Chhat Banaanevaale by Mannu Bhandari
Chhat Banaanevaale by Mannu Bhandari

‘जी वो…’ शरद कुछ कहने ही जा रहा था कि बीच में ही वे दहाड़ उठे. ‘जी क्या, घर होते हुए तुम होटल में ठहरोगे? होटल भी कोई भले आदमियों के ठहरने की जगह होती है? रामेश्वर बड़ा शहरी हो गया है, अपनापन अब उसमें रहा ही नहीं। वरना जब यहाँ था तो घरों के बीच में ज़रूर दीवार थी, पर हम लोगों के मन एक थे। तुम्हें तो क्या याद होगी उन दिनों की? मुश्किल से नौ बरस के रहे होंगे।’ और जैसे उनकी आँखों के आगे वे ही दिन उभर आए। ‘छोटू-मोटू, पन्ना-मोती, दशरथ के चारों बेटों की तरह रहते थे।’ उसके चेहरे पर ममतामय उल्लास चमकने लगा। शरद, मोटू-छोटू के बारे में पूछने ही जा रहा था कि तभी ठोड़ी तक घूँघट निकाले एक महिला दरवाज़े पर आकर ठिठक गई, इस दुविधा में कि भीतर घुसे या नहीं।‘आओ…आओ…देखो, पहचानती हो इन्हें?’शरद ने हाथ जोड़कर उठते हुए बड़ी विनम्रता से कहा, ‘नमस्ते ताईजी।’पर इस संबोधन से भी वे शायद पहचान नहीं पाईं, सो ज्यों-की-त्यों खड़ी रहीं।‘अरे पन्ना है, पन्ना। नहीं पहचान सकीं न? अपने रामेश्वर का बड़ा बेटा।’ और ताऊजी ‘हो-हो’ करके हँस पड़े।‘ओह, पन्ना है! खबर नहीं दी भैया? कोई लिवाने चला जाता।’ और भीतर आकर ताईजी ने शरद की पीठ पर हाथ फेरा। ताऊजी के मुकाबले में ताईजी की आवाज़ बड़ी धीमी और मुलायम लगी।‘नहीं, कोई जाता तो तकलीफ़ होती। ये शहरी लोग हैं, आराम-तलब। इन्हें हर बात में तकलीफ़ दिखाई देती है।’ स्नेह ने व्यंग्य के पैने किनारे को इतना मुलायम बना दिया था कि बात मन में कहीं चुभी नहीं।‘रामेश्वर लाला अच्छे हैं? अम्मा, मोती, हीरा…’

‘अब तो आप घूँघट खोल दीजिए ताईजी।’ शरद को इस घूँघट से बड़ी उलझन हो रही थी।

‘भई, मेरठ छोटा-सा शहर है, यहाँ बड़े शहरों जैसी बेशर्मी तो चलती नहीं। फिर हमारे घर की तो…’

‘पर मैं तो मोटू-छोटू की तरह हूँ ताऊजी।’ ‘नहीं…नहीं…’ ताऊजी नकारात्मक भाव से सिर हिलाते हुए बोले, ‘अपना जाया बेटा भी जब जवान हो जाता है तो…नहीं, नहीं, यह सब मुझे पसंद नहीं।’ शरद को बड़ा अजीब-सा लगा। फिर एकाएक प्रसंग बदलकर वे ताईजी से बोले, ‘अब तुम कुछ दूध-लस्सी का सिलसिला तो बिठाओ। और हाँ सुनो, छोटी-बड़ी बहू को कहो कि पन्ना के लिए ऊपर का कमरा तैयार कर दें।’ शरद ने आवाज़ की बुलंदी और रोब को भीतर तक महसूस किया और उसे लगा कि ताऊजी केवल हुक्म ही दे सकते हैं। कभी इन्हें किसी के सामने याचना करनी पड़े तो? उस समय कैसा रहा होगा इनका स्वर?ताईजी लौट गई। ‘मोटू-छोटू कहाँ हैं? शरद को खुद आश्चर्य हुआ कि जिस बात को वह सबसे पहले पूछना चाहता था उसे इतनी देर तक कैसे टालता रहा। इस घर में आने का सबसे बड़ा आकर्षण तो उसके हम-उम्र मोटू-छोटू ही थे। बचपन की स्मृतियों को सजीव करने में उसे सबसे ज़्यादा मदद तो उन्हीं से मिलेगी।‘वे दोनों मंदिर गए हैं।’

