Hindi Long Story: कलकत्ता से खड़गपुर जाने वाली लोकल में मै ,लगभग पिछले हफ़्ते से अक्सर उस पगली औरत को देख रहा हूँ.साँवला रंग,दरम्याना क़द उम्र यही लगभग २५-२६ होगी.वैसे अभी भी उसके उरोजों पर उभार है,शरीर में लचक है,पाँवों में गति है.
पूरा दिन इधर से उधर घूमती फिरती है,नाचती है गाती है, कभी जूड़ा बनाती है.बीच बीच में उसका संगीत भी चलता रहता है.तभी तो स्टेशन के क़ुली, हौकर,यहाँ तक कि चंद बाबू भी ,एक बार उस पगली पर दृष्टि डाले बिना लौटना पसंद नहीं करते.
रात के ग्यारह बजे मै ,ड्यूटी से लौटा तो देखा बुकिंग ओफिस के बाहर अच्छी ख़ासी भीड़ जमा थी.सफ़ेद यूनफ़ॉर्म में रेल के बाबू को अपनी तरफ़ आते देखकर कुछ गाँववाले मुसाफ़िर अदब से एक तरफ़ हटगए तो मै भी मौक़े पर पहुँच गया.मैंने देखा वही औरत हाथ में जूता पकड़े भद्दी भद्दी गालियाँ बक रही थी.एक क़ुली ने बताया,
“अरे बाबूजी,इस औरत का “मीमो”काटकर हवालात भेज दो.इसने चैटर्ज़ी बाबू को जूता मार दिया है. पगली है बाबू,”
मैने उस पगली की ओर उन्मुख होकर पूछा,
“क्या बात है?क्यों मारा तुमने जूता?”
क्रोध से उसका मुख तमतमा गया.पेशानी पर पसीने की बूँदें आ गयीं.आग्नेय नेत्रों से मुझे देखकर बोलीं,
“अरे बाबू,मैंने तो इसे सिर्फ़ जूता ही मारा है.पिस्तौल होती तो गोली मार देती.तू जानता है ,मुझे नोट दिखाता है,जैसे मै मरी जा जा रही हूँ इसके नोटों के बिना!पूरा दिन सिर पर सामान लादे इधर से उधर ,मारे मारे फिरते हैं और शाम को नोट वाले बन जाते हैं.नोट दिखाने हैं तो ,घर जाकर अपनी माँ-बहन को दिखाएँ”
मैंने एकत्रित भीड़ से कहा,”क्यों मजमा जमा रखा है तुम लोगों ने यहाँ?जाओ सब अपना अपना काम करो.वो तो पगली है.क्या तुम सब भी पागल हो गए हो?उसे छेड़ोगे तो गाली तो देगी न,पूजा तो करने से रही!”
फिर मैंने उसे वहीं काउंटर पर खड़े खड़े ही आवाज़ दी,”ए पगली सुनो”
वो धीरे धीरे काउंटर की तरफ़ बढ़कर बोली,”पगली तो दुनिया है बाबू.मुझे पुकारना है तो रुक्मणी कहो.रुक्मणी.”
“देखो यहाँ मत फिरो.सामने मसूरी एक्सप्रेस खड़ी है,उसमें बैठकर दिल्ली चली जाओ,तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा.मै टी.टी बाबू को बोल दूँगा”

“क्यों बैठूँ मैं गाड़ी में? क्या मरना है मुझे?कहीं टकरा गई तो? मैं तो हवाई जहाज़ में भी नहीं बैठूँगी.अब तो वो भी आसमान से सीधे धरती पर गिर जाते हैं .इंसान की लाश का भी पता नहीं चलता.अरे बाबू मैं तो रोकेट में बैठकर जाऊँगी.तुझे तो कोई ख़बर ही नहीं है.तेरी छुक़ छुक भकभक करती घिसटती-पिसटती रेलगाड़ी का ज़माना गया.अब तो तू भी इस्तीफ़ा दे दे रेल को.रोकेट में बैठूँगी और तुझे भी बिठाऊँगी.बैठेगा रोकेट में….”
मैंने अपने आप से पूछा,”क्या यह वाक़ई पागल है?रेल के एक्सीडेंट्स से लेकर विमान दुर्घटनाओं का इसे ज्ञान है!रौकेट को ये जानती है,फिर भला ये पागल कैसे हुई?”
पगली को दिमाग़ से हटाकर मैंने काम करना शुरू किया.अगले तीन घंटे तक मेरे पास कोई काम नहीं था.मैंने चैन की साँस ली .तभी मेरे बग़ल के काउंटर से सेठी साहब ने पुकारा,
“रोमेश बाबू,पगली क्या कह रही थी?बड़ी हंस हंस कर बातें हो रही थीं.सब ठीक तो है?”
