Chhat Banaanevaale by Mannu Bhandari
Chhat Banaanevaale by Mannu Bhandari

‘अब तो हो ही गई बड़ी, पर पेट में से तो डॉक्टर होकर नहीं निकली थी।’ ताऊजी भभकते, फिर बड़े खेद और असंतोष से सिर हिलाते हुए कहते, ‘हमारी तो कुछ समझ में नहीं आता कि रामेश्वर ने यह सारे घर का सिलसिला क्यों बिगाड़ रखा है। लड़कियों को कहीं यों छूट दी जाती है? लगता है रामेश्वर ने बच्चों की तरफ़ से आँख मूंद ली है। कच्ची उमर में बच्चों का भविष्य उसके हाथ में छोड़ देने से तो ऐसा ही होता है।’ फिर एकाएक स्वर को गिराकर बोले, ‘तुम विश्वास नहीं करोगे, छोटू ने इस घर में कम तुफैल नहीं मचाए थे। मैट्रिक में फर्स्ट पोजीशन क्या आ गई, अपने को लाटसाहब ही समझने लगा था। आगे पढ़ने के लिए बाहर जाएँगे, घर में नहीं रहेंगे, दुकान पर नहीं बैठेंगे।’ फिर एकाएक वे कुछ आत्मीय बातें करने के मूड में आ गए। ज़रा सामने झुककर, शरद को विश्वास में लेते से बोले, ‘प्रेम-व्रेम के चक्कर में भी पड़ गए थे। वो बावेला मचाया घर में कि बस। कोई कायस्थों की छोकरी थी, आवारा-सी।’ एकाएक शरद की जिज्ञासा जागी, पर पता नहीं उन्होंने शरद के सामने वह सब कहना उचित नहीं समझा या कि वह प्रसंग दोहराना ही उन्हें अरुचिककर लगा सो उन्होंने बात को वहीं तोड़कर उसका सार निचोड़कर सुना दिया, ‘सो भैया, घर है तो ऊँच-नीच तो लगी ही रहती है। ज़माने की हवा है तो बच्चे उससे अछूते थोड़ी ही रहते हैं, पर घर का जमा जमाया एक सिलसिला हो तो सब ठीक हो जाता है। बच्चे जब भटकने लगें उस समय भी यदि उन्हें ठीक से गाइड न कर सकें तो लानत है हमारे माँ-बाप होने पर।’ और एकाएक ताऊजी ने डंडा मेज़ पर जमाया तो चमड़े की वह जीभ एक बार फिर हवा में लपलपा उठी। शरद को लगा कि प्रतिवाद करने के लिए यदि उसने चूँ भी की तो यह जीभ उसे निगल ही लेगी।

पुराने एसोसिएशंस ताज़ा होते ही शरद को जैसे लिखने का मूड आ गया। देखे हुए स्थानों का एक-एक डिटेल वह अपनी डायरी में नोट करने लगा। सिनेमा के ट्रेलर की भाँति नीचे से मोटू-छोटू और ताईजी की बातों के प्रसंगहीन टुकड़े उसके कानों में पड़ते रहते। ‘अम्मा, महादेव जी के मंदिर में एक बड़े चमत्कारी महात्मा आए हैं, उन्हीं से लेकर ताबीज बाँधो, वैद्य-हकीमों से यह गठिया नहीं जाएगी’… मोटू भैया, हाथरसवालों को मैंने जवाब दे दिया कि बिना जायचा जुड़ाए तो हम संबंध नहीं कर सकेंगे‘…’शंकरलाल के लड़के ने किसी बंगालिन से शादी कर ली… माँ-बाप बेचारे झक मार रहे हैं?… ‘हरदेई चाची के मरने पर बेटों ने कह दिया हम तेरहवीं नहीं करेंगे।’… सीमेंट के बीस थैलों का इंतजाम और हो गया है, अब काम शुरू करवा देना चाहिए… मजदूरों के दिमाग भी आजकल आसमान पर चढ़ रहे हैं…’पर जैसे ही ताऊजी आते, सारे घर में उनका स्वर गूँजने लगता और बाकी स्वर जैसे उसी में डूबकर रह जाते… ‘मैं कहता हूँ, इन लल्ला, मुन्ना को तो कुछ सिखाया करो, औंधे लेटकर पढ़ रहे हैं, यह कोई ढंग है पढ़ने का? तुम लोगों को हमने होशियार कर दिया, अब इन्हें तो तुम देखो-भालो!’ दुनिया भर के आदेश, दुनिया भर की हिदायतें।‘आज बाहर नहीं गए?’ ऊपर चढ़ते हुए ताऊजी ने पूछा।

