Manto story in Hindi: सईद को आए दिन जुकाम होता रहता था। एक दिन जब इस जुकाम ने नया हमला किया, तो उसने सोचा, जुकाम के बजाय मुझे प्रेम क्यों नहीं होता? सईद के जितने मित्र थे, सबके सब प्रेम कर चुके थे और उनमें से कई एक तो अब भी कर रहे थे, लेकिन वह प्रेम को जितना अपने पास देखना चाहता, उतना ही वह उसे अपने से दूर पाता। अजीब बात है, उसे आज तक किसी से प्रेम ही नहीं हुआ! जब कभी वह सोचता कि सचमुच उसका हृदय प्रेम से खाली है, तो उसे बड़ी लज्जा होती और उसके आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचती।
बीस वर्ष का दीर्घकाल, जिसमें से कुछ वर्ष उसके बचपन की बेसमझी की धुन्ध में लिपटे हुए थे, कभी-कभी उसके सामने एक लाश की तरह अकड़ जाता था; और वह सोचता, उसका अस्तित्व अब तक बिल्कुल निरर्थक रहा है। प्रेम के बिना तो आदमी किसी तरह भी पूर्ण नहीं माना जा सकता।
सईद को इस बात का पूरा एहसास था कि उसका हृदय बड़ा सुन्दर है और इस योग्य भी कि उसमें प्रेम का वास हो, लेकिन संगमरमर का वह महल किस काम का, जिसमें रहने वाला कोई न हो। चूंकि उसका हृदय हर लिहाज से प्रेम के योग्य था, इसलिए इस ख्याल से उसे अत्यन्त दु:ख होता कि उसकी धड़कनें बिलकुल व्यर्थ जा रही हैं।
लोगों से उसने सुना था कि जीवन में एक बार प्रेम अवश्य आता है। स्वयं उसे भी इस बात का हल्का-सा विश्वास था कि मौत की तरह एक बार प्रेम भी अवश्य आएगा, लेकिन कब?
काश, उसकी जीवन-रूपी पुस्तक उसकी अपनी जेब में होती, जिसे खोलकर वह तुरन्त इसका उत्तर पा लेता! लेकिन यह पुस्तक तो घटनाओं द्वारा लिखी जाती है। जब प्रेम आएगा; तो आप ही आप इस पुस्तक में नये पृष्ठों की वृद्धि होती जायेगी। उन नये पृष्ठों की वृद्धि के लिए वह कितना बेचैन था!
वह जब चाहे रेडियो पर गाने सुन सकता था। जब चाहे खाना खा सकता था। इच्छानुसार शराब पी सकता था, जिसकी उसके धर्म में मनाही थी। वह यदि चाहता तो ब्लेड से अपना गाल भी जख्मी कर सकता था, लेकिन नहीं कर सकता था, तो उत्कृष्ट इच्छा होने पर भी, किसी से प्रेम!
एक बार उसने बाजार में एक नौजवान लड़की देखी। उसे देखकर ऐसा महसूस हुआ जैसे वह शलजम है। शलजम उसे बहुत पसन्द थे। वह उसकी चाल को गौर से देखता रहा, जिसमें टेढ़ापन था। वैसा ही टेढ़ापन जैसे वर्षाऋतु में चारपाइयों में ‘कान’ पड़ जाने से पैदा हो जाता है। वह स्वयं को उससे प्रेम करने पर विवश न कर सका।
प्रेम करने के इरादे से वह कई बार अपनी गली के नुक्कड़ की दरियों की दुकान पर जा बैठता था। यह दुकान सईद के एक मित्र की थी जो हाईस्कूल की एक लड़की से प्रेम कर रहा था। उस लड़की से उसका प्रेम लुधियाना की एक दरी के कारण हुआ था। दरी के दाम उस लड़की के कथनानुसार उसके दोपट्टे के पल्लू से खुलकर कहीं गिर पड़े थे और लतीफ चूंकि उसके घर के पास रहता था, इसलिए उसने चचा की झिड़कियों और गालियों से बचने के लिए उससे दरी उधार मांगी थी। इधर दरी उधार मांगी, उधर दोनों में प्रेम हो गया।
शाम को बाजार में आवागमन अधिक हो जाता था। दरबार साहब जाने के लिए चूंकि वही एकमात्र रास्ता था, इसलिए स्त्रियां काफी संख्या में सईद के सामने से गजरती थीं, लेकिन न जाने क्यों उसे ऐसा महसूस होता कि जितने लोग भी बाजार में आते-जाते हैं, सबके-सब एकदम उथले और सपाट हैं। उसकी नजरें किसी भी स्त्री, किसी भी पुरुष पर नहीं रुकती थी।
फिर उसकी आंखें किधर देखती थी, यह न आंखों को मालूम था, न सईद को। उसकी नजरें दूर, बहुत दूर ईंट-चूने के बने पुख्ता मकानों को छेदती हुई निकल जातीं और न जाने कहां-कहां घूम-घामकर स्वयं ही वापस आ जातीं, बिलकुल उन बच्चों की तरह जो मां की छाती पर औंधे मुंह लेटे नाक, कान और बालों से खेल-खाकर अपने ही हाथों को आश्चर्य मिश्रित दिलचस्पी से देखते-देखते नींद की वादियों में खो जाते हैं।
लतीफ की दुकान पर ग्राहक बहुत कम आते थे इसलिए सईद की उपस्थिति को गनीमत समझते हुए वह उससे तरह-तरह की बातें किया करता था। लतीफ तो उससे बातें करता रहा, लेकिन सईद एकटक समान लटकी हुई दरी की ओर देखें जाता, जिसमें अनगिनत रंगारंग धागों के उलझाव ने एक डिजाइन पैदा कर दिया था। लतीफ के होंठ हिलते रहे और सईद सोचता रहता कि उसके दिमाग का नक्शा उस दरी के डिजाइन से कितना मिलता-जुलता है। कई बार तो उसे यह भी ख्याल आता कि उसके अपने विचार ही बाहर निकलकर उस दरी पर रेंग रहे हैं।
उस दरी में और सईद की मन:स्थिति में कमाल की एकरूपता थी। अन्तर था, तो केवल इतना कि रंगारंग धागों के उलझाव ने उसके सामने दरी का रूप धारण कर लिया था और उसकी रंगारंग आकांक्षाओं का उलझाव ऐसा रूप धारण नहीं कर पाता था, जिसे दरी की तरह सामने बिछा या लटकाकर देखा जा सकता।
लतीफ तो अधकचरा और अनुभवहीन था। बातचीत करने का सलीका तक उसे नहीं आता था। किसी चीज में यदि उसे सुन्दरता तलाश करने को कहा जाता तो वह अचरज से ऐसे भर जाता कि बिल्कुल मूर्ख दिखाई देता। उसमें एक बात ही नहीं थी, जो किसी कलाकार में होती है, लेकिन फिर भी एक लड़की उससे प्रेम करती थी। उसे पत्र लिखती थी, जिसे लतीफ यूं पढ़ा करता था मानो किसी घटिया श्रेणी के अखबार में युद्ध की खबरें पढ़ रहा हो। कभी किसी पत्र को पढ़कर भी उसके शरीर में वह कंपकंपाहट नहीं होती थी, जो ऐसे पत्रों के हर शब्द में गुंथी होती है। शब्दों के मनोवैज्ञानिक महत्व से यह सर्वथा अनभिज्ञ था। यदि उससे कहा जाता, ‘देखो लतीफ, यह पढ़ो! लिखती है, मेरी बुआ ने कल मुझसे कहा, यह एकदम मेरी भूख को क्या हुआ? तूने खाना-पीना क्यों छोड़ दिया है? जब मैंने सुना तो मालूम हुआ कि सचमुच आजकल मैं बहुत कम खाती हूं। देखो, मेरे लिए कल शहाबुद्दीन की दुकान से खीर लेते आना….. जितनी लाओगे, सब चट कर जाऊंगी…अगली-पिछली कसर निकाल दूंगी…. कुछ मालूम हुआ, इन पंक्तियों का क्या मतलब हैं? तुम शहाबुद्दीन की दुकान से खीर का एक बहुत बड़ा दोना लेकर आओगे, लेकिन लोगों की नजरों से बचाकर ड्योढ़ी में जब तुम उसे यह उपहार दोगे, तो इस ख्याल से खुश न होना कि सारी खीर वह स्वयं खा जाएगी। वह कभी नहीं खा सकेगी… पेट भरकर वह कुछ खा ही नहीं सकती। जब मस्तिष्क में विचारों की रेल-पेल हो तो पेट स्वयं ही भर जाया करता है, लेकिन यह तर्क भला उसकी समझ में कैसे आ सकता था! वह तो समझने-समझाने से बिलकुल कोरा था। जहां तक शहाबुद्दीन की दुकान से चार आने की खीर और एक आने की खुशबूदार रबड़ी खरीदने का सम्बन्ध था, लतीफ बिलकुल ठीक था, लेकिन खीर की फर्माइश क्यों की गई और उसके द्वारा उत्सुकता उत्पन्न करने का विचार किन परिस्थितियों में उसकी प्रेमिका के मस्तिष्क में पैदा हुआ, इससे लतीफ को कोई सरोकार नहीं था। वह इस योग्य ही नहीं था। कि इन बारीकियों को समझ सके। वह मोटी बुद्धि का आदमी था जो लोहे के जंग खाए गज से बड़े ही भेंडे तरीके से दरियां मापता था और शायद इसी प्रकार के गज से अपनी भावनाओं की पैमाइश करता था।
लेकिन इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता था कि एक ऐसी लड़की लतीफ से प्रेम करती है, जो हर प्रकार से उससे बेहतर थी। लतीफ और उस लड़की में उतना ही अन्तर था जितना लुधियाना की दरी और कश्मीर के गुदगुदे कालीन में होता है।
सईद की समझ में यह बात नहीं आती थी कि प्रेम पैदा कैसे होता है? बल्कि यह कहना चाहिए कि पैदा कैसे हो सकता है? वह स्वयं जब चाहे अपने-आप को दुखी अथवा प्रसन्न कर सकता था, लेकिन नहीं कर सकता था तो प्रेम! प्रेम, जिसके लिए वह इतना बेचैन रहता था।
सईद का एक और मित्र, जो इतना आलसी था कि मूंगफली और चने केवल उसी हालत में खा सकता था, यदि उनके छिलके उतरे हुए हों, अपनी गली की ही एक सुन्दर लड़की से प्रेम कर रहा था। अपनी प्रेमिका की सुन्दरता की चर्चा हर समय उसकी जबान पर रहती थी, लेकिन यदि उससे पूछा जाता कि यह सुन्दरता तुम्हारी प्रेमिका में कहां से शुरू होती है, तो अवश्य ही उसका मस्तिष्क कोरी सलेट की तरह सपाट हो जाता। सुन्दरता का अर्थ वह बिल्कुल नहीं जानता था। कालेज में शिक्षा प्राप्त करने पर भी उसका मानसिक विकास बड़े घटिया ढंग पर हुआ था, लेकिन उसकी प्रेम कथा इतनी लम्बी थी कि रेखागणित की पुस्तक से भी बड़ी पुस्तक तैयार हो जाती। आखिर इन लोगों को, इन महामूर्खों को प्रेम करने का क्या अधिकार है? यह प्रश्न कई बार सईद के मस्तिष्क में उभरता और दिन-दिन उसकी परेशानी बढ़ाता चला गया।
वास्तव में दूसरों को प्रेम करते देखकर सईद के दिल में ईर्ष्या की चिंगारी भड़क उठती थी। वह जानता था कि यह उसका कमीनापन है, लेकिन वह विवश था। प्रेम करने की प्रबल इच्छा उसके मन-मस्तिष्क पर इस बुरी तरह छाई रहती थी कि कई बार मन-ही-मन वह प्रेम करने वालों को गालियां भी दिया करता था, लेकिन गालियां दे चुकने के बाद वह अपने-आप को कोसता कि उसने व्यर्थ ही दूसरों को बुरा-भला कहा। यदि संसार के सभी प्राणी एकदम प्रेम करने लगें, तो इसमें मेरे बाप का क्या जाता है? मुझे केवल अपने-आप से सम्बन्ध रखना चाहिए। मैं यदि प्रेमपाश में नहीं पड़ता तो इसमें दूसरों का क्या दोष है? संभव है किसी लिहाज से में इस योग्य ही न होऊं। क्या मालूम, कमअक्ल और मूर्ख होना ही प्रेम करने के लिए आवश्यक हो!
सोचते-सोचते एक दिन वह इस परिणाम पर पहुंचा कि प्रेम एकदम पैदा नहीं होता। वे लोग झूठे हैं, जो ऐसा समझते हैं। यदि ऐसा होता तो उसके हृदय में बहुत समय पहले ही प्रेम पैदा हो चुका होता। अब तक कई लड़कियां उसकी नज़रों से गुजर चुकी थीं। यदि प्रेम एकदम पैदा हो सकता तो वह उनमें से किसी एक के साथ स्वयं को बड़ी आसानी से सम्बद्ध कर सकता था। किसी लड़की को केवल एक या दो बार देखने से प्रेम कैसे पैदा हो जाता है, यह बात उसकी समझ में नहीं आती थी!
कुछ दिन पहले एक मित्र ने जब उससे कहा, ‘कम्पनी बाग में आज मैंने एक लड़की देखी और एक नजर में उसने मुझे घायल कर दिया’, तो यह सुनकर सईद का जी मितलाने लगा। ऐसे वाक्य उसे बहुत ही घटिया मालूम होते थे। घायल कर दिया! लानत है! कितना भैंडा प्रदर्शन है प्रेम का! ।
जब वह इस प्रकार के बेतुके और घटिया वाक्य किसी की जबान से सुनता, तो उसे ऐसा अनुभव होता मानों उसके कानों में पिघला हुआ सीसा डाल दिया गया है, लेकिन वास्तविकता यह थी कि घटिया मनोवृत्ति और लंगड़ी अभिरुचि के लोग उससे कहीं अधिक प्रसन्न थे। ये लोग जो प्रेम के माधुर्य से बिल्कुल कोरे थे, उसके मुकाबले में कहीं ज्यादा सुख-शान्ति का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
प्रेम और जीवन को ‘एम. असलम’ के दृष्टिकोण से देखने वाले कितने प्रसन्न थे, लेकिन सईद जो प्रेम और जीवन को अपनी स्वच्छ, निर्मल नजरों से देखता था, दुखी था, अत्यन्त दुखी ……..
एम. असलम से उसे बड़ी घृणा थी। इतना घटिया लेखक आज तक उसकी नजरों से नहीं गुजरा था। उसकी कहानियां पढ़कर हमेशा उसका ख्याल टिब्बी और कटरा घनैय्यां की खिड़कियों की ओर दौड़ जाता, जिसमें से रातों को वेश्याओं के गुलाल से पुते गाल नजर आते हैं, लेकिन आश्चर्य है कि अक्सर नौजवान लड़कियों और लड़कों में उसी की कहानियां प्रेम पैदा करती थी।
जो प्रेम एम. असलम की कहानियां पैदा करती हैं, किस प्रकार का प्रेम होगा? जब कभी वह इस विषय पर विचार करता, तो कल्पना में उसे वह प्रेम एक ऐसे छिछोरे व्यक्ति की शक्ल में दिखाई देता, जिसने दिखावे के लिए अपने सभी अच्छे-अच्छे वस्त्र एक के ऊपर एक भद्दे ढंग से पहन रखा हो।
एम. असलम की कहानियों के बारे में उसकी राय चाहे जैसी हो, वास्तविकता यही थी कि नौजवान लड़कियां उन्हें छुप-छुपकर पढ़ती थीं और जब उनकी भावनाएं भड़कती थीं, तो वे तुरन्त उस आदमी से प्रेम करना शुरू कर देती थी, जो उन्हें सबसे पहले नजर आ जाता था। इसी तरह ‘बहजाद’1, जिसकी गज़लें हिन्दुस्तान की हर ‘जान’ और ‘बाई’ रात को कोठों पर गाती है, नौजवान लड़के-लड़कियों में बहुत लोकप्रिय था। क्यों? यह उसकी समझ से बाहर की बात थी।
बहज़ाद की वह घटिया गजल ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे’ लगभग हर शख्स गाता था। उसके अपने घर में उसकी चपटी नाक वाली नौकरानी, जो वैसे अपनी जवानी की मंजिलें पार कर चुकी थी, प्रतिदिन बरतन मांझते समय धीमे सुरों में गुनगुनाया करती थी-
दीवाना बनाना है तो दीवान बना दे…..
इस गजल ने उसे दीवाना बना दिया था। जहां जाओ ‘दीवाना बनाना है, तो दीवान बना दे’ अलापा जा रहा है। आखिर क्या मुसीबत है, छत पर जाओ तो काना इस्माइल एक आंख से अपने उड़ते हुए कबूतरों की ओर देखकर ऊंचे सुरों में गा रहा है, ‘दीवाना बनाना है, तो…..’ दरियों की दुकान पर बैठो तो बगल की दुकान में लाला किशोरीमल बजाज आराम से बैठा नकसुरी ताने लगाने लगता है, ‘दीवाना बनाना है, तो…..’ दरियों की दुकान से उठकर अपनी बैठक में आओ और रेडियो खोलो, तो अख्तरी बाई फैजाबादी गा रही है, ‘दीवाना बनाना है, तो…..’ क्या बेहूदगी है? वह सोचता, लेकिन एक दिन जब वह अपने पान के लिए छालिया कतर रहा था, तो आप ही आप उसने भी गाना शुरू कर दिया, ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।’
मुंह से पहली पंक्ति निकलते ही वह अपने-आप में बड़ा लज्जित हुआ। स्वयं पर क्रोध भी आया, लेकिन फिर एकाएक जोर का कहकहा लगाकर उसने ऊंचे सुरों में गाना शुरू कर दिया, ‘दीवाना बनाना है, तो….’ ये गाते हुए उसने अपनी कल्पना में बहज़ाद की सारी शायरी एक कहकहे में नीचे दबा दी और जी’ ही जी में खुश हो गया।
एक-दो बार उसके मन में यह विचार भी आया कि अन्य लोगों की तरह वह भी एम. असलम के कहानी-लेखक और बहज़ाद की शायरी पर मोहित हो जाए और यूं किसी से प्रेम करने में सफलता प्राप्त कर ले, लेकिन कोशिश करने पर भी न तो वह एम. असलम की कोई कहानी पूरी पढ़ सका और न बहज़ाद की गज़ल में उसे कोई विशेषता नजर आई और उसने फैसला कर लिया कि चाहे जो हो, वह एम. असलम और बहज़ाद के बिना ही अपनी इच्छा पूरी करेगा, ‘जो विचार मेरे मस्तिष्क में है, उन्हीं के साथ मैं किसी लड़की से प्रेम करूंगा। अधिक से अधिक यही होगा कि मैं असफल रहूंगा, तो भी वह असफलता इन दो डुगडुगी बजाने वालों के इशारों पर नाचने से अच्छी होगी।’ इस फैसले के बाद से उसके भीतर प्रेम की आकांक्षा और भी प्रबल हो गई और उसने प्रतिदिन सुबह नाश्ता किए बगैर रेल के फाटक पर जाना शुरू कर दिया, जहां से ढेरों-ढेर लड़कियां हाई स्कूल की ओर जाती थीं।
फाटक के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े तवे से जड़े हुए थे, जिन पर लाल रोगन पेंट किया हुआ था। दूर से जब वह इन दो लाल-लाल तवों को एक-दूसरे की सीध में देखता, तो उसे मालूम हो जाता कि फ्रंटियर मेल आ रही है। फाटक के पास पहुंचते ही फ्रंटियर मेल मुसाफिरों से लदी-फदी आती और दनदनाती हुई स्टेशन की ओर निकल जाती।
फाटक खुलता और वह लड़कियों की प्रतीक्षा में एक तरफ खड़ा हो जाता। उधर से पच्चीस नहीं, छब्बीस लड़कियां (पहले दिन उसने गिनने में गलती की थी) ठीक समय पर आती और रेल की पटरियां पार करती हुई कम्पनी बाग के साथ वाली सड़क पर मुड़ जातीं। इन छब्बीस लड़कियों में से दस लड़कियों में, जो हिन्दू थीं, देखने से कोई फायदा नजर नहीं आया; बाकी सोलह लड़कियों को वह इसलिए न देख सका, क्योंकि शेष सोलह मुसलमान लड़कियों की शक्ल-सूरत बुर्कों में छिपी रहती थी।
दस दिन तक वह बिना नागा फाटक पर जाता रहा। शुरू-शुरू में तो वह उन पर्दापोश और बेपर्दा लड़कियों की ओर देखता रहा, लेकिन दसवें दिन जब सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही थी और उस हवा में कम्पनी बाग के फूलों की महक भी बसी हुई थी, तो स्वयं को लड़कियों के बजाय उन छोटे-छोटे पेड़ों की ओर देखते पाया, जिनमें अनगिनत चिड़ियां चहचहा रही थीं और फिर जब उसने गौर किया, तो पता चला कि वह एक हफ्ते से लड़कियों के स्थान पर उन चिड़ियों, पेड़ों और फ्रंटियर मेल के मृत्यु के-से अटल आगमन में दिलचस्पी लेता रहा है।
प्रेम करने के लिए उसने और भी बहुत-से हीले किए, लेकिन असफल रहा। आखिर उसने सोचा, क्यों न अपनी गली में ही कोशिश की जाए? और इसी विचार के अन्तर्गत एक दिन अपने कमरे में बैठकर उसने गली की उन सभी लड़कियों की सूची बना डाली, जिनसे प्रेम किया जा सकता था। सूची तैयार हो गई तो मालूम हुआ कि ऐसी नौ लड़कियां मौजूद हैं।
नम्बर एक हमीदा, नम्बर दो सुगरा, नम्बर तीन नईमा, नम्बर चार पुष्पा, नम्बर पांच विमला, नम्बर छः राजकुमारी, नम्बर सात फातिमा, जिसका उपनाम फातो था और नम्बर आठ बेदी उपनाम की जुबैता।
नम्बर नौ…… उसका नाम उसे मालूम नहीं था। यह लड़की पशमीने के सौदागरों के लिए यहां नौकर थी।
अब उसने नम्बरवार गौर करना शुरू किया
हमीदा सुन्दर थी और बड़ी भोली-भाली। आयु लगभग पन्द्रह वर्ष। हमेशा हंसती रहती। बड़ी नाजुक। उसे देखकर ऐसा मालूम होता कि सफेद शक्कर की पुतली है, भुरभुरी! जरा हाथ लगाया, तो उसके शरीर का कोई अंग टूटकर गिर पड़ेगा।
यदि किसी समय वह उससे यह कहता, ‘हमीदा, मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूं’ तो अवश्य ही हमीदा की धड़कन रुक जाती। वह उसे सीढ़ियों में ही ऐसी बात कह सकता था। कल्पना ही कल्पना में वह हमीदा से उन्हीं सीढ़ियों पर मिला। वह ऊपर से तेजी के साथ उतर रही थी। उसने उसे रोका और बड़े गौर से उसकी ओर देखा। उसका नन्हा-सा दिल सीने में यों फड़फड़ाया, मानो तेज हवा के झोंके से दिये की लौ। वह उससे कुछ नहीं कह सका।
हमीदा से वह कुछ नहीं कह सकता था। वह इस योग्य ही नहीं थी कि उससे प्रेम किया जाता। वह केवल विवाह के योग्य थी। कोई भी पति उसके लिए उपयुक्त था, क्योंकि उसके शरीर का कण-कण पत्नी था। उसकी गणना उन लड़कियों में की जा सकती थी, जिनका पूरा जीवन विवाह के बाद घर की चारदीवारी में सिमटकर रह जाता है, जो बच्चे पैदा करती हैं और दो चार वर्षों में ही अपना सारा रंग-रूप खो देती हैं और रंग-रूप खो देने पर भी जिन्हें अपने में कोई विशेष अन्तर महसूस नहीं होता।
ऐसी लड़कियों से, जो प्रेम का शब्द सुनकर यह समझें कि उनसे कोई भारी अपराध हो गया है, वह प्रेम नहीं कर सकता था। उसे विश्वास था कि यदि किसी दिन वह उसे गालिब का कोई शेर सुना देता, तो लगातार कई दिनों तक नमाज के साथ गुनाह माफ करवाने की दुआएं मांगने पर भी वह यही समझती कि उसका गुनाह माफ नहीं हुआ। वह तुरन्त अपनी मां को सारी बात जा सुनाती और उस पर जो ऊधम मचता, उसकी कल्पना-मात्र से ही सईद कांप-कंपा उठता। प्रत्यक्ष हैं कि सभी उसी को दोषी ठहराते और आयु-भर के लिए उसके चरित्र पर वह एक बदनुमा धब्बा लग जाता। कोई भी उसकी इस बात पर ध्यान न देता कि वह सच्चे मन से प्रेम करने का इच्छुक है।
नम्बर दो सुगरा और नम्बर तीन नईमा के बारे में कुछ सोचना ही बेकार था, क्योंकि वे दोनों कट्टर मौलवी की लड़कियां थीं। उनकी कल्पना करते ही सईद की आंखों के सामने मसजिद की वे चटाइयां आ जाती, जिन पर मौलवी कुदरतुल्लाह शहाब लोगों को नमाज पढ़ाने और अजान2 देने में व्यस्त रहे थे। ये लड़कियां जवान और सुन्दर थीं, लेकिन विचित्र बात यह है कि दोनों के चेहरे मस्जिद की मेहराबों जैसे थे। जब सईद अपने घर में बैठा उसकी आवाज सुनता, तो उसे ऐसा लगता, जैसे नियमानुसार कोई धीमे सुरों में दुआ मांग रहा हो, ऐसी दुआ जिसका अर्थ दुआ मांगने वाला स्वयं भी नहीं समझता। उन्हें केवल खुदा से प्रेम करना सिखाया गया था, इसलिए सईद उनसे प्रेम नहीं करना चाहता था।
वह मनुष्य था और मनुष्य को ही अपना प्रेम-पात्र बनाना चाहता था और सुगरा और नईमा का तो प्रशिक्षण ही ऐसा हुआ करता था कि वे केवल परलोक में पुण्यात्माओं के काम आ सकें।
जब सईद ने उनके बारे में सोचा, तो अपने-आप से कहा, ‘भई नहीं, इनसे मैं प्रेम नहीं कर सकता, जो अन्त में दूसरों के हवाले कर दी जाएंगी। मुझे इस संसार में पाप भी करने हैं, इसलिए मैं यह जुआ नहीं खेलना चाहता। मुझसे यह कभी सहन न होता कि इस संसार में, जिससे मैं प्रेम करता हूं, कुछ पापों के बदले दूसरे संसार में वह किसी सदाचारी के हवाले कर दी जाएं।’
और इसीलिए अपनी सूची में से सुगरा और नईमा का नाम काट दिया।
नम्बर चार पुष्पा, नम्बर पांच विमला और नम्बर छः राजकुमारी, ये तीन लड़कियां, जिनका आपस में न जाने क्या सम्बन्ध था, सामने वाले मकान में रहती थीं। पुष्पा के बारे में कुछ सोचना व्यर्थ था, क्योंकि शीघ्र ही उसका विवाह होने वाला था, एक बजाज से, जिसका नाम उतना ही असुन्दर था, जितना पुष्पा का सुन्दर। वह अक्सर उसे छेड़ा करता था और खिड़की में से उसको अपनी काली अचकन दिखाकर पूछा करता था, ‘पुष्पा, बताओ तो मेरी अचकन का रंग कैसा है?’