मेरे दिमाग़ में वही पगली घूम गयी.बोला,
“यार सेठी,मुझे तो वो बिल्क़ुल भी पागल नहीं लगती.तुरंत जवाब देती है”
“कहाँ चली गयी?नज़र आए तो बुलाना”
काउंटर की खिड़की से मै ,वेटिंग रूम की भीड़ भाड़ में के बीच उसे खोजने लगा . वो मुझे नज़र आ गयी.किनारे की बेंच पर बैठकर जूड़ा बाँध रही थी.मैंने हाथ के इशारे से उसे बुलाया ,फिर भी उसने ध्यान नहीं दिया.मुँह से आवाज़ निकलने वाली ही थी,”पगली”,लेकिन शब्द गले में ही अटक कर रह गए.अचानक मुझे ध्यान आ गया,
“रुक्मणी”उसने चौंक कर मेरी तरफ़ देखा,थोड़ा हँसी फिर धीरे धीरे चलकर काउंटर के पास आ गयी.तब तक सेठी भी मेरे पास आकर खड़ा हो गया था.
बड़े अन्दाज़ से बालों को झटका देकर उसने पूछा,”क्यों बुलाया तुमने बाबू?”
“रात के दो बज रहे हैं,अभी तक तू इधर उधर घूम रही है,रखा क्या है इस मुसाफ़िर खाने में?जाकर कहीं पड़ी रह”सेठी ने उसे ड़पट कर कहा
“अरे बाबू,अगर रात को जागूँ नहीं,हसूँ नहीं,रोऊं नहीं,गाली गलौच न करूँ,लड़ाई झगड़ा न करूँ तो मुझे पागल कौन कहेगा?मै तो पगली हूँ पगली”
“लेकिन मुझे लगता है तू ज़रा भी पागल नहीं है,सब समझती है,जानती भी है.पता नहीं तुझे पागल कहलाना क्यों पसंद है?”
वो खिलखिला कर हंस दी.
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“तू ग़लत कहता है बाबू.तेरी दुनिया का हर आदमी मुझे पागल कहता है,आज से नहीं,बचपन से.तीन साल की उम्र से.सुनेगा मेरी इस पागलपन की कहानी को?”
मैंने सहज ढंग से सिर हिलाकर,उसकी कहानी सुनने की इच्छा प्रग़ट की,तो उसने कहना शुरू किया,
“मै ग़रीब माँ बाप के घर पैदा हुई थी,बाप मुंशी के जंगलों में लकड़ियाँ काटता था, माँ,मुंशी के घर बर्तन माँजती थी,झाड़ू पोंछा करती थी.एक दिन मैंने मचल कर कहा माँ मुझे भी दौड़नेवाली मोटर चाहिए.माँ ने डाँट ड़पट कर चुप करा दिया,फिर एकाएक मेरे सर पर हाथ रखकर स्नेह से बोलीं,”पगली कहीं की”
तब मै तीन साल की थी.अनजाने ही मेरे मन मस्तिष्क में सवाल उपजा ‘क्या चाभी वाली मोटर माँगने से कोई लड़की पगली हो जाती है?’
समय गुज़रा.माँ का स्नेहमय हाथ सर पर से उठ गया.माँ की जगह मुंशी के घर झाड़ू पोंछा,बर्तन, मै करने लगी.एक दिन मुंशी के बेटे को ,तरह तरह के रंग बिरंगे किताबों के पन्ने पलटते देख मेरे मन में भी अभिलाषा जागी.घर आकर बापू के आगे मचल उठी,
“मै भी किताबें पढ़ूँगी बापू,स्कूल जाऊँगी”
बापू ने निर्विकार भाव से मेरी ओर देखकर कहा,
“पगली कहीं की”
तब मैंने दोबारा सुना था इस शब्द को.उस समय मै यही कोई आठ बरस की रही होऊँगी.मन ही मन बहुत विश्लेषण करना चाहा था मैंने कि,मुंशी का लड़का चाभी वाली मोटर दौड़ा सकता है,रंगीन पन्नों वाली किताबें पढ़ सकता है?उसे कोई पागल क्यों नहीं कहता,फिर मै ही क्यों पागल?लेकिन आज तक मै इस पहेली को नहीं सुलझा पायी.
वही…तो !!-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Hindi Story
समय और आगे बढा.एक दिन लकड़ी काटते काटते दरख़्त से गिरकर मेरा बापू भी चल बसा.उस दिन मै बहुत रोयी.एकाएक मैंने इस शब्द को फिर सुना.मुंशी धरमचंद मेरे सर पर हाथ फेरकर कह रहे थे,
“पगली कहीं की !भला कोई इस तरह रोता है!जो चला गया वो तेरे आँसुओं से वापस लौट आएगा क्या?चल उठकर आँसू पोंछ ले और कुछ खा पी ले.”