मंदिर?‘हाँ, यहाँ पास ही है।’ शरद के स्वर में लिपटा आश्चर्य का भाव वे शायद पकड़ नहीं पाए। उसी सहज भाव से बोले, ‘शाम को आरती के समय चाहो तो तुम भी चले जाना। बस आते ही होंगे, इतने में तुम भी नहा-धोकर निपट लो।’शरद का मन हो रहा था कि किसी तरह एक प्याला चाय मिल जाए तो हिले-डुले। पर दूध-लस्सी की बात सुनने के बाद उससे कुछ भी कहा नहीं गया। वह उठा और बरामदे में रखे अपने बैग में से तौलिया, ब्रुश आदि निकाला और सूटकेस में से एक जोड़ी कपड़े। ‘वह नल है, वहाँ दातुन कर लेना; उधर ही पखाना और गुसलखाना है।’ इशारे से बताकर ताऊजी फिर बैठक में चले गए। शरद कंधे पर तौलिया लटकाए, मुँह में पेस्ट लगा ब्रुश दबाए, दो मिनट यों ही निरुद्देश्य-सा देखता रहा। आँगन के बीचों-बीच पक्का चबूतरा बना हुआ है, जिसके ऊपर बने सीमेंट के गमले में तुलसी खूब फूल रही है। गमले के चौड़े से किनारे पर एक बुझा हुआ दीपक रखा है। आँगन के चारों ओर करीब पाँच-छः फुट चौड़ा बरामदा-सा बना हुआ है और फिर कमरे।
तभी पायल की झनक से उसका ध्यान टूटा। गुलाबी-पीली साड़ियों में लिपटी, अपने को भरसक समेटती-सी, लंबा-लंबा घूँघट काढ़े दो महिलाएँ हाथ में झाडू, दरी, सुराही आदि लिए बैठक के ठीक सामने की ओर बने ज़ीने में घुस गईं। ‘ये छोटू-मोटू की बहुएँ होंगी। शरद ने अनुमान लगाया और एकाएक उसके सामने कुंतल का चेहरा घूम गया। बिना बाँहों का ब्लाउज पहने और ऊँचा जूड़ा बाँधे। जाने क्यों उसे भीतर-ही-भीतर हँसी आ गई।वह गुसलखाने में नहा रहा था कि उसे बाहर आँगन में तीन-चार लोगों के पदचाप सुनाई दिए और फिर ताऊजी का स्वर, ‘अरे मोटू-छोटू, पन्ना आए हैं लखनऊ से। अभी नहा रहे हैं।’ स्वर में उल्लास पड़ रहा था।
‘अरे हमारा बेटा चरणामृत लाया है…लाओ, लाओ…इत्ता बड़ा हो।’ ताऊजी शायद किसी बच्चे से कह रहे थे।

एकाएक शरद के मन में मोटू-छोटू को देखने का कौतुहल जाग उठा। उसने जल्दी-जल्दी बदन पोंछकर कपड़े पहने और निकला तो-‘अरे पन्ना भैया’ और लपककर दोनों ने शरद के पैर छुए। पास खड़े ताऊजी मुग्ध भाव से भरत-मिलाप का यह दृश्य देखते रहे, पर शरद बेहद संकुचित हो उठा। उसे ध्यान आया, उसने तो ताऊजी, ताईजी तक के पैर नहीं छुए। ‘ये लल्ला है, मोटू के बेटे और ये मुन्ना है छोटू के बेटे। पैर छुओ तो बेटा, ताऊजी के।’ और ताऊजी ने हलके-से बच्चों को शरद की ओर धकेल-सा दिया।मोटू-छोटू डील-डौल में शायद उससे इक्कीस ही थे। चौड़े ललाट पर चंदन का टीका; दोनों हाथ की कलाइयों में कलावा बँधा हुआ था। छोटू के गले में काली डोरी में बँधा ताबीज जैसा कुछ लटक रहा था। शरद उन्हें कुछ इस भाव से देखता रहा, मानो पहचानने की कोशिश कर रहा हो।‘आपने आने की कोई खबर नहीं दी भैया, वरना हम ताँगा लेकर स्टेशन आ जाते।’तीसरी बार भी यही बात सुनकर शरद को लगने लगा जैसे ख़बर न देकर सचमुच ही उसने कोई अपराध कर दिया हो। दूध और लस्सी के गिलास क्रोशिए से बने जालीदार मेज़पोश से ढकी एक छोटी-सी टेबिल के चारों ओर रखे थे और बीच में एक प्लेटनुमा थाली में मठरी और बेसन के लड्डू। ‘तुम दूध लोगे या लस्सी? हमारे यहाँ इस मामले में छोटे से लेकर बड़े तक सब मन के मालिक हैं। किसी को दूध चाहिए तो किसी को दूध की लस्सी; कोई दही की लस्सी के सिवाए कुछ छूता ही नहीं। सबकी फ़रमाइश पूरी करती हैं तुम्हारी ताईजी।’ अपने घर की सारी व्यवस्था को लेकर ताऊजी कुछ अतिरिक्त उत्साह में आए हुए थे। ‘मन के मालिक’ होने का सहारा पाकर शरद ने झिझकते-से स्वर में कहा, ‘यदि दिक्कत न हो तो मैं चाय लेना…’ ‘ऐसी गर्मी में चाय? ताऊजी ने बीच में ही बात काट दी।‘पर यह भी कोई चाय का मौसम है भला?’

