lalach buri bala , hitopadesh ki kahani
lalach buri bala , hitopadesh ki kahani

Hitopadesh ki Kahani : एक समय की बात है कि मैं दक्षिण वन में विचरण कर रहा था । एक सरोवर के तट पर एक बूढ़ा बाघ उस सरोवर में स्नान करके निकला और हाथ में कुशा लेकर कहने लगा, ” ओ जाने वालो! यह सोने का कंकण दान रूप में लेते जाओ।”

राह चलने वाले उसकी बात सुनकर भी भय के कारण उसके समीप नहीं जाते थे । किन्तु सभी तो एक समान नहीं होते। कुछ देर बाद एक लोभी पथिक ने जब बाघ की बात सुनी तो वह सोचने लगा कि भाग्य से यह असम्भव भी सम्भव हो सकता है। फिर भी इस कार्य में प्राणों का भय तो है। अतः इससे दूर ही रहना श्रेयस्कर है।

अनिष्ट से यदि इष्ट की सिद्धि हो जाए तो भी उसका परिणाम अच्छा नहीं होता। क्योंकि जिस पात्र में पहले विष रखा हो यदि उसमें बाद में अमृत रख दिया जाये तो वह अमृत भी विष बन जाया करता है।

फिर वह सोचने लगा कि धन प्राप्त करने में तो सब जगह ही भय की बात होती है। कहा भी है कि जब तक मनुष्य संकट में नहीं पड़ता तब तक उसको कल्याण नहीं दीखता । एक बार जब वह संकट का सामना कर लेता है और फिर भी जीवित रहता तो वह फिर कल्याण देखने लगता है।

वह मन में विचार करने लगा कि एक बार परीक्षण तो किया जाए। यह सोच कर उसने बाघ से पूछा, “कहां है वह कंकण?”

बाघ ने अपना हाथ फैलाकर उसको कंकण दिखा दिया।

पथिक ने उसे देखकर कहा, “किन्तु तुम जैसे हिंसक जीव पर विश्वास किस प्रकार किया जाय ?”

उसकी बात सुनकर बाघ बोला, “पथिक! तुम्हारा कहना ठीक ही है। अपने यौवन काल में मैंने बड़े-बड़े क्रूर कर्म किये हैं। मैंने बहुत से ब्राह्मणों और गौओं का वध किया है। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि असमय में ही मेरे पुत्र मर गये और मेरी पत्नी भी चल बसी। इससे मेरे हृदय पर आघात लगा । मैं वंशविहीन हो गया। तभी मुझे एक धर्मात्मा ने दर्शन किये और उन्होंने मुझे उपदेश दिया, “कुछ दान-पुण्य किया करो।” उस दिन से आरम्भ कर मैं प्रतिदिन स्नान करता हूं और फिर दान किया करता हूं। वैसे भी मैं अब वृद्ध हो गया हूं, मेरे नाखून और दांत बेकार हो गये हैं। क्या इस दशा में भी मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता ?

“शास्त्रों में धर्म के आठ मार्ग बताये गये हैं। वे हैं यज्ञ, स्वाध्याय, दान, तप, सत्य, धैर्य, क्षमा और सन्तोष ।

“इन आठ मार्गों से पहले के चार अर्थात् यज्ञ, स्वाध्याय, दान और तप तो दुनिया को दिखाने के लिए ढोंग भी किये जा सकते हैं । किन्तु अन्तिम चार अर्थात् सत्य, धैर्य, क्षमा और संतोष तो महात्माओं में ही रहते हैं।

“लोभ तो मुझमें इतना भी नहीं है कि मैं अपने हाथ में रखा हुआ कंकण जिस किसी को भी देने के लिए उद्यत हूं । तदपि बाघ तो मनुष्य को खा जाता है, इस लोकोक्ति का निवारण होना कठिन है ।

