था। जब मम्मी ड्राइंगरुम में आई, तो मैंने सोचा कि इर्द-गिर्द की जितनी चीजें हैं, वे आज की नहीं बहुत वर्षों की हैं, केवल मम्मी आगे निकलकर बूढ़ी हो गई है और वे वैसी की वैसी पड़ी रही हैं, उनकी जो उम्र थी, वह वहीं की वहीं रही है, लेकिन जब मैंने इसके गहरे और शोख मेकअप की ओर देखा, तो मेरे दिल में न जाने क्यों यह इच्छा पैदा हुई कि वह भी अपने इर्द-गिर्द के वातावरण की तरह पूरी तरह जवान बन जाए।

चड्ढा से उसने मेरा परिचय कराया, जो बहुत संक्षिप्त था और फिर संक्षेप में ही उसने मुझसे मम्मी के बारे में यह कहा, “यह मम्मी हैं…..द ग्रेट मम्मी…”

मम्मी अपनी प्रशंसा सुनकर मुस्करा दी और मेरी तरफ देखकर उसने चड्ढा से अंग्रेजी में कहा, “तुमने जो चाय मंगवाई थी, वह बहुत जल्दी में बनी थी, वह शायद इन्हें पसन्द न आई हो।” फिर उसने मेरी ओर मुड़कर कहा, “मिस्टर मंटो, मैं बहुत शर्मिन्दा हूं। असल में सारा कसूर तुम्हारे दोस्त चड्ढा का है, जो मेरा बेहद बिगड़ा हुआ लड़का है।”

मैंने उचित शब्दों में चाय की प्रशंसा की और उसका धन्यवाद दिया।

मम्मी ने मुझे बेकार की तारीफ न करने के लिए कहा और फिर चड्ढे से बोली, “रात का खाना तैयार है। यह मैंने इसलिए किया कि तुम ऐन वक्त के वक्त मेरे सिर पर सवार हो जाओगे….”

चड्ढा ने मम्मी को गले से लगा लिया, “यू आर ए ज्यूल मम्मी! यह खाना अब हम खाएंगे।”

मम्मी ने चौंककर पूछा, “क्यों? …..नहीं, हरगिज नहीं।”

चड्ढा ने उसे बताया, “मिसेज मंटो को हम प्रभात नगर छोड़ आए हैं।”

मम्मी चिल्लाई, “खुदा तुम्हें गारत करे! यह तुमने क्या किया?”

चड्ढा खिलखिलाकर हंसा, “आज पार्टी जो होने वाली थी।”

“वह तो मैंने मिस्टर मंटो को देखते ही अपने दिल में कैंसिल कर दी थी।” मम्मी ने अपना सिगरेट सुलगाया।

चड्ढा का दिल डूब गया, “खुदा अब तुम्हें गारत करे।….और यह सब प्लान हमने इस पार्टी के लिए बनाया था।” वह कुर्सी पर रंजीदा-सा होकर बैठ गया और कमरे के कण-कण से सम्बोधन कर कहने लगा, “लो, सारे सपने मटियामेट हो गए….प्लेटनम ब्लौंड….औंधे सांप के नन्हे-नन्हें खपरों जैसी रंग वाली….“एकदम उठकर उसने मम्मी को बाहों में पकड़ लिया, “कैंसिल की थी, अपने दिल में कैंसिल की थी ना।…..लो, उस पर सआद (सही का चिह्न) बना देता हूँ”, और उसने मम्मी के दिल की जगह पर उंगली से बड़ा सुआद बना दिया और ऊंची आवाज में पुकारा, “हुर्रे!”

मम्मी सम्बन्धित लोगों को सूचना भेज चुकी थी कि पार्टी कैंसिल हो चुकी है, लेकिन मैंने महसूस किया कि वह चड्ढा का दिल तोड़ना नहीं चाहती थी, इसलिए उसने बड़े लाड़ से उसके गाल थपथपाए और कहा, “तुम फिक्र न करो, मैं अभी इन्तजाम करती हूं।”

वह इन्तजाम करने बाहर चली गई। चड्ढा ने खुशी का एक और नारा लगाया और वनकतरे से कहा, “जनरल वनकतरे! जाओ, हेडक्वार्टर से सारी तोपें ले आओ।”

वनकतरे ने सैल्यूट किया और आज्ञा-पालन के लिए चला गया। सईदा कॉटेज बिलकुल पास थी। दस मिनट के अन्दर-अन्दर वह बोतलें लेकर वापस आ गया। उसके साथ चडढा का नौकर था। चडढा ने उसको देखा तो उसका स्वागत किया “आओ-आओ मेरे कोहकाफ के शहजादे….वह….वह सांप के खपरों जैसे रंग के बालों वाली छोकरी आ रही है। तुम भी किस्मत-अजमाई कर लेना।”

रंजीतकुमार और गरीबनवाज को चड्ढा का इस प्रकार का निमंत्रण अच्छा न लगा। दोनों ने मुझसे कहा कि यह चड्ढा की बहुत बेहूदगी है। इस बेहूदगी को उन्होंने बहुत महसूस किया था। चड्ढा नियमानुसार अपनी हांकता रहा और वे चुपचाप एक कोने में बैठे धीरे-धीरे रम पीकर एक-दूसरे के अपने सुख-दुःख की बातें करते रहे।

मैं मम्मी के सम्बन्ध में सोचता रहा। ड्राइंग रूम में गरीबनवाज, रंजीतकुमार और चड्ढा बैठे थे। ऐसा लगता था कि ये छोटे-छोटे बच्चे बैठे हैं और इनकी मां बाहर खिलौने लेने गई है। ये सब इन्तजार में हैं। चड्ढा संतुष्ट है कि सबसे अच्छा खिलौना उसे मिलेगा, इसलिए कि वह अपनी मां का चहेता है। बाकी दो का दुःख चूंकि एक जैसा था, इसलिए वे एक-दूसरे के हितैषी बन गए थे। शराब इस वातावरण में दूध समान होती थी और वह प्लेटोनम ब्लौंड……उसकी कल्पना दिमाग में एक छोटी-सी गुड़िया के रूप में की जाती थी। हर वातावरण का अपना एक विशेष संगीत होता है। उस समय जो संगीत मेरे दिल के कानों तक पहुंच रहा था, उसमें कोई सुर उत्तेजक नहीं था। हर चीज मां और उसके बच्चों के परस्पर सम्बन्धों की तरह स्पष्ट थी।

मैंने जब उसको तांगे में चड्ढे के साथ देखा था, तो मुझे धक्का-सा लगा था। मुझे अफसोस हुआ कि मेरे दिल में उन दोनों के संबंध में बुरे विचार पैदा हुए, लेकिन यह चीज मुझे बार-बार सता रही थी कि वह इतना गहरा मेकअप क्या करती है, जो झुर्रियों की तौहीन है। उस ममता का अपमान है, जो उसके दिल में चड्ढा, गरीबनवाज और नवकतरे के लिए मौजूद है और खुदा जाने और किस-किसके लिए…..

“इसलिए कि दुनिया हर चटख चीज को पसन्द करती है। तुम्हारे और मेरे जैसे उल्लू इस दुनिया में बहुत कम बसते हैं, जो मद्धम सुर और मद्धम रंग पसन्द करते हैं। जो जवानी को बचपन के रूप में नहीं देखना चाहते और……और जो बुढ़ापे पर जवानी की टिपटाप पसंद नहीं करते….हम जो खुद को कलाकार कहते हैं, उल्लू के पट्ठे हैं…….मैं तुम्हें एक दिलचस्प घटना सुनाता हूँ……..साखी का मेला था…… तुम्हारे अमृतसर में……राम बाग में उस बाजार में टकैइयां (वेश्याएं) रहती थीं, जाट गुजर रहे थे। एक तन्दुरुस्त जवान ने खालिस दूध और मक्खन पर पले जवान ने, जिसकी नई जूती उसकी लाठी पर बाजीगरी कर रही थी, ऊपर एक कोठे की देखा, जहां एक टकई की तेल में भीगी हुई जुल्फें उसके माथे पर बड़े बदसूरत रंग से जमी हुई थीं। उसने अपनी साथी की पसलियों में टहोका देकर कहा, ‘ओए लहनासियां……देख, ओए ऊपर देख, असीं ते पिंड विध मझांई….।’ अन्तिम शब्द चड्ढा ने जाने क्यों गोल कर दिया। हालांकि वह किसी प्रकार की शिष्टता का कायल नहीं था। फिर वह खिलखिलाकर हंसने लगा और मेरे गिलास में रम डालकर बोला, “उस जाट के लिए वह चुडैल ही उस वक्त कोहकाफ की परी थी और उसके गांव की सुन्दर और स्वस्थ मुटियारें बेडौल भैसें। हम सब चुगद हैं…दर्मियाने दर्जे के…..इसलिए कि इस दुनिया में कोई चीज अव्वज दर्जे की नहीं… तीसरे दर्जे की है या दर्मियाने दर्जे की, लेकिन…..लेकिन फिलिस खासुलखास दर्जे की चीज है।……वह सांप के खपरों…….”