‘चाय तो शरीर को झुलसा देती है भैया।’ छोटू बोला।‘हलके किस्म का नशा ही है, लत लग गई है तो फिर सर्दी-गर्मी क्या?’ यह मोटू का फतवा था। ताऊजी ने दोनों की बात का समर्थन करते हुए प्रसन्न मुद्रा में सिर हिलाया और फिर फैसला सुनाने के ढंग से कहा, ‘इनके लिए गरम-गरम दूध लाओ जी। यहाँ पानी मिला बाज़ार का दूध नहीं है, घर की भैंस का दूध है। चाय पिलाकर तुम्हारी सेहत बिगाड़नी है?’ और उन्होंने तृप्तियुक्त आनंद से मोटू-छोटू के भरे-पूरे शरीरों को देखा।

शरद के भीतर कुछ उमड़ा, जिसे उसने भीतर ही दबा लिया।

‘क्यों भैया, आप यहाँ क्या ऑफिस के काम से आए हैं?’

‘ऑफिस? ऑफिस तो मेरा कोई है नहीं।’ ताईजी ने दूध का गिलास शरद के हाथ में पकड़ा दिया था, उसकी ओर घूमते हुए उसने कहा और उसे लगा कि अब वही प्रसंग आनेवाला है, जिससे वह ऐसे काम-काजी लोगों के बीच बचना चाहता है। वह मन-ही-मन अपने को साधने लगा। ‘आप शायद अपना ही कोई धंधा करते हैं।’ हथेली से दूध की सनी मँछों को साफ करे हुए मोट्र ने जिज्ञासा प्रकट की। शरद की समझ में ही नहीं आया कि वह क्या कहे। गोद में बैठे अपने दो-तीन साल के पोते के मुँह में मठरी का चूरा देते हुए ताऊजी ने पूछा, ‘तुम आजकल वैसे कर क्या रहे हो? दूध का घूँट जैसे-तैसे सटककर आख़िर उसने कह ही डाला, ‘जी बस, यों ही कुछ लिखने-विखने का शौक है।’ ‘सो तो तुम्हारा शौक़ हुआ। मैं शौक़ की बात नहीं, काम की बात पूछ रहा हूँ।’ दोनों हथेलियों को आपस में फट-फट करके आपस में रगड़ते हुए उन्होंने मठरी का चिपका हुआ चूरा साफ़ किया। जाने क्यों शरद को लगा कि उसके कुछ कहने के साथ ही हथेलियाँ इसी तरह उसकी पीठ फटकारने लगेंगी। कुछ भिनभिनाते से स्वर में बोला, ‘बस अपना तो काम भी यही है।’ ‘पर आमदनी का भी तो कोई ज़रिया होगा या नहीं?’ ताऊजी के चेहरे पर असंतोष का भाव बढ़ता ही जा रहा था। इतनी देर तक शरद अपने लेखक को भीतर-ही-भीतर दबाए स्वयं बोल रहा था, अब जैसे एकाएक उसका लेखक उभर आया। सारा संकोच और दुविधा एक किनारे रखकर वह कुछ ढिठाई के-से स्वर में बोला, ‘बहुत पैसा कमाने की या जोड़ने की अपनी कोई इच्छा नहीं है, गुज़ारे लायक इसी से हो जाता है।’ और उसने पैर थोड़े सामने को फैलाकर पीठ कुर्सी पर टिका दी, मानो पूरी तरह मोर्चे पर जम गया हो कि लो बोलो, क्या कर लोगे मेरा!