‘बस यों ही कुछ लिखने बैठ गया।’ पैन बंद करके कुर्सी से ज़रा-सा उठते हुए शरद ने दरवाजे पर खड़े ताऊजी का स्वागत किया।‘शाम को सब लोगों से मिल-मिला आता हूँ, इसी बहाने थोड़ा घूमना भी हो जाता है।’
शरद चुप रहा और वह बाहर छत की ओर देखने लगे। धूप छत पर से कभी की सिमट चुकी थी, इस समय हवा में थोड़ी ठंडक भी आ गई थी। ‘हवा यहाँ खूब चलती है।’ फिर एक मिनट ठहरकर पूछा ‘रामेश्वर मकान-वकान बनवा रहा है या नहीं?…’ शरद को लगा अब वे अपने मकान की बात करेंगे।‘हमने तो भाई, सिर छिपाने और पैर टिकाने के लिए यह मकान बनवा लिया।’ होंठ दबा लेने के कारण शरद की हँसी मुस्कराहट बनकर रह गई। कुछ भी हो, अपने मकान की होड़ नहीं, क्यों?’समर्थन के अतिरिक्त शरद के पास कोई चारा नहीं था।
‘दो कमरे छोटू के लिए, दो मोटू के लिए। बिलकुल अलग। अब न किसी का लेना, न देना। साथ रहकर भी हमारे यहाँ सब स्वतंत्र हैं। मैंने नियम बना दिया है कि रात नौ बजे के बाद कितना ही जरूरी काम हो, बेटे और बहुओं को उसके कमरों से नहीं बुलाया जाएगा। फिर काम भी ऐसा बाँट रखा है कि झगड़े की कोई बात नहीं।’ फिर गर्दन जरा आगे की ओर झुकाकर पूछा, ‘तुम्हें आए तीन दिन हो गए, कभी देखा तुमने बहुओं को लड़ते हुए? सुनी उनकी तू-तू मैं-मैं?’शरद को पहली बार ख़याल आया कि उसे तो आज तक यह भी नहीं मालूम पड़ा कि मोटू की बहू कौनसी और छोटू की कौनसी। उसके कमरे की खिड़की से नीचे के आँगन का जो थोड़ा-सा भाग दिखाई देता है, वहीं से उसे कभी-कभी रंगीन साड़ियों की झलक मिल जाती है, न भी मिलती है तो दूसरे दिन आँख खुलते ही सामने तार पर फैली हुई साड़ियों से वह अनुमान लगा लेता है कि कल ये ही साड़ियाँ उनके शरीरों पर रही होंगी।

‘सो भैया, हमने तो शुरू से ही ऐसा सिलसिला बिठा दिया कि झगड़े-टंटे की कोई गुंजाइश ही नहीं।’ फिर सामने रखी सीमेंट की बोरियों की ओर देखकर बोले, ‘भाग-दौड़ करके सीमेंट इकट्ठी की, कि अपने रहते-रहते ऊपर की मंज़िल भी बनवा दूं। कौन जाने आगे क्या हो? यों भी अब छोटू-मोटू के बच्चे बड़े हो रहे हैं। मैंने तो इसी इरादे से छतें छोड़ दी थीं, बच्चे जब तक छोटे रहें,खेल-कूद लें, बड़े होने लगें तो सिर पर छतें डलवा दो, कमरे बन गए।’ और अपनी ही दूरदर्शिता पर वे मंद-मंद मुस्कराते रहे। फिर एकाएक उठते हुए बोले, ‘कौन जाने इनके बड़े होने तक हम जिंदा भी रहेंगे या नहीं, सो सिलसिला बिठा ही दूँ।’आँख खुलते ही शरद ने पहली बात सोची कि आज वह चल देगा। दो बार ज़ोर की अंगड़ाई लेकर वह छत पर निकला तो देखा, सारी छत पर धूप फैली हुई है। सामने सीमेंट की बोरियों के चारों ओर ईंट के ढेर लगा दिए गए हैं। ज़रा-सा नीचे झाँका तो देखा कि छोटू कमर में पाँयचे खोंसे, कमीज़ की बाहें मोड़, हाथ में पानी की बाल्टी लिए खड़ा है और फेंटा-सा कसे बिट्टी सींक की झाडू से ‘शटाक्-शटाक्’ करती आँगन धो रही है। शरद को देखते ही बोला-
‘उठ गए पन्ना भैया? आइए आप जल्दी से निपट लीजिए, आपका नाश्ता रखा है।’
‘बड़े जोरों से धुलाई हो रही है।’ शरद के नीचे उतरते ही बिट्टी सिमटकर एक ओर खड़ी हो गई। दोनों बच्चे लोटे भर-भरकर पानी डाल रहे थे।

‘आज मकान का मुहूर्त है सो सत्यनारायण की कथा करवाई है। कल से ऊपर की मंज़िल का काम शुरू हो जाएगा। आप बाहर निकलें तो जल्दी आइएगा भैया।’ छोटू के स्वर में उत्साह जैसे छलका पड़ रहा था।‘आज तो यार, हम जाने की सोच रहे हैं।’‘नहीं भैया, शंकर पंडित की कथा सुनने तो लोग दूर-दूर से आते हैं। आप कल जाइएगा।’दूसरे दिन शरद कमरे में अपना सामान ठीक कर रहा था। बाहर छत पर मजदूर गीली सीमेंट की तगारियाँ भर-भरकर दूसरी ओर ले जा रहे थे। धोती की तहमद बाँधे ताऊजी खड़े-खड़े उसी कमांडरी लहजे में आदेश देते जा रहे थे और मुन्ना ईंट के ढेर पर खड़ा होकर चहक रहा था, ‘देखो लल्ला भैया, हम कित्ते ऊँचे पहाड़ पर…यहाँ से तो हम आसमान को छू भी लेंगे।

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