पुष्पा के गालों पर क्षण-भर के लिए गुलाब के फूल खिल उठते और वह बड़ी प्रसन्नता से उत्तर देती, ‘नीला।’
उसके उस भावी पति का नाम कालूमल था और कोई नहीं जानता था कि उसके माता-पिता ने यह नाम रखते समय उसका कौन-सा हित अपने सामने रखा था जब वह पुष्पा और कालूमल के बारे में सोचता, तो अपने-आप से कहता, यदि किसी अन्य कारण से उनका विवाह नहीं रुक सकता, तो केवल इसी कारण से रोक देना चाहिए कि उसके भावि पति का नाम इतना बेहूदा है, कालूमल! एक ‘कालू’ और उस पर ‘मल’, लानत है!
लेकिन फिर वह सोचता, यदि पुष्पा का विवाह कालूमल बजाज से न हुआ, तो किसी घसीटाराम हलवाई या किसी करोड़ीमल सर्राफा से हो जाएगा। जो हो, वह उससे प्रेम नहीं कर सकता था और यदि करता, तो हिन्दू-मुस्लिम उपद्रव का भय था। मुसलमान और हिन्दू लड़की से प्रेम करे… अव्वल तो प्रेम वैसे ही बहुत बड़ा अपराध है, इस पर मुसलमान लड़के और हिन्दू की लड़की का प्रेम नीम पर करेला चढ़ाने वाली बात थी।
शहर में कई बार हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो चुका था, लेकिन जिस गली में सईद रहता था, किन्हीं अज्ञात कारणों से वह उस प्रकार के प्रभावों से बची हुई थी। यदि वह पुष्पा, या विमला या राजकुमारी से प्रेम करने का इरादा कर लेता, तो प्रत्यक्ष है कि दुनिया की सारी गाएं और सूअर उस गली में एकत्र हो जाते और सईद को हिन्दू-मुस्लिम दंगे से घोर घृणा थी।
राजकुमारी जो उन दोनों से छोटी थी, उसे पसंद थी। उसके होठ जो हल्की-हल्की सांसों के कारण हलके-हलके खुलते थे, उसे बहुत अच्छे लगते थे। उन होंठों को देखकर उसे हमेशा यह ख्याल आता कि एक चुम्बन उन होंठों को छूकर निकल गया है। एक बार उसने राजकुमारी को, जो अभी अपने जीवन की चौदहवीं मंजिल तय कर रही थी, उसके मकान की तीसरी मंजिल के गुसलखाने में नहाते देखा था। अपने मकान के झरोखों से जब सईद ने उसकी ओर देखा, तो उसे ऐसा लगा जैसे उसकी कोई अछूती कल्पना मस्तिष्क से निकलकर साकार हो गई हो। सूरज की मोटी-मोटी किरने, जिसमें वायुमंडल के अनगिनत कण छिड़काव-सा कर रहे थे, उसके नंगे बदन पर फिसल रही थीं। उन किरनों ने उसके गोरे बदन पर सोने की पर्त-सी चढ़ा दी थी।
पुष्पा और विमला के मुकाबले में राजकुमारी बड़ी सुघड़ थी। उसकी पतली-पतली उंगलियां थी, जो हर समय यों हिलती रहती थी जैसे ख्याली जुराबें बुन रही हो, उसे बहुत पसंद थीं। उन उंगलियों में बड़े चमत्कार छिपे थे, जिन्हें करोशिये और सुई के कामों के रूप में वह कई बार देख चुका था।
एक बार राजकुमारी के हाथ का बना हुआ मेजपोश देखकर उसे ख्याल आया कि उसके अपने हृदय की बहुत-सी धड़कनें भी उसके नन्हें-नन्हें खानों में ग्रंथ दी हैं। एक बार जब वह उसके बिलकुल पास खड़ी थीं, उसके दिल में प्रेम करने का ख्याल पैदा हुआ, लेकिन जब उसने राजकुमारी की ओर देखा, तो वह उसे एक मन्दिर-सी दिखाई दी, जिसके पहलू में वह स्वयं मस्जिद के रूप में खड़ा था। भला मन्दिर और मस्जिद में कैसे मित्रता हो सकती है?’
गली की सारी लड़कियों के मुकाबले में यह हिन्दू लड़की मानसिक रूप से बहुत उच्च थी। उसका सुन्दर माथा, जिस पर एक हल्की -सी लट मचलने को हर समय बेकरार नजर आती थी, उसे बहुत भला मालूम होता था और उसी माथे को देखकर वह मन ही मन कहा करता था कि यदि प्रस्तावना इतनी दिलचस्प है, तो न जाने पुस्तक कितनी दिलचस्प होगी ….. मगर …. आह …. यह मगर उसके जीवन में सचमुच का मगर बनकर रह गया था, जो उसे डुबकी लगाने से हमेशा बाज रखता था।
नम्बर सात फातिमा यानी फातो खाली नहीं थी। उसके दोनों हाथ प्रेम से भरे हुए थे। एक अमजद से, जो वर्कशाप में लोहा कूटता था और दूसरा अमजद के चचरे भाई से, जो दो बच्चों का बाप था। फातिमा यानी फातो उन दोनों भाइयों से प्रेम कर रही थी, मानों एक पतंग से दो पेंच लड़ा रही थी। एक पतंग में जब दो और पतंगे उलझ जाएं, तो काफी दिलचस्पी पैदा हो जाती है और इस तिगड्डे में यदि एक और पेंच की वृद्धि हो जाती, तो यह उलझाव बिलकुल भूल-भूलैया का रूप धारण कर लेता। जो सईद को किसी तरह पसन्द नहीं था। इसके अलावा फातो जिस प्रकार का प्रेम कर रही थी, वह बड़ा ही घटिया दर्जे का था। जब सईद उस प्रकार के प्रेम की बाबत सोचता, तो प्राचीन प्रेम-कथाओं की बूढ़ी कुटनी पीले कागजों के बदबूदार ढेर में से निकलकर लाठी टेकती हुई उसके सामने आ खड़ी होती और उसकी ओर यूं देखने लगती, जैसे कहना चाहती हो, ‘मैं आसमान के तारे तोड़कर ला सकती हूं। बता तेरी नजर किस लौंडिया पर है? यूं चुटकियों में तुझसे मिला दूंगी।’
इस बुढ़िया की कल्पना के साथ ही जब वह गृहवाटिका के बारे में सोचता है, जहां वह बुढ़िया उसकी प्रेमिका को किसी बहाने से ला सकती थी, तो न जाने क्यों गृहवाटिका के स्थान पर जाहिरा पीर और दातागंज बख्श की मज़ार उसकी आंखों के सामने आ जाता और इस दृश्य के साथ ही उसके प्रेम का सारा नशा हवा हो जाता। प्रेम के स्थान पर एक ऐसी कब्र खड़ी हो जाती, जिस पर हरे रंग का गिलाफ चढ़ा होता और अनगिनत फूल-हार उस पर बिखरे होते।
कभी-कभी उसे यह भी ख्याल आता कि यदि कुटनी असफल रही, तो कुछ दिनों के बाद इस मोहल्ले से मेरा जनाजा निकलेगा और दूसरे मोहल्ले में मेरी युवा प्रेमिका का। ये दोनों जनाजे रास्ते में टकराएंगे और दो ताबूतों का एक ताबूता बन जाएगा, या फिर प्रेम-कथाओं के परिणाम की तरह जब मुझे और मेरी प्रेमिका को दफनाया जाएगा, तो एक चमत्कार के वशीभूत दोनों कब्रे आपस में मिल जाएंगी। वह यह भी सोचता कि अगर वह मर गया और उसकी प्रेमिका किसी कारण जान न दे सकी, तो हर जुमअरात (बृहस्पतिवार) को वह उसकी कब्र पर अपने कोमल हाथों से फूल चढ़ाया करेगी, दिया जलाया करेगी और अपने बाल बिखराकर कब्र के साथ अपना सिर फोड़ा करेगी और चुगताई3 एक और चित्र बना देगा जिसके नीचे लिखा होगा-
हाय उस जूद पेशमां की4 पेशमां होना!
या कोई शायर एक और गजल लिख देगा, जिसे तमाशबीन एक समय तक कोठों पर तबले की थाप के साथ सुनते रहेंगे। उस गजल के शेर इस किस्म के होंगे-
मेरी लहर पे5 कोई पर्दापोश आता है।
चिरागे-गोरे-गरीबां6 सबा7 बुझा देना
ऐसे शेर जब कभी वह किसी गज़ल में देखता, तो इस परिणाम पर पहुंचता कि प्रेम गोरकन8 है जो हर समय कंधे पर कुदाल लिए प्रेमियों की कब्र खोदने के लिए तैयार रहता है। इस प्रेम से वह अपने प्रेम की तुलना करता तो, धरती-आकाश का अन्तर पाता। या तो उसका दिमाग खराब है या वह जीवन-व्यवस्था तुच्छ है, जिसमें उसे जीना पड़ रहा है।
सईद अगर कोई दीवान (कविता संग्रह) खोलता, तो उसे ऐसा महसूस होता, जैसे वह किसी कसाई की दुकान में दाखिल हो गया है। हर शेर उसे बेखाल का ऐसा बकरा दिखाई देता, जिसका मांस चर्बी-समेत दुर्गन्ध छोड़ रहा हो और उसकी जबान पर वह स्वाद पैदा हो जाता, जो कुर्बानी के बकरे का मांस खाते समय वह महसूस किया करता था।
वह सोचता, जिस प्रांत में जनसंख्या का चौथा भाग शायर है और ऐसे ही शेर कहता है, वहां प्रेम मांस के लोथड़ों के नीचे दबा रहेगा। यह निराशा-भाव किसी न किसी तरह एक-दो दिन के बाद गायब हो जाता और वह फिर नई ताजगी के साथ अपनी प्रेम-समस्या पर विचार करना शुरू कर देता।
नम्बर आठ जुबैदा यानी वेदी भरे-भरे हाथ-पैरों की लड़की थी। दूर से देखने पर गुंथे हुए मैदे का एक ढेर-सा दिखाई देती थी। गली के एक लड़के ने एक बार उसको आंख मारी। बेचारे ने यों अपने प्रेम का प्रारम्भ करना चाहा था, लेकिन उसे लेने के देने पड़ गए। लड़की ने अपनी मां को सारी राम कहानी कह सुनाई। मां ने अपने बड़े बेटे से बात की और उसे गैरत दिलाई। परिणामस्वरूप एक आंख मारने के दूसरे दिन शाम को जब अब्दुलगनी साहब हिकमत यानी चिकित्सा-विज्ञान सीखकर घर लौटे तो उनकी दोनों आंखें सूजी हुई थीं। कहते हैं कि जुबेदा यानी वेदी चिक में से यह तमाशा देखकर बहुत खुश हुई थी।
सईद को चूंकि अपनी आंखें बहुत प्यारी थी इसलिए वह जुबैदा के बारे में क्षण-भर के लिए भी नहीं सोचना चाहता था। अब्दुल गनी ने जो आंख के इशारे से प्रेम की शुरुआत करना चाही थी, तो सईद को यह ढंग बिलकुल बाजारू मालूम
होता था। वह यदि उसे अपना प्रेम-सन्देश देना चाहता, तो नि:संदेह अपनी जबान प्रयोग में लाता, जो दूसरे ही दिन काट ली जाती। शल्यचिकित्सा करने से पहले जुबैदा का भाई कभी न पूछता कि बात क्या है? बस, वह गैरत के नाम पर छुरी चला देता। उसे इस बात का कभी ख्याल न आता कि वह स्वयं छ: लड़कियों को बर्बाद कर चुका है, जिसका वृत्तांत वह बड़े मजे ले-लेकर अपने मित्रों को सुनाया करता है।
नम्बर नौ, जिसका नाम उसे मालूम नहीं था, पश्मीने के सौदागरों के यहां नौकर थी। एक बहुत बड़ा घर था, जिसमें चारों भाई एक साथ रहते थे। यह लड़की जो कश्मीर की पैदावार थी, उन चारों भाइयों के लिए सर्दियों में शाल का काम देती थी। गर्मियों में वे सबके-सब कश्मीर चले जाते थे और वह अपने किसी दूसरे के रिश्तेदार के पास चली जाती थी। यह लड़की, जो औरत बन चुकी थी, दिन में एक-दो बार जरूर उसकी नज़रों के सामने से गुजरती थीं और उसे देखकर वह हमेशा यही अनुभव किया करता था कि उसने एक नहीं, एक साथ तीन-चार औरतें देखी हैं। उस लड़की के बारे में उसने कई बार सोचा था और हर बार उसे नये सिरे से उसकी शक्ति का कायल होना पड़ता था, क्योंकि घर का सारा काम-काज संभालने के साथ-साथ वह आवश्यकतानुसार चारों भाइयों की भी ‘सेवा’ करती थी।
प्रत्यक्ष रूप से वह प्रसन्न थी। उन चारों सौदागर भाइयों को, जिनके साथ उसका शरीर-सम्बन्ध था, वह एक ही नजर से देखती थी। उनका जीवन एक विचित्र खेल था, जिसमें चार आदमी भाग ले रहे थे। उसमें से प्रत्येक को यह समझना पड़ता था कि बाकी के तीन मूर्ख हैं और जब उसमें से कोई इस लड़की के साथ मिलता था तो, दोनों मिलकर यह समझते थे कि बाकी सबके सब अंधे हैं लेकिन क्या वह स्वयं अन्धी नहीं थी? इस प्रश्न का उत्तर सईद को नहीं मिलता था। यदि वह अंधी न होती, तो एक साथ चार आदमियों से सम्बन्ध स्थापित न करती। संभव है वह उन चारों को एक ही समझती हो; क्यों स्त्री और पुरुष का शारीरिक सम्बन्ध एक जैसा ही होता है।
वह अपना जीवन बड़े मज़े से व्यतीत कर रही थी। चारों सौदागर भाई उसे छिप-छिपकर कुछ न कुछ जरूर देते होंगे, क्योंकि पुरुष जब किसी स्त्री के साथ कुछ समय के लिए एकांतवास करता है, तो उसके मन में उसका मूल्य चुकाने की इच्छा जरूरी उत्पन्न होती है।
सईद उसे अक्सर बाजार में शहाबुद्दीन की दुकान पर खीर खाते या भाई केसरसिंह फल वाले की दुकान पर फल खाते देखा करता था। उसे इन चीजों की आवश्यकता भी थी और फिर जिस बेबाकी से वह फल ओर खीर खाती थी, उससे पता चलता था कि वह उनका एक-एक कण हज्म कर लेना चाहती थी।
एक दिन सईद शहाबुद्दीन की दुकान पर फालूदा पी रहा था और सोच रहा था कि इतनी गरिष्ठ वस्तु वह कैसे पचा पाएगा कि वह आई और चार आने की खीर में एक आने की रबड़ी डलवाकर दो मिनटों में सारी प्लेट चट कर गई यह देखकर सईद को बड़ा आश्चर्य हुआ। जब वह चली गई तो शहाबुद्दीन के मैले होंठों पर एक मैली-सी मुस्कराहट पैदा हुई और उसने किसी से भी, जो सुन ले, सम्बोधन करते हुए कहा,
“साली मजे कर रही है।”
यह सुनकर उसने फिर से उस लड़की की ओर देखा, जो कूल्हे कटकाती फलों की दुकान के पास पहुंच चुकी थी और शायद भाई केसरसिंह का मजाक उड़ा रही थी। वह हर समय प्रसन्न रहती थी और यह देखकर सईद को बड़ा दु:ख होता था। न जाने क्यों, उनके मन में यह विचित्र इच्छा उत्पन्न होती थी कि वह प्रसन्न न रहे।
सन् तीस के आरम्भ तक वह उस लड़की के बारे में यही विश्वास करता रहा कि उससे प्रेम नहीं किया जा सकता।
दो
सन् इकत्तीस के शुरू होने में रात के केवल चंद ठिठुरते घंटे शेष थे। सर्दी के मारे सईज रजाई में कंपकंपा रहा था। उसने पतलून और कोट भी नहीं उतारा था, फिर भी सर्दी की लहरें उसकी हड्डियों तक पहुंच रही थीं। वह उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे की हरी रोशनी में, जो सर्दी में और भी वृद्धि कर रही थी, उसने तेजी से टहलना शुरू कर दिया।
थोड़ी देर बाद जब उसके शरीर में कुछ गर्मी आ गई, तो वह आरामकुर्सी पर बैठ गया और सिगरेट सुलगाकर अपना मस्तिष्क टटोलने लगा। मस्तिष्क चूंकि बिल्कुल खाली थी, इसलिए इसकी श्रवणशक्ति बहुत तेज थी। कमरे की सारी खिड़कियां बन्द थीं लेकिन वह बाहर गली में हवा की मद्धिम गुनगुनाहट बड़ी आसानी से सुन रहा था। उसी गुनगुनाहट में उसे कुछ इन्सानी आवाजें सुनाई दी। एक दबी-दबी-सी चीख दिसम्बर की आखिरी रात के सन्नाटे में चाबुक फटफटाने की-सी आवाज की तरह उभरी। फिर किसी का प्रार्थी स्वर कंपकंपाया। वह उठ खड़ा हुआ और उसने खिड़की के छिद्र में से बाहर की ओर देखा।
वही…वही लड़की यानी सौदागरों की नौकरानी बिजली के खम्बे के नीचे खड़ी थी। उसे इस हालत में देखकर सईद की कोमल भावनाओं को धक्का-सा लगा।
इतने में किसी पुरुष की भिंचती-सी आवाज आई, “खुदा के लिए अन्दर चली आओ। कोई देख लेगा, तो आफत आ जाएगी।”
जंगली बिल्ली की तरह लड़की ने गुर्राकर उत्तर दिया, “नहीं आऊंगी। बस, एक बार जो कह दिया, नहीं आऊंगी।”
उस पुरुष की आवाज फिर आई, “खुदा के लिए ऊंचे न बोलो कोई सुन लेगा, राजो….”
तो इसका नाम राजो था!
राजो ने अपनी चुटिया को झटका देकर कहा, “सुन ले, खुदा करे कोई सुन ले और अगर तुम इसी तरह मुझे अन्दर आने के लिए कहते रहे तो मैं खुद पूरे मोहल्ले को जगाकर सब कुछ कह दूंगी, समझे!”
राजो सईद को नजर आ रही थी, लेकिन जिससे वह बातें कर रही थी, वह नजरों से ओझल था। उसने बड़े छिद्र में से राजों की ओर देखा, तो उसके शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ गई। उसे देखकर सईद को ऐसा लगा कि औरत के बारे में उसकी सारी भावनाएं अपने कपड़े उतार रही हैं।
यह दृश्य देखकर सईद अनमना-सा हो गया। उसने चाहा कि खिड़की से हटकर अपने बिस्तर पर चला जाए और सब कुछ भूलभालकर चुपचाप सो जाए, लेकिन न जाने क्यों खिड़की के उस छिद्र पर उसकी आंखें जमी रहीं। राजो को इस अवस्था में देखकर उसके मन में काफी घृणा पैदा हो गई थी और शायद उसी घृणा के कारण वह दिलचस्पी ले रहा था।
सौदागर के सबसे छोटे लड़के ने, जिसकी आयु तीस बरस के लगभग थी, एक बार फिर प्रार्थी स्वर में कहा, “राजो, खुदा के लिए अन्दर चली आओ। मैं तुमसे वादा करता हूं कि फिर कभी नहीं सताऊंगा। लो, अब मान जाओ। देखो, खुदा के लिए अब मान जाओ। यह तुम्हारी बगल में वकीलों का मकान है, उसमें से किसी ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी।”
राजो खामेश रही, लेकिन थोड़ी देर के बाद बोली, “मुझे मेरे कपड़े ला दो। बस, अब मैं तुम्हारे यहां नहीं रहूंगी। मैं तंग आ गई हूं। मैं कल से वकीलों के यहां नौकरी कर लूंगी, समझे! अब अगर तुमने मुझसे कुछ कहा, तो खुदा की कसम, शोर मचाना शुरू कर दूंगी। चुपचाप मेरे कपड़े ला दो।
सौदागर के लड़के की आवाज आई, “लेकिन तुम रात कहां काटोगी?”
