कौन थी वो-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Kaun Thi Wo

Hindi Kahani: दिसंबर का अंतिम सप्ताह था। कोहरे से भरा हुआ मौसम ,जब मैं अपने इंटरव्यू के लिए घर से दिल्ली के लिए निकला था।

“इतनी ठंड और कोहरे के बीच तुम्हारा दिल्ली जाना ठीक रहेगा क्या? “बब्बू भैया ने अपनी असहमति जताते हुए कहा।

“मगर मेरे पास कोई ऑप्शन भी तो नहीं है मैंने चिढ़कर कहा।

बब्बू भैया चुप हो गए। उन्होंने दबे स्वर में कहा “प्रशांत, इस समय कहीं जाना ठीक नहीं होगा।चारों तरफ कोहरा होगा।कई ट्रेनें कैंसिल हो रहीं हैं।”

“मगर अभी तीन दिन है ना भैया! तीन दिन बाद इंटरव्यू है।
आई होप कि मेरा इंटरव्यू अच्छा जाए और मेरा सिलेक्शन हो जाए।”

मैं बहुत ही ज्यादा फ्रस्ट्रेशन में था। लगभग तीन साल पहले मैंने एमबीए कर लिया था मगर कहीं भी नौकरी नहीं लग रही थी।
बीच में कोरोना के दो साल वैसे ही बेकार चले गए थे।
बड़ी मुश्किल से अब यह मौका आया है तो मैं यह मौका नहीं गंवा सकता, किसी भी हाल में!
वैसे तो घर में कोई कुछ नहीं कहता लेकिन एक तरह का तनाव पसरा ही रहता था।

बड़े भैया एमएससी करने के बाद बड़े ही आराम से नेट की परीक्षा पास कर कॉलेज की नौकरी कर रहे थे।
दूसरी तरफ मैं, पढ़ने में तेज था तो मेरे पिता ने मेरे पीछे काफी रुपए खर्च कर मुझे अच्छे कॉलेज से मैनेजमेंट करवाया था मगर उसका नतीजा शून्य ही रहा।
कैंपस के समय जब मैं सेलेक्ट हो गया था उसके बाद वह कंपनी ही घाटे में चली गई थी।
नौकरी से पहले ही शॉर्ट लिस्ट कर मुझे हटा दिया गया।
दूसरी बार मैंने अपना इंटरव्यू के चक्कर में जब मैं ऑटो से जा रहा था, उसे किसी ने धक्का दे दिया और मैं सड़क पर ही गिर गया था ।
वह कोई भल मानस था जिसने मुझे उठाकर अस्पताल पहुंचाया और मेरा इलाज भी कराया फिर फोन नंबर लेकर घर कॉल किया और घर से सभी को बुलवाया भी था।
कितने जिल्लत मैंने झेला हैं कह नहीं सकता इस नौकरी के पीछे और नौकरी है कि मेरे पास आती ही नहीं।
एक शर्मीली दुल्हन की तरह दूर छिटक जाती है मुझसे।

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“मैं निकलता हूं भैया, मां पापा!”सभी को प्रणाम कर मैं ट्रेन में बैठ गया।
किसी को मन नहीं था कि मैं इंटरव्यू के लिए जाऊं मगर मेरी  जिद थी,मैं घर से निकल गया।
“ठीक से जाना प्रशांत, कोई भी जरूरत हो बिल्कुल फोन कर देना। चाहे वह रात के बारह बजे या दो।”बब्बू भैया परेशान हो रहे थे।
“हां भैया!” मेरी आंखें नम हो गई थी।
धीरे-धीरे ट्रेन से खिसकने लगी और स्पीड पकड़ने लगी।
बहुत ज्यादा ही ठंड थी और कोहरे की मार तो ऐसी थी कि बाहर कुछ नजर ही नहीं आ रहा था।
धीरे-धीरे शाम हो गई और भागते हुए पेड़ पौधे भूत प्रेत की तरह नजर आने लगे थे।

मैं खिड़की के पास बैठा हुआ बाहर देखता जा रहा था।
अचानक ही एक तेज आवाज के साथ ट्रेन रुक गई और लोगों की चीख पुकार मचने लगी।
किसी अनजानी आशंका से मैं घबरा उठा।

