Nayi Naukari by Mannu Bhandari
Nayi Naukari by Mannu Bhandari

कब पढ़ाया करूँ, तुम्हीं बताओ? शाम को पाँच से सात बजे का जो समय मिलता है, उसमें वह खेलने जाता है।’तो तुम्हीं बताओ मैं क्या करूँ?’ बालों में हाथ फैरते हुए कुंदन ने बहुत ही मुलायम स्वर में पूछा।
‘कल मुझे पेपर पढ़ना है। पंद्रह दिन पहले टॉपिक मिला था। एक लाइन भी नहीं लिखी है… अब कोई झूठा बहाना ही तो बनाना पड़ेगा।’कुंदन की उँगलियाँ बालों पर से उतरकर गालों पर फिसलने लगीं।‘दस साल पूरे हुए… छ-आठ महीने में अपनी थीसिस सबमिट कर देती तो मेरा सिलेक्शन-ग्रेड में आना निश्चित ही था, पर ऐसी हालत रही तो…’और रमा रो पड़ी। दूर कहीं कुंदन के कानों में डॉ. फिशर के शब्द गूंज रहे थे-जनवरी में जर्मनी से डाइरेक्टर आनेवाले हैं, हमें यहाँ का सारा काम दिखाना होगा। एक नया प्लांट बिठाने की भी योजना है, उसके लिए कुछ रिसपांसिबल लोगों की ज़रूरत होगी… सम स्मार्ट यंग मैन! बिज़नेस में सोशल कांटेक्ट्स पे करते हैं। यू विल हैव टुबी वैरी सोशल।’कुंदन को इन बातों में हमेशा अपने लिए कुछ संकेत, कुछ आश्वासन मिलते।‘लकीली योर वाइफ़…’‘तुम मुझे छोड़ जाया करो। कोई ज़रूरी है कि मैं हर दिन तुम्हारे साथ ही जाया करूँ?’कुंदन कुछ देर उसे यों ही सहलाता रहा, फिर एकाएक उसे बाँहों में भरता-सा बोला-‘तुम्हें छोड़कर आज तक मैं कहीं गया हूँ, जा सकता हूँ? ऑफिस के अलावा हमेशा हम साथ जाते हैं। तुम तो जानती हो कि तुम्हारे बिना मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’रमा खुद इस बात को जानती है। उनका विवाहित जीवन दोस्तों के बीच ईर्ष्या और प्रशंसा का विषय रहा है। समझ नहीं पाई क्या कहे! वह जब तक सो नहीं गई, कुंदन उसे प्यार से थपथपाता रहा था।

‘मेम साहब, पराँठे अभी बनेंगे?’‘…ऐ?’ चौंकते हुए रमा ने पूछा। फिर बोली-‘नहीं-नहीं साढ़े बारह बजे बनाना है, एक बजे हम कॉलेज जाएँगे आज। जितने एक चक्कर बाज़ार का लगा आऊँ और सोफे का कपड़ा लाकर दे दूँ।’ उसने एक बार भीतर जाकर मिस्त्रियों को याद दिला दिया कि आज पॉलिश हर हालत में खत्म कर देनी है।फिर अपनी डायरी देखी। बाज़ार से और क्या-क्या सामान लाना है। कपड़े बदलने अंदर गई तो देखा नौकर ने रैक से सारी किताबें निकाल रखी थीं और पोंछकर जमा रहा था।इनमें से एक भी किताब उसने नहीं पढ़ी है, कुछ पर तो अभी तक अपना नाम भी नहीं लिखा है। कुंदन ने भी जोश में आकर एक दिन में इतनी ढेर-सी किताबें खरीदकर सामने रख दी थीं।बात शुरू दूसरे स्तर पर हुई थी। कुंदन ऑफ़िस से लौटा ही था कि बिना किसी प्रसंग के रमा ने कहा–‘मैं कॉलेज छोड़ दूँगी। इस तरह काम करने से तो नहीं करना ज्यादा अच्छा है।’ स्वर में न कहीं तल्खी थी न शिकायत, बड़े सहज स्वर में उसने कहा था।कुंदन देखता रहा। यही वाक्य था, जिसे उसने अनेक बार अनेक तरह से मन-ही-मन में दोहराया था, पर कहने का मौका नहीं मिला था। अब तो उसे यह और भी ज़रूरी लग रहा था, क्योंकि जनवरी तक उसे अपना सारा घर डेकोरेट करना था…ओरिएंटल स्टाइल पर। फिर भी उसने पूछा-‘क्या बात हो गई?’‘कुछ नहीं।’
कुंदन को इस समय और बात खींचना अच्छा नहीं लगा। चाय का प्याला हाथ में लिए ही लॉन में निकल गया। कैक्टस की जितनी वैराइटी ला सकता था, लाकर फाटक के दोनों ओर बड़ी खूबसूरत रॉकरीज़ बनाई थीं। पर लॉन से वह अभी संतुष्ट नहीं था। चाहता था, लॉन पर्शियन कार्पेट में बदल जाए।
रात में फिर वही प्रसंग चला। कुंदन उससे बचना चाहता था और जानना भी चाहता था कि रमा ने सचमुच ही यह निर्णय ले लिया है या कि केवल कुंदन पर अपना आक्रोश प्रकट कर रही है। पर रमा ने केवल इतना ही कहा, ‘अब निभता नहीं, कल इस्तीफ़ा दे दूँगी।’स्वर के भीगेपन ने कुंदन को भी कहीं से छुआ ज़रूर फिर भी सारी बात को एक हलके मज़ाक में बदलने के लहज़े से उसने कहा, ‘छोड़ो भी यार, वैसे भी क्या रखा है एंशिंएट हिस्ट्री पढ़ाने में! चोल वंश, चेदिवंश के बारे में न भी जानेंगे तो कौनसी जिंदगी हराम हो जाएगी!’
रमा चुप!‘इससे तो तुम खूब किताबें पढ़ो, मैगजींस पढ़ो…कुछ छुटपुट क्लासेज़ अटेंड कर लो। बंटी को पढ़ाओ। दुनियाभर के बच्चों को पढ़ाओ और अपना बच्चा निगलेक्ट हो…’

