Hitopadesh ki Kahani : कल्याणकटक नगर में भैरव नाम का एक बहेलिया रहा करता था। एक बार मृगों की खोज करता हुआ वह विन्ध्य वन में चला गया। वहां उसने एक मृग को मारा। उसको लेकर जब वह अपने घर की ओर जा रहा था तो मार्ग में उसे एक बहुत बड़ा सूअर दिखाई दिया ।
बहेलिये ने मृग को तो धरती पर रख दिया और धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर सूअर पर वाण चला दिया। बाण लगते ही सूअर ने बहेलिये पर उलटा आक्रमण किया और उसको वहीं ढेर कर दिया ।
मनुष्य की जब मृत्यु आती है तो वह किसी भी बहाने से आ जाती है। वह बहाना जल का हो सकता है, आग का, विष का भूख का रोग का, अथवा पर्वत से गिरने का, इनमें से कोई भी बहाना मरने के लिए हो सकता है।
बहेलिये के धरती पर गिरते ही वहीं पर सूअर भी फड़फड़ाने लगा। सूअर और बहेलिये के फड़फड़ाने से वहां पर पड़ा एक सांप भी मर गया।
दुर्भाग्य का मारा दीर्घराव नाम का एक सियार अपने भोजन की खोज में उधर ही आ निकला। उसने वहां पर मृग, सूअर, सर्प और बहेलिया इन चारों को मृत पड़ा पाया । मन में बहुत प्रसन्न होता हुआ वह विचार करने लगा कि विधाता तो आज मुझ पर बहुत ही प्रसन्न है। उसने एक साथ इतना भोजन मेरे लिए भेज दिया है।
वह सोचने लगा कि जिस प्रकार विचारे बिना प्राणी पर अनेक दुख आ जाया करते हैं, मैं समझता हूं कि उसी प्रकार सहसा अनेक सुख भी आ जाया करते हैं। इसको भाग्य की ही बात मानना चाहिए। अन्य कुछ नहीं ।
अच्छा, अब यही सही। इस मांस से तो मेरे दो-तीन मास का निर्वाह हो जायेगा । किस को किस प्रकार और कब खाया जाये इस पर वह विचार करते हुए सोचने लगा कि एक मास तो मनुष्य का मांस चलेगा, एक-एक मास मृग और सूअर के मांस से कट जायेगा। एक दिन सर्प का मांस भी चलेगा ही। इसलिए आज के दिन यह धनुष की तांत ही पहले खा लेनी चाहिए।
तो पहली भूख के समय धनुष में लगी यह नीरस तांत की डोरी ही समाप्त कर लेता हूं। ऐसा सोचकर वह उसे खाने लगा। तांत पर दांत गड़ाने पर सहसा जब डोरी टूटी तो धनुष का एक कोना उछलकर गीदड़ की छाती के भीतर घुस गया। बस फिर क्या था, उस गीदड़ की भी वहीं पर तत्काल मृत्यु हो गई ।
मन्थरक कहने लग़ा कि अति संचय करना सर्वथा त्याज्य है । धनी जो कुछ दान में देता है और जो कुछ वह धन का उपभोग कर लेता है बस उतना ही उसका धन है। उसके मरने पर तो अन्य लोग ही उसकी धन-सम्पत्ति का उपभोग करते हैं। उसके साथ कुछ नहीं जाता।
जो दान आप विशिष्ट अथवा भले व्यक्तियों को देते हो अथवा जो नित्य खा लिया करते हो, मैं उसी धन को तुम्हारा धन कहता हूं। शेष जो धन आपके पास रह जाता है उसके विषय में तो यही कहना चाहिए कि वह आप किसी अन्य के धन की रक्षा कर रहे हैं।
खैर, जाने भी दो । अब उस बीती बात को सोचने से लाभ ही क्या ? क्योंकि समझदार व्यक्ति अप्राप्य वस्तु की कभी अभिलाषा नहीं करते। और जो वस्तु नष्ट हो जाती है उसके विषय में दुख अथवा सोच-विचार नहीं करते। विपत्ति आने पर जो घबराते नहीं उन्हीं को इस संसार में समझदार मनुष्य माना जाता है।
इसलिये हे मित्र ! अब आप यहां पर सदा उत्साह से रहिये। क्योंकि बहुत से लोग तो शास्त्र पढ़ लेने पर भी मूर्ख ही रह जाया करते हैं। वास्तव में विद्वान तो वही है जो शास्त्र के
अनुकूल आचरण करे। रोगी भले ही किसी अच्छी से अच्छी औषधि का ध्यान कर ले उससे वह निरोग नहीं हो सकता। निरोग तो वह तभी होगा जब वह उस औषधि का सेवन करेगा।