 “ट्रेन आगे नहीं जाएगी!” लोगों की भीड़ में अफरातफरी मच गई थी।
तभी ट्रेन में रेलवे की तरफ से एक अनाउंसमेंट जारी किया गया
 “प्रशासन ने कई ट्रेनों के रूट डाइवर्ट कर दिया है और कई ट्रेनों को कैंसिल कर दिया गया है।
यह ट्रेन अब आगे नहीं जाएगी क्योंकि आगे बहुत ही गहरा कोहरा है।
इस कोहरे में एक्सीडेंट होने के चांसेस बहुत ज्यादा हैं।”
“भला ऐसा भी होता है!आधे रास्ते में ही अटका कर रख दिया गया है!”लोगों का गुस्सा बढ़ रहा था मगर इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता!
“इंटरव्यू के लिए जा रहे हो बाबू! किसी ने मुझे सुझाया, यहां से बस पकड़ लो बस रात भर की जर्नी है,बस बनारस पहुंचा देगी और फिर बनारस से कल सुबह बस पकड़ कर चले जाना या फिर कोई लोकल ट्रेन!”

मरता क्या ना करता मैं ट्रेन से उतरकर बस स्टैंड की तरफ चल पड़ा।
ठंड से ठिठुरते हुए बुरा हाल था।
दिसंबर का आखिरी सप्ताह,सर्द रात कोहरे की चादर में लपेटा हुआ पूरा समां था।पेड़ पौधे से लेकर जमीन तक पसरी हुई बर्फ की सफेद चादर, बहुत ही डरावना सा लग रहा था। उसपर सांय-सांय करती हुई काट डालने को तैयार ठंडी सर्द हवाएं!
रात के लगभग 9:00 बज रहे थे। बस स्टैंड पर सन्नाटा पसरा हुआ था।
“इतनी ठंड में भला ट्रैवल भी कौन करेगा?”
मैं ठंड से कांपते हुए टिकट खरीद कर बस में बैठ गया।

हवा में घुले हुए कोहरे के कण सुइयों की तरह चुभ रहे थे।
मैं थरथरा रहा था।हाथ पांव बुरी तरह से कांप रहे थे।
“कहीं से कुछ चाय की जुगाड़ हो जाती तो कितना अच्छा होता!”
मैं कंबल लेकर भी नहीं चला था क्योंकि ट्रेन में तो अटैचमेंट मिलते ही हैं।
अब पछतावा हो रहा था।
 तभी बस में तीन-चार महिलाएं चढ़ीं। उन्होंने शॉल और मफलर से अपना पूरा चेहरा ढक रखा था। चेहरा नजर नहीं आ रहा था ।
वह चारों मेरे अगल-बगल आकर बैठ गईं ।
“कितनी ठंड है और तुझे ठंड नहीं लग रही है ?”
“लग रही है मगर क्या करूं! मेरी ट्रेन कैंसिल हो गई ना, तो बस से जाना पड़ रहा है।” मैं कांपते हुए बोला।
एक महिला ने अपना थरमस खोला और मिट्टी के सकोरों में चाय निकाल कर आपस में पीने लगी।
उसने एक सकोरे में चाय भर कर मुझे भी दिया “लो पी लो, इससे ठंड मिट जाएगी।”

वाकई गरम-गरम चाय पीकर थोड़ी राहत महसूस हुई।
“ बहुत-बहुत धन्यवाद आपका!” चाय पीने के बाद मैं अपने दोनों हाथ जोड़ लिया।
“आप लोग कहां जा रहे हैं?”
“ हम लोग इलाहाबाद जा रहे है।”एक महिला बोली। उसने अपना बैग खोला और कंबल निकालकर एक दूसरे को दे रही थी।
उने एक मोटा कंबल निकालकर मुझे भी दिया और कहा
“ बच्चे, इसे ओढ़ लो नहीं तो रात भर में जम जाओगे।”
“ मगर यह तो आपका है ना!” मैं संकोच में हां ना में गड़ गया था।
“हां हमारे ही हैं मगर हम इसे बेचते हैं।हम कंबल बनाकर दुकानों में सप्लाई करते हैं।
चाहो तो उसके पैसे दे दो नहीं चाहो तो ऐसे ही रख लो एक दोस्त, सहयात्री होने के नाते।”
“न जाने यह कितने का कंबल होगा?” मैंने मन ही मन सोचते हुए बोला “कितना रुपया देना होगा?”
वह चारों ठहाका लगाकर हंसने लगी।
“ रहने दो बच्चा, कल जब बनारस पहुंच जाओगे तो हमारा कंबल वापस कर देना। हमारे पास एक्स्ट्रा कंबल था इसलिए तुम्हें दे दिए। अब आराम से सो जाओ।”