रमा चुप!कुंदन उस चुप्पी पर खीज आया, फिर भी अपने स्वर को भरसक संयत बनाकर बोला, ‘तुम्हें शायद लग रहा है कि मेरी वजह से, इस नई नौकरी की वजह से तुम्हें अपना काम छोड़ना पड़ रहा है…पर यह तो सोचो, मुझे ही इस नौकरी में क्या दिलचस्पी है? तुम्हारे लिए, बंटी के लिए…’‘मैंने तो ऐसा नहीं कहा। मैं तो यही सोच रही थी कि आख़िर मेरे मन के संतोष के लिए क्या होगा?’‘मेरा संतोष, तुम्हारा संतोष नहीं है, मेरी तरक्की, तुम्हारी तरक्की नहीं है?’‘है क्यों नहीं? मेरा यह मतलब नहीं था। दस साल से काम कर रही थी…छोड़ दूँगी तो मेरा मन कैसे लगेगा?’‘मैं तो सोचता हूँ, तुम्हें यह सब सोचने का समय ही नहीं मिलेगा।’ और शाम को उसने तीन बंडल किताबें लाकर सामने रख दी थीं।और सचमुच उसके बाद उसे यह सब सोचने का समय ही कब मिला? आज भी मिसेज़ बर्मन के टेलीफ़ोन ने ही उसे कॉलेज की याद दिलाई, वरना…
सारे दिन गाड़ी में घूम-घूमकर उसने घर का सामान खरीदा है। पर्दों के लिए उसने लूमवालों से यह तय किया कि चालीस गज़ कपड़ा बनाकर वह उस डिज़ाइन को नष्ट कर देंगे, जिससे उसके जैसे पर्दे और कहीं देखने को भी न मिलें। डिज़ाइन भी उसने खुद पसंद करके बनवाया था।
राजस्थान की किसी रियासत का बहुत-सा सामान नीलाम हुआ था। कितने दिनों तक वह वहाँ जा-जाकर बैठी थी-पुरानी पेंटिग्ज़, झाड़-फानूस और भी सजावट की छोटी-मोटी चीजें उसने खरीदी थीं।
आज दरवाज़ों का पॉलिश समाप्त हो जाएगा तो सारा सामान जमाना है। डाइरेक्टर मुंबई आ गए हैं, अगले सप्ताह तक यहाँ आ जाएँगे, तब तक वह सब जमा लेगी। ‘इंटीरियर डेकोरेटर्स’ वालों के यहाँ से एक आदमी बराबर आता रहा है। तभी उसे फ़ोन का ख़याल आया।
लाइन एंगेज्ड थी।वह बाहर जाने के लिए निकल ही रही थी कि टेलीफ़ोन की घंटी बजी। रमा ने रिसीवर उठाकर अपना नंबर बोला, ‘ओह, मैं सोच रहा था, तुम कहीं मार्केट के लिए नहीं निकल गई होओ।’

‘बस निकल ही रही थी।’

‘सुनो डार्लिंग, लंच पर मेरे साथ एक साहब होंगे, यहीं के हैं, बहुत फॉर्मल होने की ज़रूरत नहीं है, बस ज़रा-सा देख लेना। डेकोरेटर को फोन किया?’