“क्योंकि संसार के सभी लोग एक-दूसरे का अनुकरण करते हैं। यह संसार तो गतानुगतिक क्रम से कुटिनी स्त्री को भी उपदेश देने की अधिकारिणी मान लेता है, किन्तु फिर भी धर्म के वास्तविक स्वरूप पर इसकी आस्था नहीं होती। जिस प्रकार यदि कोई ब्राह्मण गोबध कर दे तो भी संसार उसको ब्राह्मण ही कहेगा, कसाई नहीं।

“मैंने धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया है। सुनो, महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर कोपदेश देते हुए कहा था, “हे युधिष्ठिर ! जिस प्रकार मरुभूमि में जल वृष्टि होने से आनन्द प्राप्त होता है, ठीक उसी प्रकार भूखे प्राणी को भोजन मिलने से आनन्द की प्राप्ति होती है । दरिद्र मनुष्य को दान देने से दान का सुफल मिलता है।

“जिस प्रकार अपने प्राण स्वयं को प्रिय होते हैं उसी प्रकार सभी प्राणियों को अपने प्राण प्रिय होते हैं। इसलिए सज्जन पुरुष सबको अपने ही समान समझकर उन सभी जीवों पर दया करते हैं।

” और भी कहा गया है कि त्याग में, सुख-दुख में, प्रिय में और अप्रिय में जो पुरुष अपने ही समान सबको समझता है वही सम्मान प्राप्त कर सकता है।

‘और भी कि जो पुरुष पराई पत्नी को अपनी माता के समान, पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान समझता है और अपने ही समान सब प्राणियों के सुख-दुख को समझता है, वास्तव में वही पंडित है । “

बाघ बोला, “तुम दुखी दिखाई दे रहे हो। इसलिए मुझे तुम्हें कंकणों को देते हुए प्रसन्नता होगी।

“महाभारत में ही कहा भी है, हे युधिष्ठिर! तुम दरिद्रों का ही पोषण करो, उनको ही दान दो। जो धनवान हैं उनको धन अथवा दान देने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि औषधि तो रोगी मनुष्य को ही लाभ पहुंचाती है, जो निरोग है, उसको औषधि देने से क्या लाभ?

” दिया जाने वाला दान यदि ऐसे मनुष्य को दिया जाता है कि जिससे किसी प्रकार के प्रत्युपकार की आशा न हो और देश काल तथा पात्र के अनुरूप हो उसी को शास्त्रों 1 में सात्विक दान स्वीकार किया गया है।

“इसलिए आप आइये और इस सरोवर में स्नान कर के यह कंकण ग्रहण कीजिये ।” वह पथिक उस बाघ की बातों में आ गया। लोभ के वश में होकर उसने उस मारक पशु पर विश्वास किया। जब वह सरोवर में स्नान करने के लिए उतरा तो गहन दल- दल में फंस गया। इस प्रकार वह जल से बाहर निकलने में भी असमर्थ हो गया। वह हाथ पैर मारने लगा, किन्तु सब व्यर्थ गया ।

उसको ऐसी अवस्था में फंसा देखकर बाघ कहने लगा, “अरे! आप तो दलदल में फंस गये हैं। मैं आपको अभी बाहर निकालता हूं।”

यह कह कर बाघ धीरे-धीरे उस पथिक के पास गया। मानो स्वयं दलदल में फंसने से बचता जा रहा हो। वहां पहुंच कर उसने उस पथिक को पकड़ लिया ।

उस समय वह पथिक सोचने लगा कि कोई व्यक्ति धर्मशास्त्र और वेद का अध्ययन करता है, इसलिए यह दुरात्मा भला व्यक्ति बन गया है। ऐसा समझना भारी भूल है। क्योंकि स्वभाव ही सबसे बड़ी चीज है, वह शास्त्राध्ययन से नहीं बदल सकती, जिस प्रकार कि गाय का दूध स्वभावतया ही मीठा होता है।