वनकतरे ने अपना गिलास उठकर चड्ढा के सिर पर उड़ेल दिया, “खपरे.. खपरे तुम्हारा भेजा फिर गया है।”

चड्ढा ने माथे पर से रम की टपकती बूंदें चाटनी शुरू कर दी और वनकतरे ने कहा, “ले अब सुना, तेरा बाप साला तुझसे कितनी मोहब्बत करता था। मेरा दिमाग अब काफी ठंडा हो गया है।”

वनकतरे बहुत गम्भीर होकर मुझसे बोला, “बाई गॉड, वह मुझसे बहुत मोहब्बत करता था। मैं फिफ्टीन ईअर का था कि उसने मेरी शादी बना दें।

चड्ढा जोर से हंसा, “तुम्हें कार्टून बना दिया उस साले ने। भगवान उसे स्वर्ग में केसरियल की पेटी दे कि वहां भी उसे बजा-बजाकर वह तुम्हारी शादी के लिए कोई खूबसूरत हूर ढूंढ़ता रहे और तुम्हारी खूबसूरत बीवी की ऐसी-तैसी। इस वक्त फिलिस की बात करो। उससे ज्यादा और कोई खूबसूरत नहीं हो सकता।” चड्ढा ने गरीबनवाज और रंजीतकुमार की ओर देखा, जो कोने में बैठे फिलिस के सौन्दर्य पर अपनी राय एक-दूसरे पर प्रकट करने वाले थे, “गन पाउडर प्लांट के स्वामियों, सुन लो, तुम्हारी कोई साजिश कामयाब नहीं हो सकती। मैदान चड्ढा के हाथ में रहेगा, क्यों वेल्ज के शहजादे?”

वेल्ज का शहजादा रम की खाली हुई बोतल की तरफ हसरत-भरी नजरों से देख रहा था। चड्ढा ने कहकहा लगाया और उसको आधा गिलास भरकर दे दिया। गरीबनवाज और रंजीतकुमार एक-दूसरे से फिलिस के बारे में घूल-मिलकर बातें तो कर रहे थे, लेकिन अपने दिमाग में उसको प्राप्त करने के लिए प्रोग्राम अलग-अलग बना रहे थे। यह उनकी बातचीत के ढंग से प्रकट होता था।

ड्राइंग रूम में जब बिजली का बल्ब जल रहे थे, क्योंकि शाम गहरी हो चली थी। चड्ढा मुझे बम्बई की फिल्म इण्डस्ट्री के ताजे समाचार सुना रहा था कि बाहर बरामदे में मम्मी की तेज आवाज सुनाई दी। चड्ढे ने नारा लगाया और बाहर चला गया। गरीबनवाज ने रंजीतकुमार की ओर अर्थपूर्ण नजरों से देखा। फिर दोनों दरवाजे की ओर देखने लगे।

मम्मी चमकती हुई अन्दर दाखिल हुई। उसके साथ चार-पांच ऐंग्लो इण्डियन लड़कियां थीं। तरह-तरह के नख-शिख और कद-काठी की। पोली, डौली, किटी, एलिमा और थेलिमा और वह हिजड़ा-सा लड़का, जिसे चड्ढा सिसी कहकर पुकारता था। फिलिस सबसे पीछे आई और वह भी चड्ढा के साथ। उसकी एक बांह प्लेटीनम ब्लौंड की पतली कमर के पीछे लगी थी। मैंने गरीबनवाज और रंजीतकुमार की प्रतिक्रिया नोट की। उनको चड्ढा की यह दिखावटी विजय हरकत पसन्द न आई थी।

लड़कियों के भीतर आते ही शोर मच गया। एकदम इतनी अंग्रेजी बरसी कि वनकतरे मैट्रीक्युलेशन परीक्षा में कई बार फेल हुआ, लेकिन उसने कोई परवाह न की और बराबर बोलता रहा। जब किसी ने उसका नोटिस न लिया तो वह एलिमा की बड़ी बहन थेलिमा के साथ एक सोफे पर अलग बैठ गया और पूछने लगा कि उसने हिन्दुस्तानी डांस के और कितने नये तोड़े सीखे हैं। वह इधर ‘धा नी ता कता ता थई की वन, टू, थ्री’ बना-बनाकर उसकी तोड़ बता रहा था, उधर चड्ढा बाकी लड़कियों के झुरमुट में अंग्रेजी के नंगे-नंगे मजाक सुना रहा था, जो उसे हजारों की संख्या में जुबानी याद थे। मम्मी सोडे की बोतलें और खाने-पीने का सामान मंगवा रही थी। रंजीतकुमार सिगरेट के कश लगाकर टकटकी बांधे फिलिस की ओर देख रहा था। और गरीबनवाज मम्मी से बार-बार कहता था कि रुपये कम हों तो वह उससे ले ले।

स्कॉच खुली और पहला दौर शुरू हुआ। फिलिस को जब शामिल होने के लिए कहा गया, तो उसने अपने प्लेटीनमी बालों को एक हलका-सा झटका देकर मना कर दिया कि वह ह्विस्की नहीं पिया करती।

सबने मिन्नत-खुशामद की, लेकिन वह न मानी। चड्ढे ने इस पर दुःख प्रकट किया तो मम्मी ने एक हलका-सा पेग तैयार करके गिलास को फिलिस की होंठों से लगाते हुए बड़े दुलार से कहा, “बहादुर लड़की बनो और पी जाओ।”

फिलिस इनकार न कर सकी। चड्ढा खुश हो गया और उसने इसी खुशी में बीस-पच्चीस और नंगे मजाक सुना दिए। सब मजे लेते रहे। मैंने सोचा, आदमी ने नग्नता से तंग आकर वस्त्र पहनने शुरू किए होंगे। यही कारण है कि अब वह वस्त्रों से उकताकर कभी-कभी नग्नता की ओर दौड़ने लगता है। शिष्टता की प्रतिक्रिया निःसन्देह अशिष्टता है। इस पलायन का एक दिलचस्प पहलू भी है। आदमी को इससे एक निरंतर एकरसता के कष्ट से कुछ क्षणों के लिए मुक्ति मिल जाती है।

मैंने मम्मी की ओर देखा, जो उन जवान लड़कियों से घुलमिलकर चड्ढे के नंगे-नंगे मजाक सुनकर हंस रही थीं और कहकहे लगा रही थीं। उसके चेहरे पर वही वाहियात मेकअप था। उसके नीचे उसकी झुर्रियां साफ नजर आ रही थीं। मगर वह भी उल्लसित थी। मैंने सोचा, आखिर लोग क्यों पलायन को बुरा समझते हैं, वह पलायन जो मेरी आंखों के सामने था? उसका बाह्य रूप यद्यपि सुन्दर न था, लेकिन भीतर बहुत सुन्दर था, उस पर कोई बनाव-शृंगार न था। कोई गाजा, कोई उबटन नहीं था।

पोली थी, वह एक कोने में रंजीतकुमार के पास खड़ी अपने नये फ्रॉक के बारे में बातचीत कर रही थी और उसे बता रही थी कि सिर्फ अपनी होशियारी से उसने बड़े सस्ते दामों पर उम्दा चीज तैयार करा ली है। दो टुकड़े थे, जो बिल्कुल बेकार मालूम पड़ते थे, मगर अब वे एक सुन्दर पोशाक में बदल गए थे और रंजीतकुमार बड़ी गम्भीरता के साथ उसके दो नये ड्रेस बनवा देने का वायदा कर रहा था, हालांकि उसे फिल्म कंपनी ने इतने रुपये इकट्ठे मिलने की कोई आशा नहीं थी।

डौली थी, वह गरीबनवाज से कुछ कर्ज मांगने की कोशिश कर रही थी और उसको विश्वास दिला रही थी कि दफ्तर से तनख्वाह मिलने पर वह यह कर्ज जरूर अदा कर देगी। गरीबनवाज को पूरी तरह मालूम था कि वह यह रुपया वायदे के अनुसार कभी वापस नहीं देगी, लेकिन वह इसके वायदे पर एतबार किए जा रहा था।

थेलिमा वनकतरे से तांडव नाच के बड़े मुश्किल तोड़े सीखने की कोशिश कर रही थी। वनकतरे को मालूम था कि सारी उम्र पैर कभी उसके भाव अदा नहीं कर सकेंगे, लेकिन वह उसको बताए जा रहा था। थेलिमा भी अच्छी तरह जानती थी कि वह बेकार अपना और वनकतरे का समय बरबाद कर रही है, मगर वह बड़ी लगन और तन्मयता से पाठ याद कर रही थी।

एलिमा और किटी दोनों पिए जा रही थीं और आपस में किसी ऐसे आदमी की बातचीत कर रही थीं, जिसने पिछली रेस में खुदा जाने कब का बदला लेने के लिए गलत टिप दी थी।

…..और चड्ढा फिलिस के खपरे जैसे रंग के बालों को पिघले हुए सोने के रंग की स्कॉच से मिला-मिलाकर पी रहा था।

फिलिस का हिजड़ा-सा दोस्त बार-बार जेब से कंधी निकालता था और अपने बाल संवारता था।

मम्मी कभी इससे बात करती थी, कभी उससे, कभी सोडा खुलवाती, कभी टूटे हुए गिलास के टुकड़े उठवाती। उसकी नजर सब पर थी, उस बिल्ली की तरह, जो देखने में तो अपनी आंखें बन्द किए सुस्ता रही होती है, लेकिन उसको मालूम होता है कि उसके पांचों बच्चे कहां-कहां हैं और क्या-क्या शरारत कर रहे हैं।

इस दिलचस्प चित्र में कौन-सा रंग, कौन-सी रेखा गलत थी? मम्मी का वह भड़कीला मेकअप भी ऐसा मालूम होता था कि उस चित्र का एक आवश्यक अंग है।

गालिब कहता है-

“कैदे-हयात-ओ बन्दे गम2, अस्ल में दोनों एक है।

मौत से पहले आदमी गम से निजात3 पाए क्यों?”