“तब मै तेरहवाँ पार कर रही थी.मन में सवाल उठा,”क्या आकस्मिक रूप से मरे हुए बाप की स्मृति में उसकी इकलौती,निस्सहाय ग़रीब लड़की का रोना भी ,दुनियावालों को पागलपन दिखता है?”
मुंशी धर्मचंद मेरे लिए दयालू सिद्ध हुए .उन्होंने मुझे अपने घर में शरण दी.वहाँ मुझे खाने,पीने,पहनने,ओढ़ने में,किसी प्रकार की कोई कमी नहीं हुई.मै,मन ही मन धरम चंद की पूजा करने लगी. उनका हुक्का भरती,चाय ले जाती,जूता पोलिश करती.कभी कभी वो मेरे गाल पर हल्की सी चपत मारकर कहते,
“अब तो तेरा मन लग गया न यहाँ?”
मै शर्मा कर भाग जाती.एक दिन मेरी यह धारणा एकदम नष्ट हो गयी.मुंशी जी ने चाय की प्याली पकड़ते ही मेरी कलाई बहुत ज़ोर से पकड़ ली.मुझे अपनी गोद में धकेलकर मेरे बालों को सहलाकर ,मुझे ख़ूब चूमने लगे.मैंने ,साफ़ साफ़ उनकी आँखों में पाशवीक वासना की भूख देखी.अब मै मुंशी जी से,बहुत सावधान रहने लगी थी .
जीवन का वो विषाक्त दिन भी आ गया.उस दिन घर में कोई नहीं था ग्यारह बजे तक मै घर का काम निबटाती रही.उस दिन थोड़ी सी हरारत भी महसूस हो रही थी. निढाल होकर ,बिना कुछ खाए पिए मै बिस्तर पर जाकर लेट गयी.धीरे धीरे मेरी आँखे मुँदने लगी और मै सो गयी.एकाएक मुझे लगा ,मेरे शरीर पर कुछ रेंग रहा है.आँख खुली तो देखा मेरे सामने धरमचंद खड़ा है.मैंने एक नज़र ख़ुद पर डाली.ऐसा लगा जैसे मैं धरती में समा जाऊँगी.वो बर्बर पशु की तरह मुझ पर टूट पड़ा
तिलमिलाकर मैंने सामने रखे काँच के जग को उठाकर उसके सिर पर दे मारा.उसकी पगड़ी सिर से छिटक गई.इधर उधर लहू की कुछ बूँदें गिरीं.शीघ्रता से उठकर मैंने अपने नग्न शरीर को ढका और घर से बाहर निकल आयी.उस दिन फिर वो ही शब्द “पगली” सुना
एकांकी नाटिका -वनवासी-गृहलक्ष्मी की कहानियां
मेरा चैन समाप्त हो गया .मै मन ही मन घर से भाग निकलने के अवसर ढूँढने लगी.एक दिन मै अपना अनिश्चित भविष्य लेकर निकल पड़ी.किसी तरह स्टेशन पहुँची.मै नहीं जानती कौन सी गाड़ी थी?डब्बा कौन सा था?गाड़ी किधर जा रही थी?बस मै तो एक झटके से चलती गाड़ी के एक डब्बे में घुस गयी.मेरा दम फूल रहा था.मै बुरी तरफ़ हाँफ रही थी.एकाएक किसी ने मेरी तन्द्रा भंग की,
“यहाँ कैसे आ गयी?यह तो फ़र्स्ट क्लास है”
मैंने देखा,सफ़ेद खद्दर के वस्त्रों से सुसज्जित व्यक्ति ,अपने हाथ में पकड़ी मैगज़ीन उलटता-पुलटता हुआ मुझे देख रहा है.मैंने याचना भरी निगाहों से,उसकी तरफ़ देखकर कहा,
“बहुत दुख़यारी हूँ साहब,मै ज़मीन पर बैठकर ही चली जाऊँगी”
आँखों से धूप का चश्मा उतारकर उसने ग़ौर से मुझे देखकर पूछा,
“कहाँ जाना है?”
“मेरा तो कोई ठौर ठिकाना ही नहीं है.मै तो ये भी नहीं जानती कि ये गाड़ी कहाँ जा रही है?”
वो मेरा निरीक्षण करता रहा फिर बोला,
“अजीब बात है,न कोई पता न ठिकाना फिर भी तू गाड़ी में बैठ गयी?”
“बहुत प्यास लगी है,मुझे पानी मिलेगा? भूख भी लगी है”मैंने ज़मीन पर बैठ कर पूछा

वो हंस कर बोला,”ज़मीन पर नहीं,यहाँ सीट पर बैठो,मेरे पास.सारा डब्बा ख़ाली पड़ा है”उसने पानी की बोतल मुझे पकड़ाते हुए कहा फिर ,फलों की टोकरी में से दो सेब और अंगूर निकाल कर बोला,
“ऐसे नहीं,पहले सीट पर आराम से बैठकर थोड़ा सुस्तालो,फिर खाओ.”