जो लोग अपने मन को वश में नहीं रख सकते, उनके सभी कार्य हाथी के स्नान की भांति व्यर्थ सिद्ध होते हैं। क्योंकि हाथी जब स्नान करके सरोवर से बाहर निकलता है तो अपनी सूंड से धूल उठाकर अपने मस्तक पर फैला लेता है। इस प्रकार उसका किया हुआ स्नान व्यर्थ जाता है। यदि कर्म ठीक न हों तो ज्ञान भी उसी प्रकार बोझ मामूम देने लगता है जिस प्रकार कि विधवा स्त्री के आभूषण ।

पथिक सोच रहा था कि उसने यह अच्छा नहीं किया जो इस घातक प्राणी पर विश्वास कर लिया है। क्योंकि कहा भी है कि नदी का, शस्त्रधारी का नाखूनवाले प्राणी का, सींगोंवाले पशु का, स्त्री का और राजकुल का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए ।

और यह भी कहा गया है कि सब लोगों के स्वभाव की ही परीक्षा की जाती है अन्य. गुणों की नहीं। क्योंकि स्वभाव ऐसा होता है कि जो सब गुणों को लांघ कर प्राणी के सिर पर सवार रहता है।

वह चन्द्रमा जो आकाश में विचरण करता है, सभी विकारों को नष्ट करता है, जिसकी हजारों किरणें हैं और जो नक्षत्र मंडल के मध्य विचरण करता है। भाग्यवश उस चन्द्रमा को भी राहु ग्रस लेता है। कहने का तात्पर्य यह है कि विधाता ने जो ललाट पर लिख दिया है उसको मेटने की शक्ति किसमें है !

इस प्रकार वह चिन्ता करता हुआ उस दलदल से निकलने का यत्न कर रहा था कि बाघ उसके समीप उसको निकालने के बहाने गया और उसने उस पथिक को वहीं दबोच लिया। उसे सरोवर से बाहर निकाला और खाकर डकारें लेता हुआ एक ओर चलता बना ।

इसलिए में कहता हूं कि कभी भी बिना विचारे कोई कार्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि अच्छी तरह पचा हुआ अन्न, अति-विद्धान पुत्र, भली प्रकार शासित पत्नी, भली प्रकार सेवित राजा, भली प्रकार सोच-विचार कर कही गई बात, और भली प्रकार विचार कर किया गया कार्य, ये सब बहुत दिनों तक भी बिगड़ते नहीं देखे गये ।

चित्रग्रीव की यह बात सुनकर कोई घमण्डी कबूतर कहने लगा, “आप यह क्या कहते हैं ?

“कहा गया है कि विपत्ति के समय ही वृद्ध पुरुषों अथवा पुरखों की बात माननी चाहिए। यदि सब समय अथवा ऐसे अवसर पर इस प्रकार विचार करने लगें तो फिर भोजन मिलना भी कठिन हो जायेगा ।

“क्योंकि इस भूतल पर तो अन्न, जल आदि सभी वस्तुएं शंका से ही व्याप्त हैं । सर्वत्र ही किसी न किसी प्रकार का संदेह बना ही रहता है। तब कोई किस पर भरोसा करे और किस पर न करे, फिर जिये तो किस तरह जिये ।

“ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, नित्य शंका करने वाला, और दूसरे के भाग्य पर जीवित रहनेवाला अर्थात् दूसरे की कमाई खाने वाला, ये छ: सदा दुखी ही रहते हैं, इनको कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता।”

उस कबूतर के मुख से इतना सुनना था कि सारे कबूतर उसी स्थान पर जा कर बैठ गये जहां चावल के कण बिखरे हुए थे ।

लोभ और लालच ऐसी बला है कि उसके वश में होकर अच्छे-अच्छे बड़े-बड़े, लोग जिन्होंने महान् शास्त्र ग्रन्थों का अध्ययन किया होता है, जिनकी बातें अनेक जन मानते हैं, जो अनेक व्यक्तियों के संशय का निवारण करते हैं, ऐसे विद्वान जन भी संकट में पड़ जाया करते हैं।

और भी कहा गया है कि लोभ से मनुष्य में क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से मनुष्य में काम की उत्पत्ति होती है, लोभ से ही मनुष्य में मोह उत्पन्न होकर उसका नाश होता है. कहने का अभिप्राय यह कि लोभ ही सब पापों का मूल कारण है ।