कंबल से थोड़ी गर्माहट मिलते ही मुझे नींद आने लगी।
इधर लंबी हॉर्न के साथ बस भी चलने लगी।
बस के चलते ही मैं कब सो गया मुझे पता ही नहीं चला।
बस में ज्यादा यात्री नहीं थे। नींद में बस के चलने की और हार्न की आवाज कानों में आ रही थी मगर कंबल के भीतर मैं इतना आराम महसूस कर रहा था कि आंख खोलने की भी इच्छा नहीं हो रही थी।

दूसरे दिन कंडक्टर के हिलाने से मेरे नींद टूटी।
बस अपने स्टॉप पर खड़ी थी।बस से लगभग सभी पैसेंजर उतर चुके थे और उन सबके साथ वह चारों महिलाएं भी।
“अरे वो लोग कहां गईं?”
“कौन लोग?”कंडक्टर मेरी तरफ आश्चर्य से देखते हुए कहा।

“वो चारों लेडिज जो यहां बैठीं थीं!”

“यहां!!! यहां तो कोई भी नहीं था? कैसी बातें कर रहे हो आप भाई जी ,यहां कोई महिला नहीं बैठी थी?”

“मगर यह कंबल तो उन्हीं लोगों का था!”मैं और भी आश्चर्यचकित हो गया।

“ये कंबल!ये तो आपका है और जब से आप बस में बैठे हो मैंने आपको इसे ओढ़े हुए ही देखा है!”कंडक्टर अब भी मेरी ओर आंख फाड़े देख रहा था।

हम दोनों की बातें सुनकर बाकी बस के ड्राइवर और बाकी स्टाफ भी आ गए।
सारी बातें सुनकर उसने कहा
“कोई बात नहीं सर,बस में सीसीटीवी कैमरा है, अभी देख लेते हैं।”
उसने कैमरा ऑन कर फुटेज देखने लगा लेकिन वहां कुछ भी नहीं था,न तो बस में कोई महिला चढ़ी थी,न किसी ने चाय पिया और न ही कंबल देने का रिकॉर्ड था।

मुझे देखकर तीनों हंसने लगे।

‘वो भाई जी हमने आपको नींद से जगा दिया ना, इसीलिए आप यूं बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं।
चलिए चलिए उठिए, निकलिए।अब हम बनारस पहुंच गए हैं।”
कंडक्टर वहां से चला गया उसके साथ ही बाकी स्टाफ भी।
मगर मैं हक्का बक्का सा रह गया था कंबल ओढ़े हुए। मेरे पैरों के पास पड़े हुए मिट्टी के सकोरे मेरा मुंह चिढ़ा रहे थे!!

आखिर वो कौन थी जो मेरे पीछे पीछे बस में आ चढ़ी थी?

मैंने कंबल को लपेट कर अपने हाथों में संभाल लिया और पीठ पर बैग टांगकर बस से नीचे उतर आया।
नीचे उतर कर मैंने एक बार फिर से बस की ओर देखा ,कंडक्टर वहीं पर खड़ा था।
वह मुझे देख कर मेरे पास आया।

“भाई जी, सच में क्या आपने भूत देखा था!”

“भूत!! मैं चौंक गया, क्या वे सब भूत थे?”

“हां भाई जी,हम आपको डराना नहीं चाहते लेकिन रंगनुआ स्टेशन पर अक्सर ही कुछ आत्माएं दिखतीं हैं लोगों को।
खासकर बस स्टॉप पर लेकिन वो किसी का बुरा नहीं करतीं हैं साहब!हो सकता है कि आपको किसी मुसीबत से बचा लाईं हों!”

वह कहता जा रहा था और मैं शून्य में पहुंच गया था।
अगर मुझे कंबल नहीं मिला होता तो शायद आज मैं भी ठंडे कोहरे में बदल गया होता!!!
कल रात की ठंड और कंबल की गर्माहट दोनों को मैं महसूस कर रहा था।

“भाई जी,आप दिल्ली के लिए बस ही कर लो कहां इस ठंड में भटकते रहोगे!”

“हां आप बिल्कुल सही कह रहे हो।”
एक नई उम्मीद लेकर मैं वहां से टिकट काउंटर की तरफ बढ़ गया।