सहमते सहमते मै,उसकी गुदगुदी सीट पर बैठ गए,पानी पिया,एक दो नहीं पूरे तीन गिलास फिर ,फलों पर टूट पड़ी.एकाएक वो मुस्कुरा उठा.जेब से बटुआ निकालकर खोला.मैने चौंक कर देखा,
‘सौ सौ के इतने नोट?’एक दस का नोट मुझे देकर बोला,
“इसे पास रख लो,बहुत काम आएगा.”
काँपते हाथो से जैसे ही मैंने नोट थामा वो ,मेरी छातियों पर हाथ फेरने लगा.मुझे उस बाबू में मुंशी धरमचन्द नज़र आया.वही नज़रें,वही मुख.”
“मै बिफरकर खड़ी हो गयी.वो ज़बरदस्ती करने की कोशिश करने लगा.तभी मेरी नज़र ज़ंजीर पर गईं.मै,ज़ंजीर पर लटक गयी.मुझे ऐसा करते देख वो परेशान हो गया.फिर खिड़की के पास आकर बोला,
“अरे कोई है?गॉर्डसाहब ज़ंजीर मैंने खींची है.इस डब्बे में एक पगली घुस आयी है,पता नहीं क्या करेगी?इसे निकालिए,सफ़र करना मुश्किल हो गया है”
गॉर्ड और टीटी ने मुझे देखा फिर हाथ पकड़कर बोला,
“बाहर निकल पगली”
और धक्का मारकर उसने मुझे डब्बे के बाहर निकाल दिया.
“अरे बाबू,क्या क्या सुनाऊँ तुम्हें?तीन वर्ष से छब्बीस वर्ष तक इसी शब्द को सुनती आयीं हूँ”
उत्सुकतावश,सहानुभूति से द्रवित होकर मैंने पूछा,”आगे सुनाओ,फिर क्या हुआ?”
“फिर उस गाड़ी का टी टी मधुसूदन मुझे मिला .उसने मुझे पहचान लिया.उसने इशारे से मुझे बुलाकर चाय की प्याली मुझे दी पीने को,और मेरी सारी बातें ध्यानपूर्वक सुनने के बाद बोला,
“तुम्हें सहारा चाहिए रुक्मणी,मै दूँगा तुम्हें सहारा”फिर होंठों ही होंठों में बुदबुदाकर बोला,”मुझे किसी की परवाह नहीं है,मै ख़ुद अपनी मर्ज़ी से अपना घर बसाऊँगा”
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वो मुझे एक छोटे से कमरे में ले आया.उसने दो चारपाईयाँ और बिस्तर जैसे तैसे जुटाए,चार छः बर्तन भी ले आया.सचमुच उसने मुझे बहुत प्यार किया.हर दूसरे तीसरे दिन वो आता और बढ़िया बढ़िया चीज़ें लाता.शाम को सैर कराता.कभी सिनेमा ले जाता और फिर बाहों में जकड़कर प्यार करता,स्नेह से बालों पर हाथ फेरता,और फिर जल्दी ही आने का वायदा करके काम पर चला जाता.मै अब पूरी तरह संतुष्ट थी.मेरे मन में अब,कहीं कोई अरमान बाक़ी नहीं था.
लेकिन मेरी बदनसीबी देखो.एक दिन ट्रेन के फूट बोर्ड से पाँव फिसलकर वो पटरियों के बीचों बीचकटकर,,इस संसार से विदा हो गया.उसकी विक्रत लाश को मै छू भी नहीं सकी.
मै दहाड़ें मार मार कर रो रही थी,पर लोग मुझे दुत्कार रहे थे,”क्या रिश्ता था तुम्हारा उस मधुसूदन से?”
मै चीख़कर बोली,”मेरा सब कुछ तो यही है.मेरा घर,पति,मेरा सुहाग”
मैंने लोगों को कहते हुए सुना,”मधुसूदन तो शादी शुदा नहीं था.यह कोई पगली है,पगली हटाओ इसको”और लोगों ने मुझे मार मार कर सच में अलग कर दिया.अंतिम समय मै उस पवित्र आत्मा के कटे-फटे शरीर को जी भरकर देख भी नहीं सकी थी”
एकाएक वो ग़ौर से मुझे देखने लगी,फिर बोली,
“बाबू,तुझे मैंने जो कहानी सुनाई है वो किसी को मत बताना,नहीं तो मुझे कोई भी पागल नहीं कहेगा”
सेठी कह रहा था
“यार आज इस पगली ने हमारा अच्छा टाइम पास कर दिया”
और मै अन्यमनस्क सा सेठी के समर्थन में “हूँ “कहता हुआ न जाने किस सोच में पड गया