“जहन्नुम में तुम्हें इससे क्या? जाओ, तुम अपनी बीवी के पास जाओ। मैं कहीं , सो जाऊंगी।”
उसकी आंखों में आंसू थे। वह सचमुच रो रही थी।
छिद्र पर से आंखें हटाकर सईद पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। राजो की आंखों में आंसू देखकर उसे एक विचित्र प्रकार का आघात हुआ था। इसमें संदेह नहीं कि उस आघात के साथ वह घृणा भी लिपटी हुई थी, जो राजो को उस अवस्था में देखकर सईद के मन में पैदा हुई थी, लेकिन कोमल हृदय होने के कारण वह पिघल-सा गया। राजो की आंखों में, जो शीशे के मर्तबान में छोड़ी चमकदार मछलियों की तरह हमेशा गतिशील रहती थीं, आंसू देखकर उसका जी चाहा कि किसी तरह उसे तसल्ली दे…..।
राजो के चार बहुमूल्य वर्ष सौदागर भाइयों ने मामूली चटाई की तरह इस्तेमाल किए थे। इन वर्षों पर चारों भाइयों के पदचिह्न कुछ इस प्रकार थे कि कोई उसके पद-चिह्न को पहचान लेगा और राजो के बारे में तो यह कहा जा सकता था कि वह न अपने पदचिह्न देखती थी न दूसरों के। उसे बस चलते जाने की धुन थी, किसी भी ओर, लेकिन अब शायद उसने मुड़कर देखा था। मुड़कर उसने क्या देखा था कि उसकी आंखों में आंसू आ गए? यह सईद की समझ में नहीं आ सका।
जो चीज मालूम न हो, उसे मालूम करने की जिज्ञासा शायद हर आदमी के दिल में पैदा होती है। कुर्सी पर बैठा सईद देर तक अपनी मालूमात को उलट-पलटकर देखता और सोचता रहा और जब उठकर उसने कुछ और मालूम करने के लिए खिड़की के छिद्र पर आंख जमाई, तो राजो वहां नहीं थी। देर तक वह उस छिद्र पर आंखें जमाए रहा, लेकिन उसे बिजली की बर्फीली रोशनी में गली के ऊबड़-खाबड़ फर्श और गंदी नाली के सिवा, जिसमें पालक के अनगिनत डंठल पड़े थे, और कुछ नजर न आया।
बाहर सन् तीन की अंतिम रात दम तोड़ रही थी और उसका दिल धक्-धक् कर रहा था।
राजो कहां है?…क्या अन्दर चली गई…..क्या मान गई…..लेकिन सवाल यह है कि वह किसी बात पर झगड़ी थी?
राजो ने फड़फड़ाते हुए नथुने अभी तक सईद की आंखों के सामने थे। अवश्य ही सौदागर के छोटे लड़के से, जिसका नाम महमूद था, किसी बहुत बड़ी बात पर उसका झगड़ा हो गया था तभी तो दिसम्बर की लहू जमा देने वाली रात में केवल एक बनियान और शलवार के साथ बाहर निकल आई थी और अन्दर जाने का नाम न लेती थी।
जब सईद सोचता कि उनके झगड़े का कारण….लेकिन वह इस कारण पर सोचना ही नहीं चाहता था। जरा-सा सोचने पर ही बड़ा घिनौना दृश्य उसकी आंखों के सामने आ जाता था। लेकिन फिर उसे ख्याल आता कि झगड़े का यह कारण नहीं होगा, क्योंकि इसके तो वे दोनों आदी थे। एक अरसे से राजो उन सौदागर भाइयों को बड़े सलीके से एक ही दस्तरख्वान पर खाना खिला रही थी लेकिन अब एकाएक क्या हो गया था? राजो के ये शब्द उसके कानों में जिद्दी मक्खी की तरह भनभना रहे थे……‘जहन्नमुन में….तुम्हें इससे क्या…..जाओ, तम अपनी बीवी के पास जाओ। मैं कहीं न कहीं सो जाऊंगी’ कितनी पीड़ा थी इन शब्दों में।
उसे दुखी देखकर सईद की एक अज्ञात भावना तृप्त अवश्य हुई थी, लेकिन इसके साथ उसके मन में दया भी आई थी। उसने किसी स्त्री से आज तक सहानुभूति प्रकट नहीं की थी। वह राजो को दुखी देखना चाहता था, ताकि उससे सहानुभूति प्रकट कर सके। वह उससे सहानुभूति प्रकट कर सकता था, क्योंकि वह उसे सह सकती थी। यदि गली की किसी अन्य लड़की से वह हमदर्दी प्रकट करता, तो बहुत बड़ी आफत आ जाती, क्योंकि उस सहानुभूति का दूसरा ही अर्थ लगाया जाता।
राजो के सिवा गली की तमाम लड़कियां ऐसा जीवन व्यतीत कर रहीं थीं, जिससे ऐसे क्षण बहुत ही कम आते हैं, जब उनसे विशेष प्रकार की सहानुभूति की जा सके और यदि ऐसे क्षण आते हैं, तो तुरन्त ही उनके दिलों में हमेशा के लिए दफन हो जाते हैं। इच्छाओं और आशाओं की कब्र यदि बनती हैं, तो उन पर फातहा पढ़ने की आज्ञा नहीं मिलती, या इसका अवसर भी प्राप्त नहीं होता। यदि प्रेम की कोई चिता तैयार होती है, तो आस-पास के लोग उस पर राख डाल देते हैं कि शोले न भड़कें।
सईद ने सोचा कि यह कितना कष्टदायक एवं कृत्रिम जीवन है कि किसी को अपने जीवन के गड्ढे दिखाने की इजाजत नहीं। वे लोग जिनके कदम मजबूत नहीं, उन्हें अपनी लड़खड़ाहटें छिपानी पड़ती है। प्रत्येक व्यक्ति को एक जीवन अपने लिए और एक दूसरों के लिए व्यतीत करना पड़ता है। आंसू भी दो प्रकार के होते हैं और कहकहे भी। एक वे आंसू, जो जबरदस्ती आंखों से निकालने पड़ते हैं और एक वे, जो आप ही आप निकलते हैं। एक कहकहा वह है, जो एकांत में लगाया जाता है और दूसरा वह जो शिष्टाचार के नियमों के अनुसार कण्ठ से निकालना पड़ता है।
शायर, जिसकी सारी उम्र कोठों पर और शराब के ठेकों में गुजरी हो, मौत के बाद हजरत, मौलाना और न जाने क्या-क्या बना दिया जाता है। यदि उसकी जीवनी लिखी जाए, तो उसे फरिश्ता साबित करना हर जीवनी-लेखक का मुख्य कर्तव्य हो जाता है।
गधे, घोड़े, खच्चर, ऊंट इत्यादि हर जानदार और बेजान चीज पर नैतिकता एक चौकन्ने सवार की तरह चढ़ी बैठी है। साहित्य पर, इतिहास पर, हर मनुष्य की गर्दन पर नैतिकता बैठा दी गई है। बड़े-से-बड़े मनुष्य से लेकर गायक मास्टर निसार तक सबके सब नैतिकता से ग्रस्त हैं। सईद यदि चाहता था, तो ठीक ही चाहता था कि राजो की हर समय हंसने वाली आंखों में आंसू नजर आएं और वह उन आंसुओं को नैतिकता से बेपरवाह होकर अपनी उंगलियों से छुए। वह अपने आंसुओं का स्वाद अच्छी तरह जानता था, लेकिन वह दूसरों की आंखों के आंसू भी चखना चाहता था। विशेषकर किसी स्त्री के आंसू। स्त्री चूंकि वर्जित प्राणी है, इसलिए उसकी यह इच्छा और भी प्रबल हो गई।
सईद को विश्वास था कि यदि वह राजो के निकट होना चाहेगा, तो वह जंगली घोड़ी की तरह बिदकेगी नहीं। राजो गिलाफ चढ़ी औरत नहीं थी। वह जैसी भी थी, दूर से नजर आ जाती थी। उसको देखने के लिए सूक्ष्मदर्शक यंत्र या किसी अन्य यंत्र की आवश्यकता नहीं थी। उसकी भद्दी और मोटी हंसी, जो अक्सर उसके मटमैले होंठों पर बच्चों के टूटे हुए घरौंदे की तरह नजर आती थी, असली हंसी थी, बड़ी स्वस्थ हंसी और जबकि उसकी निरंतर गतिशील आंखों ने आंसू उगले थे तो उनमें भी कोई कृत्रिमता नहीं थी। राजो को सईद एक समय से जानता था। उसकी आंखों के सामने राजो के चेहरे की रूपरेखा बदली थी और वह लड़की से औरत बन गई थी। अब उसके भीतर एक के बजाय चूंकि चार औरतें थीं, इसलिए वह चार सौदागर भाइयों को जनसमूह नहीं समझती थी, लेकिन सईद को यह जनसमूह पसंद नहीं था वह एक स्त्री के साथ एक ही पुरुष का सम्बद्ध देखना चाहता था, लेकिन यहां, यानी राजो के मामले में उसे अपनी पसंद और नापसंद के बीच रुक जाना पड़ता था, क्योंकि इस बारे में सोचते हुए उसके मस्तिष्क में कई प्रकार के विचार एकत्र हो जाते थे और कई बार तो अनिच्छा से ही राजो की प्रशंसा करनी पड़ती थी। यह प्रशंसा किस बात की थी? इस बारे में यह विश्वास के साथ कुछ नहीं कह सकता। विचारों की भीड़-भाड़ में वह इस भाव को पहचानने में हमेशा असफल रहा था।
गली के सभी लोग राजों को भली भांति जानते थे। मौसी महन्ती गली की सबसे बूढ़ी स्त्री थी। उसका चेहरा ऐसा था, जैसे पीले रंग के सूत की अट्टियां बड़ी बेपरवाही से नोचकर एक-दूसरे से उलझा दी गई हों। यह बुढ़िया भी, जिसे आंखों से बहुत कम दिखाई देता था और जिसके कान करीब-करीब बहरे थे, राजो से हुक्के की चिलम भरवाकर उसकी पीठ-पीछे अपनी बहू से, या जो कोई भी उसके पास बैठा होता उससे कहा करती थी, ‘इस लौंडिया को घर में ज्यादा न आने दिया करो वरना किसी दिन अपने खसमों से हाथ धो बैठोगी…..‘, और यह कहते समय शायद उस बुढ़िया की झुर्रियों में उसकी खोई जवानी की कोई याद रेंग जाती थी।
राजो की अनुपस्थिति में सब उसको बुरा कहते थे और उन गुनाहों के लिए खुदा से क्षमा मांगते थे, जो शायद आगे चलकर कभी उनसे हो जाएं। स्त्रियां जब कभी राजो की चर्चा करती, तो अपने-आप को अत्यन्त सच्चरित्र मानते हुए मन ही मन गौरव का अनुभव करतीं कि उन्हीं के अस्त्वि से सतीत्व की प्रतिष्ठा कायम है।
राजो को सब बुरा समझते थे, लेकिन विचित्र बात यह थी कि उसके सामने आज तक किसी ने अपनी घृणा प्रकट नहीं की थी, बल्कि सभी हमेशा प्यार-मोहब्बत से उसके साथ पेश आते थे। शायद इसका कारण वही तथाकथित नैतिक स्तर हो, लेकिन इस अच्छे व्यवहार में राजो की प्रसन्नचित्तता और दूसरों को अनुगृहीत करने वाले स्वभाव का पर्याप्त योग था। सौदागरों के घर में काम-काज से निबटकर जब कभी किसी पड़ोसी के यहां जाती तो वहां बेकार गप नहीं लड़ाती थी कभी किसी बच्चे के पोतड़े बदल दिए। कभी किसी की चोटी गूंथ दी। किसी के सिर में से जूएं निकाल दी। मुट्ठी-चापी कर दी। वास्तव में उसे निठल्ला बैठना आता ही नहीं था। उसके मोटे और भद्दे हाथों में बला की फुर्ती थी और उसका दिल, जैसा कि जाहिर है, हर समय इस टोह में रहता था कि किसी की प्रसन्नता का कारण बने।
राजो दूसरों की सेवा में कई-कई घण्टे व्यतीत करती थी, लेकिन प्रशंसा या धन्यवाद के शब्द सुनने के लिए एक क्षण भी नहीं रुकती थी। मौसी महन्तों की चिलम भरी, सलाम किया और चल दी। वकील साहब को बाजार से फालूदा लाकर दिया, उसके छोटे बच्चे को थोड़ी देर गोद खिलाया और चली गई। गुलाम मुहम्मद नेचाबन्द की बुढ़िया दादी की पिंडलियां सहलाई और उसकी दुआएं लिए बिना यह जा, वह जा।
यह गठिया की मारी बुढ़िया, जो अपनी आयु की ऐसी मंजिल पार पहुंच गई थी जहां उसका अस्तित्व होने न होने के बराबर था और जिसे गुलाम मुहम्मद हुक्के का बेकार नेचा समझता था, राजो के हाथों एक विचित्र प्रकार के आनन्द का अनुभव करती थी। उसकी अपने बेटियां उसके पांव दाबती थीं, लेकिन उसकी मुट्ठियों में राजों के हाथों जैसा रस नहीं था। राजो अब उसकी पिंडलियां सहलाती थी, तो वह उसे कोई फरिश्ता नजर आती थी, लेकिन उसके जाने के तुरन्त बाद ही वह कह उठती, ‘हरामजादी ने इसी तरह पैर दबा-दबाकर उन सौदागर बच्चों को फांसा होगा।’
विचारों का वेग न जाने सईद को कहां बहा ले गया। एकाएक वह चौंका और खिड़की के छिद्र पर आंख जमाकर उसने पुनः बाहर की ओर देखा। बिजली की रोशनी गली में ठिठुर रही थी। रात की खामोश गुनगुनाहट सुनाई दे रही थी, लेकिन राजो वहां नहीं थी।
उसने खिड़की के पट खोले और बाहर झांककर देखा। इस सिरे से उस सिरे तक रात की सर्द खामोशी बह रही थी और ऐसा मालूम होता था कि उस खम्बे के नीचे कभी कोई खड़ा ही नहीं हुआ था। पीली रोशनी में विचित्र प्रकार की वीरानी घुली हुई थी। उसका दिल भर आया। उसके जीवन और अफीम खाने वाले आदमियों के ऊंघते चेहरों जैसी गली में कितनी समानता थी!
सईद ने खिड़की का दरवाजा बन्द कर दिया। सोने के लिए उसने रजाई ओढ़ी, तो एक बार फिर सर्दी उसकी हड्डियों तक पहुंचने लगी।
तीन
नया साल धूप ताप रहा था, लेकिन सईद अभी तक बिस्तर ही में लेटा था। केवल लेटा ही नहीं था, गहरी नींद सो रहा था। रात-भर जागने के बाद सुबह सात बजे के करीब उसकी आंख लगी थी और इसीलिए ग्यारह बजने पर भी वह जागने का नाम नहीं ले रहा था।
फिर सिरहाने पड़े टाइमपीस ने बारह बार टन्-टन् की, लेकिन धातु की आवाज के बजाय उसके कानों ने राजो की आवाज सुनी, आवाज बहुत दूर से आई थी। वह एकदम जाग पड़ा। यूं एकाएक जागने से उसे लगा, जैसे वह घबराकर उठा है और उसका रेशमी पाजामा संभालने के बावजूद नीचे फिसल गया। उसकी हल्की-फुल्की नींद भी इसी भैंडे तरीके से फिसल गई थी। उसकी बौखलाहट में और भी वृद्धि हो गई, जब उसने राजो को अपने सामने खड़े देखा।
एकाएक उसकी नजरें खिड़की की ओर उठीं, फिर राजो की तरफ मुड़ी, वहां से दरवाजे की ओर घूमीं और फिर-फिराकर पुनः राजो पर जम गई।
राजो ने टाइम पीस की ओर देखते हुए कहा, “मियां जी, बारह बज गए हैं। बीबी जी आपको बुलाती हैं। चाय तैयार है।”
यह कहकर राजो ने टाइम पीसी उठाया और उसमें चाबी भरनी शुरू कर दी। चाबी भर चुकी, तब तिपाई पर से पानी का गिलास उठाया और चली गई।
इसका मतलब क्या है? क्या राजो सौदागरों की नौकरी छोड़कर यहां आ गई है? बात सईद की समझ में नहीं आ रही थी। उसकी मां बड़ी ही रहमदिल औरत थी। वह जानती थी कि राजो का चाल-चलन अच्छा नहीं, लेकिन इसके बावजूद उसने कभी उसे बुरा नहीं कहा था। दिल का हाल खुदा बेहतर जानता है, लेकिन ऊपर से कुछ प्रकट था, उससे सईद ने यही परिणाम निकाला था कि उसकी मां एक नेकदिल औरत थी। नेकदिली इस हद तक उसके दिल में बसी हुई थी, या इस हद तक उसने अपने ऊपर ओढ़ रखी थी कि वह किसी को भी बुरा नहीं कह सकती थी। जब वह सुनती कि अमुक व्यक्ति ने चोरी की है, तो यही कहती बेचार की जरूरत ने मजबूर किया होगा।
राजो की बुराइयां सुनकर उसने कई बार कहा था, ‘किसी ने आंख से तो उसकी बुराइयां नहीं देखी, क्या मालूम सब तुहमतें9 ही हों। खुदा से हर वक्त डरना चाहिए। हम खुद बहुत गुनाहगार हैं।’
सईद की मां अपने-आप को संसार की सबसे बड़ी गुनाहगार औरत समझती थी। एक बार मजाक-मजाक में सईद ने उससे कहा था, ‘बीबी जी, आप हर वक्त कहती हैं, मैं गुनाहगार हूं, मैं गुनाहगार हूं, कहीं ऐसा न हो कि फरिश्ते आपको सचमुच गुनाहगार समझकर दोजख में धकेल दें। क्या उस वक्त भी आप यही कहे जाएंगी, मैं गुनाहगार हूं, मैं गुनाहगार हूं?’
उसकी मां बड़ी बाकायदगी से पांच वक्त नमाज पढ़ती थी। जकात10 देती थी और वे सभी बातें करती थी जो गुनाहगारों को करनी चाहिए।
सईद काफी सोच-विचार के बाद इस नतीजे पर पहुंचा था कि चूंकि उसकी मां नमाज पढ़ना और रोजे रखना पसन्द करती है, इसलिए ख्वाहमख्वाह उसे अपने-आप को गुनाहगार समझना पड़ता है चूंकि अब वह रोजे-नमाज की आदी हो चुकी है, इसलिए हर समय गुनाह का ख्याल करना भी उसकी आदत बन चुकी है।
सईद इस समय भी अपने दिमाग को गुनाह और सवाब (पुण्य) के झगड़े में फंसाने जा रहा था कि उसे राजों का ख्याल आ गया, जो अभी-अभी उसके कमरे से बाहर गई थी। दो बातें हो सकती है, उसने सोचा, या तो वह सौदागरों की नौकरी छोड़कर हमारे यहां चली आई है और मेरी मां ने सवाबों में एक और सवाब की वृद्धि के लिए उसे अपने यहां रख लिया है या फिर वह सौदागरों ही के पास है जैसे वैसे ही इधर आ निकली है और जैसा कि उसका स्वभाव है टाइमपीस में चाबी भर गई है और तिपाई पर बेकार पड़ा शीशे का गिलास उठा ले गई है, लेकिन रात की वह घटना? …….. उसने राजो के चेहरे पर उस घटना के बुझे हुए चिह्न देखने की कोशिश की थी, लेकिन वह तो कोरी सलेट की तरह साफ था।
सईद का दिल एकदम एक अवर्णनीय-से घृणाभाव से भर गया। उसे राजो से घृणा थी। अपने स्मृति-पट पर जब भी वह राजो का चित्र बनाता था, हमेशा उन मैले रंगों से बनाता था, जो राजो के जीवन में बिखरे पड़े थे और उसकी कोमल भावनाओं को ठेस पहुंचती थी, जब वह राजो के पल्लू में चार मर्दो को बंधा देखता था। इससे पहले भी वह कई बार इस निर्णय पर पहुंचा था कि उसे राजो से घृणा है। आज
भी वह इसी निर्णय पर पहुंचा कि उसे राजो से घृणा है, लेकिन यह बात हमेशा की तरह आज भी उसे सता रही थी कि राजो को अपने-आप से घृणा क्यों नहीं? वह क्या अपने-आप में बहुत प्रसन्न है?
इस लड़की के बारे में सईद इतना अधिक सोच चुका था कि अब बिल्कुल नहीं सोचना चाहता था। आखिर उसमें ऐसी कौन-सी अनोखी बात है, जिस पर सोचा जाए? वह तो बड़ी घटिया दर्जे की औरत है।
सईद उठ खड़ा हुआ और कुछ इस प्रकार उससे राजो को अपने मस्तिष्क से झटका जैसे किसी घोड़े ने एक ही झुरझुरी लेकर अपने शरीर पर बैठी तमाम मक्खियां उड़ा दी हों।
सूरज की किरने खिड़कियों की दरारों में से फंसकर कमरे में उजाला भर रही थी। खिड़कियां खोलने की जरूरत उसने महसूस नहीं की और तिपाई के पास पड़ी आरामकुसी पर बैठ गया।
पीठ टिकाते ही लगा था कि राजो ने कमरे में प्रवेश किया है। बिना कुछ कहे एक-एक करके उसने सब खिड़कियां खोल दी और फिर इधर-उधर झाड़-पोंछ करने लगी। सईद बड़े ध्यान से उसकी ओर देख रहा था। राजो के मोटे-भद्दे हाथों में नजाकत नाम की कोई चीज नहीं थी। शीशे के फूल दान को भी उसने उसी प्रकार साफ किया, जिस प्रकार लोहे के कलमदान को। झाड़न से उसने तस्वीरों की गर्द पोंछी, आतिशदान पर रखी सारी चीजें झाड़ी, लेकिन कोई भी आवाज पैदा किए बिना। वह चलती थी, तो उसके कदमों की चाप सुनाई नहीं देती थी और जब बातें करती थी तो ऐसा मालूम होता था, हर बोल रुई के नर्म-नर्म गालों में लिपटा हुआ है। कान के पर्दो के साथ उसकी आवाज टकराती नहीं, छू-सी जाती थी। उसकी हर हरकत, हर आवाज ने जैसे रबर-सोल के जूते पहन रखे थे। सईद उसे देखता रहा। नहीं, उसे सुनने की कोशिश करता रहा।
राजो ने गहरे हरे रंग का स्वेटर पहन रखा था, जो कुहनियों पर से फट गया था। यह स्वेटर शायद सौदागर के सबसे बड़े लड़के ने उसे दिया था। उसके नीचे गर्म कपड़े का कुर्ता था, जिस पर जगह-जगह मैल के गोल-गोल धब्बे थे। खादी की शलवार अधिक प्रयोग के कारण अपना शलवार का रूप खो चुकी थी। ऐसा लगता था, उसने अपनी टांगों पर गहरे रंग की चादर-सी लपेट रखी थी। बड़े ध्यान से देखने पर ही उसे शलवार के पांयचे नजर आते थे, जो इतने खुले थे कि पैर बिल्कुल गायब हो गए थे।
सईद उसके पांयचों की ओर देख रहा था कि राजो मुड़ी और यह कहकर फिर अपने काम में व्यस्त हो गई कि “आपकी चाय तैयार है। बीबी जी आपकी राह देख रही है।”
सईद का जी नहीं चाहा था कि उससे बात करें, लेकिन न जाने क्यों उसने पूछ ही लिया, “चाय बनाने के लिए उनसे किसने कहा था?”
राजो ने पलटकर उसकी ओर आश्चर्य से देखा, “आपने-अभी-अभी तो कहा था कि चाय तैयार की जाए।”
सईद कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ। बिना किसी झिझक के उसने कभी ऐसा नहीं कहा था, “सुबह की चाय साढ़े बारह बजे कौन पीता है? अब नाश्ता करूं, तो दोपहर का खाना रात को खाऊंगा और रात का खाना……।”
राजा हंस पड़ी, “रात का खाना सुबह को।”
सईद तुरन्त गम्भीर हो गया, “इसमें हंसने की क्या बात है? जाओ, बीबी जी से कह दो, मैं चाय नहीं पीऊंगा, खाना खाऊंगा।…. खाना तैयार है?”