कैदे-हयात और बन्दे-गम जब वास्तव में एक ही हैं, तो वह क्या जरूरी है कि आदमी मौत से पहले थोड़ी देर के लिए निजात हासिल करने की कोशिश न करे? इस निजात के लिए कौन यमराज का इन्तजार करे? क्यों आदमी थोड़े-से क्षणों के लिए आत्म प्रवंचना के दिलचस्प खेल में भाग न ले?

मम्मी हर किसी की प्रशंसा करना जानती थी। उसके सीने में ऐसा दिल था, जिसमें उन सबके लिए ममता थी। मैंने सोचा, शायद इसलिए उसके अपने चेहरे का रंग मल लिया है कि लोगों को उसकी वास्तविकता का ज्ञान न हो। उसमें शायद इतनी शारीरिक शक्ति नहीं थी कि वह हर किसी की मां बन सकती और इसलिए उसने अपनी ममता और स्नेह के लिए कुछ व्यक्ति चुन लिए थे और शेष सारी दुनिया को छोड़ दिया था।

मम्मी को मालूम नहीं था कि चड्ढा एक तगड़ा पेग फिलिस को पिला चुका था। चोरी-छिपे नहीं, सबके सामने, मगर मम्मी उस समय बावर्चीखाने में पोटेटो चिप्स तल रही थी। अब फिलिस नशे में थी और जिस तरह उसके पॉलिश किए हुए फौलाद के रंग के बाल धीरे-धीरे लहराते थे, उसी तरह वह स्वयं भी लहररा रही थी।

रात के बारह बज चुके थे। वनकतरे थेलिमा को तोड़े सिखा-सिखाकर थक जाने के बाद अब बता रहा था कि उसका बाप साला उससे बहुत मोहब्बत करता था। बचपन ही में उसने उसकी शादी बना दी थी। उसकी वाइफ बहुत ब्यूटीफूल है….और गरीबनवाज डौली को कर्ज देकर भूल भी चुका था। रंजीतकुमार पोली को अपने साथ कहीं बाहर ले गया था। एलिमा और किटी दोनों दुनियां-भर की बातें करके अब थक गई थी और आराम करना चाहती थी। तिपाई के इर्द-गिर्द फिलिस,

उसका हिजड़ा-सा दोस्त और मम्मी बैठे थे। चड्ढा अब जज्बाती नहीं था। फिलिस उसकी बगल में बैठी थी, जिसने पहली बार शराब का सुरूर चखा था, उसको प्राप्त करने का संकल्प उसकी आंखों में साफ मौजूद था। मम्मी इससे गाफिल नहीं थी।

थोडी देर बाद फिलिस का हिजड़ा-सा दोस्त उठकर सोफे पर जा लेटा और अपने बालों में कंघी करते-करते सो गया। गरीबनवाज और डोली उठकर कहीं चले गए। एलिमा और किटी में आपस में किसी मार्गरेट के बारे में बातें करते हुए मम्मी से विदा ली और चली गईं। वनकतरे ने आखिरी बार अपनी बीवी की खूबसूरती की प्रशंसा की और फिलिस की ओर ललचाई नजरों से देखा, फिर थेलिमा की ओर, जो उसके पास बैठी थी और फिर वह उसकी बांह पकड़कर चांद दिखाने के लिए बाहर मैदान में ले गया।

एकदम जाने क्या हुआ कि चड्ढा ओर मम्मी में गरमागरम बातें शुरू हो गई। चड्ढा की जबान लड़खड़ा रही थी। वह एक कुपुत्र की तरह मम्मी से बदजबानी करने लगा। फिलिस ने एक हद तक बीच-बचाव करने की कोशिश की, लेकिन चड्ढा हवा के घोड़े पर सवार था। वह फिलिस को अपने साथ सईदा कॉटेज ले जाना चाहता था और मम्मी इसके खिलाफ थी। वह उसको बहुत देर तक समझाती रही कि वह इस इरादे से बाज आए, लेकिन वह इसके लिए तैयार न होता और बार-बार मम्मी से कह रहा था, “तुम पागल हो गई हो….बूढ़ी दलाल……फिलिस मेरी है….पूछ लो इससे।”

मम्मी ने बहुत देर तक उसकी गालियां सुनीं, अन्त में बड़े समझाने वाले ढंग से उससे कहा, “चड्ढा, माई सन…..तुम क्यों नहीं समझते….शी इज यंग….शी इज वेरी यंग……”

उसकी आवाज में कंपकंपाहट थी, एक प्रार्थना थी, एक ताड़ना थी, एक बड़ी भयानक तस्वीर थी, लेकिन चड्ढा बिल्कुल न समझा। उस समय उसके सम्मुख केवल फिलिस और उसकी प्राप्ति थी। मैंने फिलिस की ओर देखा और पहली बार इस बात को महसूस किया कि वह सचमुच बहुत छोटी उम्र की थी, मुश्किल से पन्द्रह वर्ष की। उसका सफेद चेहरा, चांदी रंग के बादलों से घिरा हुआ वर्षा की पहली बूंद की तरह कंपकंपा रहा था।

चड्ढे ने उसे बांह से पकड़कर अपनी ओर खींचा और फिल्मी हीरो के ढंग से अपनी छाती से लगाकर भींच लिया। मम्मी एकदम लाल होकर चिल्लाई, “चड्ढा……छोड़ दो….फॉर गॉड सेक…..छोड़ दो इसे!”

जब चड्ढा ने अपने चौड़े सीने से फिलिस को अलग न किया, तो मम्मी ने उसके मुंह पर एक जोरदार चांटा मारा और चिल्लाई, “गेट आउट….गेट आउट!”

चड्ढा भौंचक्का रह गया। फिलिस को अलग करके उसने धक्का दिया और मम्मी की ओर आग बरसाने वाली नजरों से देखता हुआ बाहर चला गया। मैंने भी उठकर विदा ली और चड्ढा के पीछे-पीछे चल दिया।

सईदा कॉटेज पहुंचकर मैंने देखा कि वह पतलून-कमीज और बूटों समेत पलंग पर औंधे मुंह पड़ा था। मैंने उससे कोई बात न की और दूसरे कमरे में जाकर बड़ी मेज पर सो गया।

सुबह देर से उठा। घड़ी में दस बज रहे थे। चड्ढा सुबह ही उठकर बाहर चला गया था। कहां, यह किसी को मालूम नहीं था, लेकिन जब मैं गुसलखाने से बाहर निकल रहा था, तो मैंने उसकी आवाज सुनी, जो गैरेज से बाहर आ रही थी। मैं रुक गया। वह किसी से कह रहा था, “वह लाजवाब औरत है। खुदा की कसम, बड़ी लाजवाव औरत है। दुआ करो कि उसकी उम्र को पहुंचकर तुम भी वैसी ही ग्रेट हो जाओ।”

उसके स्वर में एक विचित्र प्रकार की कटुता थी। पता नहीं उसका रुख उसकी अपनी ओर था या उस व्यक्ति की ओर, जिससे वह सम्बोधित था। मैंने अधिक देर तक वहां रुके रहना ठीक न समझा और अन्दर चला गया। आधे घंटे तक मैंने उसका इन्तजार किया। जब वह न आया, तो मैं प्रभात नगर चला गया।

मेरी बीवी का मिजाज ठीक था। हरीश घर में नहीं था। हरीश की बीवी ने उसके बारे में पूछा, तो मैंने कह दिया, “वह अभी स्टूडियो में सो रहा है।”

पूना में काफी तफरीह हो गई थी, इसलिए मैंने हरीश की बीवी से जाने की इजाजत मांगी। शिष्टाचार के नाते उसने हमें रुकने को कहा, लेकिन मैं सईदा कॉटेज में ही फैसला करके चला था कि रात की घटना मेरी मानसिक जुगाली के लिए बहुत काफी है।

हम चल दिए। रास्ते में मम्मी की बातें हुईं। जो कुछ हुआ था, मैंने बीवी को सब कुछ बता दिया। उसका कहना था कि फिलिस उसकी कोई रिश्तेदार होगी या वह उसे किसी अच्छी आसामी को पेश करना चाहती होगी, तभी उसने चड्ढा से लड़ाई की। मैं चुप रहा न समर्थन किया, न विरोध।