पर शायद ताऊजी पर शरद के इस लहज़े का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा। तैश में बोले, ‘नो-नो…, यह भी कोई बात हुई भला? रामेश्वर ने हाड़ पेल-पेलकर तुम्हें एम. ए. करवाया, अब उसके बुढ़ापे में तुम अपना शौक़ लेकर बैठ जाओ।’ फिर स्वर को ज़रा मुलायम बनाकर बोले, ‘देखो बेटा, बुरा मत मानना पर तुम्हारे सोचने का यह तरीका भी गलत है।’ ‘हाँ भैया, देखिए न, आदमी होकर बस अपना पेट भरने का जुगाड़ कर लिया… यह तो कोई बात नहीं हुई न?’ और समर्थन पाने के लिए मोटू ने ताऊजी की ओर देखा। समर्थन में छोटू का सिर धीरे-धीरे हिल रहा था। खिन्न स्वर में ताऊजी ने कहा, ‘कुछ समझ में ही नहीं आता… लगता है रामेश्वर ने जैसे अपने घर का सारा सिलसिला ही बिगाड़ लिया। अब यहाँ होते तो…’ कोई और समय होता तो पता नहीं शरद क्या कर बैठता। कम-से-कम अपना सामान लेकर चल तो पड़ता ही। पर इस समय वह केवल मंद-मंद मुस्कराता रहा। मुग्ध भाव से सुनने और दाद देने का पार्ट अदा करते हुए मोटू-छोटू और वक्ता ताऊजी… उसके मन में एक विस्मयपूर्ण कौतुक के अतिरिक्त और कोई भाव नहीं आ रहा था।तभी घड़ी ने टन-टन करके आठ बजाए। घंटों की आवाज़ से ही ताऊजी कुछ याद करते से बोले, ‘ओ हो??-मैं तो भूल ही गया। चौधरी साहब के यहाँ आज साढ़े आठ बजे लगन चढ़नेवाला है। मोटू, तुम जल्दी से तैयार होकर चले जाओ। दो रुपए देते आना… और देखो, लिखवा ज़रूर देना।’ ।

मोटू चला गया तो ताऊजी ने ज़रा-सा तिरछे खड़े होकर तहमद खोली और कायदे से धोती पहन ली और बाहर की ओर मुँह करके बोले, ‘ये बर्तन ले जाना यहाँ से।’ फिर छोटू की ओर देखकर बोले, ‘लिखने-लिखाने का शौक हमारे इन छोटू साहब को भी चर्राया था एक ज़माने में। अरे, ये जब पेट में थे तो तुम्हारी ताईजी तुम्हें बहुत खिलाया करती थीं, सो तुम्हारी ही छाया पड़ गई होगी।’ और फिर अपनी ही बात पर हो-हो करके हँस पड़े। ‘सो भैया, हमने तो शुरू में ही ठीक कर दिया। क्यों छोटू, याद है न?’छोटू कुछ ऐसे झेंपा मानो सबके सामने उसकी पोल खोल दी हो। धरती में नज़र गड़ाए धीरे से बोला, ‘वह बचपन की बातें थीं।’‘हाँ?? अब तो बचपने की बातें लगती हैं। पर उस समय…’‘पिताजी, ऊपर का कमरा ठीक कर दिया।’ एक तेरह-चौदह साल की लड़की साड़ी पहने, गठरी-सी बनी दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गई। ताऊजी ने उसे बिना भीतर बुलाए ही कहा, पन्ना, ये बिट्टी हैं, तुम्हारी सबसे छोटी बहन। पिछले साल आठवाँ दर्जा पास किया था, अब घर का कामकाज सीख रही हैं। अगले साल तक या हो सका तो आती सर्दियों में ब्याह कर देंगे।’
बिट्टी इस प्रसंग पर सुर्ख होती हुई भाग गई। ‘छोटू, पन्ना को कमरे में पहुँचा दो, और देख लो इन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है।’ फिर उससे बोले, ‘देखो बेटा, यहाँ संकोच करने की ज़रूरत नहीं है! यह तुम्हारा अपना ही घर है। और देखो, हमारी किसी बात का बुरा मत मानना। क्या करें, तुम लोगों को पराया नहीं समझ पाते सो जो कुछ बुरा लगता है, कह देते हैं।’‘नहीं…नहीं…’ शरद ने उठते हुए कहा। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उसने सुना, ‘छोटू, लौटकर तुम हिसाब तैयार कर लेना।’आदेश देते हुए ताऊजी का स्वर मिलिट्री के अफ़सर जैसा लगता है, कमांड करता हुआ। ऊपर पहुँचकर शरद ने देखा, बड़ी-सी खुली छत है, जिसके एक ओर एक कमरा बना हुआ है और दूसरी ओर टीन के शेड के नीचे सीमेंट की बोरियाँ चिनकर रखी हुई हैं।‘सीमेंट का भी कोई कारबार है क्या?’ शरद ने पूछा तो छोटू झेंपता-सा बोला, ‘नहीं-नहीं। ऊपर की मंज़िल बनवानी है, इसी सप्ताह काम शुरू करवाना है। सीमेंट की तो ऐसी दिक़्क़त है कि बस। बड़ी मुश्किल से भाग-दौड़ करके इकट्ठी की हैं।’शरद उसे गौर से देख रहा था। कैसी गंभीरता और ज़िम्मेदारी से बात करता है। उसकी पीठ पर धप् मारकर हँसते हुए बोला, ‘यार छोटू, तुम तो अभी से अच्छे-खासे बुजुर्ग बन गए।’छोटू, झेंप गया।‘और यार, कुछ अपने हालचाल सुनाओ। तुम तो लड़कियों की तरह झेंप रहे हो।’‘नहीं तो। बस सब ठीक चल रहा है।’ फिर सीधे शरद की ओर देखकर बोला, ‘शाम को दुकान की तरफ़ आइए न!’