राजो अपने चेहरे पर उभरे हंसी के चिह्न कोशिश करने पर भी दूर न कर सकी। उसकी गंभीरता उस रंग जैसी थी, जो ठंडे पानी में घोलकर ऊनी कपड़ें पर चढ़ाया जाए और न चढ़े। उसने धीरे से उत्तर दिया, “जी हां, तैयार है। मैं अभी बीबी जी से कह देती हूं। कि आप नाश्ता नहीं करेंगे, खाना खाएंगे।” और यह कहकर वह तेजी से दरवाजे की ओर बढ़ी।
“देखो”, सईद ने उसे रोका, “बीबी जी से कहना, मैं नाश्ता नहीं करूंगा, खाना खाऊंगा। मैं रात-भर जागता रहा हूं। समझ में नहीं आता, मेरी नींद को क्या हो गया है? गली में शोर हो तो मुझे बिल्कुल नींद नहीं आती। रात न जाने बाहर क्या गड़बड़ हो रही थी। हां, तो मैं नाश्ता नहीं करूंगा, चाय की एक प्याली ही पी लूंगा और उसके बाद खाना खाऊंगा, यानी हर रोज की तरह ठीक वक्त पर बीबी जी कहां है? बावर्चीखाने में हैं या ऊपर धूप ताप रही हैं? लेकिन ठहरो, मैं खुद मालूम कर लूंगा….लेकिन तुम, तुम यहां क्या कर रही हो? मेरा मतलब है, मेरे कमरे की सफाई के लिए तुमसे किसने कहा था? यानी तुम यहां कैसे आ गयी? तुम तो सौदागरों के यहां थीं।”
सईद एक ही सांस में ये सब बातें कह गया और चोर-नजरों से उसके चेहरे की तरफ देखता रहा। उस चेहरे पर लाली की एक हलकी-सी झलक नजर आई थी, जब उसने बाहर गली में गड़बड़ की तरफ इशारा किया था, लेकिन उसके बाद वह उसके चेहरे पर कोई परिवर्तन न देख सका। हां, हंसी ने उसके चेहरे पर जो फैलाव-सा पैदा कर दिया था, उसके बचे-खुचे चिह्न अब भी नजर आ रह थे।
राजो ने कोई उत्तर नहीं दिया और कमरे से बाहर चली गई, जैसे उससे कुछ पूछा ही नहीं गया हो। इस पर सईद को बहुत क्रोध आया। इसमें सन्देह नहीं कि मैंने कुछ पूछने के लिए उससे बातें नहीं की, यूं ही अनिच्छा से कहता चला गया हूं, लेकिन मैं चाहता था कि वह घबराती। रात की वह घटना उसके चेहरे के रोम-रोम से फूट निकलती, लेकिन यह औरत है या….या यह क्या है?
सईद उसके बारे में कुछ भी नहीं सोचना चाहता था, लेकिन कोई-न-कोई ऐसी बात हो ही जाती थी कि वह सोचने पर विवश हो जाता था। यह औरत उसके जीवन में ख्वामखाह प्रवेश करती जा रही थी। यह प्रवेश सईद को पसन्द नहीं था, अतएव उसने फैसला कर लिया कि वह उसे अपने मकान में नहीं रहने देगा।
जब वह अपनी मां से बावर्चीखाने में मिला, तो अपने फैसले के बावजूद वह राजो के बारे में कुछ न कह सका। उसकी मां ने, जो सईद को उन्माद की सीमा तक प्यार करती थी, चाय की प्याली बनाकर कहा, ‘बेटा, रात तेरे दुश्मनों को नींद क्यों नहीं आई? मुझसे राजो ने अभी कहा है कि रात गली में कुछ गड़बड़ थी, इसलिए नहीं सो सके। मैंने तो कुछ भी नहीं सुना। मैं कहती हूं कि अगर तू इधर मेरे कमरे में सो जाया करे, तो क्या हर्ज है? मुझे कई-कई बार रात में उधर तेरी तरफ आकर देखना पड़ता है। मेरे पास सोएगा, तो मेरी यह बेचैनी तो दूर हो जाएगी। अच्छा बाबा, मैं कुछ नहीं कहती, जहां चाहे सोओ। अल्लाह तेरा निगेहबान है। ले चाय पी। मैं तुझसे कुछ नहीं कहती……।’
सईद असल में राजो के बारे में कुछ कहने वाला था कि उसकी मां ने समझा, हर रोज की तरह वह यह कहना चाहता है कि बीबी जी, आप तो बिना वजह परेशान हो रही हैं। मैं अकेले ही सोने की आदी हूं। जो हो, सईद मां की ये बातें सुनकर चुप ही रहा और राजो भी चुपचाप चूल्हे के पास बैठी रही।
चार
सईद के घर में राजो को नौकरी करते एक महीना हो गया, लेकिन इरादे के, बावजूद वह एक बार भी अपनी मां से उसे निकालने को न कह सका। अब फरवरी का आरम्भ था। सर्दी धीरे-धीरे गर्मियों में घुलती जा रही थी। दिन बड़े सुहाने थे। रातें भी बड़ी सुहानी थीं। सुबह सैर के लिए निकलता, तो देर तक हल्की-फुल्की शीतल हवा पीता रहा। उन दिनों उसे हर चीज बड़ी सुन्दर नजर आती थी।
…. और उन्हीं दिनों का जिक्र है कि एक दिन जब वह कम्पनी बाग की सैर के बाद घर लौटा, तो उसे अपना बदन कुछ टूटता हुआ महसूस हुआ। बिस्तर पर लेटते ही बुखार हो गया और इसके साथ ही ऐसी जोर का जुकाम हुआ कि नाक सुन्न होकर रह गई। दूसरे दिन खांसी आने लगी, तीसरे दिन छाती में दर्द उठा और फिर बुखार एक सौ पांच डिग्री पर जा पहुंचा। उसकी मां ने पहले दिन ही डाक्टर को बुलवाया था, लेकिन उसकी दवा से कुछ भी लाभ न हो सका।
यह विचित्र बात थी कि सईद को जब कभी तीव्र बुखार होता था, तो उसका मस्तिष्क भी असाधारण रूप से तेज हो जाता था। ऐसी-ऐसी बातें मस्तिष्क में आती, जिन्हें आम हालत में वह किसी तह पर नहीं सोच सकता था। बुखार की हालत में वह संसार-भर की समस्याओं पर विचार करता। एक नये प्रकाश में, एक नये अनोखे कोण से वह दुनिया को निकम्मा से निकम्मी चीज पर गौर करता। चोटियों को उठकार आकाश के तारों पर चिपका देता और आकार के तारे तोड़कर धरती पर बिखेर देता।
बुखार एक सौ पांच डिग्री से कुछ ऊपर हुआ, तो सईद का मस्तिष्क इतिहास के पन्ने पलटने लगा। सैकड़ों प्रसिद्ध घटनाएं ऊपर-तले उसके खट-खट करते मस्तिष्क में से गुजर गयीं। बुखार कुछ और बढ़ा तो पानीपत की लड़ाइयां, ताजमहल की मरमरी इमारत में गड़मड़ हो गयीं और फिर कुतुबमीनार के कटे हुए बाजू में बदल गयीं और फिर धीरे-धीरे चारों ओर धुन्ध ही धुन्ध फैल गई….
फिर एकदम जोरों का धमाका हुआ और उस धुन्ध में से वायु-वेग से चलने वाले घोड़े पर सवार महमूद गजनवी अपनी सेना-समेत बाहर निकला। महमूद गजनवी का घोड़ा सोमनाथ के जगमगाते मन्दिर के सुनहरे द्वार के सामने रुका। महमूद गजनवी ने पहले लूटे हुए सोने-चांदी के ढेर की तरफ देखा। उसकी आंखें चमचमा उठी, फिर उसने सोने की मूर्ति की तरफ देखा और उसका दिल धड़कने लगा …..राजो…..महमूद गजनवी ने सोचा…. यह कमबख्त राजो कहां से आ गई? उसकी सल्तनत में इस नाम का औरत कौन थी? क्या वह उसे जानता है? क्या वह उससे प्रेम करता है? प्रेम का ख्याल आते ही महमूद गजनवी ने जोर से कहकहा लगाया। महमद गजनवी और प्रेम! महमूद गजनवी को तो अपने गुलाम अयाज से प्रेम है है और अयाज राजो कैसे हो सकता है?
महमूद गजनवी ने उस सोने की मूर्ति पर ताबड़-तोड़ चोटें लगानी शुरू कर दी। गुर्ज (गदा) पेट पर लगा, तो वह फट गया और उसमें से शहाबुद्दीन की खीर और फालूदा निकलने लगा। महमूद गजनवी ने जब यह देखा, तो गुर्ज उठकर अपने ही सिर पर दे मारा।
सईद का सिर फट रहा था। महमूद गजनवी के सिर पर जो गुर्ज पड़ा था, उसका धमाका उसके सिर पर गूंज रहा था। जब उसने करवट ली, तो माथे पर कोई ठण्डी-ठण्डी चीज रेंगती महसूस हुई और सोमनाथ और सोने की मूर्ति उसके मस्तिष्क से निकल गई। धीरे-धीरे उसने अपनी जलती हुई आंखें खोली। राजो फर्श पर बैठी कपड़ा भिगो-भिगोकर उसके माथे पर रख रही थी।
जब राजा ने माथे पर से कपड़ा उतारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो सईद ने वह हाथ पकड़ लिया और अपनी छाती पर रखकर बड़े प्यार से उस पर अपना हाथ फेरना शुरू कर दिया। उसकी लाल-लाल आंखें अंगारों की सूरत में दूर तक राजो की ओर देखती रहीं। राजो उस टकटकी को सहन न कर पाई और हाथ छुड़ाकर अपने काम में व्यस्त हो गई।
अब वह उठकर बिस्तर पर बैठ गया और कहने लगा, “राजो! राजो! इधर मेरी तरफ देखो, मैं महमूद गजनवी…..” उसके दिमाग बहकने ही लगा था कि उसने पूरी शक्ति से महमूद गजनवी को झटक दिया, “इधर मेरी तरफ देखो! जानती हो, मैं तुमसे प्रेम करता हूं। बहुत बुरी तरह प्रेम करता हूं। तुम्हारे प्रेम में इस प्रकार फंस गया हूं, जैसे कोई दलदल में फंस जाता है। मैं जानता हूं, तुम प्रेम के काबिल नहीं हो, लेकिन यह जानते हुए भी मैं तुमसे प्रेम करता हूं। लानत है मुझ पर! लेकिन इन बातों को छोड़ो। इधर मेरी तरफ देखो! खुदा के लिए मचे तकलीफ न पहुंचाओ। मैं बुखार में इतना नहीं फुंक रहा, जितना….जितना राजो …. राजा …. मैं… मैं…..” उसकी विचारधारा टूट गई और उसने डाक्टर मुकन्दलाल भाटिया के कोनीन की हानियों पर बहस शुरू कर दी, “डाक्टर भाटिया! मैं आपको कैसे समझाऊं, यह कोनीन बहुत नुकसानदेह चीज है। मैं मानता हूं कि कुछ समय के लिए मलेरिया के कीटाणु नष्ट कर देती है, लेकिन इससे पूरी तरह रोग नहीं मिटता। इसके अलावा इसकी तासीर बड़ी खुश्क और गर्म है। मेरे कान बन्द हो गए हैं, मेरा दिमाग बन्द हो गया है ओर ऐसा मालूम होता है, मेरे दिमाग में और मेरे कानों में स्याही चूस कागज ठूंस दिया गया है। अब मैं कभी कोनीन का टीका नहीं लगवाऊंगा …. और गजनवी बुत शिकन….राजो! तुम सोमनाथ नहीं जाओगी …. मेरे माथे पर हाथ रखो …. उफ…..उफ… यह क्या बेहूदगी है…. मैं…..में …… मेरे दिमाग में सैकड़ों ख्यालात आ रहे हैं। बीबी जी, आप हैरान क्यों होती हैं? मुझे राजो से प्रेम है। हां-हां, उसी राजो से, जो सौदागरों के यहां नौकर थी और जो अब आपके पास नौकर है। आप नहीं जानती कि इस औरत ने मुझे कितना जलील बना दिया है! इसीलिए न कि मैं इसके प्रेम में फंस गया हूं। यह प्रेम नहीं खसरा है …. सच कहता हूं खसरे से भी ज्यादा है। इसका कोई इलाज नहीं।….मुझे सारी जिल्लतें सहनी होंगी। सारी गली का कूड़ा अपने सिर पर उठाना होगा। गन्दी मोरी में हाथ डालने होंगे। यह सब कुछ होकर रहेगा…..।’ धीरे-धीरे सईद की आवाज धीमी पड़ती चली गई और उस पर तन्द्रा छा गई उसकी आंखे अधखुली थीं, लेकर ऐसा मालूम होता था, पलकों पर बोझ-सा आ पड़ा है। राजो पलंग के पास बैठी उसका निरर्थक, अनर्गल प्रलाप सुनती रही, लेकिन उस पर कुछ प्रभाव न हुआ। शायद ऐसे बीमारों की वह कई बार तीमारदारी कर चुकी थी।
बुखार की हालत में जब सईद ने अपने प्रेम की घोषण की, तो राजो ने क्या महसूस किया, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है उसके दिल के किसी कोने-खुदरे में सरसराहट पैदा हुई हो, लेकिन चेहरे की चर्बी की तहों से निकलकर वह सरसराहट बाहर न आ सकी।
उसने कपड़ा निचोड़कर ताजे पानी में भिगोया और उसके माथे पर रखने के लिए उठी। अबकी बार उसे इसलिए उठना पड़ा, क्योंकि सईद ने करवट बदली थी। जब उसने धीरे से सईद को सिर इधर मोड़कर उसके माथे पर गीला कपड़ा जमाया, तो उसकी अधखुली आंखें इस तरह पूरी की पूरी खुल गयीं, जैसे लाल-लाल जख्मों के मुंह टांके उधड़ जाने से खुल जाते हैं। क्षण-भर के लिए उसने राजो के झुके हुए सिर की ओर देखा, जिस पर गाल कुछ नीचे को लटक आए थे, फिर सहसा उसे अपनी दोनों बाहों में जकड़कर सईद ने इस जोर से भीचा कि उसकी रीढ़ की हड्डी कड़कड़ा उठी। उठकर उसने राजो को लिटा लिया और उसके होंठों पर इस जोर से अपने होंठ चिपका दिए, जैसे वह गर्म-गर्म लोहे से उन्हें दागना चाहता है।
सईद की जकड़ इतनी जबरदस्त थी कि कोशिश करने पर भी राजो अपने-आप को न छुड़ा सकी। उसके होंठ देर तक उसके होंठों पर इस्तरी करते रहे, फिर हांफते हुए एक झटके के साथ उसने राजो को अलग कर दिया और यूं उठकर बैठ गया, जैसे उसने कोई भयानक सपना देखा हो। राजो एक ओर सिमट गई। वह सहम गई थी। उसके होठों पर अभी तक जैसे सईद के पपड़ी जमे होंठ फिसल रहे थे।
राजो ने उसकी ओर कनखियों से देखा, तो वह उस पर बरस पड़ा, “तुम यहां क्या कर रही हो? जाओ, जाओ!’ और यह कहते हुए सईद ने इस तरह दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया, मानो अभी कड़कर गिर पड़ेगा। उसके बाद वह लेट गया गया और धीरे-धीरे बड़बड़ाने लगा, ‘राजो, मुझे माफ कर दो। मुझे माफ कर दो, राजो, ….मुझे कुछ मालूम नहीं, मैं क्या कह रहा हूं और क्या कर रहा हूं? बस, एक बात अच्छी तरह से जानता हूं कि मुझे तुमसे दीवानगी की हद तक प्रेम है….ओह, मेरे अल्लाह! हां, मुझे तुमसे प्रेम है। इसलिए नहीं कि तुम प्रेम करने के काबिल हो। इसलिए नहीं कि तुम भी मुझसे प्रेम करती हो, फिर किसलिए …. काश, मैं इसका जवाब दे सकता! मैं तुमसे प्रेम करता हूं, इसलिए कि तुम नफरत के काबिल हो। तुम औरत नहीं, एक पूरा मकान हो। एक बहुत बड़ी बिल्डिंग हो, लेकिन मुझे तुम्हारे सब कमरों से प्रेम है। इसलिए कि वे गन्दे हैं, टूटे हुए हैं…. मुझे तुमसे प्रेम है। क्या यह अजीब बात नहीं?’ यह कहकर सईद ने हंसना शुरू कर दिया।
राजो चुप थी। उस पर अभी तक सईद की जकड़ और उसके भयानक चुम्बनों का असर था। वह उठकर बाहर जाने का विचार कर ही रही थी कि सईद ने फिर अनर्गल प्रलाप शुरू कर दिया। राजो ने उसकी ओर धड़कते हुए दिल से देखा, उसकी आंखें कुछ-कुछ मुंद गई थीं और वह किसी अदृश्य व्यक्ति से बातें कर रहा था, “तुम जालिम हो। इन्सान नहीं, हैवान हो। मान लिया कि वह भी तुम्हारी तरह हैवान है, फिर भी वह एक औरत है और औरत टूटकर टुकड़े-टुकड़े भी हो जाए, तो भी औरत ही रहती है, लेकिन तुम ये बातें कभी नहीं समझोगे। भैंस और औरत में तुम कोई फर्क नहीं समझते, लेकिन खुदा के लिए जाओ उसे अन्दर ले आओ। बाहर सर्दी में उसका सारा खून जम गया होगा। मैं पूछता हूं, आखिर उसके साथ तुम्हारी लड़ाई किस बात पर हुई?…बिजली के खम्बे के नीचे वह सिर्फ तुम्हारी बनियान पहने खड़ी है और तुम … तुम… लानत हो तुम पर….तुम समझते क्यों नहीं, राजो औरत है…. पशमीने का थान नहीं, जिसे तुम चर्ख पर चढ़ाते रहो…..”
पहली बार राजो को पता चला कि उस रात की घटना बीबी जी का लड़का देख चुका है। इस ख्याल से वह सिर से पांव तक कांप उठी। लोग उसके और चार सौदागर भाइयों के बारे में तरह-तरह की बातें किया करते थे, यह वह जानती थी, लेकिन वह यह भी जानती थी कि आज तक किसी ने आंखों से कुछ नहीं देखा था, लेकिन अब यहां उसके सामने बिस्तर पर वह आदमी लेटा था, जो सब कुछ देख और सुन चुका था। इस आदमी के बारे में उसने आज तक गौर नहीं किया था। वह केवल इतना जानती कि मियां गुलाम रसूल मरहूम (स्वर्गवासी) का यह लड़का किसी से भी अधिक बातें नहीं करता और सारा दिन बैठक में बैठा मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहता है। गली के अन्य लड़कों के बारे में वह तरह-तरह की बातें सुनती थी, लेकिन इसके बारे में उसने यही सुना था कि बड़ा बदमिजाज है और इसे अपने बाप से भी अधिक अपने को खानदानी होने का घमंड है। इसके सिवा वह और कुछ नहीं जानती थी, लेकिन आज उसे मालूम हुआ कि वह उसके बारे में सब कुछ जानता है और…..और उससे प्रेम भी करता हैं।
उसकी प्रेम की घोषणा राजो के लिए बिलकुल कष्टदायक नहीं थी, उसे कष्ट हो रहा था, तो केवल इस विचार से कि उस रात जब वह गुस्से से पागल हो रही थी, उसने सब कुछ देख लिया। कितनी लज्जा की बात थी यह! अतः उसके मन में विचार आया कि किसी तरह बीबी जी का लड़का वह घटना भूल जाए। थोड़ी देर तक उसने अपने दिमाग पर जोर दिया और आखिर कुछ सोचकर उसने कहना शुरू किया, ‘खुदा कसम, अल्लाह कसम, पीर दस्तगीर की कसम, यह सब झूठ है। मैं मस्जिद में कुरान उठाने के लिए तैयार हूं। जो कुछ आप समझते हैं, बिल्कुल गलत है। मैंने अपनी मर्जी से सौदागरों की नौकरी छोड़ी है वहां काम बहुत ज्यादा था और उस रोज़ रात को भी इसी बात का झगड़ा था। मैं दिन-रात कैसे काम कर सकती हूं? चार नौकरों का काम मुझ अकेली जान से कैसे हो सकता है, मियां जी?
सईद बुखार में बेहोश पड़ा था। राजो जब अपने विचार के अनुसार तमाम जरूरी बातें कह चुकी, तो उसके दिल का बोझ हल्का हो गया, लेकिन सईद ने जब कोई उत्तर न दिया, तो उसने सोचा, शायद कसमों की कमी रह गई है। उसने फिर से कहना शुरू किया, ‘मियां जी, पाक परवरदिगार की कसम। मरते वक्त मुझे कलमा नसीब न हो अगर मैं झूठ बोलूं। यह सब झूठ है। मैं कोई ऐसी-वैसी थोड़ी हूं। मुझसे ज्यादा काम नहीं हो सकता, इसीलिए मैंने उनकी नौकरी छोड़ दी। अब इतनी-सी बात का बतंगड़ बन जाए, तो इसमें मेरा क्या कुसूर है?”
यह कहने के बाद मानो उसने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया और कमरे से बाहर जाने लगी थी कि सईद ने आंखें खोल दी और पानी मांगा। राजो ने बड़ी फुर्ती से पानी का गिलास उसके हाथ में दे दिया और पास ही खड़ी रही, ताकि वापस लेकर उसे तिपाई पर रख दे।
सईद एक घूंट में गिलास का सारा पानी पी गया। खाली गिलास राजो के हाथ में देते हुए उसने एक नजर उसकी ओर देखा। कुछ कहना चाहा, लेकिन खामोश हो गया और तकिये पर सिर रखकर लेट गया।
अब वह होश में था। कुछ देर के बाद बड़ी गम्भीरता से उसने पुकारा, “राजो!”
“जी!” राजो ने दबे स्वर में उत्तर दिया।”
“बीबी जी को यहां भेज दो।”
यह सुनकर राजो समझी कि वह उस रात की सारी घटना बीबीजी को बताना चाहता है। अतएव उसने फिर कसमें खाना शुरू की, “मियां जी! कुरानमजीद की कसम, अल्लाहपाक की कसम और कोई बात नहीं थी। मेरा उनसे सिर्फ इस बात पर झगड़ा हुआ था कि मैं दौलत से खरीदी लौंड़ी नहीं हूं कि दिन-रात काम करती रहूं। आपने मेरी जबान से इसके सिवा और क्या सुना था?”
बिस्तर पर सईद ने बड़ी मुश्किल से करवट बदलीं। ठण्डे पानी से उसके पूरे शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ा दी थी। राजो की ओर हैरानी से देखकर उसने पूछा, “क्या कह रही हो तुम?” फिर तुरन्त ही उसे ख्याल आया कि बेसुधी में वह उससे अनगिनत बातें कह चुका है और अपना प्रेम भी प्रकट कर चुका है, तो उसे अपने-आप पर बहुत क्रोध आया। मलेरिया के कारण उसके मुंह का स्वाद बहुत बिगड़ चुका था, अब इस गलती के एहसास ने उसके मुंह में और भी कसैलापन पैदा कर दिया। अपने-आप में उसे घृणा-सी होने लगी। .
