फ़ोन उठाकर उसने नंबर बोला, ‘कौन , मिसेज़ बर्मन? कहिए-कहिए, क्या खबर है?’
मिसेज़ बर्मन शिकायत कर रही थीं, कॉलेज छोड़े महीना होने आया, एक बार सूरत तक नहीं दिखाई। आउट ऑफ साइट…’‘अरे नहीं-नहीं,’ रमा ने बात बीच में ही काट दी। उसने थोड़ा-सा झुककर कोहनी मेज़ पर टिका ली। उलटे हाथ में पैंसिल लेकर वह फोन का संदेशा लेने के लिए जो पैड रखा था, उस पर यों ही आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने लगी।‘आज लंच के समय आओ न, साथ बैठकर खाएँगे। तुम्हारे चले जाने से हमारा डिपार्टमेंट तो सूना ही हो गया। लंच के समय तो तुम्हें बहुत ही मिस करते हैं। और एक तुम हो कि जाने के बाद खबर तक नहीं ली…।’‘क्या बताऊँ, इस नए घर को ठीक कराने के चक्कर में इतनी व्यस्त रही कि उधर आ ही नहीं सकी। अच्छा यह बताइए सुधा, मालती, जयंती सब कैसे हैं?’‘कहा न, आज आ जाओ। सबसे मिल भी लेना, खाना भी साथ खाएँगे।’‘आज?’ और एक क्षण को मन के भीतरी-स्वर पर आज के सारे कामों की लिस्ट तैर-सी गई–‘आज तो संभव नहीं होगा मिसेज़ बर्मन!’ क्षमायाचना के-से स्वर में वह बोली, ‘बस एक सप्ताह और ठहर जाइए, फिर अपने इस नए घर की पार्टी दूँगी…देखिए अपनी रमा का कमाल…देखेंगी तो समझेंगी कि एक महीने तक क्या करती रही।’ फिर और दो-चार इधर-उधर की बातें और हलकी-फुलकी-सी मज़ाक हुई और रमा ने फ़ोन रख दिय
फोन रखने के बाद नए सिरे से इस बात का बोध हुआ कि कॉलेज छोड़े उसे अट्ठाईस दिन हो गए। जाना तो दूर, उसे कभी खयाल भी नहीं आया वहाँ का। आश्चर्य के साथ-साथ उसे थोड़ी-सी ग्लानि भी हुई : वह क्यों नहीं गई, कैसे रह सकी बिना गए। आज बर्मन का फोन नहीं आता तो पता नहीं और भी कितने दिनों तक उसे उधर का ख़याल ही नहीं आता। क्या सचमुच वह बड़े अफसर की बीवी बन गई हैं? उसे मज़ाक में कसा हुआ जयंती का रिमार्क याद आया। एकाएक मन हुआ कि अभी चल पड़े। एक बार सबसे मिल ही आए। मना करने के बाद पहुँचकर वह सबको प्लेजेंट सरप्राइज़ देगी। उसने रसोई में जाकर दस-बारह आलू के पराँठे और चाट तैयार करने को कहा। ये दोनों चीजें वहाँ सबको बहुत पसंद थीं। सारे डिपार्टमेंट में वह और मिसेज़ बर्मन ही विवाहित थी…बाकी सब कॉलेज हॉस्टल में रहती थीं और अच्छी-अच्छी चीजें खाने की उनकी फर्माइशें बनी ही रहती थीं।