कई दिन गुजरने पर चड्ढा का पत्र आया, जिसमें उस रात की घटना का सरसरी-सा वर्णन था और उसने अपने बारे में यह कहा था, “मैं उस दिन जानवर बन गया था। लानत हो मुझ पर।”

तीन महीने के बाद मुझे एक जरूरी काम से पूना जाना पड़ा। सीधा सईदा कॉटेज पहुंचा। चड्ढा मौजूद नहीं था। गरीबनवाज से उस समय मुलाकात हुई, जब वह गैरेज से निकलकर शीरीं के नन्हे बच्चे को प्यार कर रहा था। वह बड़े तपाक से मिला। थोड़ी देर बाद रंजीत कुमार आ गया, कछुए की चाल चलता, और चुपचाप बैठ गया। मैं अगर उससे कुछ पूछता था, तो वह बड़े संक्षेप में उत्तर दे देता। उससे बातों-बातों में मालूम हुआ कि चड्ढा उस रात के बाद मम्मी के पास नहीं गया और न कभी वह यहां आई है। फिलिस को उसने दूसरे दिन ही अपने मां-बाप के पास भिजवा दिया था। वह उस हिजड़ा जैसे लड़के के साथ घर से भागकर आई हुई थी। रंजीत कुमार को विश्वास था कि अगर वह कुछ दिन और पूना में रहती, तो जरूर उसे ले उड़ता। गरीबनवाज का ऐसा कोई दावा नहीं था। केवल इतना अफसोस था कि वह चली गई।

चड्ढा के बारे में यह पता चला कि दो-तीन दिन से उसकी तबीयत ठीक नहीं है, बुखार रहता है, लेकिन वह किसी डाक्टर से राय नहीं लेता, सारा दिन इधर-उधर घूमता रहता है। गरीबनवाज ने जब मुझे ये बातें बताना शुरू की, तो रंजीतकुमार उठकर चला गया। मैंने सलाखों वाली कोठरी में से देखा, उसका रुख गैरेज की ओर था।

मैं गरीबनवाज से गैरेज वाली शीरी के सम्बन्ध में कुछ पूछताछ करने के बारे में सोच ही रहा था कि वनकतरे बड़ा घबराया हुआ कमरे में दाखिल हुआ। उससे मालूम हुआ कि चड्ढा को तेज बुखार था। वह उसे तांगे में वहां ला रहा था कि वह रास्ते में बेहोश हो गया। मैं और गरीबनवाज बाहर दौड़े। तांगे वाला बेहोश चड्ढे को संभाले हुए था। हम सबने मिलकर उसे उठाया और कमरे में पहुंचाकर बिस्तर पर लिटा दिया। मैंने उसके माथे पर हाथ रखकर देखा, सचमुच बहुत तेज बुखार था। एक सौ छः डिग्री से कम न होगा।

मैंने गरीबनवाज से कहा, “फौरन डाक्टर को बुलाना चाहिए।”

उसने वनकतरे से मशवरा किया और ‘अभी आता हूं’ कहकर बाहर चला गया। जब वापस आया तो उसके साथ मम्मी थीं, जो हांफ रही थीं। अन्दर घसते ही उसने चड्ढा की ओर देखा और लगभग चीखकर पूछा, “क्या हुआ मेरे बेटे को?”

वनकतरे ने जब उसे बताया कि चड्ढा कई दिन से बीमार था, तो मम्मी ने बड़े दु:ख और क्रोध से कहा, “तुम कैसे लोग हो, मुझे खबर क्यों न की?” फिर उसने गरीबनवाज, मुझे और वनकतरे को विभिन्न हिदायतें दीं, एक को चड्ढा के पांव सहलाने की, दूसरे को बर्फ लाने की और तीसरे को पंखा करने की। चड्ढा की हालत देखकर उसकी अपनी हालत बिगड़ गई थी, लेकिन उसने धैर्य से काम किया और डाक्टर बुलाने चली गई।

मालूम नहीं, रंजीत कुमार को गैरेज में कैसे पता चला। वह मम्मी के जाने के तुरन्त बाद घबराया हुआ आया। उसके पूछने पर वनकतरे ने उसके बेहोश होने की घटना का वर्णन कर दिया और यह भी बता दिया कि मम्मी डाक्टर के पास गई है। यह सुनकर रंजीत कुमार की बेचैनी किसी हद तक दूर हो गई।

मैंने देखा कि वे तीनों बहुत संतुष्ट थे, मानो चड्ढा के स्वास्थ्य की सारी जिम्मेदारी मम्मी ने अपने ऊपर ले ली हो।

उसकी हिदायत के अनुसार चड्ढा के पांव सहलाए जा रहे थे, सिर पर बर्फ की पट्टियां रखी जा रही थी। मम्मी जब डाक्टर लेकर आई, तो वह कुछ-कुछ होश में आ चुका था। डाक्टर ने मुआयने में काफी देर लगाई। उसके चेहरे से मालूम होता था कि चड्ढा की जिन्दगी खतरे में है। मुआयने के बाद डाक्टर ने मम्मी को इशारा किया और वे कमरे से बाहर चले गए। मैंने सलाखों वाली खिड़की में से देखा, गैरेज के टाट का पर्दा हिल रहा था।

थोड़ी देर बाद मम्मी आई। गरीबनवाज, वनकतरे और रंजीत कुमार से उसने एक-एक करके कहा कि घबराने की कोई बात नहीं। चड्ढा अब आंखें खोलकर सुन रहा था। मम्मी को उसने आश्चर्य की दृष्टि से नहीं देखा था, लेकिन वह उलझन-सी जरूर महसूस कर रहा था। कुछ क्षणों के बाद जब वह समझ गया कि मम्मी क्यों और कैसे आई है, तो उसने मम्मी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और दबाकर कहा, “मम्मी, यू आर द ग्रेट!”

मम्मी उसके पास पलंग पर बैठ गई। वह ममता की साक्षात् मूर्ति थी। उसने चड्ढा के तपते हुए माथे पर हाथ फेरकर मुस्कराते हुए केवल इतना कहा, “मेरे बेटे……मेरे गरीब बेटे!”

चड्ढा की आंखों में आंसू आ गए, लेकिन तुरन्त ही उसने उन्हें सोखने की कोई कोशिश की और कहा, “तुम्हारा बेटा अव्वल दर्जे का स्काउण्डूल है। जाओ, अपने मृत पति का पिस्तौल लाओ और उसकी छाती पर दाग दो।”

मम्मी ने चड्ढा के गाल पर धीरे से तमाचा मारा, “बेकार की बातें न करो।” फिर वह चुस्त-चालाक नर्स की तरह उठी और हम सबकी ओर मुड़कर कहा, “लड़कों, चड्ढा बीमार है और मुझे इसको हॉस्पीटल ले जाना है, समझे।”

सब समझ गए। गरीबनवाज ने तुरन्त टैक्सी का बन्दोबस्त कर दिया। चड्ढा को उठाकर उसमें डाला गया। वह बहुत कहता रहा कि ऐसी कौन-सी आफत आ गई है, जो मुझे अस्पताल के सुपुर्द किया जा रहा है, लेकिन मम्मी यही कहती रही कि बात कुछ भी नहीं, अस्पताल में जरा आराम रहता है। चड्ढा बहुत जिद्दी था, लेकिन इस समय वह मम्मी की किसी बात से इनकार नहीं कर सकता था।

चड्ढा अस्पताल में दाखिल हो गया। मम्मी ने अकेले में मुझे बताया कि मर्ज बहुत खतरनाक है, यानी प्लेग। यह सुनकर मेरे होश उड़ गया। स्वयं मम्मी बहुत परेशान थी, लेकिन उसको आशा थी कि यह बला टल जाएगी और चड्ढा बहुत जल्द स्वस्थ हो जाएगा।

इलाज होता रहा। प्राइवेट अस्पताल था। डाक्टरों ने चड्ढे का इलाज बहुत ध्यान से किया, लेकिन कई पेचीदगियां पैदा हो गईं। उसकी त्वचा जगह-जगह से फटने लगी और बुखार बढ़ता गया। अन्त में डाक्टरों ने यह राय दी कि उसे बम्बई ले जाएं, लेकिन मम्मी नहीं मानी। उसने चड्ढा को उसी हालत में उठवाया और अपने घर ले गई।

मैं ज्यादा दिन पूना में नहीं रुक सकता था। वापस बम्बई आया, तो मैंने टेलीफोन के जरिये कई बार उसका हाल मालूम किया। मेरा खयाल था कि वह किसी प्रकार भी जीवित न बच सकेगा, लेकिन मुझे मालूम हुआ कि धीरे-धीरे उसकी हालत संभल रही है। एक मुकदमे के सिलसिले में मुझे लाहौर जाना पड़ा। वहां से पन्द्रह दिन के बाद लौटा तो मेरी बीवी ने चड्ढा का एक पत्र दिया, जिसमें केवल यह लिखा था-“महामाया मम्मी ने अपने कपूत को मौत के मुंह से बचा लिया है।”

