Hindi Story: टाई की नॉट ठीक करते हुए कुंदन आदेश देता जा रहा था-‘सोफे का कपड़ा कम पड़ गया है, तुम खुद लाकर दे देना। इनके जिम्मे कर दिया तो समझो सब चौपट। दरवाज़े-खिड़कियों का वार्निश आज ज़रूर पूरा हो जाना चाहिए और देखो, प्लंबर आएगा तो जहाँ-जहाँ के नल और पाइप खराब हों, सब ठीक करवा लेना।’
रमा पीछे खड़ी सामने के आईने में पड़ते कुंदन के प्रतिबिंब को देख रही थी। उसे लग रहा था, नई नौकरी के साथ कुंदन की सारी पर्सनेलिटी ही नहीं, बात करने का लहजा तक बदल गया है। कितना आत्मविश्वास आ गया है सारे व्यक्तित्व में। रौब जैसे टपका पड़ता है।
होंठों के कोनों में चुरुट दबाए, जाने से पहले उसने सारे घर का एक चक्कर लगाया। यह भी रोज़ का एक क्रम हो गया था। पीछे के बरामदे में दर्जी सोफे के कवर्स की सिलाई कर रहा था। कुछ दूर खड़ा मिस्त्री, छोटे-छोटे टिनों में वार्निश तैयार करते लड़के को कुछ आदेश दे रहा था। कुंदन को देखकर उसने सलाम ठोका। ‘अब्दुल मियाँ, काम आज पूरा हो जाना चाहिए, तुम्हारा काम बहुत स्लो चल रहा है।’
‘काम भी तो देखिए सरकार! समय चाहे दो दिन ज़्यादा लग जाए, पर आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा। मैं साहब काम की क्वालिटी पर…’‘अच्छा…अच्छा…’ कुंदन लौट आया। ड्राइंग-रूम के पार्टीशन पर नज़र पड़ते ही कहा- ‘इंटीरियर डेकोरेटर्स’ वालों के यहाँ फ़ोन ज़रूर कर देना। यह पार्टीशन बिल्कुल नहीं चलेगा। डिज़ाइन क्या बताया था, बनवा क्या दिया, रबिश।’
कुंदन गाड़ी में बैठा। रमा पोर्टिको की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ी थी। उसे लगा, जाने से पहले एक बार वह फिर सारे आदेशों को दोहराएगा, पर नहीं। गाड़ी स्टार्ट करके खिड़की से ज़रा-सा हाथ निकालकर हलके से हिलाते हुए कहा-‘अच्छा, बा…बाई, तो उसे खयाल आया कि यह तो उसकी आदत थी कि गाड़ी में बैठकर चलने से पहले वह नौकर के सामने बताए हुए सारे काम फिर से दोहरा दिया करती थी।
तब कुंदन हँसता हुआ कहता था-‘बस भी करो यार, अब कितनी बार दोहराओगी। तुम इतनी बार कहती हो इसी से वह गड़बड़ा जाता है।’गाड़ी लाल बजरी की सड़क पर तैरती हुई फाटक से बाहर निकली और दूर होती हुई अदृश्य हो गई। रमा को लगा जैसे कुंदन उसे पीछे छोड़कर आगे निकल गया है…बहुत आगे। जैसे वह अकेली रह गई है। एक महीने पहले वह भी कुंदन के साथ ही निकला करती थी, कुंदन उसे कॉलेज छोड़ता हुआ ऑफ़िस जाया करता था। पर अकेलेपन की यह अनुभूति तभी तक रहती, जब तक वह पोर्टिको में खड़ी रहती। जैसे ही फ्लैट का दरवाज़ा खोलकर वह भीतर घुसती-लक-दक फर्नीचर, शीशों के दरवाज़ों और खिड़कियों पर झूलते लंबे-लंबे परदे, मिस्त्रियों की खटपट, नए-नए डिस्टेम्पर और वार्निश की हलकी-सी गंध के बीच न जाने कहाँ डूब जाती। काम की एक लिस्ट उसके पास होती, जिन्हें उसे पूरा करना होता; काम करते मिस्त्रियों को देखना होता; मार्केट के दो-एक चक्कर लगाने होते…और यह सब करते-करते ही शाम हो जाती! ट्रिंग-ट्रिंग…टिंग-ट्रिंग…
नई नौकरी: मन्नू भंडारी की कहानी