किया था, पर लाइन नहीं मिली, लौटकर फिर करूँगी।’‘ओ.के.।’ खट!रसोई में जाकर रमा ने कहा, ‘थोड़ी सब्जियाँ उबालकर इन उबले हुए आलुओं में मिला दो। पराँठे नहीं बनेंगे, वेजिटेबिल कटलेट बना देना!’
फिर उसे फ्रिज खोलकर देखा-सब-कुछ था। जब वह कॉलेज जाती थी तो कुंदन का लंच ऑफ़िस जाता था, पर आजकल वह लंच के लिए घर ही आ जाता है।पहली तारीख! लंच के लिए कुंदन आया। जब भी वह घर आता, एक बार सारे घर का चक्कर लगाता। इस नई साज-सज्जा को हर एंगिल्स से देखता…और उसके चेहरे पर एक संतोषमय, गर्वयुक्त उल्लास चमकने लगता। कभी-कभी इसी उल्लास में रमा को बाँह में भरता हुआ कहता, ‘यू आर रीयली वंडरफुल!’ यों खुले में चूमने की मर्यादा वह तोड़ नहीं पाया था, उसी से केवल उसे दबाकर छोड़ देता।पूरा चक्कर लगाकर बोला, ‘आई थिंक एवरी थिंग इज़ इन ट्यून! क्यों?’कलफ लगा नैपकिन फड़फड़ाता हुआ उसकी गोद में फैल गया।‘अब कोई आए, मुझे चिंता नहीं। पाँच तारीख को डाइरेक्टर आ रहे हैं-मैं इस बार एक बड़ी पार्टी घर पर ही करूंगा।’रमा खाती जा रही थी और उसकी प्लेट का ध्यान भी रख रही थी। जो चीज़ ख़त्म हो जाती, रख देती।‘बस यार, वो रोब पटकना है कि डाइरेक्ट की नज़रों में जम जाऊँ… एक बार ये लोग इंप्रेस हो जाएँ तो रास्ता साफ़ है। डॉ. फिशर तो जब भी कोई मौक़ा आएगा, मेरे फेवर में ही राय देंगे।’रमा कुंदन के बच्चों-जैसे पुलकमय आवेश पर मंद-मंद मुस्कराती रही।‘मेम साहब, आपका फोन है।’
‘किसका है? बोलो बाद में करें। मेम साहब इस समय लंच ले रही हैं।’कुंदन इस समय रमा को वह सारी बातें सुनाना चाहता था, जो आज उसके और फ़िशर के बीच हुई थीं। कितने स्पष्ट थे सारे संकेत, फिर भी वह अपने अनुमानों का रमा से समर्थन करा लेना चाहता था।

‘कॉलेज से मिसेज़ बर्मन का है।’ बैरा लौटने लगा।

‘अरे ठहरो!’ और रमा एकदम उठ खड़ी हुई।
बातें शुरू हुईं तो वह भूल ही गई कि कुंदन खाने की मेज़ पर बैठा है और वह खाना बीच में ही छोड़कर आई है।‘अरे डार्लिंग, आओ न! तुम औरतों का भी बस एक बार चरखा चल जाए तो ख़त्म ही नहीं होता।
रमा लौट ही रही थी-‘चरखा क्या, कोई इतने अपनेपन से बुलाए तो मैं ठीक से बात भी न करूँ! यह भी कोई बात हुई भला?’‘अच्छा-अच्छा, अब अपना खाना ख़त्म करो।’‘तुम्हारा हो गया तो तुम उठो न!’
‘नो…नो…यह कैसे हो सकता है भला?’खाने के बाद कॉफ़ी लेकर, ईजी चेयर पर आराम करते हुए कुंदन ने सिगरेट सुलगा ली और गोल-गोल छल्लों के रूप में धुआँ उगलता रहा। फिर रोज़ की तरह पाँच मिनट के लिए आँख मूंद लीं। रमा अखबार पलटने लगी।‘अब चलें।’ झटके से कुंदन उठ खड़ा हुआ।
कोट उठाया तो तनख्वाह की याद आई। भीतर की जेब से नोट के दो बंडल निकाले-एक बड़ा, दूसरा छोटा।
‘अरे यह क्या, तनख्वाह ले आए? आज क्या पहली तारीख़ हो गई?’ रमा को आजकल तारीख़ और दिनों का कुछ ख़याल ही नहीं रहता।‘ये आया, बैरा और खानसामां के हैं। अस्सी, अस्सी और सौ?’ छोटा बंडल बढ़ाते हुए कुंदन ने कहा। रमा ने बंडल ले लिया।‘और यह तुम्हारा है।’ फिर ज़रा-सा झुककर बोला।
‘अब जो मुनासिब समझो, इस गुलाम को पान-सिगरेट के लिए दे देना।’ और हँस पड़ा। रमा भी मुस्कुरा दी।
‘बा…बाई…’ और लाल बजरी की सड़क पर तैरती हुई कुंदन की कार रमा को वहीं छोड़कर आगे चली गई।

***