क्योंकि यह सभी जानते हैं कि सोने का मृग होना असम्भव है, तो भी राम जैसे मर्यादापुरुषोत्तम उस सुवर्ण मृग के लिए ललचा गये । अधिकांशतया यह देखा गया है कि विपत्तिकाल उपस्थित होने पर समझदार व्यक्ति की भी बुद्धि नष्ट हो जाया करती है। कबूतरों के चावलों पर बैठते ही वे सभी बहेलिये के जाल में फंस गये। तब वे जिस घमंडी कबूतर के कहने से वहां बैठे थे उसको भला-बुरा कहने लगे।

इसीलिए कहते हैं कि किसी दल का अगुआ नहीं बनना चाहिए। क्योंकि अगुआ बनने पर यदि कार्यसिद्ध हो जाता है तो उसे कोई विशेष लाभ नहीं होता, सबके बराबर ही उसको भी लाभ होता है । और यदि कार्य में किसी प्रकार की विपत्ति आ जाये तो जो अगुआ है वही सबसे पहले मारा जाता है।

जब अन्य कबूतर उसका इस भांति तिरस्कार कर रहे थे उस समय उनके राजा चित्रग्रीव ने कहा, “यह इसका दोष नहीं। क्योंकि जब विपत्ति आने वाली होती है तो अपना शुभ चिन्तक भी विपत्ति का कारण बन जाता है। कभी-कभी देखा गया है कि दूध दुहते समय गाय की जांघ ही बछड़े को बांधने के लिए खम्भे का कार्य करती है।

“इसके विपरीत जो विपत्ति में पड़े हुए बन्धु को उस विपत्ति से उबार ले वही सच्चा मित्र है। उसे मित्र नहीं कहा जा सकता जो मित्र के भयभीत होने पर उसको धिक्कारता है ।

“इसलिए कहा गया है कि विपत्ति के समय घबराना कायरता का लक्षण है। अतः अब उचित यही है कि धैर्य धारण कर इसके प्रतिकार का उपाय सोचना चाहिए।

“क्योंकि विपत्ति में धैर्य होने, अभ्युदय के समय क्षमा, सभा में वाक् चातुर्य्य संग्राम में पराक्रम, यश में अभिरुचि और सुनने का शौक, इतनी बातें तो महापुरुषों में रहा ही करती हैं।

“जिसे सम्पत्ति के प्राप्त होने पर हर्ष नहीं होता, विपत्ति आने पर जिसे दुख नहीं होता, जो रण में कायरता नहीं दिखाता, तीनों लोगों के सिरमौर ऐसे बिरले ही पुत्र को माता जन्म दिया करती है। अर्थात् ऐसे पुरुष संसार में कम ही उत्पन्न हुआ करते हैं।

” कहा गया है कि जो मनुष्य धनवान बनना चाहता है उसको चाहिए कि वह निद्रा, तन्द्रा, आलस्य, भय, क्रोध और ढिलाई इन छः दुर्गुणों का तो सर्वथा त्याग कर ही दे । “

इस प्रकार समझाने के बाद चित्रग्रीव ने उनसे कहा, “अब ऐसा करो कि सब लोग एक साथ इस जाल को लेकर उड़ चलो।

“क्योंकि यदि छोटी-छोटी भी बहुत-सी वस्तुएं एकत्रित हो जाएं तो वे काम बना देती हैं । जिस प्रकार कि साधारण तिनकों के समुदाय से बनी रस्सी के द्वारा मतवाले हाथी 1 को बांध भी लिया जाता है।

“किसी का कुल कितना ही छोटा क्यों न हो यदि वह संगठित रहता है तो बड़ा ही हितकारी होता है । देखा गया है कि धान में से साधारण-सी भूसी निकाल दिये जाने पर चावल से फिर धान का पौधा नहीं उगता । “

इस प्रकार विचार कर उन सब कबूतरों ने एक साथ जाल को उठाया और उड़ चले। बहेलिये ने जब यह देखा तो वह भी उनके पीछे दौड़ने लगा।