उन थोड़े-से शब्दों में बहुत कुछ था। भावनाओं का एक पूरा समुद्र था। मैंने अपनी बीवी से इसका जिक्र बड़ी भावुकता से किया, तो उसने प्रभावित होकर केवल इतना कहा, “ऐसी औरतें अक्सर खिदमतगुजार होती हैं।”

मैंने चड्ढा को दो-तीन पत्र लिखे, जिनका जवाब न आया। बाद में मालूम हुआ कि मम्मी ने उसको जलवायु बदलने के लिए अपनी एक सहेली के पास लोनावला भिजवा दिया था। चड्ढा मुश्किल से वहां एक सप्ताह रहा और उकताकर चला आया। जिस दिन वह पूना पहुंचा संयोग से मैं वहीं था। प्लेग के जबरदस्त हमले के कारण वह बहुत कमजोर हो गया था, लेकिन उसका गुलगपाड़ा करने वाला स्वभाव आज भी वैसा ही था। अपनी बीमारी का जिक्र उसने इस प्रकार किया, जैसे आदमी साईकल की मामूली दुर्घटना का करता है। अब जबकि वह बच गया था, अपनी खतरनाक बीमारी के बारे में विस्तार से बात करना वह बेकार समझता था।

सईदा कॉटेज में चड्ढा की अनुपस्थिति के दिनों में छोटे-छोटे परिवर्तन हुए थे। अकील और शकील कहीं और उठ गए थे, क्योंकि उन्हें अपनी निजी फिल्म कम्पनी कायम करने के लिए सईदा कॉटेज का वातावरण अनुकूल नहीं लगता था। उनकी जगह एक बंगाली म्यूजिक डायरेक्टर आ गया था। उसका नाम सेन था। उसके साथ लाहौर से भागा हुआ एक लड़का रामसिंह रहता था। सईदा कॉटेज में रहने वाले सबके सब लोग उससे काम लेते थे। तबीयत का बहुत शरीफ और सबका सेवक था। चड्ढा के पास वह उस समय आया था, जब वह मम्मी के कहने पर लोनावला जा रहा था। उसने गरीबनवाज और रंजीत कुमार से कह दिया था कि उसे सईदा कॉटेज में रख लिया जाए। सेन के कमरे में चूंकि जगह खाली थी, इसलिए उसने वहीं अपना डेरा जमा लिया था।

रंजीत कुमार को कम्पनी की नई फिल्म में बतौर हीरो चुन लिया गया था और उसके साथ वादा किया गया था कि अगर फिल्म सफल हुई, तो उसको दूसरी फिल्म डायरेक्ट करने का मौका दिया जाएगा। चड्ढा अपनी दो बरस की पेंडिंग तनख्वाह में से डेढ हजार रुपया एक साथ प्राप्त करने में सफल हो गया था, इसलिए उसने रंजीत कुमार से कहा, “मेरी जान, अगर कुछ वसूल करना चाहते हो, तो मेरी तरह प्लेग से ग्रस्त हो जाओ। हीरो और डायरेक्टर बनने से तो मेरा खयाल है, यह कहीं अच्छा है।”

गरीबनवाज कुछ ही दिन पहले हैदरबाद होकर आया था, इसलिए सईदा कॉटेज किंचित सम्पन्न था। मैंने देखा, गैरेज के बाहर अलगनी पर ऐसी कमीजें और शलवारें लटक रही थीं, जिनका कपड़ा अच्छा और कीमती था। शीरों के बच्चे के पास नये खिलौने थे।

मुझे पूना में पन्द्रह दिन रहना पड़ा। मेरा पुराना फिल्मों का साथी जब नई फिल्म की हीरोइन की मुहब्बत में मुब्तला होने की कोशिश कर रहा था, लेकिन डरता था, क्योंकि यह हीरोइन पंजाबी थी और उसका पति बड़ी-बड़ी मूंछों और हट्टा-कट्टा मुश्टंडा था। चड्ढा ने सलाह दी थी, “कुछ परवाह न करो, उस साले की। जिस पंजाबी एक्ट्रेस का पति बड़ी-बड़ी मूछों वाला पहलवान हो, वह इश्क के मैदान में जरूर चारों खाने चित गिरा करता है। बस, इतना करो कि सौ रुपये फी गाली के हिसाब से मुझसे दस-बीस हैवी वेट किस्म की गालियां सीख ले। ये तुम्हारी खास मुश्किलों में बहुत काम आया करेंगी।”

हरीश एक बोतल की गाली के हिसाब से छ: गालियां पंजाब के खास लहजे में याद कर चुका था, लेकिन अभी तो उसे अपने इश्क के रास्ते में कोई ऐसी खास मुश्किल पेश नहीं आई थी, जो वह उनके प्रभाव को परख सकता।

मम्मी के घर नियमानुसार महफिलें जमती थीं। पोली, डौली, किटी, एलिमा, थेलिमा आदि सब जाती थीं। वनकतरे पूर्ववत् थेलिमा को कथकली और तांडव नाच की ता थई धा नी ना कत वन टू थ्री बना-बनाकर बताता था और वह उसे सीखाने की पूरी कोशिश करती थी। गरीबनवाज उसी तरह कर्ज दे रहा था और रंजीत कुमार, जिसको अब कम्पनी की नई फिल्म में हीरो का चांस मिल रहा था, उसमें से किसी एक को बाहर खुली हवा में ले जाता था। चड्ढा नंगे-नंगे मजाक सुनकर उसी तरह कहकहे लगते थे। एक सिर्फ वह नहीं थी….वह, जिसके बालो के रंग के लिए सही उपमा ढूंढ़ने में चड्ढे ने काफी समय लगाया था, लेकिन इन महफिलों में चड्ढा की निगाहें उसे ढूंढ़ती नहीं थी, फिर भी कभी-कभी जब चड्ढा की नजरें मम्मी की नजरों से टकराकर झुक जाती थीं, तो मैं अनुभव करता था कि उसकी अपनी उस रात की दीवानगी का अफसोस है। ऐसा अफसोस, जिसकी याद में उसको तकलीफ होती है। अतः चौथे पेग के बाद किसी समय इस तरह का एक वाक्य उसकी जबान से निकल जाता, “चड्ढा, यू आर ए डेम्ब ब्रूट!”

यह सुनकर मम्मी होंठों ही होंठों से मुस्करा देती, जैसे वह मुस्कराहट की मिठास में लपेट-लपेटकर कह रही हो, “डॉण्ट टॉक रॉट!”

वनकतरे से पहले ही की तरह अपनी चख-चख चलती थी। नशे में आकर जब भी वह अपने बाप की प्रशंसा में या अपनी बीवी की खूबसूरती के सम्बन्ध में कुछ कहने लगता, तो वह उसकी बात बहुत बड़े गण्डासे से काट डालता। वह बेचारा चुप हो जाता और अपना मैट्रिक्यूलेशन का सर्टिफिकेट तह करके जेब में डाल लेता।

मम्मी, वही मम्मी थी। पोली की मम्मी, डौली की मम्मी, चड्ढा की मम्मी, रंजीतकुमार की मम्मी। सोडे की बोतलों, खाने-पीने की चीजों और महफिल जमाने के दूसरे साजो-समान के प्रबंध में वह वैसी ही स्नेहपूर्ण दिलचस्पी से हिस्सा लेती थी। उसके चेहरे का मेकअप वैसा ही वाहियात होता था। उसके कपड़े उसी तरह भड़कीले थे। सुखी की तहों से उसकी झुर्रियां उसी तरह झांकती थी, लेकिन अब मुझे ये पवित्र दिखाई देती थीं। इतनी पवित्र की प्लेग के कीड़े उन तक नहीं पहुंच सकते थे। डरकर, सिमटकर वे भाग गये थे। चड्ढा के शरीर से भी निकल भागे थे, क्योंकि उस पर उन झुरियों की छत्रछाया थी, उन पवित्र झुरियों की, जो हर समय बहुत ही वाहियात रंगों में लिथड़ी रहती थीं।

वनकतरे की खूबसूरत बीवी का जब गर्भपात हुआ था, तो मम्मी की ही तत्कालीन सहायता से उसकी जान बची थी। थेलिमा जब हिन्दुस्तानी नाच सीखने के शौक में एक मारवाड़ी कत्थक के हत्थे चढ़ गई और उस सौदे में एक दिन जब उसे मालूम हुआ कि उसने एक खतरनाक रोग खरीद लिया है, तो मम्मी ने उसको बहुत डांटा और और उससे कोई सम्बन्ध न रखने का दृढ़ संकल्प कर लिया था, लेकिन फिर उसकी आंखों में आंसू देखकर उसका दिल पसीज गया था। उसने उसी दिन शाम को अपने बेटों को सारी बता सुना दी थी और उसने प्रार्थना की थी कि वे थेलिमा का इलाज कराएं।

किसी को एक पजल (पहेली) हल करने के सिलसिले में पांच सौ रुपये का इनाम मिला था, तो मम्मी ने उसे मजबूर किया था कि कम से कम आधे रुपये गरीबनवाज को दे दे, क्योंकि उस गरीब का हाथ तंग है। उसने किसी से कहा था, “तुम इस समय इसे दे दो, बाद में लेती रहना।” और मुझसे उसने मेरे पन्द्रह दिन के वास में कई बार मेरी मिसेज के बारे में पूछा था और चिन्ता व्यक्ति की थी कि पहले बच्चे की मृत्यु को इतने वर्ष हो गए हैं, दूसरा बच्चा क्यों नहीं हुआ!