‘किसकी दुकान है?’

‘प्रोविज़न और जनरल स्टोर है। यहाँ का तो सबसे बड़ा स्टोर है।’ शरद को लगा जैसे वह अपना स्टोर दिखाने के लिए बहुत उत्सुक है। शायद चाहता है कि शरद देख ले कि…

‘अच्छा चलूँ? आप देख लीजिए सब ठीक तो है न?’

‘सब ठीक है यार, तुम बैठो न थोड़ी देर। तुमसे तो बहुत-सी बातें करनी हैं।’ लापरवाही से शरद बोला।
‘ज़रा हिसाब ठीक करना था। आप तो अभी यहाँ हैं ही, खूब बातें करेंगे।’ छोटू उठ खड़ा हुआ। शरद लौटते हुए छोटू को कुछ इस भाव से देखता रहा मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो। फिर उसने अपना कमरा देखा। एक खाट पर बिस्तर लगा था, जिस पर साफ़ कढ़ी हुई चादर बिछी हुई थी। एक कोने में छोटी-सी टेबल और टीन की कुर्सी। सच, इस तरह की कुर्सियों को तो वह भूल ही चुका था। खिड़की पर सुराही रखी थी, पास में गिलास। नीचे दरी बिछी थी। दीवार के सहारे उसका सामान रखा था। ओह, उसे खयाल ही नहीं रहा, इसे कौन उठाकर लाया होगा? मोट-छोटू की बहुएँ। अपनी लापरवाही पर उसे क्षोभ हुआ। उठकर उसने दरवाजे पर लगी चिक को गिरा लिया। कमरे में हलका-सा अँधेरा हो गया। जब पूरी तरह आश्वस्त हो गया कि अब वह अकेला है तो बैग में से निकालकर उसने सिगरेट सुलगाई। चाय न मिली तो यही सही और इत्मीनान से धुआँ छोड़ते हुए वह मन-ही-मन मुस्कराया।

कभी कुंतल यहाँ आए तो? वह तो ताऊजी को देखकर सीधे ही कह बैठे, ‘बुढ़ऊ क्रेक है।’ उसके होंठ और फैल गए। आज रात को कुंतल को पत्र लिखेगा। शाम को निकला शरद घर लौटा तो रात के नौ बजे थे। सारे समय वह उन स्थानों पर घूमता रहा जहाँ उसने बचपन के दिन बिताए थे, और जिनकी उजली-धुंधली अनेक स्मृतियाँ उसके मन में लिपटी थीं। छोटे रास्ते से जाने पर बीच में पड़नेवाला वह नाला, उसके पास लगे इमली और जामुन के पेड़ आज भी ज्यों-के-त्यों थे। मोटू-छोटू और वह जामुन तोड़ने में इतने मगन हो जाते थे कि स्कूल में देर हो जाती थी और गणित के काने मास्टरजी उन तीनों को सज़ा देकर बैंच पर खड़ा कर दिया करते थे। जब वे तिरछे होकर बोर्ड पर सवाल समझाते होते तो बैंच पर खड़ा-खड़ा छोटू जीभ निकालकर और मुक्का दिखा-दिखाकर उन्हें चिढ़ाया करता था। उस समय कैसे भीतर से उमड़ती हुई हँसी को जबरन होंठों में ही दबाना पड़ता था। इम्तिहान में हमेशा तीनों एक-दूसरे की नकल किया करते थे। पतंग उड़ाना, सोडे की बोतलों को पीस-पीसकर माँजा सूतना, घंटों गिल्ली-डंडे और गोलियाँ खेलना, छिपकर ताऊजी की बीड़ी पीना, मंदिर में से पैसे उठाकर ले आना। हर प्रसंग की अनेक-अनेक घटनाएँ उसकी स्मृति में लिपटी थीं। छोटू शुरू से ही ज्यादा शरारती था। दिन में दो-तीन बार वह ताऊजी से ज़रूर पिटता था। पिताजी बचाते तो ताऊजी उन्हीं पर बरस पड़ते… ‘छोड़ दे रामेश्वर, इस समय ढील दी तो आवारा हो जाएगा यह।’