और भी कहा गया है कि जो मनुष्य परिश्रम से, उद्योग से भागता है, कतराता है, विधि का विधान भी उसको कुछ लाभ नहीं पहुंचा सकता। यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार कि अन्धे के हाथ में रखा हुआ दीपक उसको उसकी इच्छित वस्तु नहीं दिखा सकता। तो हे मित्र ! तुम्हारी जो यह विपरीत दशा इस समय चल रही है उसमें भी तुमको शान्ति का आश्रय लेना होगा। इस कष्ट को भूल जाओ ।
कहा गया है कि राजा, कुलवधू, ब्राह्मण, मन्त्री, मेघ, दांत, केश, नख और मनुष्य जब ये स्थान भ्रष्ट हो जाते हैं तो फिर भले नहीं लगते। ऐसा विचार कर किसी को भी अपने स्थान का परित्याग नहीं करना चाहिए। ऐसा जो करते हैं, वे कायर हैं, ये कायरों के वचन हैं।
क्योंकि सिंह, सत्पुरुष, हाथी, ये सब एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर अपना पौरुष दिखाते हैं। किन्तु कौआ, कायर पुरुष और मृग तो बस एक ही स्थान पर रहकर वहीं मर खप जाते हैं।
मनस्वी वीर पुरुष के लिये कौन अपना विषय है और कौन-सा देश उसके लिये विदेश है । वह जिस देश का आश्रय लेता है अपने बाहु प्रताप के बल पर वह उसको ही अपना देश बना लेता है। दांत, नाखून और पूंछ रूपी शस्त्रों से सुसज्जित सिंह जिस किसी भी वन में चला जाता है वहीं वह मतवाले मस्त हाथियों को मार कर उनके रुधिर से अपनी प्यास बुझा लेता है।
और भी कहा गया है कि जिस प्रकार बावड़ी के पास मेढ़क और जल से परिपूर्ण सरोवर में पक्षी स्वयमेव आ बसते हैं उसी प्रकार उद्यमी पुरुष के पास सब सम्पत्तियां विवश होकर स्वयंमेव चली आती हैं।
मनुष्य जिस प्रकार आये हुए सुख को अपना लिया करता है, उसको चाहिए कि वह आए हुए दुख को भी स्वीकार कर ले, क्योंकि ये दुख और सुख तो चक्र की भांति घूमते ही रहते हैं ।
उत्साही, आलस्यहीन, कार्य प्रणाली को भली प्रकार समझने वाला, व्यसनों में जिसकी अभिरुचि नहीं है, जो बहादुर है, कृतज्ञ है, पक्की मित्रता को निभाने वाला है ऐसे पुरुष के पास तो लक्ष्मी स्वयं ही निवास करने के लिये चली आती है।
धन के बिना भी वीर पुरुष बहुत मान पाता है और उन्नति के शिखर पर पहुंच जाता है । किन्तु जो कृपण होता है उसके पास बहुत धन होने पर भी वह अपमानित ही होता है ।
अनेक गुणों के समुदाय से प्राप्त होने वाले स्वभावतया उत्पन्न सिंह के तेज को, क्या सुवर्ण की माला पहनने वाला कुत्ता कभी प्राप्त कर सकता है? कभी नहीं ।
जब मुझे यह अहंकार है कि मैं धनवान हूं तब क्या धन के नष्ट हो जाने पर मैं विषाद करने लग जाऊं ? धन का आना-जाना तो उसी प्रकार है जिस प्रकार मनुष्य के हाथ से गेंद आती-जाती रहती है।
और भी कहा गया है कि बादल की छाया, क्रूर मनुष्य का प्रेम, नया अन्न, स्त्री, यौवन और धन, ये तो कुछ समय के उपभोग के लिए ही योग्य होते हैं।
मनुष्य को चाहिए कि वह आजीविका के लिए विशेष चिन्तित न हो। उसका प्रबन्ध तो विधाता पहले ही कर दिया करता है। ज्यों ही बालक माता के गर्भ से बाहर निकलता है, उसी क्षण माता के स्तनों में दूध बहने लगता है।
और भी मित्र ! कहा गया है कि जिस विधाता ने हंसों को सफेद और तोतों को हरा बनाया है मोरों को उसने अनेक रंग से सजाया है। वह विधाता तुम्हारी जीविका का भी प्रबन्ध अवश्य करेगा।
और मित्र ! सुनो, मैं तुम्हें सज्जनों के भेद की बातें बताता हूं।
जिस समय धन अर्जित किया जाता है उस समय अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं । विपत्ति के समय वही धन सन्ताप देता है। और जब मनुष्य की उन्नति होती है तो वह धन उसे पागल बना देता है। तब धन किस प्रकार सुखदायी हो सकता है?