रंजीत कुमार के साथ वह अधिक घुल-मिलकर बात नहीं करती थी। ऐसा मालूम होता था कि उसकी दिखावटी तबीयत उसको अच्छी नहीं लगती थी। मेरे सामने भी एक-दो बार इसकी चर्चा कर चुकी थी। म्यूजिक डायरेक्टर सेन से वह घृणा करती थी। चड्ढा उसको अपने साथ लाता था, तो वह उससे कहती थी, “ऐसे जलील आदमी को यहां मत लाया करो।” चड्ढा उससे पूछता तो वह बड़ी गम्भीरता से उत्तर देती, “मुझे यह आदमी ऊपरा-ऊपरा-सा मालूम होता है, जंचता नहीं मेरी नजरों में।” यह सुनकर चड्ढा हंस देता था।

मम्मी की महफिलों की स्नेहपूर्ण गर्मी लिए मैं वापस मुम्बई चला गया। इन महफिलों में पूरी मस्ती थी, लेकिन कोई उलझाव नहीं था। हर चीज स्पष्ट थी-सही, शिष्ट और अपनी जगह पर कायम।

दूसरे दिन सुबह के अखबारों में पढ़ा कि सईदा कॉटेज में बंगाली म्यूजिक डायरेक्टर सेन मारा गया है। उसकी हत्या करने वाला कोई रामसिंह है, जिसकी आयु चौदह-पन्द्रह वर्ष के लगभग बताई जाती है। मैंने तुरन्त पूना टेलीफोन किया, लेकिन फोन पर कोई न मिल सका।

एक हफ्ते के बाद चड्ढा का खत आया, जिसमें उस हत्याकांड का पूरा विवरण था। रात को सब सोए हुए थे कि अचानक चड्ढा के पलंग पर कोई गिरा। वह हड़बड़ाकर उठा। बिजली जलाई, तो देखा, सेन है, खून से लथपथ। चड्ढा अभी अच्छी तरह अपने होश-हवास संभाल भी न पाया था कि दरवाजे में रामसिंह दिखाई दिया। उसके हाथ में छुरी थी। तुरन्त ही गरीबनवाज और रंजीत कुमार भी आ गए। सारा सईदा कॉटेज जग गया। रंजीतकुमार और गरीबनवाज ने रामसिंह को पकड़ लिया और छुरी उसके हाथ से छीन ली। चड्ढा ने सेन को अपने पलंग पर लिटाया और उससे घावों के बारे में कुछ पूछने ही वाला था कि उसने आखिरी हिचकी ली और ठण्डा हो गया।

रामसिंह गरीबनवाज और रंजीत कुमार की जकड़ में था, मगर वे दोनों कांप रहे थे। सेन मर गया, तो रामसिंह ने चड्ढा से पूछा, “भाषा जी….मर गया?’

चड्ढा ने ‘हां’ में उत्तर दिया, तो रामसिंह ने रंजीतकुमार और गरीबनवाज से पूछा, “मुझे छोड़ दीजिए, मैं भागूंगा नहीं।”

चड्ढा की समझ में नहीं आता था कि वह क्या करे। उसने तुरन्त नौकर भेजकर मम्मी को बुलवाया। मम्मी आई, तो सब निश्चिन्त हो गए कि मामला सुलझ जाएगा। उसने रामसिंह को छुड़वा दिया और थोड़ी देर के बाद अपने साथ थाने ले गईं और उसका बयान दर्ज करा दिया। इसके बाद चड्ढा और उसके साथी कई दिन तक परेशान रहे। पुलिस की पूछताछ, बयान, फिर अदालत में मुकदमे की पैरवी। मम्मी इस बीच बहुत दौड़धूप करती रही थी। चड्ढा को विश्वास था कि रामसिंह बरी हो जाएगा और ऐसा ही हुआ। अदालत ने उसे साफ बरी कर दिया। अदालत में उसका वही बयान था जो उसने थाने में दिया था। मम्मी ने उससे कहा था, “बेटा, घबराओ नहीं, जो कुछ हुआ है, सच-सच बता दो।” और उसने सारी बातें ज्यों की त्यों बयान कर दी थी कि सेन ने उसे प्लेबैक सिंगर बना देने का लालच दिया था। स्वयं उसे भी संगीत से बहुत लगाव था। और सेन बड़ा अच्छा गाने वाला था। वह इस चक्कर में आकर उसकी इच्छाएं पूरी करता रहा, लेकिन उसको इससे बहुत घृणा थी। उसका दिल बार-बार उसे लानत-मलामत करता था। अन्त में वह इतना तंग आ गया कि उसने सेन से कह भी दिया था कि उसने फिर उसे मजबूर किया तो वह उसे जान से मार डालेगा। अतः घटना की रात को यही हुआ।

अदालत में उसने यही बयान दिया। मम्मी मौजूद थी। आंखों ही आंखों में वह रामसिंह को दिलासा दे रही थी कि घबराओ नहीं, जो सच है, कह दो, सच की हमेशा जीत होती है। इसमें कोई शक नहीं कि तुम्हारे हाथों ने खून किया है, लेकिन एक बड़ी मनहूस चीज का, एक हैवान का, एक अमानुष का।

रामसिंह ने बड़ी सादगी और बड़े भोलेपन से सारी घटनाओं का वर्णन किया। मजिस्ट्रेट इतना प्रभावित हुआ कि उसने रामसिंह को बरी कर दिया।

चडढा ने कहा इस झूठे जमाने में यह सच की एक अनोखी विजय है और इसका श्रेय मेरी बूढ़ी मम्मी को है।”

चड्ढा ने मुझे उस जलसे में बुलाया था, जो रामसिंह को रिहाई की खुशी में सईदा कॉटेज वालों ने किया था, लेकिन मैं व्यस्तता के कारण उसमें शामिल न हो सका।

शकील और अकील दोनों सईदा कॉटेज में वापस आ गए थे। बाहर का वातावरण भी उसकी निजी फिल्म कम्पनी की नींव डालने के लिए रास नहीं आया था।

अब वे फिर अपनी पुरानी फिल्म कम्पनी में किसी असिस्टैंट के असिस्टैंट हो गए थे। उन दोनों के पास उस पूंजी में से कुछ सैंकड़े बाकी बचे हुए थे, जो उन्होंने निजी फिल्म कम्पनी की नींव डालने के लिए जुटाई थी। चड्ढा के मशवरे पर उन्होंने यह सब रुपया जलसे को सफल बनाने के लिए दे दिया। चड्ढा ने उनसे कहा था, “अब चार पेग पीकर खुदा से दुआ करूंगा कि वह तुम्हारी निजी फिल्म कम्पनी फौरन, खड़ी कर दे।”

चड्ढा का कहना था कि इस जलसे में वनकतरे ने शराब पीकर अपनी आदत के खिलाफ अपने बाप की प्रशंसा न की और न ही अपनी खूबसूरत बीवी का जिक्र किया। गरीबनवाज ने किसी की तत्कालीन आवश्यकता को पूरा करने के लिए दो सौ रुपये कर्ज दिए और रंजीतकुमार से उसने कहा, “तुम इन बेचारी लड़कियों को यूं ही झांसे न किया करो। हो सकता है कि तुम्हारी नीयत साफ हो, लेकिन लेने के मामले में इनकी नीयत इतनी साफ नहीं होती, कुछ न कुछ दे दिया करो।”

मम्मी ने उस जलसे में रामसिंह को बहुत प्यार किया और सबको मशवरा किया कि उसे घर वापस जाने के लिए कहा जाए। अतएव वही फैसला हुआ और दूसरे दिन गरीबनवाज ने उसके टिकट का प्रबन्ध कर दिया। शीरी ने सफर के लिए उसको खाना पकाकर दिया। स्टेशन पर सब उसे छोड़ने गए। ट्रेन चली, तो देर तक हाथ हिलाते रहे।

ये छोटी-छोटी बातें मुझे जलसे के दस दिन बाद मालूम हुईं, जब मुझे एक जरूरी काम से पूना जाना पड़ा। सईदा कॉटेज में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। ऐसा मालूम होता था कि वह ऐसा पड़ाव है, जिसका रंग-रूप हजारों काफिलों के ठहरने से भी नहीं बदलता। वह कुछ ऐसी जगह थी, जो अपनी रिक्तता को स्वयं ही भर लेती थी। मैं जिस दिन वहां पहुंचा, शीरनी (एक मीठी व्यंजन) बंट रही थी। शीरी के एक और लड़का हुआ था। वनकतरे के हाथ में ग्लैक्सो का डिब्बा था। उन दिनों यह बड़ी मुश्किल से प्राप्त होता था। अपने बच्चे के लिए उसने कहीं से दो प्राप्त किए थे। उनमें से एक शीरी के नवजात शिशु के लिए ले आया था। चड्ढा ने आखिरी दो लड्डू उसके मुंह में ठूंसे और कहा, “तू ग्लैक्सो का डिब्बा ले आया। बड़ा कमाल किया है तेने। अपने साले बाप और अपनी साली बीवी की, देखना, हरगिज कोई बात न करना।”