बहेलिया विचार करता जा रहा था कि इस समय तो इन कबूतरों में जोश है, ये संगठित हैं और जब भूख से व्याकुल होकर थक जायेंगे तो स्वयं ही गिर कर मेरे सामने पड़ जायेंगे । इस प्रकार सोचते हुए बहेलिये ने बहुत दूर तक उन कबूतरों का पीछा किया किन्तु जब वे उसके जाल को लेकर आंखों से ओझल हो गये तो बहेलिया निराश होकर लौटने लगा।

कबूतरों ने जब देखा कि बहेलिया लौट गया है तो वे परस्पर विचार करने लगे कि अब क्या किया जाये ।

इस अवसर पर चित्रग्रीव बोला कि माता-पिता और मित्र ये तीन स्वभावतया ही हितकारी होते हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य लोग शुभचिन्तक बनते हैं वे कार्य और कारणवश बना करते हैं। अर्थात् जब किसी का किसी से स्वार्थ सिद्ध होता है तो उस समय उसके शुभचिन्तक बन गये अन्यथा दोनों अपने-अपने घर प्रसन्न ।

हिरण्यक नाम का एक चूहा मेरा परम मित्र है। वह गण्डकी नदी के तट पर चित्रवन में रहता है। उसके पास चलें तो वह हमारे बन्धन काट डालेगा।

यह परामर्श सुनकर वे कबूतर उस जाल को लेकर हिरण्यक चूहे के बिल के पास पहुंच गये।

हिरण्यक नाम का वह चूहा बड़ा समझदार था। उसने अपने बिल के सौ द्वार बनाये हुए थे, जिससे कि विपत्ति आने पर वह उपयुक्त द्वार से बाहर निकल कर अपने प्राणों की रक्षा कर सके। कबूतर जब अपने जाल को लेकर धम से पृथ्वी पर उतरे तो उस धमाके को सुन वह बिल में दुबककर बैठ गया। वह विचार करने लगा कि यह क्या हो सकता है ?

इतना धमाका होने पर भी जब हिरण्यक उसका कारण जानने के लिए बाहर नहीं निकला तो चित्रग्रीव ने उसको पुकारते हुए कहा, “मित्र हिरण्यक ! क्या बात है, आप बाहर क्यों नहीं निकलते? हमसे बोलते क्यों नहीं ?”

हिरण्यक ने अपने मित्र के स्वर को पहचाना तो वह बिल से बाहर आ गया। चित्रग्रीव को देखकर उसने कहा, “ओह! मैं तो बड़ा हूं पुण्यवान् जो आज मेरे घर पर मेरा मित्र आया है ।

“मित्र के साथ जिसका वार्त्तालाप होता है, अथवा मित्र के साथ रहने का जिसको संयोग प्राप्त होता है और मित्र के साथ जिसका विचार-विमर्श होता है उससे बढ़कर पुण्यात्मा इस संसार में अन्य कोई नहीं है । “

उसने जब ध्यान से देखा तो पाया कि चित्रग्रीव सहित सभी कबूतर जाल में फंसे हुए हैं। यह देखकर उसको आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, “मित्र यह क्या है?”

चित्रग्रीव बोला, “मित्र ! यह हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का फल है।

“जो प्राणी जिसके कारण, जिसके द्वारा, जिस प्रकार, जिस समय, जो कुछ, जितना-कितना, जिस स्थान पर शुभ या अशुभ कर्म किये रहता है, उसी कारण, उसी के द्वारा, उसी भांति उसी समय, उतना ही, उसी स्थान पर भाग्य के वश होकर उस कर्मफल का भोग करता है।

” और भी कहा गया है कि रोग, शोक, सन्ताप, बन्धन, क्लेश आदि-आदि ये सब मनुष्यों के अपने ही कर्मरूपी वृक्ष के फल हैं।”