‘मुझे राजो से ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए थीं और अपना प्रेम तो किसी हालत में भी प्रकट नहीं करना चाहिए था। इसलिए कि वह इसके योग्य ही नहीं। मैंने राजो को अपने मन का भेद नहीं बताया, बल्कि अपने पूरे अस्तित्व को गंदी नाली में फेंक दिया।’
राजो से वह जो कुछ कह चुका था, उसका एक-एक शब्द तो उसे याद नहीं था, लेकिन इतना वह सोच सकता था कि उसने क्या कहा होगा। इससे पहले मन ही मन वह कई बार राजो से बातें कर चुका था और हर बार लज्जित भी हो चुका था, लेकिन आज तो वह सचमुच उससे सम्बोधित हुआ था और उस पर अपना प्रेम भी प्रकट कर दिया था। दूसरे शब्दों में, वह उसे वह भेद बता चुका था, जिससे वह स्वयं को भी अनभिज्ञ रखना चाहता था। यह सईद के जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना थी।
राजो उसके सामने खड़ी थी और मलेरिया अपने बर्फीले हाथ सईद के पूरे शरीर पर फेर रहा था। एक अत्यन्त अप्रिय कंपकंपी उसके रोम-रोम में कनखूजरे की तरह रेंग रही थी और उसके मन में ऐसी कटुता उत्पन्न हो रही थी, जो इससे पहले उसने कभी महसूस नहीं थी। उसकी इच्छा हो रही थी कि एकदम उसे इतना बुखार चढ़े कि वह मूर्च्छित हो जाए, ताकि जो कुछ हुआ है, कुछ समय के लिए उसके अनुभव उसे न हो।
बड़ी कठिनाई से उसने, स्वयं को राजो से यह कहने पर तैयार किया, “जाओ, बीबी जी को यहां भेज दो। मैं यहां मर रहा हूं। कुछ मेरा भी तो ख्याल करें।”
इस पर राजो ने धीमे से कहा, “आप ही के लिए सौ नफिल11 पढ़ रही हैं। मैं जाकर देखती हूं कि खत्म हुए हैं या नहीं।”
“जाओ….खुदा के लिए जाओ!” यह कहकर सईद ने रजाई अपने मुंह पर ओढ़ ली और सर्दी के वे गसे, जो मलेरिया के नये आक्रमण का लक्षण था, जोर-जोर से कांपना शुरू कर दिया।
राजो कमरे से बाहर चली गई।
पांच
सख्त सर्दी और सावधानी के कारण सईद को निमोनिया हो गया। हालत बड़ी नाजुक हो गई। मां बेचारी कर ही क्या सकती थी? दिन-रात बेटे के पास बैठी दुआएं मांगती रहती। राजो ने भी तीमारदारी में कोई कसर न उठा रखी, लेकिन आराम के बजाय रोगी को उसकी सेवा से मानसिक कष्ट होता।
सईद के दिल में कई बार यह बात आई कि वह मां को स्पष्ट शब्दों में कह दे कि उसे राजो की उपस्थिति पसंद नहीं, लेकिन कोशिश के बावजूद वह ऐसा न कह सका। अतएव उसे कष्ट में, जोकि वह भोग रहा था, इस पराजय के कारण और भी वृद्धि हो गई।
डाक्टर मुकंदलाल भाटिया ने यह सलाह दी थी कि उसे अस्पताल में दाखिल कर दिया जाए, तो ठीक हो जाएगा। वहां तीमारदारी भी ठीक ढंग से हो सकेगी और दवा वगैरह भी समय पर दी जाएगी। इसके अलावा वहां अच्छे डाक्टर भी मिल जाएंगे, लेकिन उसकी मां इसके लिए राजी न होती थी। अस्पताल से उसे बड़ी घृणा थी, लेकिन जब उसके चहेते बेटे ने स्वयं अस्पताल में दाखिल होने का आग्रह किया, तो दिल पर पत्थर रखकर वह चुप हो गई। उसने अपने बेटे की आज तक कोई बात न टाली थी। अतः निमोनिया होने के दूसरे ही दिन डाक्टर मुकंदलाल भाटिया उसे सिविल अस्पताल में ले गया और वहां स्पेशल वार्ड में दाखिल करा दिया।
अस्पताल में सईद कुछ ही दिनों में चंगा हो गया। निमोनिया का हमला बड़ा सख्त था, लेकिन वह बच गया और फिर धीरे-धीरे बुखार भी उतर गया। अस्पताल के कमरे में, जिसकी हर चीज सफेद थी, उसे मानसिक सन्तोष प्राप्त हुआ। राजो चूंकि वहां नहीं थी, इसलिए उसके मन पर जो बोझ-सा आ पड़ा था, बहुत हद तक हल्का हो गया और उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब वह घर में नहीं रहेगा। वह उस औरत को सहन नहीं कर सकता। उसे देखते ही उसके मन-मस्तिष्क में विचित्र प्रकार की हलचल मच उठती थी। इसमें संदेह नहीं कि वह उसके प्रेम में बुरी तरह जकड़ चुका था, लेकिन जैसे-तैसे वह उस प्रेम को बिल्कुल दबा देना चाहता था।
प्रत्यक्ष था कि यह काम, बहुत कठिन था, लेकिन इसमें सफलता पाने के लिए वह पूरा-पूरा प्रयत्न कर रहा था; और इस बीच धीरे-धीरे उसने स्वयं को इस बात का विश्वास भी दिला दिया था कि राजो को भूलकर वह एक ऐसा चमत्कार कर दिखाएगा, जो आज तक कोई नहीं कर सका।
अस्पताल में दाखिल होने के आठवें दिन कमजोरी के बावजूद सईद अपने-आप को तरो-ताजा महसूस कर रहा था। सुबह जब सफेद पोश नर्स ने उसका टेम्परेचर लिया, तो उसने मुस्कराकर कहा, “नर्स, मैं तुम्हारा बहुत ही शुक्रगुजार हूं? तुमने मेरी बहुत खिदभत की है। काश, इसका बदला मैं तुमसे प्रेम करके चुका सकता” ऐंग्लों इंडियन नर्स के होंठों पर एक हल्की-सी मुस्कराहट फैल गई। आंखों की पुतलियां नचाकर उसने कहा, “तो क्यों नहीं करते….करो।”
उसने बगल से थर्मामीटर निकालकर नर्स को दिया और उत्तर में बोला, “मैं अपने दिल के किवाड़ हमेशा के लिए बंद कर चुका हूं। तुमने उस वक्त दस्तक दी है, जब मकान मालिक हमेशा के लिए कोठरी में सो गया है। मुझे इसका अफसोस है। तुम इस काबिल हो कि तुमसे आयडोफॉर्म की तेज बू समेत प्रेम किया जाए, लेकिन इट इज टू लेट, माई डियर।”
नर्स हंस पड़ी और ऐसा मालूम हुआ कि हार का धागा टूटने से मोती इधर-उधर बिखर गए हैं। उसके दांत बहुत सफेद और चमकीले थे। सईद नर्सी की दुर्बलताएं जानता था अतएव चटखारा लेकर बोला, “नर्स! अभी तुम पूरी जवान कहां हुई हो? जवानी आने दो, एक छोड़ दर्जन-भर प्रेमी तुम्हारे इर्द-गिर्द चक्कर लगाना शुरू कर देंगे, लेकिन उस वक्त मुझे जरूर याद कर लेना, जिसने अस्पताल के इस कमरे में एक बार तुम्हारे पिंडलियों की तारीफ की थी और कहा था, अगर चार होती तो मैं अपने पलंग पर पायों की तरह लगवा लेता।”
नर्स ने तख्ती पर टेम्प्रेचर नोट किया और ‘यू नॉटी ब्याय’ कहकर अपनी पिंडलियों को प्रशंसा-भरी नजरों से देखती हुई बाहर चली गई।
सईद बहुत खुश था या यों समझिए कि वह अपने-आप को खुश करने की कोशिश कर रहा था। वास्तव में वह किसी न किसी हीले से राजो को भूल जाना चाहता था। कई बार उसे बातों का विचार आता जो उसने बुखार की हालत में उससे कही थीं, लेकिन तुरन्त ही अन्य विचारों के नीचे उसे दबा देता।
अस्पताल में अभी उसे चार दिन और रहना था। इसमें कोई सन्देह नहीं था कि निमोनिया और मलेरिया ने उसकी बहुत-सी ताकत लूट ली थी, लेकिन उसे अपनी कमजोरी का बिल्कुल एहसास नहीं था, बल्कि उल्टा वह खुश था। अब उसे ऐसा महसूस होता था कि बहुत-सा अनावश्यक बोझ उस पर से उतर गया था। विचारों में अब वह पहले जैसा खिंचाव और खिन्नता नहीं थी। मलेरिया और निमोनिया ने जैसे फिल्टर का काम किया था। वह महसूस करता था कि अब उसमें वह भारीपन नहीं रहा, जो पहले उसे तंग करता रहा है। बुखार ने उसकी नोकीली भावनाओं को घिस दिया था, इसलिए अब उसे चुभन महसूस नहीं होती थी।
मस्तिष्क बिल्कुल हल्का था। शेष अंग भी हल्के-फुल्के हो गए थे। जिस तरह धोबी मैले कपड़े पटक-पटककर उजला करता है, उसी तरह बुखार में अच्छी तरह झंझोड़-निचोड़कर उसका सारा मैल निकाल दिया था।
जब नर्स अपनी पिंडलियों की ओर देखती हुई बाहर निकली, तो सईद दिल ही दिल से मुस्करा दिया था। फिर उसने सोचा, नर्स की पिंडलियां सचमुच सुन्दर हैं। अन्य रोगियों के लिए ऐसे चार दिन गुजारना बहुत कठिन होता, लेकिन सईद ने बड़े मजे से ये दिन काटे। शाम को उसके मित्र आ जाते थे। उनसे वह इधर-उधर की दिलचस्प बातें करता रहता। सुबह उसकी मां आती, जो अपनी ममता से उसका चित्त प्रसन्न कर जाती। दोपहर को वह सोया रहता और बीच में जब कोई पास न होता, तो पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता रहता, जिनका ढेर अब खिड़की पर जमा हो गया था।
जब उसके विदा होने का समय आया, तो डाक्टर, नर्स, खिदमतगार और अस्पताल के एक-दो अन्य कर्मचारी उसके कमरे में आ पहुंचे। दो भंगी इनाम लेने के लिए खड़े थे। बाहर फाटक पर तांगा खड़ा था, जिसमें उसका नौकर गुलाम नबी बैठा इन्तजार कर रहा था, जैसे वह लन्दन जा रहा हो या लन्दन से वापस आ रहा हो और उसके मित्र-मुलाकाती, उसे विदाई देने या उसका स्वागत करने के लिए एकत्र हों।
नर्स उसको बार-बार कह रही थी, “आपने अपनी सब चीजें याद से अटैची में रख ली हैं न?”
और वह बार-बार उसका उत्तर दे रहा था, “जी हां, रख ली है।”
नर्स ने फिर कहा, “वह आपकी घड़ी कहां है? देखिए गद्दे के नीचे ही न पड़ी रह जाए।”
इस पर उसे कहना पड़ा, “मैंने घड़ी उठाकर अपनी जेब में रख ली है।”
“और आपका फांउटेन पेन?”
“वह भी मेरी जेब में है।”
“और आपकी ऐनक?”
“वह मेरी नाक पर है। आप देख सकती हैं।”
इस पर नर्स मुस्करा दी।
नर्स ने सईद की बहुत सेवा की थी। जैसे कोई नन्हें-नन्हें बच्चों का ख्याल रखता है, उसी तरह उसने सईद का ख्याल रखा था और जबकि यह अस्पताल से जा रहा था, वह उसे यूं विदा कर रही थी, जैसे मां बच्चे को पाठशाला भेजती है और उसके दरवाजे से बाहर निकलने तक कभी उसकी टोपी ठीक करती है और कभी उसकी कमीज के बटन बन्द करती है। नर्स के व्यवहार ने उस पर बहुत प्रभाव डाला था और इसीलिए वह बड़े लगाव से उससे बातचीत कर रहा था।
जब सब कुछ ठीक-ठाक हो गया, तो सईद नर्स से बोला, “नर्स, देखना मेरी टाई की नॉट कैसी है?”
नर्स ने टाई की नॉट की ओर देखा और तुरन्त समझ गई कि उससे मजाक किया जा रहा है।
मुस्कराकर बोली, “बिलकुल ठीक है, लेकिन आप अपना आईना यहीं भूले जा रहे हैं।”
यह कहकर वह कमरे की आखिरी खिड़की की ओर बढ़ी, जिसके पास ही लोहे की जाली रखी थी। उसे खोलकर उसने आईना निकाला और सईद के अटैचीकेस में रखते हुए बोली, “क्यों जनाब, एक चीज तो आप भूल ही गए थे न?”
इस पर सईद ने कहा, “अब मुझे क्या मालूम कि आईने भी फलों और दूध की तरह जाली में रखे जाते हैं। मैंने तो वहां नहीं रखा तुमने कभी इसकी मदद से अपने होंठों पर लिपस्टिक लगाई होगी और वह भी उस वक्त जब मैं सो रहा होऊंगा।”
इस प्रकार की मनोरंजक बातों के बाद उसने डाक्टर से हाथ मिलाया। कुछ कागजों पर हस्ताक्षर किए। नर्स और दूसरे कर्मचारियों का शुक्रिया अदा किया और दान के डिब्बे में कुछ रुपये डालकर उस कमरे से बाहर निकल आया, जहां उसने पूरे पन्द्रह दिन एक रोगी की अवस्था में व्यतीत किए थे।
जब बाहर सड़क पर निकल आया, तो उसने यूं ही पलटकर अपने कमरे की ओर देखा। तीन खिड़कियां बन्द थीं, लेकिन एक खुली थी और उस खुली खिड़की में से नर्स उसी को ओर देख रही थी। नजरें मिली तो नर्स ने अपना नन्हा-सा सफेद रूमाल लहराया और खिड़की बन्द कर दी।
उसके मित्र अब्बास ने जब यह दृश्य देखा, तो आंख मारकर रशीद से कहा, “भई, मुझे तो दाल में कुछ काला नजर आता है।”
छ:
पन्द्रह दिन की अनुपस्थिति के बाद जब सईद घर पहुंचा, तो सबसे पहले उसे राजो नजर आई, जो दौड़ा-दौड़ी बड़े दरवाजे से बाहर निकल रही थी। उसे देखकर रुक गई और कहलाती हुई बोली, “मियां जी! आप ठीक हो गए …. ठीक हो गए …. मैं पांच रुपये के पैसे लेने जा रही हूं।”
यह कहकर वह चली गई और सईद ने संतोष की सांस ली। आगे बढ़ा, तो उसकी मां ने लपककर उसे छाती से लगा लिया और पटापट माथा चूमना शुरू कर दिया।
सईद को अपनी मां के हद से बढ़े हुए प्यार से बड़ी उलझन होती थी, लेकिन अब बीमारी के बाद उसके स्वभाव में चूंकि एक प्रकार की नमीं पैदा हो गई थी, इसलिए मां के प्यार का जोश उसे अच्छा मालूम हुआ।
घर में प्रवेश करते ही उसे अनुभव हुआ कि उसके साथ मेहमानों का-सा व्यवहार किया जा रहा हैं नये टी-सेट से उसे चाय दी गई अन्दर कमरे में दरी पर नई चादर बिछाई गई थी। कुर्सियों पर नई गद्दियां रखी थीं। पलंग पर वह चादर बिछी थी जिस पर उसकी मां ने बड़े मेहनत से तारकशी का काम किया था। हर चीज बड़े सलीके से रखी थी और कमरे का वातावरण कुछ ऐसा हो गया था, जो मस्जिद में जुमे की नमाज पर देखने को आता है, जब बहुत-से आदमी नहा-धोकर उजले कपड़े पहने होते हैं।
चाय पीकर वह देर तक अपनी मां के पास बैठा रहा। गली की सब औरतें एक-एक करके आई और सईद के स्वस्थ होने पर पर उसकी मां को बधाई देकर चली गई जब भिखारियों को पांच रुपये के पैसे बांटने का अवसर आया और गली में शोर मच गया, तो सईद उठकर अपनी बैठक में चला गया।
गुलाम नबी ने कमरा खूब साफ कर रखा था। सबकी-सब खिड़कियां खुली थीं। उसकी मां को मालूम था कि वह अपने ही कमरे में जाकर बैठेगा। इसलिए सिगरेटों का नया डिब्बा तिपाई पर रखा था और पास ही नई माचिस भी पड़ी थी।
कमरे में दाखिल होते ही उसने अपनी सब चीजों का जायजा लिया। हर चीज अपने स्थान पर थी, यहां तक कि वह कबूतर भी, जो चार बजे तक उसके बाप की, बड़ी तस्वीर के भारी फ्रेम पर बैठा ऊंघता रहता था।
थोड़ी देर तक वह धुली हुई दरी पर नंगे पैर टहलता रहा। इतने में उसके मित्र आने शुरू हो गए। दोपहर का खाना वहीं खाया गया, जोकि परहेजी था, लेकिन अस्पताल के खाने से कहीं अच्छा था, फिर सिगरेटों का दौर चला और देर तक गप्पबाजी होती रही। इसी बीच में अब्बास ने कहा, “अमां, अस्पताल की वह लौंडिया बुरी नहीं थी।”
इस पर रशीद मुस्कराकर कहा, “आपका डबल निमोनिया बिना दवा के यूं ही अच्छा नहीं हो गया। कई नर्से बिलकुल अमृतधारा होती है।”
अब्बास को रशीद का वाक्य बहुत पसंद आया, “वल्लाह, क्या बात कही है, नर्स और अमृतधारां, मैं समझता हूं, सईद, आधी शीशी तो खत्म कर दी होगी तुमने? भई, ऐसी दवाएं बेदर्दी से इस्तेमाल नहीं किया करते।”
सईद को ये बेहूदा बातें अच्छी मालूम हुईं। इसलिए उसने भी उनमें भाग लेना शुरू कर दिया, “क्या ख्याल है तुम्हारा, अस्पताल में उस जैसी तीखी नर्स शायद ही कोई और हो? भाई, अस्पताल वालों की सूझ-बूझ की दाद देनी पड़ती है कि उन्होंने मिस फारिया को मेरी देख-रेख पर मुकर्रर कर दिया। यूं तो इस शहर में किसी औरत की पिंडलियां नजर ही नहीं आती और अब तो सर्दी जोरों पर है, सब पिंडलियां मोटे-मोटे गिलाफों में रहती है। इसलिए उसकी पिंडलियों ने बड़ा सुख पहुंचाया, लेकिन तुमने उसकी पिंडलियां नहीं देखीं।”
अब्बास बोला, “क्या मशहूर मुकामात में शामिल करने के लायक है?” उसने मेरी खिदमतत बहुत की है। बच्चा जैसा समझकर मेरी तीमारदारी करती थी। मामूली से मामूली चीज का ख्याल रखती थी। कभी-कभी मेरा मुंह भी धुलाती थी। नाक भी पोंछती थी, जैसे मैं बिलकुल अपाहिज हूं। मैं उसका बहुत अहसान मंद हूं। मेरा ख्याल है कि उसे तोहफे में एक साड़ी भेज दूं। एक बार उसने कहा था कि उसे साड़ी पहनने का बहुत शौक है। क्यों अब्बास, तुम्हारा क्या ख्याल है?”
अब्बास ने कहा, “नेकी और पूछ-पूछ! मगर शर्त यह है कि साड़ी सफेद होगी, क्योंकि यह रंग मुझे पसंद है।”
अतः दूसरे दिन गोकुल मार्केट में अब्बास और सईद ने एक सफेद रंग की साड़ी पसंद की, जिसके किनारे-किनारे एक सफेद तिल्ले का बार्डर दौड़ रहा था। कीमत चुकाकर एक चिट पर सईद और नर्स का नाम लिखकर साड़ी पर चिपका दिया गया। जब अब्बास पैकेट लेकर अस्पताल की ओर जाने लगा तो सईद ने कहा, “अब्बास, मेरे ख्याल में अस्पताल में तोहफा देना ठीक नहीं होगा।
अब्बास जाते-जाते पलटकर बोला, “मैं उसके घर जा रहा हूं, अस्पताल में तो बीमार जाते हैं।
अब्बास चला गया और फिर शाम को उस समय वापस लौटा, जब सईद चाय-वाय पीकर और अपनी मां के पास थोड़ी देर बैठकर बैठक की ओर जा रहा था। दरवाजे पर दस्तक हुई और साथ ही ‘ख्वाजा साहब’ की हांक लगी, तो उसने समझ लिया कि अब्बास है और कोई दिलचस्प खबर लाया है। जब दोनों आराम से बैठक में बैठ गए, तो बातें शुरू हुई।
बात अब्बास ने शुरू की, “भई, मुझे ऐसा शक होता है कि उसे तुमसे बुरी तरह प्रेम है और वह दिन-रात तुम्हारी जुदाई में आहें भरती रहती है। रात को सो नहीं सकती। वगैरह-वगैरह। अरे भाई, नहीं। तुम मजाक मत समझो, उसने खुद तो कुछ नहीं कहा, लेकिन मैंने अन्दाजा लगाया है कि वह तुम्हारे प्रेम में गिरफ्तार है। जाने तुमने उस पर क्या जादू कर दिया है।”
“पहले पूरी बात तो बताओ।”
“मैं वहां गया। उसका ठिकाना मालूम किया। वह ड्यूटी पर नहीं थी। इसलिए उसने मुझे अपने छोटे-से कमरे में बुला लिया और मेरे आने की वजह पूछी। मैंने साड़ी का पैकेट उसको दे दिया। उसे खोलकर जब उसने साड़ी देखी तो उसकी आंखें भींग गई। कहने लगी, “ऐसी तकलीफ क्यों की? लेकिन यह साड़ी मुझे पसन्द है। उनका ‘टेस्ट’ बहुत अच्छा है। सफेद कपड़े पहन-पहनकर मैं हालांकि सफेद कपड़ों से उकता गई हूं, लेकिन इसमें एक खास बात है। यह…यह बार्डर कितना प्यारा है! अगर बड़ा होता, तो सारी खूबसूरती मारी जाती। मेरी तरफ से उनका बहुत-बहुत शुक्रिया अदा कीजिएगा, लेकिन….लेकिन वे खुद क्यों नहीं आए?….उन्हें खुद आना चाहिए था, यह कहते-कहते रुक गई और बात का रुख बदल दिया। बोली, ‘आपने भी काफी तकलीफ उठाई है। मुझे आपका भी शुक्रिया अदा करना चाहिए…..”
यह सुनकर सईद ने अब्बास से पूछा, “लेकिन इस बातचीत से क्या साबित होता है? कुछ भी नहीं।”
“अरे, भाई, मेरे बताने से क्या साबित होगा, मैं मिस फारिया नहीं हूं। तुम वहां होते वही नतीजा निकालते, जो मैंने निकाला है और फिर उसने यह भी तो कहा, ‘उनसे कहिएगा, कभी इधर कम्पनी बाग की तरफ आएं, तो मुझसे जरूर मिले। मेरे कमरे का नम्बर आप उनको बता दीजिएगा। ढूंढ़ने में उन्हें तकलीफ नहीं होगी, लेकिन ठहरिए,’ तुम्हें मालूम है, इसके बाद उसने क्या कहा?”
“कहा होगा तशरीफ ले जाइए”
“उसने छोटे-से पैड पर तुम्हें एक खत लिखा, लेकिन थोड़ी देर सोचकर उसने फाड़ दिया, फिर एक नया लिखा, उसे भी फाड़ दिया और मेरी तरफ बेवकूफों की तरह देखकर घबराई हुई आवाज में बोली, ‘समझ में नहीं आता शुक्रिया किन लफ्जों में अदा करूं।’ यह कहकर उसने फिर कोशिश की जो कामयाब रही। बड़े सोच-विचार के बाद उसने एक खत लिखा और लिफाफे में बंद करके मुझे देते हुए बोली, ‘यह उनको दे दीजिएगा।’ मैं वह खत लेकर बाहर निकला और….”
“खत कहां है?” सईद ने बेचैनी से पूछा।
अब्बास ने बड़ी बेपरवाही से उत्तर दिया, “मेरे पास है, हां, तो मैंने बाहर आकर लिफाफे को देखा। उस पर लिखा था, ‘प्राइवेट’, इसलिए मैंने उसे खोल लिया।”
“तुमने खोल लिया?”