वनकतरे ने बड़े भोलेपन के साथ कहा, “साले, मैं अब कोई पियेला हूं? वह तो दारू बोला करती है। वैसे बाई गॉड, मेरी बीवी बड़ी हैण्डसम है।”

चड्ढा ने इतनी जोर का कहकहा लगाया कि वनकतरे को और कुछ कहने का अवसर न मिला। चड्ढा ने उसे नहीं छेड़ा। मैट्रिक वालों की ऐसी ही अंग्रेजी होती है कि ब्यूटीफल को हैंडसम कहा जाए। उसके बाद चड्ढा, गरीबनवाज और रंजीत कुमार मेरी ओर मुड़े और उस कहानी की बातें शुरू हो गई, जो मैं अपने पुराने फिल्मों के साथी के जरिये से वहां के एक प्रोड्यूसर के लिए लिख रहा था। फिर

कुछ देर शीरी के नवजात लड़के का नाम रखा जाता रहा। सैंकड़ों नाम रखे गए, लेकिन चड्ढा को कोई पसन्द न आया। अंत में मैंने कहा कि जन्म-स्थान अर्थात् सईदा कॉटेज के नाम पर लड़के का नाम मसूद होना चाहिए। चड्ढे को पसन्द नहीं था, लेकिन अस्थायी रूप से उसने स्वीकार कर लिया।

इसी बीच मैंने अनुभव किया चड्ढा, गरीबनवाज और रंजीत कुमार तीनों की तबीयत कुछ बुझी-बुझी-सी थी। मैंने सोचा, शायद इसका कारण पतझड़ का मौसम हो, जब आदमी अकारण ही थकावट-सी महसूस करने लगता है। शीरी का नया बच्चा भी इस शिथिलता का कारण हो सकता था, लेकिन यह कोई ठोस कारण मालूम नहीं होता था। सेन के कत्ल की ट्रेजडी? मालूम नहीं, क्या कारण था, लेकिन मैंने पूरी तरह महसूस किया कि वे सब उदास थे, ऊपर से हंसते-बोलते थे, लेकिन भीतर ही भीतर घुट रहे थे।

मैं प्रभात नगर में फिल्मों के अपने पुराने साथी के घर में कहानी लिखता रहा। यह व्यस्तता पूरे सात दिन तक जारी रही। मुझे बार-बार ख्याल आता था कि इस बीच चड्ढा ने कोई बाधा क्यों नहीं डाली। वनकतरे भी कहीं गायब था। रंजीत कुमार से मेरे कोई खास सम्बन्ध नहीं थे, जो वह मेरे पास इतनी दूर आता। गरीबनवाज के बारे में मैंने सोचा था कि शायद हैदराबाद चला गया हो और फिल्मों का मेरा पुराना साथी अपनी नई फिल्म की हीरोइन से, उसके घर में, उसके बड़ी-बड़ी मूंछों वाले पति की मौजूदगी में, इश्क लड़ाने का दृढ़ निश्चय कर रहा था।

मैं अपने कहानी में एक बड़े दिलचस्प हिस्से की पटकथा तैयार कर रहा था कि चड्ढा आ टपका और कमरे में घुसते ही उसने पूछा, “इस बकवास का तुमने कुछ वसूल किया है?”

उसका इशारा मेरी कहानी की ओर था, जिसके पारिश्रमिक की दूसरी किस्त मैंने दो दिन पहले वसूल की थी। “हां, दो हजार परसों लिया है।”

“कहां है?” यह कहते हुए चड्ढा मेरे कोट की ओर बढ़ा।

“मेरी जेब में।”

चड्ढे ने मेरी जेब में हाथ डाला। सौ-सौ के चार नोट निकाले और मुझसे कहा, “आज शाम को मम्मी के यहां पहुंच जाना, एक पार्टी है।”

मैं उस पार्टी के बारे में उससे कुछ पूछने ही वाला था कि वह चला गया। वह शिथिलता और उदासीनता, जो मैंने कुछ दिन पहले उसमें महसूस की थी, वैसी की वैसी थी। वह कुछ बेचैन भी था। मैंने उसके बारे में सोचना चाहा, लेकिन दिमाग तैयार न हुआ। वह कहानी के दिलचस्प हिस्से की पटकथा में बुरी तरह फंसा हुआ था।

फिल्मों के अपने पुराने साथी की बीवी से अपनी बीवी की बातें करके शाम को साढ़े पांच बजे के करीब मैं वहां से चलकर सात बजे सईदा कॉटेज पहुंचा। गैरेज के बाहर अलगनी पर गीले-गीले पोतड़े लटक रहे थे और नल के पास अकील और शकील शीरी के बड़े लड़के के साथ खेल रहे थे। गैरेज के टाट का परदा हटा हुआ था। और शीरी उनसे शायद मम्मी की बातें कर रही थी। मुझे देखकर वे चुप हो गए। मैंने चड्ढा के बारे में पूछा, तो अकील ने कहा कि वह मम्मी के घर मिल जाएगा।

मैं वहां पहुंचा, तो देखा, एक शोर मचा हुआ था। सब नाच रहे थे। गरीबनवाज पीली के साथ, रंजीत कुमार किटी और एलिमा के साथ और वनकतरे थेलिमा के साथ। वह उसको कथकली की मुद्राएं बता रहा था। चड्ढा मम्मी को गोद में उठाए इधर-उधर कूद रहा था। सब नशे में थे। एक तूफान मचा हुआ था। मैं अन्दर पहुंचा, तो सबसे पहले चड्ढा ने नारा लगाया। इसके बाद देशी विदेशी आवाजों का एक गोला-सा फटा, जिसकी गूंज देर तक कानों में सरसराती रही। मम्मी बड़े तपाक से मिली। ऐसे तपाक से, जो बेतकल्लुफी की हद तक बढ़ा हुआ था। मेरा हाथ उसने अपने हाथ में लेकर कहा, “किस मी, डीयर!” लेकिन उसने स्वयं ही मेरा एक गाल चूम लिया और घसीटकर नाचने वालों के झुरमुट में ले गई।

चड्ढा ने एकदम पुकारा, ‘बन्द करो, अब शराब का दौर चलेगा!’ फिर उसने नौकर को आवाज दी, “स्कॉटलैण्ड के शहजादे! ह्विस्की की नई बोतल लाओ।” स्कॉटलैण्ड का शहजादा नई बोतल ले आया। नशे में धुत् था, खोलने लगा, तो हाथ से गिरी और चकनाचूर हो गई। मम्मी ने उसको डांटना चाहा तो चड्ढा ने रोक दिया, “एक बोतल टूटी है, मम्मी, जाने दो, यहां तो दिल टूटे हुए हैं।”

महफिल में एकदम सन्नाटा छा गया, लेकिन तुरन्त ही चड्ढा ने उस उदासीनता को अपनी कहकहों में छिन्न-भिन्न कर दिया। नई बोतले आई। हर गिलास में बड़ा तगड़ा पेग डाला गया। इसके बाद चड्ढा ने उखड़ा-उखड़ा-सा भाषण करना शुरू किया, “लेडिज एण्ड जेंटलमेन, आप सब जहन्नुम में जाएं। मंटो हमारे बीच मौजूद है, जो अपने-आप को बहुत बड़ा कहानीकार समझता है। मानव-स्वभाव की, वह क्या कहते हैं, गहरी से गहरी गहराइयों में उतर जाता है, मगर मैं कहता हूं, बकवास है। कुएं में उतरने वाले…..” उसने इधर-उधर देखा, “अफसोस है कि यहां कोई हिन्दुस्तुड़ नहीं, एक हैदराबादी है, जो क को ग कहता है और जिसे दस बरस पीछे मुलाकात हुई, तो कहेगा कि परसों आपसे मिला था। लानत हो उसके निजामी हैदराबाद पर, जिसके पास कई लाख टन सोना है, करोड़ों जवाहरात है, लेकिन एक मम्मी नहीं। हापं, वह कुएं में उतरने वाले…..मैंने क्या कहा था कि सब बकवास है! पंजाबी में जिन्हें टोबे कहते हैं….वे गोता लगाने वाले, वे इसके मुकाबले में मानव स्वभाव को कई दर्जे अच्छा समझते हैं। इसलिए मैं कहता हूं…….”