यह सुनकर हिरण्यक तुरन्त चित्रग्रीव का बन्धन काटने के लिए आगे बढ़ा। उसे इस प्रकार करते देख चित्रग्रीव ने कहा, “मित्र! ऐसे नहीं। पहले आप ये सब जो मेरे आश्रित हैं इनके बन्धन काट दीजिये। उसके बाद मेरे बन्धन काटना । “

हिरण्यक कहने लगा, “मुझमें बल ही कितना है। मेरे दांत भी कोमल हैं। मैं इन सबके बन्धन किस प्रकार काट पाऊंगा? इसलिए जब तक मेरे दांत टूट नहीं जाते तब तक पहले आपका बन्धन काट देता हूं। फिर मुझमें जितना सामर्थ्य होगा तदनुसार इनके भी बन्धन काट दूंगा।”

चित्रग्रीव कहने लगा, “नहीं ऐसे नहीं। पहले यथाशक्ति इनके बन्धन काटिये । “

हिरण्यक ने कहा, “अपने विषय में इस प्रकार उदासीन हो कर आप अपने आश्रितों की रक्षा का विचार कर रहे हैं, यह तो नीतिशास्त्र के सर्वथा विरुद्ध है।

” कहा गया है कि आपत्ति से बचने के लिए धन की रक्षा करे, धन से भी अधिक स्त्रियों की रक्षा करे, किन्तु धन और स्त्री से भी उत्तम समझकर सदा सर्वप्रथम अपनी रक्षा करे ।

“और भी कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के मुख्य कारण प्राण ही होते हैं। जो इन प्राणों की हत्या कर लेता है समझो उसने किसकी हत्या नहीं की और जो इनकी रक्षा करता है समझो उसने किसकी रक्षा नहीं की।”

यह सुन कर चित्रग्रीव ने कहा, “मित्र ! नीति तो यही कहती है किन्तु मैं तो अपने आश्रितों का दुख सहने में सर्वथा असमर्थ हूं। इसीलिए मैं ऐसा कहता हूं।

“क्योंकि समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने धन और जीवन को भी पराये उपकार में त्याग दे। धन और शरीर ये दोनों ही तो नाशवान् हैं। तब क्यों न इनको किसी शुभ कार्य पर त्याग दिया जाये ।

‘और फिर यह तो साधारण नहीं अपितु असाधारण कारण है। वैसे तो ये भी कबूतर हैं और मैं भी कबूतर हूं। अपनी जाति, गुण और द्रव्य में हम समान ही तो हैं। तब फिर यदि मैं इस समय इनके समान ही अपने बन्धन पहले कटवाने लग जाऊं तो मेरी प्रभुता का कब और क्या फल होगा? तब मैं इनसे बड़ा किस प्रकार कहा जाऊंगा ?

” और फिर ये बेचारे बिना वेतन के मेरी सेवा करते हैं। मेरा साथ नहीं छोड़ते, सदा मेरी सेवा में लगे रहते हैं । इसलिए मेरे प्राणों के भी चले जाने की चिन्ता न करते हुए पहले मेरे इन आश्रित जनों को आप जीवन दान दीजिए।

“मांस, मल-मूत्र और हड्डी से बने इस शरीर का भरोसा त्याग कर अपने यश की रक्षा करते हुए इन बेचारों को इस विपत्ति से मुक्त करो। और देखिए, इस अनित्य तथा मलवाही शरीर से यदि नित्य और निर्मल यश प्राप्त हो जाये तो फिर और क्या पाना अवशेष रहा? अर्थात् यदि यश मिल गया तो समझिये कि सब कुछ ही मिल गया ।

“क्योंकि शरीर और उसके गुणों की दूरी और अन्तर बहुत अधिक है। क्योंकि शरीर तो नाशवान है, क्षणिक है। किन्तु गुण तो कल्पान्त तक स्थायी रहते हैं । “

हिरण्यक ने जब ये सारी बातें सुनीं तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ और बाला – ” मित्र ! ठीक है । अपने आश्रितों के प्रति इतने उच्च भाव के कारण तो तुम तीन लोकों के अधिपति हो सकते हो। “