‘खोल लिया और पढ़कर देखा, तो मालूम हुआ कि वह तुमने मिलने के लिए बहुत बेचैन है। खत का मजमून यह है, ‘मैं तुमसे मिलना चाहती हूं। मेरी तबीयत आजकल बहुत उदास हैं। साड़ी का बहुत-बहुत शुक्रिया! मैं इसे परसों बालरूम डांस में पहनकर जाऊंगी, जो छावनी में हो रहा है।”
यह कहते हुए अब्बास ने जेब से लिफाफा निकालकर सईद को दे दिया, “तुम खुद भी पढ़ सकते हो।”
सईद ने लिफाफे से पत्र निकालकर पढ़ा। पढ़कर वह कुछ सोच में पड़ गया, वह मुझसे क्यों मिलना चाहती है और उदास क्यों है? क्या उसकी उदासी मुझसे मिलने पर दूर हो जाएगी? कहीं ऐसा तो नहा कि मेरे वहां से चले आने पर ही वह उदास हो और यह जो अब्बास का ख्याल है कि वह सचमुच मुझसे प्रेम करती है…..?
इस अन्तिम विचार पर उसे हंसी आ गई “अब्बास! तुम बिल्कुल बेवकूफ हो। उसने मुझसे नहीं, किसी और से प्रेम हुआ है और वह मुझे उसका सारा हाल सुनाना चाहती है। मैंने एक बार उससे मजाक-मजाक में कहा था, ज्योंही किसी से प्रेम करने लगो, मचे जरा बताना। हो सकता है क्यूपिड ने उसके दिल पर अपना पहला तोर चला दिया हो। खैर, छोड़ो इस किस्से को। बताओ कि तुमने कभी किसी ऐंगलों इंडियन लड़की से प्रेम किया है?”
अब्बास ने बड़ी गम्भीरता से कहा, “मैंने ठेठ यूरोपियन लड़की से लेकर भंगिन तक सबसे प्रेम किया है, लेकिन मेरा प्रेम हमेशा मुझ तक ही सीमित रहता है। सच पूछो तो मैं तुम्हारी इस फारिया से भी प्रेम करने लगा हूं। लेकिन जैसा कि तुम कहते हो वह कम्बख्त किसी दूसरे से प्रेम करने लगी है। मेरे ख्याल में अपना सिलसिला तो यूं ही चलता रहेगा। आखिर एक दिन शादी हो जाएगी और सारा प्रेम धरा का धरा रह जाएगा।”
अब्बास उदास हो गया। इस पर सईद ने पूछा, “अब्बास, क्या तुम सचमुच किसी से प्रेम करना चाहते हो?”
अब्बास जैसे तड़पकर बोला, “यह ‘सचमुच’ भी खूब रही! अरे भई, एक मुद्दत हो गई कोशिश करते-करते और अब तो प्रेम की ख्वाहिश बहुत जोर मारने लगी है। कोई भी हो, मगर औरत हो औरत। खुदा की कसम मजा आ जाए।”
यह कहकर अब्बास मजा लेने के लिए जोर-जोर से अपने हाथ मलने लगा, “लेकिन मैं ऐसे प्रेम के हक में नहीं हूं। जो तपेदिक या दमे के रोग की तरह हमेशा के लिए चिमट जाए। मैं ज्यादा से ज़्यादा एक या दो बरस किसी औरत से प्रेम कर सकता हूं और बस!”
प्रेम कितनी देर तक किया जा सकता है, यह सईद को मालूम नहीं था। टाइफाइड की तरह क्या उसका भी समय निश्चित है, इसका भी उसे ज्ञान नहीं था। एक बार उसे टाइफाइड हुआ था, जो उसकी मां के कथनानुसार पूरे सवा महीने के बाद उतरा था, लेकिन वह प्रेम जो अभी-अभी उसके दिल में पैदा हुआ था, कब तक उसे कष्ट देता रहेगा? यह प्रश्न उसके मन में आया ही था कि राजो और उसके इर्द-गिर्द की तमाम चीजें नजरों के सामने घूमने लगी और वह उस व्यक्ति की तरह जो एकाएक किसी मुसीबत में पड़ जाए, सख्त घबरा गया। अपने-आप को उन विचारों से मुक्त करने के लिए उसने अब्बास से कहा, “अब्बास, आज कोई पिक्चर देखनी चाहिए।”
अब्बास, जिसके मस्तिष्क पर इस समय प्रेम सवार था, बोला, खाली तस्वीरें प्यास नहीं बुझा सकतीं, दोस्त। मुझे औरत चाहिए औरत। तुम्हें एक मौका मिल रहा है, खुदा के लिए उससे फायदा उठाओ। जाओ, वह नर्स तुम्हारी है। उसकी आंखों ने मुझे बता दिया था कि वे पहली गलती करके रोना चाहती है। जाओ, उसे अपनी जिन्दगी की पहली गलती में मदद दो। बेवकूफ न बनो! अगर गलतियां न होतीं, तो औरतें भी न होतीं। मेरी समझ में नहीं आता, तुम्हारा फलसफा क्या है? भई, एक जवान लड़की तुम्हारी मदद से अपनी जिन्दगी की कहानी को रंगीन बनाना चाहती है, तुम अगर अपने रंगों का बक्सा बंद कर लो तो यह तुम्हारी बेवकूफी है। काश, तुम्हारी जगह पर मैं होता! फिर….फिर देखते कैसे-कैसे शोख रंग उसकी जिन्दगी में भरता!”
अब्बास की बातें सईद उन कानों से सुनने की कोशिश कर रहा था, जिसमें राजो का प्रेम भनभना रहा था। अस्पताल में वह उसे लगभग भूल गया था, लेकिन अब घर आते ही वह पहले की तरह उसके भीतर प्रवेश कर गई थी। अब्बास बातें कर रहा था और सईद के मन में यह नजर उत्पन्न हो रही थी कि उठे और अन्दर जाकर राजो को फिर से एक नजर देख आए। प्रेम-भरी नजरों से न देखे, घृणा-भरी नजरों से ही देखे, लेकिन देखे जरूर लेकिन इसके साथ वह यह भी नहीं चाहता था कि जो संकल्प वह कर चुका है, इतनी जल्दी टूट जाए।
अत: बड़ी शक्ति से काम लेते हुए उसने एक बार फिर राजो के विचार को अपने दिल में कुचल दिया और उठ खड़ा हुआ, “अब्बास, कोई और बात करो। सच पूछो तो अभी तक मैं प्रेम की सही मतलब ही नहीं समझ सका, लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि यह प्रेम वह चीज नहीं है, जिसका जिक्र तुम करते हो। तुम एक औरत से सिर्फ एक-दो बरस तक प्रेम करने के कायल हो, लेकिन मैं तो उम्र-भर का पट्टा लिखवाना चाहता हूं। अगर मुझे किसी से प्रेम हो जाएं, तो मैं उस पर अपनी मिलकियत चाहूंगा। वह औरत सारी की सारी मेरी होनी चाहिए। उसका एक-एक ज़र्रा मेरे प्रेम के अधीन होनी चाहिए। प्रेमी और डिक्टेटर में मैं कोई ज्यादा फर्क नहीं समझता। दोनों ताकत चाहते हैं, दोनों हुक्मरानी की आखिरी हद के इच्छुक हैं। प्रेम ….तुम प्रेम-प्रेम पुकारते हो मैं भी प्रेम-प्रेम चिल्लाता हूं, लेकिन प्रेम के बारे में हम कितना जानते हैं! किसी अंधेरी गुफा में या बाग की किसी घनी झाड़ी के पीछे अगर किसी वासना की भूखी औरत से तुम्हारी मुलाकात हो जाए, तो तुम कहोगे तुमने प्रेम कर डाला है, लेकिन असल में यह प्रेम नहीं है। प्रेम तो कोई और ही चीज है। मैं कहता हूं कि प्रेम एक निहायत ही पाक (पवित्र) जज्बे का नाम है और जैसा कि हमारे बुजुर्ग कहते हैं, इसमें वासना नाममात्र नहीं….नहीं, मैं इस बात को भी नहीं मानता। मुझे तो ऐसा मालूम होता कि मुझे पता है, प्रेम क्या है….लेकिन…..लेकिन…मैं अपनी बात पूरी तरह बयान नहीं कर सकता। मैं समझता हूं, प्रेम हर आदमी के अन्दर अलग-अलग जज्बों के अधीन पैदा होता है। जहां एक फे’ल (कर्म) का सम्बन्ध है, एक ही रहता है। अमल (क्रिया) भी एक ही है। नतीजा भी आमतौर पर एक जैसा ही निकलता है, लेकिन जिस तरह रोटी खाने के फे’ल देखने में एक-सा है और बहुत-से लोग जल्दी-जल्दी निबाले उठाते हैं और बिना चबाए निगल जाते है और कुछ लोग देर तक चबा-चबाकर पेट में उतारते हैं…..लेकिन यह मिसाल भी साफ तौर पर कुछ बयान नहीं कर सकती। भई, मेरा तो दिमाग खराब हो गया है। खुदा के लिए यह प्रेम की बातें खत्म करो। हमारा प्रेम बहुत-से पत्थरों के नीचे दबा हुआ है। जब खदाई होगी और उसको निकाला जाएगा, तो हम दोनों उसके बारे में अच्छी तरह बातचीत कर सकेंगे।”
सईद के इस असमतल भाषण में इतने धचके थे कि अब्बास की मन:स्थित ऐसी हो गई, जैसी किसी घटिया तांगे में बैठकर टूटी-फूटी सड़क पर चलने से हो जाती है। वह भी उठ खड़ा हुआ, “जाने तुमने क्या बक ही समझ पाया हूं कि तुम किसी औरत से प्रेम करने और जमीन के किसी प्लॉट को खरीदने को एक ही बात समझते हो। सो तुम प्रेम करने की बजाय एक-दो बीघा जमीन खरीद लो और सारी उम्र उस पर धरना देकर बैठे रहो। समझ नहीं आता कि आखिर तुम्हें हो क्या गया है? तुम्हारे अन्दर की शायरी कहां मर गई है? बीमार होने के बाद तुम इतने ठस क्यों हो गए हो? कमाल है, इतनी मामूली-सी बात भी तुम्हारी समझ में नहीं आती कि प्रेम जो ज्यादा दिनों तक चले, प्रेम नहीं लानत है। हम इन्सान हैं फरिश्ते नहीं, जो एक ही हूर पर सब्र करके बैठ जाएं। अगर मैंने हमेशा के लिए एक ही औरत से अपने-आप को चिपका दिया, तो जिन्दगी बेकार हो जाएगी। मैं खुदकुशी कर लूंगा। जिन्दगी में सिर्फ एक औरत… सिर्फ एक औरत…. और यह दुनिया क्यों इतनी भरी-पूरी है? क्यों इसमें इतने तमाशे जमा हैं? सिर्फ गेहूं पैदा करके ही अल्लाह मियां ने अपना हाथ क्यों न रोक लिया? मेरी सुनो, और इस जिन्दगी को, जो तुम्हें दी गई है, अच्छी तरह इस्तेमाल करो। अपने-आप को फलसफे में मत उलझाओ। औरत के बारे में भी ज्यादा सोच-विचार की जरूरत नहीं। वह अगर अथाव समुन्दर है, तो हुआ करे। ऊंचा तारा है, तो भी क्या! जब तक वह औरत है और उसमें वे सब खूबियां हैं, जो एक औरत में होनी चाहिए, तो सिर्फ एक बात पर गौर करना चाहिए कि हम उसे कैसे हासिल कर सकते है, लेकिन तुम बिलकुल बेवकूफ हो। ज़रा सोचो, आखिर तुम क्या हो।”
थोड़ी देर के लिए सईद को ऐसा लगा कि वाकई अब्बास सब कुछ है और वह कुछ भी नहीं। उसने सोचा कि आखिर मैं क्या हूं? यहां इस घर में एक लड़की मौजूद है, जिससे मैं प्रेम कर सकता हूं, लेकिन….लेकिन यह प्रेम क्या है? कितनी अपमानजनक वस्तु है! मैं चाहता हूं कि वह मेरी हो जाए और साथ ही यह भी चाहता हूं कि उसके विचार तक को नोचकर फेंक दूं मैं भी किस मुसीबत में पड़ गया हूं! क्या प्रेम इसी मुसीबत का नाम है?
कुछ भी हो, लेकिन सईद इतना जरूर समझता था कि यह मुसीबत, या तो कुछ भी इनका नाम रखा लिया जाए, था प्रेम ही, जो धीरे-धीरे उसके दिल में जड़ पकड़ गया था। जिस प्रकार लोग भूत-प्रेत से डरते हैं, उसी प्रकार वह प्रेम से डरता था। उसे हरदम यह भय लगा रहता था कि एक समय ऐसा भी आएगा, जब उसकी भावनाएं बेलगाम हो जाएंगी और वह कुछ कर बैठेगा। क्या कर बैठेगा?….यह उसको मालूम नहीं था, लेकिन वह उस तूफान की प्रतीक्षा में जरूर था, जिसके लक्षण उसे अपने भीतर दिखाई दे रहे थे। इस प्रेम ने उसे डरपोक बना दिया था। वह बुजदिल हो गया था। अब्बास अपने विचारों में मगन था, इसलिए वह अपने मित्र की मनःस्थिति न भांप सका। वास्तव में वह दूसरों के बारे में गौर करने का आदी ही नहीं था। उसके केवल अपने-आप में दिलचस्पी थी। हर समय वह अपने अन्दर ही समाया रहता था। उसे इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती थी कि दूसरों के बारे में कुछ सोच सके, लेकिन इस पर भी वह एक अच्छा मित्र था और यह भी शायद इसलिए कि वह मित्रता और उसके अर्थों को कोई महत्त्व नहीं देता था। वह किसी हालत में भी इसे किसी नाजुक रिश्ते की शक्ल में देखने को तैयार नहीं था।
वह हमेशा कहा करता था, “अजी छोड़ो, तुम किस वहमों में पड़े हो! दोस्ती-दोस्ती सब बकवास है। धातु या पत्थर के जमाने में दोस्त होते होंगे। आजकल कोई किसी का दोस्त नहीं हो सकता। लोग अगर दोस्ती को ही रस्सी बंटना शुरू कर दें, तो सारे का सारा कारोबार ठप हो जाए। तुम मुझे दोस्त कहते ही, कहो। मैं भी तुम्हें दोस्त कहता हूं, ठीक है सुनते जाओ, लेकिन इससे ज्यादा इस पर सोच-विचार न करना। जितना ज्यादा सोचेंगे, उतने ज्यादा गढ़े पैदा होते जाएंगे।”
अब्बास बातें दिलचस्प करता था। किसी साधारण-सी बात को भी एक विशेष पुट देकर मनोरंजक बना देता था। दुनिया के बारे में उसके अपने कुछ सिद्धान्त थे, जिन पर वह एक समय से बड़ी पाबंदी के साथ चल रहा था। इसमें कोई संदेह न था कि वह सोच-विचार से हमेशा दूर रहता था, लेकिन व्यक्तिगत बातों के बारे में तो उसे थोड़ा-बहुत सोचना ही पड़ता था। इस समय भी वह कुछ सोच रहा था, क्योंकि उसके चेहरे पर सन्तोष की वह लहर नहीं थी, जो सामान्य रूप से नजर आया करती थी। नयी सिगरेट सुलगाकर वह लम्बे-लम्बे कश ले रहा था और उसका मित्र सईद आतिशदान के पास खड़ा घोर मानसिक और आत्मिक असमंजस में जकड़ा था।
सहसा अब्बास चौंक पड़ा, “अजी हटाओ, ख्वामहख्वाह इस उलझन में अपने-आप को क्यों फंसाया जाए। जो होगा, देखा जाएगा।” फिर अपने मित्र को सम्बोधित करते हुए बोला, “अजी हजरत, आप किन ख्यालों में उलझे हुए हैं? कुर्सी पर तशरीफ रखिए। हुजूर अभी-अभी बीमारी से उठे हैं। ऐसा न हो, ज्यादा सोचने से फिर अस्पताल जाना पड़े, लेकिन दोस्त, इस बार अपनी जगह मुझे भेज देना। वल्लाह! वह लौंडिया मुझे भा गई है।” और यह कहकर वह स्वयं आरामकुर्सी पर बैठ गया।
सईद भी आतिशदान के पास कुर्सी पर बैठ गया। अधिक बातचीत और सोच-विचार ने उसे निढाल कर दिया था। थकी हुई आवाज में वह बोला, “अब्बास! मैं बहुत कमजोर हो गया हूं। सोचता हूं, कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चला जाऊं। ज़रा हवा-पानी ही बदल जाएगा।”
अब्बास ने पूछा, “कहां जाओगे?”
सईद ने उत्तर दिया, “यही तो सोच रहा हूं। सर्दियों में कहां जाना चाहिए? कोई ऐसी जगह बताओ, जहां इन दिनों मौसम अच्छा हो। बम्बई चला जाऊं? कलकत्ता भी बुरा नहीं, लेकिन….लेकिन क्रिस्मस तो गुजर चुका। …..क्रिस्मस को छोड़ो। दरअसल मैं कुछ दिनों के लिए अमृतसर छोड़ना चाहता हूं यहां मुझे घबराहट-सी होती है।”
“घबराहट?” अब्बास ने आश्चर्य से पूछा, “अमृतसर ने आपको कहां काट खाया है?”
इस पर सईद के दिल में आया कि अब्बास को अपना सारा भेद बता दे, लेकिन वह चुप रहा। वह चाहता था कि किसी को अपना राजदार बनाए, लेकिन इसके साथ ही वह यह भी नहीं चाहता था कि कोई उसके राज को जान ले। अगर यूं हो सकता कि राज बता देने पर भी उसका राज फाश न होता, तो वह अवश्य ही अपना दिल अब्बास के सामने खोल देता, लेकिन उसे मालूम था कि एक बार उसने राजो से अपने प्रेम की दास्तान सुना दी, तो वह चिड़िया फुर उड़ जाएगी, जिसे वह न जाने क्यों पिंजरे में ही मार डालना चाहता था।
अब्बास को अपने दिल का राज बताने के लिए चूंकि वह आगे को झुका था, इसलिए उसे डिब्बे से सिगरेट निकालकर सुलगाना पड़ा।
अब्बास ताड़ गया कि उसका मित्र कुछ कहना चाहता है, लेकिन कह नहीं पा रहा, अतएव उसमें साहस भरने के विचार से उसने कहा, “वात को ज्यादा देर तक पेट में न रखो, सईद, वरना बदहजमी हो जाएगी। कहो, क्या कहना चाहते हो? तुम्हें अमृतसर में क्यों घबराहट होती है? तुम बाहर क्यों जाना चाहते हो? क्या कोई खास बात है? खास बात तो कोई भी नहीं होती। हम लोग ख्वाहमख्वाह बातों में खासपन पैदा कर लेते हैं। कहो, क्या कहना चाहते हो तुम?”
सिगरेट का एक कश लेकर सईद ने अब्बास से कहा, “कुछ भी तो नहीं। कोई खास बात नहीं है। मैं खुद नहीं समझ सका कि मैं अमृतसर क्यों छोड़ना चाहता हूं। दरअसल कुछ अर्से से न जाने क्यों मेरा जी चाहता है कि मैं शोर-गुल में रहूं।
“शोर-गुल में रहना चाहते हैं आप, तो यह क्या मुश्किल है। मैं इसी कमरे में आपके लिए शोर-गुल पैदा कर सकता हूं कहने-भर की देर है, रशीद-वहीद, नासिर, प्राण सब आपकी खिदमत में हाजिर हो जाएंगे। इतना शोर होगा कि कान पड़ी आवाज सुनाई न देगी। फर्माइए, क्या हुक्म है।”
इस बार अब्बास हंसा तो सईद बेचैन हो गया। अब्बास नहीं जानता था कि सईद के भीतर कैसा तूफान मचा है और वह किन-किन यातनाओं से गुजर रहा है। जानता तो शायद इस तरह मजाक न उड़ाता। अब्बास ने उसी तरह हंसते हुए एक बार फिर पूछा, “फर्माइए, क्या हुक्म है?”
इस पर सईद और भी बेचैन होकर उठ खड़ा हुआ, “लेकिन मैं फैसला कर चुका हूं कि इसी हफ्ते कहीं बाहर चला जाऊंगा।”
सात
अमृतसर से लाहौर सिर्फ तीस-बत्तीस मील दूर है। एक घंटे में सुस्त से सुस्त रफ्तार वाली गाड़ी भी आपको अमृतसर से लाहौर पहुंचा देती है, लेकिन जब सईद अमृतसर छोड़कर लाहौर चला आया, तो उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह हजारों मील अपने को पीछे छोड़ आया12 है और अब उसे राजो का कोई भय नहीं रहा।
मां ने उसे रोकने की बहुत चेष्टा की, लेकिन वह अपने निश्चय पर अटल रहा और अस्पताल से घर वापस आने के चौथे दिन ही अपना आवश्यक सामान लेकर चल दिया। लाहौर में उसके तीन-चार रिश्तेदार रहते थे। उनसे मिला जरूर, लेकिन उनके यहां ठहरा नहीं। उन रिश्तेदारों को भी उसकी विशेष चिंत्ता नहीं थी और उसके इस व्यवहार से सईद को खुशी हुई। मेहमानों की तरह चंद घंटों के लिए उनके पास ठहरा और औपचारिक बातचीत के बाद अपने होटल में चला आया।
उस होटल में उसका मन एक हफ्ते के बाद ही उकता गया। वैसे किराया भी अधिक था और वह ऐसे लोगों से घिरे रहना भी पसंद नहीं करता, जो हिन्दुस्तान में जन्म लेकर यूरोपियन बनने की कोशिश करते हैं। अतः उसने माल रोड पर अपने लिए एक छोटा-सा कमरा देख लिया और किराया आदि तय करके उसमें चले जाने का फैसला कर लिया।
होटल का बिल चुकाकर वह तांगे में सामान, रखवा रहा था कि उसने एक और तांगे से मिस फारिया नर्स को उतरते देखा। पहले उसे ख्याल आया कि फारिया नहीं कोई और होगी, क्योंकि ऐंग्लो इंडियन लड़कियो का रंग-रूप आम तौर पर एक जैसा होता है, लेकिन जब फारिया उसे देखकर बेताबी से उसकी ओर बढ़ी तो उसे विश्वास हो गया कि वह फारिया ही है। क्षण-भर में ही उसके मस्तिष्क में सैकड़ों प्रश्न ऊपर-तले पैदा हुए, लाहौर में क्या करने आई है और कब आई है? क्या अकेली है? इस होटल में इसका कौन है? क्या इसी होटल में ठहरी है आदि-आदि।
सईद होटल के नौकर की हथेली में कुछ रुपये दबाकर फारिया की ओर बढ़ा और बड़े तपाक से मिला, “मिस फारिया! किसे मालूम था कि यहां लाहौर में तुमसे मुलाकात होगी! तुम कब से यहां आई हुई हो?”
उसने बहुत-से प्रश्न फारिया से किए, लेकिन फारिया ने किसी एक का भी उत्तर नहीं दिया। वह बड़ी बेचैन थी। इतनी बेचैन कि उसके चेहरे पर एक अवर्णनीय शांति पैदा हो गई थी। ऐसा मालूम होता था कि अभी-अभी कोई दुःखद घटना घटित हुई है। उसका रंग बेहद पीला था और उसके होंठों पर लिपस्टिक के लेप के बावजूद पपड़ियां साफ नजर आ रही थीं।
इधर-उधर देखकर फारिया ने उससे कहा, “मुझे आपसे बहुत-सी बातें करनी है,” यह कहकर उसने तांगे की ओर देखा, जिस पर सामान लदा हुआ था, “लेकिन, आप अभी-अभी आए हैं या कहीं जा रहे हैं?”
“मुझे यहां आए पूरे सात दिन हो गए हैं और अब मैं यह होटल छोड़ रहा हूं।”
इस पर फारिया का रंग और भी पीला पड़ गया, “तो बस, अब आप घर जा रहे हैं?”