सबने जिन्दाबाद का नारा लगाया। चड्ढा चिल्लाया, “यह सब साजिश है। इस मंटो की साजिश है, नहीं तो मैंने हर हिटलर की तरह मुर्दाबाद के नारे का इशारा किया था। तुम सब मुर्दाबाद……लेकिन पहले मैं…..मैं……” वह जज्बाती हो गया। “मैं….जिसने उस रात उस…..सांप के खपरों ऐसे रंग वाले बालों की एक लड़की के लिए अपनी मम्मी को नाराज कर दिया था। में खुद को, न जाने कहां का डॉन जुआन समझता था लेकिन नहीं, उसको पाना कोई मुश्किल काम नहीं था लेकिन यह एक अनुचित काम था। वह कम उम्र थी। इतनी कम उम्र , इतनी कमजोर, इतनी करेक्टरलेस….इतनी…..” उसने मेरी ओर एक प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा, “बताओ यार, उसे उर्दू, फारसी या अरबी में क्या कहेंगे…..करेक्टरलेस….लेडीज एंड जेंटलमैंन।….वह इतनी छोटी, इतनी कमजोर और इतनी मासूम थी कि उस रात पाप में शामिल होकर या तो वह सारी उम्र पछताती रहती या उसे बिल्कुल भूल जाती। उन थोड़े क्षणों के आनन्द की याद के सहारे जीने का सलीका उसको बिल्कुल न आता। मुझे इसका दुःख होता। अच्छा हुआ कि मम्मी ने उसी समय मेरा हुक्का-पानी बन्द कर दिया। मैं अब अपनी बकवास बंद करता हूं। मैंने असल में एक बहुत लम्बा-चौड़ा लेक्चर देने का इरादा किया था, लेकिन मुझसे कुछ बोला नहीं जाता। मैं एक पेग और पीता हूं।”

उसने एक पेग और पिया। लेक्चर के बीच में सब चुप थे। उसके बाद भी चुप रहे। मम्मी न मालूम क्या सोच रही थी। गाजे और सुर्खी की तहों की नीचे झुरियां भी ऐसी दिखाई देती थीं कि वे कभी किसी गहरी चिंता में डूबी हुई हैं। बोलने के बाद चड्ढा जैसे खाली-सा हो गया। इधर-उधर घूम रहा था, जैसे कोई चीज रखने के लिए ऐसा कोना ढूंढ रहा हो, जो उसके मस्तिष्क में अच्छी तरह सुरक्षित रहे। मैंने उससे एक बार पूछा, “क्या बात है चड्ढा?”

उसने कहकहा लगाकर जवाब दिया, “कुछ नहीं, बात यह है कि आज ह्विस्की मेरा दिमाग जमा कर लात नहीं मार रही।” उसका कहकहा खोखला था।

वनकतरे ने थेलिमा को उठाकर मुझे अपने पास बिठा लिया और इधर-उधर की बातें करने के बाद अपने बाप की प्रशंसा शुरू कर दी कि वह बड़ा गुनी आदमी था। ऐसा हारमोनियम बजाता था कि लोग अवाक् रह जाते थे, फिर उसने अपनी बीवी की खूबसूरती का जिक्र किया और और बताया कि बचपन में ही उसके बाप ने यह लड़की चुनकर उससे ब्याह दी थी। बंगाली म्यूजिक डायरेक्टर सेन की बात चली, तो उसने कहा, “मिस्टर मंटो, वह एकदम हलकट आदमी था। कहता था, मैं खान साहब अब्दुल करीम खां का चेला था।”

घड़ी ने दो बजाए। चड्ढा ने किटी को धक्का देकर एक ओर गिराया और बढ़कर वनकतरे के कद्दे जैसे सिर पर धप्प मारकर कहा, “बकवास बन्द कर बे।….उठ….और कुछ गा……लेकिन खबरदार, अगर तूने कोई पक्का राग गाया।”

वनकतरे ने तुरन्त गाना शुरू कर दिया। आवाज अच्छी नहीं थी। मुर्कियों की बारीकियां गले से निकलती थीं, लेकिन जो कुछ गाता था, पूरी तन्मयता से गाता था। मालकौस में उसने दो-तीन फिल्मी गाने सुनाए, जिनसे वातावरण बहुत उदास हो गया। मम्मी और चड्ढा एक-दूसरे की ओर देखते थे और नजरें किसी और तरफ हटा लेते थे। गरीबनवाज इतना प्रभावित हुआ कि उसकी आंखों में आंसू आ गए। चड्ढा ने जोर से कहकहा लगाया और कहा, “हैदराबाद वालों की आंखें बहुत कमजोर होती है, मौके-बेमौके टपकने लगती हैं।”

गरीबनवाज ने अपने आंसू पोंछे और एलिमा के साथ नाचना शुरू कर दिया। वनकतरे ने ग्रामोफोन के तवे पर रिकॉर्ड रखकर सुई लगा दी। घिसी हुई ट्यून बजने लगी। चड्ढा ने मम्मी को फिर गोद में उठा लिया और कूद-कूदकर शोर मचाने लगा। उसका गला बैठ गया था, उस मिरासियों की तरह, जो शादी-ब्याह के मौके पर ऊंचे सुरों में गा-गाकर अपनी आवाज का सत्यानास कर लेते हैं।

उस उछल-कूद और चीख-दहाड़ में चार बज गए। मम्मी एकदम चुप हो गई। फिर उसने चड्ढा की ओर मुड़कर कहा, “बस, अब खत्म!”

चड्ढा ने बोतल से मुंह लगाया और खाली करके एक ओर फेंक दिया और मुझसे कहा, “चलो, मंटो, चलें।”

मैंने उठकर मम्मी से इजाजत लेनी चाही कि चड्ढा ने मुझे अपनी ओर खींच लिया, “आज कोई विदाई नहीं लेना।”

हम दोनों बाहर निकल रहे थे कि मैंने वनकतरे के रोने की आवाज सुनी। मैंने चड्ढा से कहा, “ठहरो, देखें क्या बात है।” मगर वह मुझे धकेलकर आगे ले गया, उस साले की आंखें भी कमजोर हैं।

मम्मी के घर से सईदा कॉटेज बिलकुल निकट था। रास्ते में चड्ढा ने कोई बात न की। सोने से पहले मैंने उससे इस विचित्र पार्टी के बारे में जानना चाहा तो उसने कहा, “मुझे नींद आ रही है।” और वह बिस्तर पर लेट गया।

सुबह उठकर मैं गुसलखाने में गया। बाहर निकला तो देखा कि गरीबनवाज गैरेज के टाट के साथ लगा खड़ा है और रो रहा है। मुझे देखकर वह आंसू पोंछता वहां से हट गया। मैंने पास जाकर उससे रोने का कारण पूछा, तो उसने कहा, “मम्मी चली गई।”

“कहां?”

“मालूम नहीं। यह कहकर गरीबनवाज सड़क की ओर चला गया।

चड्ढा बिस्तर पर लेटा था। ऐसा मालूम होता था कि एक क्षण के लिए भी नहीं सोया था। मैंने उससे मम्मी के बारे में पूछा तो उसने मुस्कराकर कहा, “चली गई, सुबह की गाड़ी से उसे पूना छोड़ना था।”

मैंने पूछा, “लेकिन क्यों?”

चड्ढा के स्वर में कटुता आ गई, “हुकूमत को उसकी आज्ञाएं पसन्द नहीं थीं, उसका रंग-ढंग पसन्द नहीं था। उसके घर की महफिलें उसकी नजरों में आपत्तिजनक थी। इसलिए कि पुलिस उनके स्नेह और ममता को भ्रष्टाचार के रूप में लेना चाहती थी। वे उसे मां कहकर उससे एक दलाल का काम लेना चाहते थे। एक समय से उसके एक केस की छानबीन हो रही थी। आखिर सरकार पुलिस की छानबीन से सहमत हो गई और उसको ‘तड़ी पार’ कर दिया। इस शहर से निकाल दिया। वह अगर वेश्या थी, या दलाल थी, उसकी मौजूदगी अगर समाज के लिए हानिकारक थी, तो उसका खात्मा कर देना चाहिए था। पूना की गंदगी से यह क्यों कहा गया कि तुम यहां से चली जाओ और जहां चाहे, ढेर हो सकती हो?” चड्ढा ने बड़े जोर से कहकहा लगाया और थोड़ी देर चुप रहा, फिर उसे बड़े भावुक स्वर में कहा, “मुझे दुःख है मंटो, कि उस गन्दगी के साथ एक ऐसी पवित्रता चली गई है, जिसने उस रात मेरी एक बड़ी गलती और गन्दी तरंग को मेरे दिलो-दिमाग से निकाल दिया था, लेकिन मुझे अफसोस नहीं होना चाहिए। वह पूना से चली गई। मुझ जैसे जवानों में ऐसी गलत और गन्दी तरंगें वहां भी पैदा होगी, जहां वह अपना घर बनाएंगी। मैं अपनी मम्मी उनके सुपुर्द करता हूं; जिन्दाबाद मम्मी….जिन्दाबाद….चलो, गरीबनवाज को ढूढो। रो-रोकर उसने अपना बुरा हाल कर लिया होगा। इन हैदराबादियों की आंखें बहुत कमजोर होती हैं। मौके-बेमौके टपकने लगती हैं।

मैंने देखा, चड्ढा की आंखों में आंसू इस तरह तैर रहे थे, जिस तरह वधितों , की लाशें।