ऐसा कह कर उसने पहले चित्रग्रीव के आश्रितों के बन्धन काटने आरम्भ किये। अन्त में उसने अपने मित्र चित्रग्रीव के भी बन्धन काटे। फिर उन सबका सत्कार कर उसने

कहा। मित्र चित्रग्रीव ! बहेलिये के जाल में बंध जाने के दोष पर आप किसी प्रकार की आत्मग्लानि का अनुभव न करना ।

“क्योंकि जो सौ योजन से भी अधिक दूरी पर विद्यमान मांस के टुकड़ों को देख लेता है वही पक्षी विपरीत समय आने पर इतने बड़े जाल के बन्धन को भी नहीं देख पाता और उसमें फंस जाता है।

सूर्य तथा चन्द्रमा का ग्रहण द्वारा ग्रस्त होना, हाथी का विषधर सर्प द्वारा बन्धन, बुद्धिमान मनुष्यों की दरिद्रता यह सब देख कर मेरा तो यही मत है कि विधाता बड़ा ही प्रबल है ।

” आकाश के एकान्त होने में विचरने वाले पक्षी भी विपत्ति में फंस जाया करते हैं। अथाह जल में विचरण करने वाली मछलियां भी चतुर मछुआरों द्वारा समुद्र में से भी ‘पकड़ ली जाती हैं। ऐसी स्थिति में यह कौन कह सकता है कि इस संसार में दुष्कर्म क्या है और सुकर्म क्या है । किस स्थान पर क्या कर लेने से लाभ होगा यह कह पाना भी कठिन है। क्योंकि काल तो दूर से ही अपने दुख रूपी हाथों को बढ़ाकर जब और जिसे चाहता है तभी पकड़ लिया करता है।”

इस प्रकार उनको समझा कर हिरण्यक ने उनका आतिथ्य सत्कार किया। तब उसने चित्रग्रीव को विदा देते हुए उसका आलिंगन किया और फिर जब वह अपने परिवार सहित अपने गन्तव्य स्थान को चला गया तो हिरण्यक दूर तक उस समूह को जाता देखता रहा और जब वह आंखों से ओझल हो गया तो वह स्वयं भी अपने बिल में घुस गया।

मनुष्य को चाहिये कि जिस किसी प्रकार भी हो उसको शताधिक मित्र बनाये रखने चाहिये। कौन किस समय काम आ जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। एक साधारण से चूहे मित्र ने समय पर अपने मित्र के किस प्रकार प्राण बचा लिये।

लघुपतनक नाम का कौआ, जो चित्रग्रीव और हिरण्यक की सब बातें देख और सुन रहा था, विस्मय के साथ हिरण्यक से कहने लगा, “अहो हिरण्यक, तुम धन्य हो । मैं भी तुम्हारे साथ मित्रता करना चाहता हूं। आप कृपा कर मेरे साथ मैत्री करके मुझे अनुगृहीत कीजिये । “

हिरण्यक ने जब यह सुना तो बिल के भीतर से ही कहने लगा, “आप कौन हैं?” “मैं

लघुपतनक नाम का कौआ हूं।”

यह सुनकर हिरण्यक हंस पड़ा और बोला, “तुम्हारे साथ मेरी मैत्री किस प्रकार हो सकती है? क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि समझदार को चाहिये कि जिसके साथ मेल बैठता हो उसके साथ ही मित्रता करनी चाहिए। मैं तो तुम्हारा भोजन हूं और तुम मेरे भक्षक हो। हम दोनों में परस्पर किस प्रकार प्रीति हो सकती है ? भक्ष्य और भक्षक की मित्रता तो किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है।

” और भी कहा गया है कि भक्ष्य और भक्षक की प्रीति तो विपत्ति का ही कारण बन सकती है। एक सियार की करनी से पास में बंधे हुए हिरण को कौए ने बचा लिया था ।

सियार ने तो उसका अनिष्ट ही कर दिया था ।”

कौआ बोला, “यह किस प्रकार ? “

हिरण्यक बोला, “सुनाता हूं, सुनो। “