जो मनुष्य धर्म कार्य के लिए धन की इच्छा करता है उसको चाहिए कि वह धनी होने की इच्छा ही त्याग दे। क्योंकि साफ पैर में कीचड़ लपेट कर उसको धोने की अपेक्षा अच्छा तो यही है कि कीचड़ का स्पर्श ही न होने दे। अभिप्राय यह कि त्याग के लिये ही यदि धन चाहिए तो फिर उसकी चाह ही क्यों करनी चाहिए?
जिस प्रकार मांस नोचा जाता है, आकाश में पक्षी उसको नोचते हैं, पृथ्वी पर सिंह आदि मांसाहारी जीव नोचते हैं और जल में उसको मगरमच्छ, घड़ियाल आदि नोचते हैं, उसी प्रकार धनी मनुष्य भी सब तरफ से नोचा ही जाता है।
जगत् के जीवों को जिस प्रकार सदा मृत्यु का भय सताता रहता है, उसी प्रकार धनी मनुष्य को राजा, जल, चोर और भाई-बन्धुओं से भय बना ही रहता है।
अनेक क्लेशों से युक्त इस मानव जीवन में इससे बढ़कर दुख और क्या हो सकता है कि उसको अपनी इच्छा के अनुकूल धन नहीं मिलता और यदि कुछ मिलने भी लगे तो उसकी और अधिक पाने की लालसा शान्त ही नहीं होती ।
मेरे भाई ! और भी सुनो।
धन एक तो सहज में मिलता नहीं और जब मिल गया तो बड़ी कठिनाई से उसकी रक्षा होती है। और यदि वह मिला हुआ धन किसी भांति नष्ट हो जाये तो समझ लीजिए कि मरण ही हो गया है, धन के कारण इतना दुख होता है। इसलिए इसकी कभी चिन्ता करनी ही नहीं चाहिए।
यदि इस संसार में तृष्णा का परित्याग कर दिया जाये तो फिर कौन निर्धन कहलाएगा और कौन धनवान ? यदि तृष्णा को किसी प्रकार का भी प्रश्रय दिया तो समझिए कि दासता सिर पर खड़ी है।
मनुष्य जो जो चाहता है यदि वह मिलता जाये तो उसकी इच्छा बढ़ती जाती है। प्राप्त धन से इच्छा की तृप्ति न होकर वह और भी आगे को दौड़ने लगती है ।
अब अधिक प्रशंसा करने की क्या आवश्यकता है? तुम लोग मेरे ही साथ यहां पर रहकर अपना जीवन यापन करो ।
महात्माओं का प्रेम तो जीवन-भर रहता है । किन्तु उनका कोप उसी क्षण नष्ट हो जाया करता है। और उनका जो त्याग है वह सदा निःस्वार्थ होता है।
मन्थरक से इस प्रकार सुनकर लघुपतनक बोला, “मन्थरक! तुम धन्य हो । तुम्हारे गुण
तो सब प्रकार से प्रशंसनीय हैं।
“क्योंकि अच्छे जन ही अच्छे जनों को उबारने में समर्थ होते हैं । यदि हाथी दलदल में फंस जाये तो उसको हाथी ही बाहर निकाल सकता है कोई अन्य प्राणी नहीं ।
“समस्त संसार के प्राणियों में वही मनुष्य प्रशंसनीय होता है, वही उत्तम पुरुष वही सज्जन और वही धन्य है कि जिसके पास आए हुए शरणार्थी निराश लौट कर नहीं जाते।”
इस प्रकार सुख-दुख की बात कर सान्त्वना दिए जाने पर लघुपतनक और हिरण्यक वहीं मन्थरक के साथ रहकर आहार-विहार करते हुए आनन्द से अपने दिन व्यतीत करने लगे।