बचपन की उन्हीं सब बातों को, उन्हीं स्थानों के बीच, एक बार फिर से सजीव करने के उद्देश्य से ही वह यहाँ आया था। पर जाने क्यों सारे दिन उसे यही लगता रहा कि बचपन की स्मृतियों के नाम पर उसने जो कुछ भी अपने मन में अंकित कर रखा है, उसमें से कुछ भी नहीं मिलेगा। शायद वह सोचता बहुत है और सोचने की इस प्रक्रिया में बहुत-सी काल्पनिक चीजें भी जोड़ता चलता है। पर जब वे सारे-के-सारे स्थान हलके से परिवर्तन के साथ ज्यों-के-त्यों मिल गए तो उसे बड़ा सुखद आश्चर्य हुआ। यहाँ तक कि हरखू मोदी की वह दुकान भी मिली, जहाँ से वे तीनों उधार लेकर चने-मूंगफली खाया करते थे और जब यह बात घर पहुँचती थी तो पिटते थे। बूढ़ा हरखू एक आँख पर हरे फ्लैनल की थिगली-सी लटकाए उससे मिलकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने आज भी चने खरीदे तो हरखू ने पैसे नहीं लिए।

‘तुम्हारा बेटा कहाँ गया?’‘भैया, लल्लन ने तो शहर में नौकरी कर ली। मुझको भी बुलाता है, पर अपना तो जब तक शरीर चलता है, अपनी दुकान भली।’रात को वह लौटा तो घर में सन्नाटा छाया हुआ था।
पहले दिन उसके खाने-पीने और सोने की आत्मीयता की अभिभावात्मक ढंग से आलोचना करने के बाद ताऊजी ने ‘चार दिन को आया है’ कहकर उसे स्वीकार भी कर लिया था। पर बाहर जाने से पहले वे एक बार अवश्य ऊपर आते थे। ‘क्यों बेटा, किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है न?’ से शुरू होकर बात काफी आगे तक चलती थी। उस समय ताऊजी सफेद ब्रिचिस और बंद गले का सफेद कोट पहने रहते, जिसमें मीने के काम के सोने के बटन लगे होते। सिर पर कलफदार साफ़ा। शरद के मन में ताऊजी का यही रूप अंकित था, केवल चेहरा कुछ अधिक चिकना और शरीर कुछ अधिक कसा हुआ। उसके हाथ में करीब दो फुट लंबा, गोल लकड़ी का डंडा रहता, जिसके एक सिरे पर जीभ के आकार का कटा हुआ चमड़े का एक टुकड़ा लटकता रहता। वह डंडा हिला-हिलाकर बात करते तो बहुत रोकने पर भी शरद का मन बात से ज्यादा चमड़े की लपलपाती उस जीभ पर चला जाता। बात हमेशा उसके परिवार से शुरू होती और फिर अनायास ताऊजी के अपने परिवार पर आ जाती।‘तुम लोग तो लड़के हो, पर यह बताओ उस हीरा को क्यों कुँआरा बिठा रखा है? छब्बीस की तो होगी? और क्या लल्ली से दो बरस बड़ी है। जानते हो, लल्ली के तीन बच्चे हैं।’ और फिर वे शरद की ओर कुछ इस भाव से देखते मानो उसके तीन बच्चे होना बहुत बड़ी उपलब्धि हो। शरद मुस्कराता-सा कहता, वह अब डॉक्टर हो गई है-बड़ी और समझदार है। उसका अपना व्यक्तित्व है…’