“नहीं, नहीं, घर तो मैं दो-ढाई महीने के बाद जाऊंगा। यह होटल का सिसिला मुझे पसंद नहीं था, इसलिए मैंने अलग कमरे का इन्तजाम कर लिया है।”
“तो चलो, मुझे भी वहां ले चलो,” यह कहर वह कुछ झेंप-सी गई, “अगर आपको तकलीफ न हो तो….मेरा मतलब है, मैं आपसे बहुत-सी बातें करना चाहती हूं, लेकिन यहां होटल के सामने चंद मिनटों में कुछ नहीं कह सकती।”
सईद ने फारिया की ओर देखा, तो उसकी मोटी-मोटी आंखों में उसे आंसू नज़र आए, “नहीं, नहीं, इसमें तकलीफ की क्या बात है, लेकिन मैं सोच रहा था कि उलटा तुम्हें वहां तकलीफ होगी, इसलिए कि वहां सामान-वामान कुछ भी नहीं, खाली कमरा है। अभी तक मैं फर्नीचर नहीं ला सका। खैर, देखा जाएगा, चलो, आओ।”
दोनों तांगे में बैठकर मालरोड की ओर रवाना हुए। रास्ते में कोई बात नहीं हुई, क्योंकि दोनों अपने-अपने विचारों में डूबे हुए थे। यहां तक कि वह बिल्डिंग आ गई, जहां दूसरी मंजिल पर सईद ने अपने लिए एक कमरा किराये पर लिया था।
सामान आदि रखवाकर सईद ने फारिया की ओर देखा, तो वह लोहे के पलंग पर बैठी अपने आंसू पोंछ रही थी। दरवाजा भेड़कर वह उसके पास आया और बड़ी सहानुभूति से उसने पूछा, “मिस फारिया! क्या बात है? तुम्हारी आंखें तो कभी रोने वाली नहीं थीं?”
यह सुनकर फारिया ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया, जिस पर सईद बहुत परेशान हुआ। उसकी समझ में नहीं आता कि वह किस प्रकार उस लड़की को सांत्वना दे। यह पहला अवसर था कि एक नौजवान लड़की उसके पास बैठी थी और रो रही थी। उसका दिल बड़ा नर्म था; इसलिए फारिया के रोने से उसे बहुत दु:ख हुआ। घबराकर उसने कहा, “मिस फारिया! तुम मुझे बताओ तो सही, शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।”
फारिया पलंग पर से उठ खड़ी हुई और खिड़की खोलकर बाहर बाजार की ओर देखने लगी, फिर थोड़ी देर बाद पलटकर बोली, “मैं इसीलिए तो आपके साथ आई हूं। अगर आज आपसे मुलाकात न होती, तो न जाने क्या होता। सच कहती हूं, मैं जहर खाकर मर जाती। मेरे साथ बहुत जुल्म हुआ है। आपको याद होगा, साड़ी मिलने पर मैंने आपको शुक्रिया का खत लिखा था और आपसे विनती की थी कि आप मुझे जरूर मिलें। अच्छा हुआ, आप नहीं आए, वरना मेरी उन दिनों की खुशी देखकर अब आपको बहुत हैरानी होती। मेरी जिन्दगी में तब्दीली क्या आई, जैसे भूचाल आया है। मुझे नहीं मालूम था, खूबसूरत मर्द धोखेबाज भी हो सकते हैं। मुझे उससे प्रेम हो गया था। उसने भी मुझे अपने प्रेम का यकीन दिलाया था। वह इतनी अच्छी बातें करता था कि सुनकर मेरे दिल में नाचने की और नाचते चले जाने की इच्छा पैदा होती थी, लेकिन….लेकिन यह सब एक सपना निकला। उसने मुझसे कहा, मैं बहुत अमीर आदमी हूं और जल्द से जल्द बहुत बढ़िया ड्रेस प्रेजेंट की और एक अंगूठी भी बनवा दी। वह जल्द से जल्द मुझसे शादी करना चाहता था। मेरे मां-बाप तो हैं नहीं, जो किसी से इजाजत लेनी पड़ती, मैंने फौरन हामी भर दी। शादी करने के लिए वह मुझे यहां लाहौर ले आया और हम दोनों उसी होटल में ठहरे, जहां आप भी कुछ रोज रहे हैं सात-आठ दिन तक उसने मुझे हर तरह से खुश रखा, लेकिन एक दिन सुबह उठकर जो मैंने देखा, तो उसका सारा सामान गायब था। मैंने उसे ढूंढ़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसका कोई पता भी तो मेरे पास नहीं था। मैंने कितनी गलती की! क्या आप यकीन कर सके हैं कि मैंने उसका पूरा नाम भी नहीं पूछा था? खुदा जाने वह कौन था, कहां का रहने वाला था और क्या करता था? मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गए, जो नर्सिंग होम छोड़कर उसके साथ चली आई शादी करने। मैं कितनी खुश थी कि शादी के बाद घर बनाने और उसे सजाने के लिए मैंने दिल ही दिल में कितने प्रोग्राम बना रखे थे। अब मैं क्या करूं? वापस अस्पताल कैसे जा सकती हूं? नर्सें क्या कहेंगी और सिस्टर मेरा कितना मजाक उड़ाएगी। मैंने मरना चाहा लेकिन मैं मरना भी नहीं चाहती। मुझे जिन्दा रहने का शौक है। वह मुझसे शादी न करता, मेरे साथ ऐसे ही रहता। खुदा की कसम, मैं खुश रहती, लेकिन वह कितना जालिम निकला। मैं नहीं कहती कि मैंने उस पर कोई अहसान किया है। मैं तो उलटा उसका अहसान मानती थी कि उसने मुझे एक नई जिन्दगी का रास्ता बताया और मुझे खुश करने की कोशिश की। मगर वह तो मुझे धोखा दे गया। यह जुल्म नहीं तो और क्या है? होटल वाले मुझे शक की नजरों से देखते हैं। बैरे मेरी तरफ इस तरह देखते हैं, जैसे मैं कोई चिड़ियाघर का जानकार हूं। मैं अभी तक वहां इसलिए ठहरी रही कि होटल वाले यही समझें कि कोई खास बात नहीं हुई, लेकिन मालूम होता है, उन सबको पता चल चुका है; क्योंकि एक दिन बुड्ढे बैरे ने मुझसे कहा, ‘मेम साहब! वे आपके साहब अब नहीं आएंगे। आप चली जाएं.’ मैंने शुक्रिया अदा करने की बजाय उसको गालियां दीं। क्या करूं, मैं चिड़चिड़ी हो गई थी, लेकिन अब मेरा दिल ठिकाने आ चुका है। अब आपको देखकर मुझे ऐसा लगा कि जो कुछ हो चुका है, उसका ख्याल जल्दी ही मेरे दिल-दिमाग से निकल जाएगा। मुझे एक दोस्त की जरूरत है, लेकिन यह मेरी दूसरी बेवकूफी होगी, अगर मैं आपको दोस्त समझूं। क्या मालूम, आप मुझे दोस्त न बनाना चाहें! अस्पताल में आप कुछ दिन रहे। आपने हमेशा मुझसे अच्छा बर्ताव किया, इसलिए मैं समझी शायद आप मेरे दोस्त बन सकें। अच्छा तो, अब मैं जाती हूं।
यह सुनकर न जाने क्यों सईद को हंसी आ गई, “कहां जाओगी? बैठ जाओ।” और उसने उसकी बांह पकड़कर फिर पलंग पर बिठा दिया।
जब वह बैठ गई तो सहसा सईद के पूरे शरीर में इस अनुभूति से एक सनसनी-सी दौड़ गई कि उसने एक नौजवान लड़की को यूं बिना सकुचांए पकड़कर बिठाया है और उससे यूं बात की है, जैसे वह उसका बहुत पुराना मित्र हो। इस नई अनुभूति ने उस जज्बे को बिलकुल सुला दिया, जो थोड़ी देर पहले फारिया को देखकर उसके मन में उभरा था। वे सभी बातें जो एक-एक करके उसके मस्तिष्क
के बीजों में से निकलने वाली नन्हीं कोंपलों की तरह फूटी थीं, दब गई और वह बेचैन-सा हो गया। उसकी इस बेचैनी को देखकर फारिया फिर उठ खड़ी हुई और कहने लगी, “मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है, यह मुझे आज मालूम हुआ है। आज से कुछ दिन पहले मैं समझती थी, सारी दुनिया मेरी है। यह दुनिया फिर कभी मेरी हो सकेगी, इस बात का जवाब मेरे पास नहीं है,” वह आहों से भरी बातें कर रही थी, “मैं अस्पताल कभी वापस नहीं जाऊंगी। लाहौर में कुछ दिन मैंने बड़ी खुशी से गुजारे हैं। मेरे दु:ख के दिन भी अब यहीं गुजरेंगे। मैं यहां किसी दुकान में नौकरी कर लूंगी ….और…..और…..बाकी दिन भी यूं ही बीत जाएंगे…..
यह कहती हुई फारिया फिर दरवाजे की ओर बढ़ी, लेकिन सईद ने उसे रोक लिया, “मिस फारिया, जो कुछ तुमने कहा है, मेरे दिल पर उसका बहुत असर हुआ है। जिस आदमी ने भी तुम्हें धोखा दिया है, वह बड़ा ही नीच आदमी था। तुम्हें धोखा देना बहुत बड़ी बात नहीं है, इसीलिए तुम्हें धोखा नहीं देना चाहिए था। मुझे तुमसे पूरी-पूरी हमदर्दी है। काश, जो कुछ हो चुका है किसी तरह मैं उसका सुधार कर सकता!” फिर एकाएक सईद ने बिल्कुल नये ढंग और नये स्वर में कहना शुरू किया, “माफ करना, फारिया, तुम बिल्कुल गलत आदमी के पास आई हो। तुम समझती होगी, मैं औरतों से वाकिफ हूं। उन्हें अच्छी तरह समझता हूं, लेकिन खुदा गवाह है कि तुम पहली औरत हो, जिससे मैंने खुलकर बात करने की कोशिश की है। अस्पताल में तुमसे जितनी बात हुई थी, सब बिल्कुल बनावटी थीं। इसलिए कि मैं सिर्फ एक ऐसी औरत समझकर तुमसे बातें करता था, जिसे कोई जवाब दिए बिना मैं बातें कर सकता था। तुम हमारी सोसाइटी से वाकिफ नहीं हो। हम लोग अपनी मां-बहन के सिवा और किसी औरत को नहीं जानते। हमारे यहां औरतों और मर्दों के बीच बड़ी मजबूत दीवार खड़ी है। अभी-अभी तुम्हारी बांह पकड़कर मैंने तुम्हें इस पलंग पर बिठाया था। जानती हो, मेरे जिस्म में एक सनसनी-सी दौड़ गई थी। तुम इस बन्द कमरे में मेरे पास खड़ी हो, जानती हो, मेरे दिमाग में कैसे-कैसे ख्याल चक्कर लगा रहे हैं। मुझे भूख महसूस हो रही है। मेरे पेट में हलचल-सी मच रही है। मेरी रूह मज गई है और जिस्म जैसे उलटा लटक गया है। तुम अपने प्रेमी की बातें कर रही थीं और मेरा दिल बेचैन हो रहा था कि उठकर तुम्हें अपनी छाती से लगा लूं और इतना भीचूं, इतना भींचू कि खुद ही निढाल होकर गिर पडूं, लेकिन मुझे अपनी भावनाओं पर काबू पाने का गुर आ चुका है और इसीलिए अब तक मैं अपनी अनगिनत ख्वाहिशें कुचल चुका हूं। तुम हैरान क्यों होती हो, मैं सच कहता हूं, औरत के मामले में मेरी कोई ख्वाहिश अब तक पूरी नहीं हुई। तुम पहली औरत हो, जिसे मैंने इतने करीब से देखा है। यही वजह है कि मैं तुम्हारे और करीब जाना चाहता हूं, लेकिन मैं शरीफ आदमी हूं। मैं तुमसे प्रेम नहीं कर सकता, लेकिन….लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि मैं तुमसे नफरत करता हूं या चूंकि मुझे तुमसे प्रेम नहीं है, इसलिए मैं तुममें दिलचस्पी नहीं लूंगा….यह बात नहीं है…..प्रेम, प्रेम….मैं नहीं समझ सका कि यह प्रेम क्या बला है! तुम्हें हैरानी होगी कि मुझे ऐसी औरत से प्रेम है, जो किसी तरह प्रेम के काबिल नहीं। मुझे उससे नफरत है। सच कहता हूं, बड़ी सख्त नफरत है, लेकिन मुसीबत तो यह है कि उसी नफरत ने मेरे दिल में उस प्रेम के बीज बो दिए हैं।”
फारिया ने पूछा, कौन है वह लड़की?”
“कौन है? तुम उसे जानकर क्या लोगी? एक मामूली लड़की है, जो बहुत अर्से से औरत बन चुकी हो। उसका दिल-दिमाग बिलकुल ठस हो चुका है। वह हाड़-मांस की एक पुतली है और बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं। मेरे घर में नौकर है पहले किसी और की नौकर थी। मैं इसीलिए अमृतसर छोड़कर चला आया हूं, क्योंकि उसे देखकर मेरे दिल में एक अजीब तूफान-सा मच जाता था। मैं चाहता था कि उसे अपने ढंग से प्रेम करूं, लेकिन क्या….वह…मिस फारिया! खुदा के लिए मुझसे न पूछो कि वह प्रेम को क्या समझती है। मैं जानता हूं, मैं समझता हूं कि प्रेम में वे सब चीजें शामिल होती हैं, जिसकी एक घटिया-सी शक्ल उस औरत के दिल में मौजूद है, लेकिन मैं यह भी तो चाहता हूं कि कभी वह किसी अच्छी बात पर, किसी चुस्त वाक्य पर, किसी शायर के नाजुक ख्याल पर, किसी तस्वीर की सुन्दर लकीर पर तड़प उठे, लेकिन उसकी आंखें इन तमाम चीजों पर बन्द हैं। मैं दिमाग से सोचता हूं, वह पेट से सोचती है, लेकिन तमाशा तो यह है कि मैं उससे प्रेम करता हूं और उस प्रेम ने मेरे दिल के किवाड़ किसी दूसरे प्रेम के लिए बिलकुल बन्द कर दिए हैं……….मैं हमदर्दी के काबिल हूं, मिस फारिया।’
और यह कहकर बड़े उदास मन से सईद भी पलंग पर बैठ गया। मिस फारिया क्षण-भर के लिए विचित्र-सी नजरों से उसकी ओर देखती रही और फिर यूं उसकी पीठ पर हाथ फेर-फेरकर उसे तसल्ली देने लगी, मानो वह बिलकुल बच्चा हो। फारिया की इस सहानुभूति से सईद को बड़ी शान्ति मिली। उसकी मां भी इसी तरह उसकी पीठ पर हाथ फेरा करती थी, लेकिन फारिया के हाथ में उसने और ही सुख पाया और उसे अनुभव हुआ कि वह सचमुच सहानुभति का पात्र है और संसार की सभी औरतों को चाहिए कि वे इसी तरह प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरें और उसे दिलासा दें। फिर एकाएक उसे कुछ ख्याल आया और उसने फारिया का वह हाथ जो खाली था, उठाकर अपने दानों हाथों में ले लिया और धन्यवादपूर्वक उसे दबाना शुरू कर दिया।
फारिया ने अपना हाथ उसके हाथों में रहने दिया। बोली, “यह तो बड़ी अजीब बात है कि तुम एक औरत से प्रेम करते हो और साथ ही प्रेम करना भी नहीं चाहते। वहां से भाग आए हो ओर किसी दूसरी औरत से भी प्रेम करना नहीं चाहते।”
इस पर सईद ने फारिया का हाथ छोड़ दिया, “यहां तो चाहने का सवाल ही पैदा नहीं होता। किसी औरत से प्रेम करने के लिए मैं जितने बरस से तड़पता रहा हूं, उसका तुम्हें कुछ अंदाजा नहीं है और फिर प्रेम की जो शक्ल मेरे दिल-दिमाग में है, तुम उससे भी वाकिफ नहीं। जिस मुसीबत में आज मैं फंसा हूं, उसे पैदा करने वाला भी मैं खुद ही हूं। उस औरत के प्रेम में मुझे किसी बाहर की ताकत ने नहीं फंसाया, मैं खुद ही उस जाल में फंसा हूं और अब खुद ही उससे निकल भागा हूं। असल में मैं यह कहना चाहता था कि जब मेरा दिल एक औरत के प्रेम से भरा हुआ है, तो मैं किसी दूसरी औरत से कैसे प्रेम कर सकता हूं। वह भावना जो उस औरत के लिए मेरे दिल में पैदा हुई थी, तुम्हारे या किसी और के बारे तो पैदा नहीं हो सकती। जब मैं अपनी इस हालत के बारे में सोचता हूं, तो अपनी आसानी के लिए अपने-आप को मजलूम13 समझ लेता हूं, लेकिन तुमसे बातचीत करते हुए या तुम्हें अपने दिल-दिमाग में उतारकर मैं अपने-आपको ऐसा नहीं समझ सकता। शायद तुम मेरा मतलब नहीं समझ सकतीं।” और यह कहकर वह और भी बेचैनी से उठ खड़ा हुआ।
फारिया ने मुस्कराकर उसकी ओर देखा। बोली, “दुनिया में अजीबोगरीब आदमी बसते है। मैं भी बड़ी कोशिश करती हूं कि उस आदमी, को जिसने मुझे धोखा दिया, जालिम समझूं और उन लोगों को भी जो इससे पहले मुझे फरेब दे चुके हैं, जंगली जानवर मान लूं, लेकिन न जाने क्यों मैं ऐसा नहीं कर पाती। मैं तो उलटा यह सोचती हूं कि शायद मैंने ही उन पर जुल्म किया है। क्या मालूम मुझी में कोई ऐसी बात हो गई हो, जो उन्हें पसन्द न आई हो। कभी-कभी गुस्से में आकर उन्हें भला-बुरा भी कह देती हैं, लेकिन बाद में अफसोस होता है। आप नर्स की जिन्दगी को नहीं जानते, अस्पताल में जो कोई भी आता है, रोगी और दुखी होता है। हर मरीज को हमारी हमदर्दी और देखभाल की जरूरत होती है। लोग मुझसे प्यार की बातें करते हैं और मैं समझता हूं कि उन्हें कोई रोग हैं, जिसका इलाज मैं कर सकती हूं….. और….और इसीलिए मैं बड़ी बेवकूफ हूं….और आप…..”
“मैं,” इस बार सईद ने मुस्कराकर कहा, “मैं सबसे बड़ा बेवकूफ।”
फारिया भी मुस्कराई और उसे अपनी ओर खींचकर बिल्कुल अचानक तौर पर उसने सईद के होंठ चूम लिए। सईद एकदम बौखला उठा, “मिस फारिया,” वह
रुक-रुककर बोला, “यह क्या….ओह….ओह….कुछ नहीं….दरअसल मैं ऐसी चीजों की आदी नहीं” और न जाने कैसे संभलकर उठ खड़ा हुआ। खिसियानी-सी हंसी हंसते हुए बोला, ‘मैं, मैं तुम्हारा शुक्रिया अदा करता हूं।’
यह सुनकर फारिया बहुत हंसी, “शुक्रिया….शुक्रिया….तुम बिल्कुल बच्चे हो….इधर आओ….” और स्वयं आगे बढ़कर उसने उसे अपनी बाहों में ले लिया और उसके होंठों पर अपने होंठ जमा दिए।
सईद छटपटाकर बोला, “मिस फारिया…..! मिस फारिया….!”
फारिया ने जरा पीछे से सरककर उसकी ओर देखा और कहा, “तुम बीमार हो। तुम्हें एक नर्स की जरूरत है।”
अपनी घबराहट दूर करके सईद ने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा, “मुझे एक नर्स की नहीं और बहुत-सी चीजों की भी जरूरत है, लेकिन ये सब चीजें मुझे नहीं मिलती। मैं….तुमसे पहले भी कह चुका हूँ कि मेरे दिल में बहुत-सी ख्वाहिशें अपाहिज हो चुकी है। मेरे बहुत-से जज्बे लंगड़े हो चुके हैं और अब तो यह हालत हैं कि मैं खुद भी नहीं जानता कि मैं क्या हूं! एक चीज के लिए ख्वाहिश करता हूं, लेकिन साथ ही यह भी चाहता हूं कि वह ख्वाहिश जाहिर न करूं। इसमें कुछ तो हमारी सोसायटी के बनाए हुए उसूलों का कुसूर है और कुछ मेरा अपना। मैं एक बहुत बड़ा आदमी होता, अगर मुझमें विरोधी ताकतों का मुकाबला करने की हिम्मत होती, लेकिन अफसोस कि में एक मामूली इन्सान हूं, जो ऊंची-ऊंची उड़ानें भरना चाहता है। कितनी बड़ी ट्रेजेडी है यह!”
फारिया ध्यानपूर्वक उसकी बातें सुनती रही, फिर थोड़ी देर के बाद बोली, “लेकिन मैंने तो कभी अपने-आप को मामूली औरत नहीं समझा। शायद यह बात सारी मुसीबतों की जड़ है। मैंने हमेशा यही सोचा है कि मैं गैरमामूली औरत हूं। यानी मुझमें प्रेम करने का माद्दा दूसरी औरतों के मुकाबले में बहुत ज्यादा है और मैं बड़ी वफादार हूं, लेकिन कितनी अजीब बात है कि मैं किसी भी मर्द को हमेशा के लिए अपना बनाने में कामयाब नहीं हो सकी! मेरी समझ में नहीं आता कि आखिर मर्द औरत से क्या चाहते हैं?”
“मेरा ख्याल है ऐसी बातों के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए। मर्द औरत से क्या चाहता है, औरत मर्द से क्या चाहती है और फिर वे दोनों मिलकर क्या चाहते हैं, यह चाहने का सिलसिला तो कभी खत्म नहीं होगा, इसलिए आओ कुछ और बातें करें। हां, यह बताओ अब तुम क्या करना चाहती हो?”
फारिया जोर से हंसी, “यह चाहने का सिलसिला कभी खत्म नहीं होगा।” सईद भी हंस पड़ा।
फारिया बोली, “मैं बहुत उदास और परेशान थी, लेकिन इन बातों ने मेरी सारी परेशानी और उदासी दूर कर दी। यूं तो मैं ज्यादा देर तक उदास रह ही नहीं सकती, लेकिन ऐसी दिलचस्प बातें न होतीं, तो मुझे कोई दूसरा सहारा लेना पड़ता। खैर, अब मैं ज्यादा अच्छी तरह अपने भविष्य के बारे में सोच सकूंगी।”
“क्या इरादा है?”
“कोई खास इरादा तो नहीं, लेकिन अब मैं वापस अमृतसर जाना नहीं चाहती, क्योंकि वहां मुझे फिर इस बात का खतरा रहेगा कि कोई आदमी कम्पनी बाग में घूमता-घामता उधर आ निकलेगा और मेरी कमजोरियों का फायदा उठाकर चलता बनेगा। मैं अब यहां लाहौर में ही रहना चाहती हूं आप कब तक यहां रहेंगे?”
“कुछ कह नहीं सकता, लेकिन दो-ढाई महीने तो जरूर रहूंगा। मैं खुद अमृतसर नहीं जाना चाहता।”
फारिया ने बोला, “तो मैं भी दो-ढाई महीने यहां रहूंगी उसके बाद कोयटा चली जाऊंगी, जहां मेरी एक बहन रहती है। वहां से फिर किधर जाऊंगी, इस बारे में अभी सोचना बेकार है। मेरे पास दो सौ रुपए थे, जिसमें से डेढ़ सौ बाकी रह गए हैं। होटल का किराया-विराया चुकाकर एक सौ बचेंगे क्या इनसे दो महीने गुजारा न हो सकेगा?”