एक दिन चित्रांग नाम का एक मृग भयभीत हालत में उनके पास पहुँचा। उस मृग को अत्यन्त भयभीत देखकर मन्थर तो सरोवर के जल में घुस गया, चूहा बिल में घुस गया और कौआ उड़कर वृक्ष की ऊंची शाखा पर जा बैठा। लघुपतनक वृक्ष पर बैठ, इधर-उधर देखने लगा कि कोई भयानक जन्तु तो इस मृग का पीछा नहीं कर रहा है। उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई किन्तु कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया । उसने अपने साथियों को बताया कि कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। यह सुनकर सब अपने-अपने स्थान पर आ गए।
मन्थरक ने कहा, “भाई मृग ! मैं इस स्थान पर तुम्हारा स्वागत करता हूं। जितना चाहो उतना जल पियो, जो चाहो करो जहाँ चाहो वहां विचरण कर इस वन को सनाथ करो।” चित्रांग बोला, “बहेलिया मेरा पीछा कर रहा था। उससे डरकर मैं अपकी शरण में आया हूं। आपके साथ मित्रता करना चाहता हूं।”
यह सुनकर हिरण्यक बोला, “हम लोगों के साथ तो तुम्हें स्वयं ही मित्रता प्राप्त हो गई है।
“क्योंकि अपना सगा सम्बन्धी या फिर जिसके साथ किसी प्रकर का नाता-रिश्ता हो अथवा वंश परम्परा से मित्रता चली आ रही हो या फिर किसी को उसके दुख से बचाया जाये ये ही चार प्रकार के मित्र होते हैं।
“इसलिए अब आप इस स्थान को अपने घर से भी अधिक सुखदायी समझ कर आनन्द से रहिए ।”
यह सुनकर मृग को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने इच्छापूर्वक भोजन किया और उस सरोवर का मधुर जल पिया और फिर उसी वृक्ष के नीचे छाया में बैठकर विश्राम किया ।
विश्राम कर लेने के उपरान्त मन्थरक ने मृग से पूछा, “मित्र मृग ! इस निर्जन वन में तुमको किसने डराया है? क्या यहाँ बहेलिये आया करते हैं?”
मृग बोला, “कलिंग देश में रुक्मांगद नाम का एक राजा है। वह दिग्विजय करने के लिए निकला हुआ है और इस समय चन्द्रभागा नदी के तट पर विश्राम कर रहा है। वहीं उसकी सेना का पड़ाव है। प्रातः काल वह वहां से चलकर इस कर्पूर सरोवर के समीप पड़ाव डालेगा। यह बात बहेलिया अपने साथी से कह रहा था। इसलिए मैं समझता हूं कि कल यहां रहना भयावह होगा । ऐसी स्थिति में जो उचित समझें वह कीजिए ।
यह सुनकर कछुआ भयभीत हो गया। उसने कहा, “मैं तो किसी अन्य सरोवर में चला जाऊंगा।”
कौआ बोला, “हां, यह ठीक है ।”
हिरण्यक कहने लगा, “मन्थरक तो दूसरे सरोवर में जाकर अपने प्राण बचा लेगा । किन्तु जो पृथ्वी पर चलने वाला है उसके प्राणों की रक्षा किस प्रकार होगी ?”
“क्योंकि कहा गया है कि जल-जन्तुओं के लिए जल, जो दुर्ग बनाकर रहते हैं उनके लिए उनका दुर्ग, वन के निवासी सिंह आदि के लिए वन की भूमि और राजाओं के लिए मन्त्री परम बल होता है।
“मित्र लघुपतनक ! इस उपदेश से तो वैसा ही होगा जैसा कि वह बनिया अपनी स्त्री का कुच-मर्दन अपनी आंखों देख कर दुःखी हुआ था । लगता है तुम भी उसी प्रकार दुःखी होओगे ।”
यह सुनकर उन सबने पूछा, “यह कैसे ?”
हिरण्यक बोला, “सुनाता हूं, सुनो।”