उसे अपनी फेयरवैल पार्टी की याद आई। साढ़े दस साल की सर्विस थी। प्रिंसीपल ने अनेकानेक शुभकामनओं के साथ फूलों के बड़े-से गुलदस्तों के बीच पार्कर पैन का एक सैट रख दिया था-‘मिसेज़ चोपड़ा, आप इसी पैन से अपनी थीसिस पूरी करिए। जब भी वापस काम करने का मन हो, बिना किसी संकोच के चली आइए, यहाँ आपका हमेशा ही स्वागत है।’ उसके डिपार्टमेंट की सभी लैक्चरर्स गाड़ी तक छोड़ने आई थीं-‘भई रमाजी, कॉलेज भले ही छोड़ दीजिए, लंच के समय खाना लेकर ज़रूर आ जाया करिए तो उसकी नम आँखों में भी हँसी चमक उठी थी। तब उसे कुंदन की बात याद हो आई थी-‘तुम वहाँ पढ़ाने जाती हो या खाने! फ़ोन पर भी जब तुम लोगों की बातें होती हैं तो खाना ही डिस्कस होता है।’ उसने केवल उन लोगों से ही नहीं कहा था, बल्कि मन में भी सोचा था कि लंच के समय वह कॉलेज चली ही जाया करेगी। आखिर उसे भी तो अपने को कॉलेज से एकदम काट लेने में काफी कष्ट होगा…इस तरह धीरे-धीरे तो फिर भी…तो क्या कुंदन ने
ठीक ही कहा था? कॉलेज छोड़ने का निर्णय लेकर वह चुपचाप रो रही थी और कुंदन उसे समझा रहा था मैं कह रहा हूँ, तुम्हें कतई अकेलापन नहीं लगेगा, तुम ज़रा भी कमी महसूस नहीं करोगी; रादर यू विल फ़ील रिलीव्ड। कितना स्ट्रेन है तुम पर आजकल!
कुंदन को एकाएक विदेशी कंपनी में इतनी बड़ी नौकरी मिल जाएगी, इसकी आशा औरों को चाहे रही भी हो, कुंदन को बिल्कुल नहीं थी। डॉ. फिशर से पिछले आठ-साल से उसके संबंध थे, विशुद्ध व्यावसायिक संबंध। उनकी प्रशंसा और सद्व्यवहार को भी वह व्यावसायिक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं मानता था पर…
दस-बारह दिन तक केवल जश्न ही मनाया था रमा और कुंदन ने। पैसे की उसे इतनी लालसा नहीं थी, पर मारवाड़ी कन्सर्न का काम उसके टेंपरामेंट के बिल्कुल अनुकूल नहीं था। रमा इस नए माहौल से नितांत अपरिचित नहीं थी-क्लब, डांस, डिनर, कॉक्टेल यह सब वह बचपन से देखती आई थी, पर बस देखती ही आई थी, उसमें अपने को कभी घुला नहीं पाई थी। डॉ. फ़िशर ने कुंदन को नौकरी ही नहीं दी थी, धीरे-धीरे वे उसकी सारी जिंदगी का पैटर्न भी तय कर रहे थे। उसे दो-तीन क्लबों में मेंबर बनना पड़ा। आए-दिन दूसरी कंपनियों के बड़े-बड़े अफसरों को एंटरटेन करना पड़ता। विदेशियों को हिंदुस्तानी खाना खिलाने के बहाने उसे घर में भी बड़ी-बड़ी पार्टियाँ करनी पड़तीं और तीन महीने पहले उसे कंपनी की ओर से यह फ़्लैट मिल गया। उसने सोचा, वह अपने इस नए घर को निहायत ही ओरिएंटल ढंग से सजाएगा, विदेशियों के लिए तो यही नवीनता होगी।
पर घर के लिए नया फ़र्नीचर बनवाने, चुन-चुनकर चीजें खरीदने के लिए दोनों में से किसी के भी पास समय नहीं था। कुंदन चाहता था, यह काम रमा को ही करना चाहिए। क्योंकि यह काम उसी का था…फिर उसकी सुरुचि और सुघड़ता के तो हल्ले भी थे मित्रों के बीच में, पर रमा के पास समय ही नहीं रहता। सबेरे उठकर वह बंटी को तैयार करके स्कूल भेजती। फिर खुद तैयार होती। तैयार होते-होते ही वह नौकर को आदेश देती जाती, सारे दिन का काम-समझाती; नाश्ता करते-करते वह अपना लैक्चर तैयार करती, तैयार तो क्या करती बस सूंघ-भर लेती। फिर नौ बजे कुंदन के साथ ही निकल जाती। तीन के करीब वह लौटती…थोड़ा अराम करती और फिर शाम की तैयारी। बाहर नहीं जाना होता था तो घर में किसी का आना रहता था।
रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह पर वह सोती तो थककर चूर हो जाती। कुंदन को उस समय हलकी-सी खुमारी चढ़ी रहती, कहता-‘डोंट बी सिली। पार्टी में कैसे थक जाती हो, गाड़ी में बैठकर जाती हो…खाना-पीना, हँसी-मज़ाक, इनमें भी कहीं थका जाता है? गाड़ी में बिठाकर ले आता हूँ।’
रमा तब केवल सूनी-सूनी आँखों से उसे देखती रहती। मन की भीतरी परतों पर हिस्ट्री के वे टॉपिक्स तैरते रहते, जो उसको कल पढ़ाने होते, और जिन्हें वह ज़बरन ही दिमाग से बाहर ठेलने का प्रयास करती। कुंदन उसे बताता रहता कि डॉ. फिशर उससे कितने खुश हैं, कितना इम्प्रेस कर रखा है उसने; एकाएक उसे अपना भविष्य बहुत उज्जवल दिखाई देने लगा है। पता नहीं थकान के कारण या किसी और वज़ह से वह उतना उत्साह नहीं दिखा पाती तो कुंदन बिगड़ पड़ता-‘क्या बात है, देखता हूँ तुम्हें कोई दिलचस्पी ही नहीं है मेरे राइज में..यू सीम टू बी…’
‘क्या बेकार की बातें करते हो, मुझे नींद आ रही है।’कभी कुंदन फ़ोन पर कह देता कि ठीक सात बजे तैयार होकर रहना और आकर देखता कि वह तैयार हो रही है तो बिगड़ पड़ता-‘रमा, तुम्हें टाइम की सेंस कब आएगी…कभी घर पर खाना होता और कोई कसर रह जाती तो रात में बड़े सँभलकर कहता–’मैं यह नहीं कहता कि तुम खाना बनाओ…तीन-तीन नौकर तुम्हारे पास हैं, पर ज़रा-सा देखभर लिया करो।’ ऐसे मौकों पर रमा कुछ नहीं कहती।उस दिन कॉलेज में रमा को एक पेपर पढ़ना था। उसने खुद ही ऑफर किया था। सोचा था, इसी बहाने एक टॉपिक तैयार हो जाएगा, पर बिल्कुल भी तैयार नहीं कर पाई। रात में लेटी तो रोना आ गया।‘मुझसे यह सब निभता नहीं।’ लौटकर बिना कपड़े बदले ही कटे पेड़ की तरह पलंग पर गिरकर उसने कहा।‘क्या नहीं निभता?’‘यह रवैया मेरे बस का नहीं है। कितना गिल्टी फ़ील करती हूँ। बिना तैयारी किए पढ़ाना, लगता है जैसे लड़कियों को चीट कर रही हूँ। दो घंटे का समय भी मुझे अपने लिए नहीं मिलता।’
कुंदन सोच रहा था कि रात में रमा के साथ वह एक-एक कमरे को अरेंज करने की योजना बनाएगा। कलर-स्कीम के लिए उसने जेन्सन-निकलसनवालों से बात की थी। रमा की बात सुनी तो चुप रह गया।‘बंटी की रिपोर्ट देखी? हमेशा फर्स्ट आया करता था, इस बार सेविंथ आया है।’बगल में लेटकर, रमा को अपनी ओर खींचते हुए कुंदन ने बहुत प्यार-भरे लहजे में कहा-‘तो तुम उसे पढ़ाया करो!’
नई नौकरी: मन्नू भंडारी की कहानी