“हो जाएगा अगर तुम फिजूलखर्ची न करो। मेरे पास सिर्फ दो सौ रुपये हैं और मुझे इनसे ज्यादा वक्त यहां गुजारना है। जब अमृतसर से चला था, तो मां ने ढाई सौ रुपये दिये थे और मेरा ख्याल है, ये ढाई सौ रुपये मुझे देकर और अस्पताल वगैरह का बिल चुकाकर मां के पास अब सिर्फ डेढ़ हजार रुपये बचे होंगे, जो हमारी कुल पूंजी है।”
सईद ने बिल्कुल ठीक कहा था। उसकी मां के पास अब कुल मिलाकर डेढ़ हजार रुपये ही रह गए थे। बाप की जिन्दगी में दस हजार थे जिनमें से कुछ तो सईद ने उनकी जिन्दगी में ही फिजूलखर्चियों में उड़ा दिए और कुछ उनकी मौत के बाद इधर-उधर खर्च कर दिए। बाप जब तक जिंदा रहा, हमेशा सईद से नाराज रहा। उसने सईद को कड़ी से कड़ी सजाएं भी दी, लेकिन उसके कथनानुसार सईद को भी कभी सुधरना था, न सुधरा, लेकिन बाप के स्वभाव के बिल्कुल विपरीत सईद की मां का स्वभाव अत्यन्त कोमल था। उसे सईद से इतना प्यार था कि यदि किसी से उस प्यार की चर्चा की जाती, तो वास्तविकता के बजाय कहानी मालूम होती। सईद के हाथों उसने भी बहुत दुःख झेले थे, लेकिन जबान से कभी उफ न की थी। वह हमेशा यह कहती, ‘मानती हूं कि मेरा लड़का फिजूलखर्च है। उसे आगे-पीछे का कुछ ख्याल नहीं। हठधर्मी भी है, लेकिन दिल का बड़ा नर्म और साफ है। तुम देख लेना, एक दिन मेरे सब दु:ख दूर कर देगा।’
एकाएक मां-बाप का ख्याल आ जाने से सईद को उस वातावरण का भी ख्याल आया, जिसमें उसका पालन-पोषण हुआ था और इसके साथ ही उसके मुंह से फिर उखड़े-उखड़े बेजोड़े वाक्य निकलने लगे।
……लेकिन जैसा कि मैं तुम्हें बता चुका हूं, मैं एक ऐसे माहौल में पला हूं, जहां सोचने और बोलने की आजादी बहुत बड़ी बदतमीजी समझी जाती है। जहां सच बात कहने वाला बेअदब कहलाता है और जहां अपनी ख्वाहिशों को दबाना बहुत बड़ा सवाब (पुण्य) समझा जाता है। इसमें मेरा क्या कसूर है……….. तुमसे और क्या कहूं? तुम खूबसूरत हो। तुम्हारी बातें भी मुझे अच्छी मालूम होती है। मैं भी बुरा नहीं, लेकिन फिर….फिर और यह तुम्हारा चुम्बन….यह तुम्हारा चुम्बन अभी तक मेरे होठों पर चल रहा है। क्या यह हमेशा यूं ही चलता रहेगा?’
फारिया ने उसकी ओर अर्थपूर्ण नजरों से देखा, फिर मुस्कराकर बोली, “एक और चुम्बन तुम्हारे होंठों पर चलाऊ? दो हो जाएंगे तो अच्छा रहेगा।”
यह सुनकर सईद ने थोड़ी देर सोचा और फिर कहा, “मिस फारिया, मैं तुमसे एक बात पूछूं?”
“बड़े शौक से। एक के बजाय दो पूछो, तीन पूछो और चाहो तो पूछते जाओ।”
मैं पूछता हूं, क्या तुमसे प्रेम करना जरूरी है? मेरा मतलब हैं, क्या तुमसे प्रेम किए बगैर दोस्ती नहीं की जा सकती?”
“बड़ा अजीब सवाल है! भला प्रेम के बगैर दोस्ती कैसे हो सकती है और दोस्तों के बगैर प्रेम भी तो नहीं किया जा सकता। तुम बेकार उलझनों में फंस रहे हो।” यह कहते-कहते उसके गाल सुर्ख हो गए, “मैंने तो कभी ऐसी बातों के बारे में नहीं सोचा और ऐसी बातों के बारे में सोचता ही कौन है? सोच-विचार के लिए और बहुत-सी बातें हैं।”
“फारिया, मैं एक नई दुनिया की सरहदों पर खड़ा हूं इसके अन्दर दाखिल होने से पहले मैं बहुत कुछ सोचना चाहता हूं लेकिन अजीब मुसीबत है कि सोच ही नहीं सकता। फिर भी सोचूंगा जरूर। इसके बगैर गुजारा नहीं होगा।” …. फारिया के गाल और सुर्ख हो गए, “तुम बिल्कुल बच्चे हो। इसके बगैर ही अच्छी तरह गुजारा हो जाएगा। तुम….तुम…..आखिर क्या चाहते हो?”
फारिया के इस प्रश्न ने सईद के को परेशान कर दिया, “मैं….मैं..क्या चाहता हूं?….मैं चाहता हूं कि तुम मेरे पास रहो।”
यह कहकर सईद को ऐसा महसूस हुआ कि उसकी छाती एकदम खाली हो गई है। जैसे मोटर के टायर से हवा निकल गई हो। बड़ी घबराहट की हालत में वह उठा और तेजी से कमरे से बाहर निकल गया। फारिया बैठी रही। उसका ख्याल था कि वह शीघ्र ही लौट आएगा, लेकिन जब दस-पन्द्रह मिनट गुजर गए और सईद नहीं लौटा, तो उसने उठकर बाहर बालकनी में झांका। सईद वहां नहीं था। नीचे बाजार में नज़र दौड़ाई, तो सईद वहां भी नज़र न आया। फारिया को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसको अकेला छोड़ वह कहां भाग गया है। वापस कमरे में आकर वह उसकी प्रतीक्षा करने लगी।
बड़े साहस से काम लेकर शाम के समय जब सईद वापस लौटा और कमरे में दाखिल होने लगा, तो दरवाजा अन्दर से बंद था। उसने हौले से खटखटाया दरवाजा तुरन्त खुल गया और फारिया ने किवाड़ फिर से भेड़ते हुए कहा, “तुम्हें शर्म नहीं आती, इतनी देर के बाद घर वापस आए हो! खैर, ये बातें बाद में होगी, पहले यह बताओ कि अब क्या खाएंगे और कहां खाएंगे? मुझे बड़ी भूख लगी है।”
उत्तर में वह फारिया से कुछ कहने ही वाला था कि उसकी नजरें लोहे के पलंग पर पड़ी। बिस्तर बिछा हुआ था। तकिये पड़े थे तकियों के पास ही उसका वह उपन्यास रखा था, जिसे उसने अभी तक आधा ही पढ़ा था। उसके बूटों के चारों जोड़े बड़े सलीके से एक पंक्ति में पलंग के नीचे रखे थे। चमड़े के सूटकेस घसीटकर कोने में रख दिए गए थे और सामने खिड़की पर उसका टाइमपीस रखा था। इधर दायें हाथ को जो गुसलखाना था, उसका दरवाजा खुला था और उसने देखा कि स्टैंड पर तौलिया लटक रहा है और इसके साथ ही उसे ऐसा लगा, जैसे वह एक समय से उस कमरे में आबाद है और फारिया को तो वह आदिकाल से जानता-पहचानता है। इस नई अनुभूति से उसे बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ।
प्रसन्न होकर सईद ने कहा, फारिया, भई, एक बात की कमी रह गई। इधर जंगले पर तुम्हारे धुले हुए कपड़े लटकने चाहिए और साथ वाला कमरा खाली पड़ा है, उसमें तुम्हारा शृंगार मेज होनी चाहिए और उस पर पाउडर और क्रीमों के डिब्बे बिखरने चाहिए….और….और अगर एक पालना भी आ जाए, तो क्या हर्ज? वल्लाह! पूरा खानदान जमा हो जाए ओर मैं….मैं….लेकिन मैं जरूरत से ज्यादा तो नहीं कह गया?”
फारिया ने बढ़कर उसक गले में अपनी बाहें डाल दी, “तुम बेकार बातों को अपने दिमाग में जगह न दिया करो। साथ वाला कमरा कल ही ले लेना चाहिए। शृंगार-मेज भी रहे, लेकिन यह पालने वाली बात गलत है। मुझे इतनी जल्दी पूरी औरत बनने की तमन्ना नहीं है और मेरा ख्याल है तुम भी बाप बनने के काबिल नहीं हो, लेकिन खाना खाने के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? मैं कहती हूं, उसी होटल में आखिरी डिनर उड़ाया जाए, फिर किराया-विराया चुकाकर मैं अपना सामान यहां ले आऊं।”
यह सुनकर सईद घबरा गया। फारिया की बांहें अलग करते हुए बोला, “मगर…..मगर इस कमरे में दो आदमियों की जगह कहां हैं?”
“हटाओ जी,” फारिया ने अपना हैंडबैग खोलकर गालों पर पाउडर लगाते हुए कहा, “देखा जाएगा। इस कमरे में तो आधा दर्जन लोग समा सकते हैं और हम तो सिर्फ दो हैं। दरअसल तुम बिल्कुल वह हो। तुम्हें कुछ मालूम नहीं कि घर-बार कैसे चलाया जाता है। चलो, अब बाहर चलें।”
आठ
सईद बहुत ही खुश था।
फारिया के साथ रहते हुए उसे पूरे दस दिन हो गए थे। साथ वाला छोटा कमरा भी उन्होंने किराया पर ले लिया था। शृंगार-मेज भी आ गया था और इधर दूसरे कमरे में एक छोटी तिपाई और तीन कुर्सियां भी लाकर रख दी गई थी। जिन्दगी बड़े मजे से गुजर रही थी।
फारिया खुश थी कि उसे इतना अच्छा साथी मिल गया, जिसके मन में लेशमात्र भी धोखेबाजी नहीं थी और सईद खुश था कि उसे एक औरत मिल गई। जिन्दगी में पहली बार एक ऐसी औरत मिल गई, जिसे वह छूकर देख सकता था। बेतकल्लुफी बातें कर सकता था। जो सलीकामन्द थी और उसे खुश रखने के बहुत-से ढंग जानती थी…..
फारिया नि:संदेह बड़ी सलीकामंद थी, लेकिन सबसे बड़ी विशेषता उसमें यह थी कि उसके शारीरिक प्रेम में बड़ी वफादारी थी। ऐसी वफादारी जो सर्दियों में दहकते कायेलों के भीतर दिखाई देती है। उन्हें एक साथ रहते दस दिन गुजर गए थे, लेकिन दोनों को ही कुछ ऐसा महसूस होता था, जैसे वे हमेशा से इकट्ठे रह रहे हों। फारिया अपने बारे में कुछ भी नहीं सोचना चाहती थी, लेकिन सईद के दिमाग में यह ख्याल कभी-कभी भिनभिनाती मक्खी की तरह दाखिल हो जाता था कि अगर उसके किसी सम्बन्धी या मित्र-मुलाकाती ने उन्हें एक साथ देख लिया, तो क्या होगा? यह ख्याल आते ही उसे बड़ी उलझन होने लगी और एक विचित्र-सी इच्छा
उसके दिल में पैदा हो जाती कि सारी दुनिया एकदम थम जाए, वह स्वयं निश्चल, निश्चेष्ट हो जाए और सभी लोग निर्जीव पत्थर का रूप धारण कर लें।
…….और फिर वह सोचने लगता, मैं किसी का दुर्बल तो हूं नहीं। जैसे चाहूं अपनी जिन्दगी गुजार सकता हूं। लोगों को इससे क्या सरोकार? मैं अगर शराब पीना चाहता हूं, तो इसमें दूसरों के बाप का क्या जाता है? मैं अगर किसी औरत को अपने साथ रखना चाहता हूं, तो इसमें दूसरों की इजाजत लेने का मतलब ही क्या है? क्या मैं अपने किए का स्वयं जिम्मेदार नहीं?
लेकिन फिर वह सोचता कि इन बातों पर सोच-विचार करने से कुछ प्राप्त नहीं होता। उसमें इतनी शक्ति कदापि नहीं है कि इस सामाजिक व्यवस्था की त्रुटियां दूर कर सके। वह एक साधारण व्यक्ति है, जिसकी कमजोर आवाज इस हंगामों-भरे संसार में कभी नहीं उभर सकती और इस कल्पना से वह चिंतित हो उठता कि एक न एक दिन वह पकड़ा जाएगा और उसे अपने मित्रों और सम्बन्धियों के सामने जलील होना पड़ेगा। सबसे कष्टप्रद बात तो यह थी कि उसे जबरदस्ती जलील होना पड़ेगा अर्थात् अपनी इच्छा के बिल्कुल विरुद्ध और वह बिल्कुल विवश होगा। उसकी सभी विद्रोही भावनाएं धरी की धरी रह जाएंगी। उसका सिर झुक जाएगा। बिना किसी: लज्जाभाव से उसे लज्जित होना पड़ेगा।
और फिर एक दिन ऐसा ही हुआ। वे दोनों शाम को चर्ली चैप्लिन की फिल्म ‘माडर्न टाइम्स’ देखने गए। फिल्म समाप्त होने पर जब सिनेमा हाल से बाहर निकल रहे थे, तो एक आदमी ने बड़े गौर से उसकी ओर देखा। फारिया ने सईद से कहा, ‘यह आदमी तुम्हें घूर-घूरकर देख रहा है, तुम्हारा कोई दोस्त तो नहीं?”
सईद ने जब उस घूरने वाले की ओर देखा, तो जैसे जमीन उसके पैरों तले से निकल गई। यह उसका एक दूर का सम्बन्धी था, जो लाहौर ही के किसी कालेज में पढ़ता था। उसने सिर के इशारे से उसके सलाम का जवाब दिया और फारिया को वहीं छोड़, जल्दी से उस भीड़ में जा मिला, जो बड़े दरवाजे से निकल रही थी।
बाहर निकलकर जो पहला तांगा नजर आया, सईद लपककर उसमें जा बैठा। इतने में फारिया भी वहां पहुंच गई जल्दी से उसे तांगे में बिठाकर उसने घर का रुख किया। रास्ते-भर उनमें कोई बात नहीं हुई, लेकिन ज्योंही वे कमरे में दाखिल हुए, फारिया बोली, “यह एक दम तुम्हें क्या हो गया है? वह कौन आदमी था, जिससे इस तरह डरकर तुम मुझे छोड़कर भाग गए?”
टोपी उतारकर सईद ने पलंग पर फेंक दी। बोला, “मैं उसका नाम तो नहीं जानता, लंघन यह मेरा रिश्तेदार है। अब बात फैलते-फैलते न जाने कहां तक पहुंच जाएगी।”
फारिया जोर से हंसी, “बस? बस इतनी-सी बात का जनाब ने अफसाना बना दिया! अजी हटाओ, कौन-सी बात कहां तक पहुंचेगी। तुम बड़े वहमी हो। चलो, आओ इधर, मैं तुम्हारे गले पर मालिश कर दूं इधर-उधर की बातें शुरू कर दोगे, तो मुझे याद नहीं रहेगा। कल से तुम्हारा गला खराब है। बस, अब मैं कुछ नहीं सुनूंगी। इस कुर्सी पर बैठ जाओ! ठहरो, कोट में उतार देती हूं।”
कोट और टाई उतारकर फारिया सईद के गले पर किसी तेल की मालिश करने लगी और कुछ देर के लिए वह अपने रिश्तेदार की मुठभेड़ को भूल गया।
मालिश करते-करते फारिया ने सईद से कहा, “अरे, डिनर खाना तो हम भूल ही गए। हड़बड़ाकर तुम यहां दौड़ आए और सारा प्रोग्राम अपसेट कर दिया। मेरा इरादा यह था कि सिनेमा के बाद खाना ‘स्टिफिल’ में खाएंगे और यूं इतवार की तफरीह पूरी हो जाएगी। अब क्या ख्याल है?’
“मेरा ख्याल क्या पूछती हो? चलो, लेकिन मुझे तो भूख नहीं है और फिर मेरा गला भी खराब है।”
“तो ऐसा करो, भागकर नीचे से एक डबल रोटी ले आओ। थोड़ा-सा मक्खन और पनीर यहां पड़ा है, जैम भी है। दो टोस्ट तुम खा लेना, बाकी मैं खा लूंगी। यह अय्याशी भी बुरी नहीं। ‘स्टिफिल’ में खाना अगले इतवार सही।’
सईद डबल रोटी ले आया। फारिया ने चुटकियों में तिपाई पर कपड़ा बिछाकर डिनर लगा दिया और दोनों खाने लगे।
एक टोस्ट पर मक्खन लगाकर सईद को देते हुए फारिया ने कहा, “दिन अगर यूं ही बीतते जाएं, तो कितना अच्छा हो। मैं जिन्दगी से और कुछ नहीं मांगती, सिर्फ ऐसे दिन मांगती हूं, जो इस टोस्ट की तरह मक्खन लगे हों।”
सईद ने, जो अपनी होने वाली बदनामी के बारे में सोच रहा था, फारिया के चिकने गालों की ओर देखा और उसके दिल के एक कोने में यह इच्छा सरसराई कि वह उठकर उन्हें चूम ले, लेकिन सईद अभी कोई फैसला न कर पाया था कि फारिया मुस्कराती हुई उठी और अपने भरे-भरे होठों को सईद के कांपते होंठों पर चिपका दिया और इसके साथ ही सईद को ऐसा महसूस हुआ, जैसे फारिया को बोझिल होंठों के स्पर्श से झंझोड़कर उसकी आत्मा को स्वतंत्र कर दिया हो और उसने बड़े जोर से फारिया को भींच लिया और दूसरे ही क्षण वे दोनों लोहे के उस पलंग में डूब गए।
फारिया को सईद की हरकतें पसंद आई और उसने अपना बदन ढीला छोड़ दिया।
सहसा सईद को फारिया के इस ढीले समर्पण का अनुभव हुआ और जिस प्रकार थर्मामीटर को बर्फ दिखाने से उसका पारा नीचे गिर जाता है, उसी प्रकार सईद की सारी उष्णता उसके डरपोक मन में सिमट गई और माथे का पसीना पोछता हुआ वह फारिया से अलग हो गया।
फारिया के जज्बात को बड़े जोर का धक्का लगा। भिंची हुई आवाज में उसने केवल इतना कहा, “क्या बात है, सईद?”
“कुछ नहीं,” कहते हुए सईद की गर्दन झुक गई। स्वर लड़खड़ा गया, “मैं…मैं तुम्हारे…..काबिल नहीं हूं।”
यह सुनकर फारिया ने होंठ ममतामयी दुलार से खुले, “डार्लिंग,” कहकर वह उठी अपनी बांहें सईद की गर्दन में डालते हुए बोली, “बेवकूफ मत बनो।”
सईद ने उसी शिथिल स्वर में उत्तर दिया, “मैं खुद नहीं बनता। बेवकूफ या चुगद जो कुछ भी मैं हूं, मेरे माहौल का करिश्मा है,” यह कहते हुए उसने फारिया की बाहें हटाई। अब उसके स्वर में गम भी शामिल हो गया, “मुझमें और तुममें बहुत फर्क है। तुम आजाद माहौल की पैदावार हो जैसा कि तुमने अभी कहा, तुम किसी जगह भी बेझिझक मुझे डार्लिंग कह सकती हो, लेकिन यहां अकेलेपन में भी तुम्हें डार्लिंग कहते हुए मेरी जबान लड़खड़ा जाएगी। तुम जानती हो कि तुम्हारा उपयोग क्या है, लेकिन मुझे मेरा उपयोग कुछ और ही बताया गया है। तुम्हारा जिस्म आजाद है, लेकिन मेरा जिस्म मेरे गलत माहौल की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। तुम मुकम्मल हो और मुझे अधूरा छोड़ दिया गया है।”
फारिया जिसके कानों में अभी तक सईद की हरकतों की प्रतिध्वनि भनभना रही थी, सईद की इन बेसिर-पैर की बातों का कुछ मतलब न समझी। बोली, “न जाने, तुम यह क्या कह रहे हो?”
सईद पलंग पर बैठ गया। जेब से सिगरेट निकालकर उसने फारिया की ओर देखा, जिसके आलिंगन में से वह अभी-अभी निकला था और इस अनुभव से कि अपनी और फारिया की नैसर्गिक इच्छा को उसने अधूरा छोड़ दिया था, उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। बोला, “तुम मेरी उलझी हुई बातें नहीं समझोगी, फारिया, क्योंकि तुम्हारी जिन्दगी के तार बिल्कुल सीधे हैं, लेकिन यहां, मेरे दिमाग में उलझाव के सिवा और कुछ है ही नहीं। मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं और एक बार फिर कहता हूं फारिया, कि मैं तुम्हारे काबिल नहीं हूं।”
“लेकिन क्यों?” फारिया ने चिढ़कर पूछा।
“बताता हूं, लेकिन इससे पहले तुम मुझसे यह पूछो कि क्या मैं तुम्हें अपनी बीबी बनाकर अपने घर ले जा सकता हूँ?”
“लेकिन मैंने तुमसे कब कहा है कि मुझसे शादी करो?”
सईद ने सिगरेट सुलगाया और कुछ सोचकर बोला, “ठीक है, तुमने मुझसे ऐसा नहीं कहा, लेकिन मैंने कई बार अपने दिल से यही सवाल किया और और मुझे हमेशा यही जवाब मिला है कि सईद! तुममें इतना जीवट नहीं है। जब मेरी बात का यही बुजदिलाना जवाब है, तो बताओ मैं किस तरह तुम्हारी मेहरबानियों के काबिल हूं?”
फारिया के जज्बात बोल उठे, “क्या हम शादी के बगैर एक-दूसरे से प्रेम नहीं कर सकते?”
यह सुनकर सईद के दिल में सिमटी हुई उष्णता थोड़ी-सी फैली, लेकिन तुरन्त ही वह फारिया के पहलू में उठ खड़ा हुआ, “नहीं।”
“क्यों?”
“इसलिए कि मैं यहां चोरों की तरह रहता हूं। आज ही की मिसाल ले लो। सिनेमा के बाहर एक रिश्तेदार को देखकर, जिसका नाम भी मुझे मालूम नहीं, मैं बौखला उठा था और मैंने तुम्हें इस तरह नजरअंदाज कर दिया था, जैसे तुम मेरे लिए बिल्कुल अजनबी हो। ऐसे जलील आदमी के साथ रहकर तुम्हें जिन्दगी का क्या लुत्फ मिल सकता है, जो अभी-अभी औरत की प्यार-भरी आगोश14 जैसे ने मत15 को ठुकराकर एक तरह हट गया हैं?”
फारिया मुस्कराती हुई पलंग से उठी और उसने एक बार फिर अपनी बांहें सईद के गले में डाल दी, “तुम बड़े अच्छे हो, सईद, सच बात तो यह है कि मैं ही प्रेम करना नहीं जानती।”
फारिया के इस भोलेपन ने सईद की घायल आत्मा पर एक और कोड़ा बरसाया। उसने बड़ी कोमलता से फारिया के उलझे हुए बाल संवारे और कहा , “नहीं, यह मेरा कुसूर है और मैं एक मुद्दत से इसकी सजा भुगत रहा हूं। तुमसे अलग हुआ, तो यह सजा वामशक्कत हो जाएगी।”
फारिया चीख उठी, “तुम मुझे छोड़ दोगे?”
सईद उत्तर में केवल इतना कह सका, “मुझे अपने-आप से यही उम्मीद है।
फारिया बिलख-बिलखकर रोने लगी। सईद कुछ देर के लिए चुपचाप खड़ा रहा, लेकिन इन गिनती के क्षणों में उसे दिल में सिमटी हुई उष्णता उसके पूरे शरीर में फैल गई। अपनी लाल-लाल आंखों से उसने फारिया की ओर देखा और आगे बढ़कर अपने जलते हुए होंठ उसके होंठों पर दाग दिए और इस बार सचमुच वे दोनों लोहे के उस पलंग में डूब गए।
