Hindi Birthday Story: दिसंबर की गलन भरी रातों में ठिठुरते हुए कितना इंतज़ार रहता है उन सुबहों का, जिनमें सूरज दरवाज़ों और खिड़कियों से अपने पूरे उजास के साथ झाँकता हो.
इस मौसम में देह ठंड में सिकुड़े सिकुड़े कैसे अकड़ सी जाती है.
तो आज ऐसी ही खिली-खिली धूप निकली थी और मैं इस गुनगुनी धूप में ठाठ से अपने बेटे बहू की बालकनी में बैठकर चाय नाश्ते का आनंद ले रही थी.
अरे लो ये तो मैं आपको बताना ही भूल गई कि मैं इस ठाठ और आनंद शब्द पर इतना ज़ोर क्यूँ दे रही हूँ ??
तो मैं आपको बता दूँ कि मैं तो आगरा अपने पति के साथ रहती हूँ.वहीं घर बनवा लिया है.वहीं से मैंने अपने दोनों बच्चों की शादी भी की है.
बिटिया दामाद बैंगलोर में हैं और बेटा क्षितिज यहाँ दिल्ली में मल्टीनैशनल कम्पनी में नौकरी करता है.
सुप्रिया कुछ अपना काम शुरू करना चाहती है जो इंटीरियर से सम्बंधित है .एक दो जगह से बातचीत चल रही है,जल्दी ही सब फ़ाइनल हो जाएगा.
क्षितिज की शादी को लगभग एक साल हो गया है. बेटा बहू दोनों बड़े प्यार और मनुहार से बार बार अपने पास बुलाते हैं पर अपनी घर गृहस्थी छोड़कर महीने भर के लिए कहीं आना जाना कितनी मुश्किल से संभव हो पाता है..ये तो मैं ही जानती हूँ.
इससे पहले एक बार बहू को शादी के बाद छोड़ने आई थी तो लौट कर घर की हालत देखने वाली थी.सारे पेड़ पौधे मेरे पहुँचने पर जैसे बिलखते हुए मिले और कुछ तो सूख भी गए थे.
इतनी सेवा से पौधे लगाओ तो पौधों से एक जुड़ाव हो जाता है और फिर वो सूख जाएँ तो बड़ी तकलीफ़ पहुँचती है.
अगर काम वाली सुनीता से कहो तो वो पचास नख़रे दिखाती है पर इस बार बहू पीछे पड़ गई और सुनीता से फ़ोन पर बहू ने ना जाने क्या कहा कि सुनीता बोली आँटी आप और अंकल आराम से जाओ.हम आपके घर और पेड़ पौधे दोनों का ध्यान रख लेंगे.
फिर क्या था! मैं और ये चल दिये बेटा बहू के पास.
बहू यानी सुप्रिया क्या क्या कहूँ उसके बारे में..यहाँ आओ तो एक पल को भी ये अहसास नहीं होने देती कि ये हमारा घर नहीं है.हम दोनों का बहुत ध्यान रखती है.उसका पूरा व्यक्तित्व इतना आकर्षक है कि किसी को पहली बार में ही अपनी बोली बानी से अपनी तरफ़ खींच लेती है..फिर मैं तो उसकी सास ठहरी.
मेरे लिए भी सुप्रिया बेटे से ज़्यादा लाड़ली है.
सुबह सुबह नहाकर ही मैं नाश्ता करना पसंद करती हूँ.सुबह की धूप में मुझे बैठकर अख़बार पढ़ना पसंद है,जो आगरा में तो संभव नहीं हो पाता,बहू इस बात को बख़ूबी समझती है तो अक्सर मुझे बालकनी में ही नाश्ता लाकर दे देती है.
इन छोटे-छोटे सुखों का अनुभव मुझे सुप्रिया ने ही करवाया.
मैं लगभग नाश्ता ख़त्म कर ही चुकी थी कि तभी फ़ोन की घंटी बजी तो समझ गई कि इस समय दूध वाला ही होगा.
सुप्रिया बिज़ी होगी तो लाओ मैं ही ले लेती हूँ दूध.
इधर मैं ड्रॉइंगरूम से होते हुए किचन की तरफ़ बढ़ रही थी,उधर से सुप्रिया हाथ में भगोना लिए,कान में फ़ोन लगाए चली आ रही थी.
“लाओ मैं लेती हूँ दूध
तुम बात कर लो”
इतना कहते हुए मैंने दूध का भगोना ले लिया.वापस आते समय कुछ शब्द मेरे कान में पड़े कि यार मेरा कैन्सल है.कल से कितनी बार तुम लोगों को बोल चुकी हूँ.
जब सुप्रिया फ़ोन रख चुकी तो मैंने पूछा
“बेटा किसका फ़ोन था
अरे मम्मी मेरी एक फ़्रेंड् का था
कुछ ख़ास था क्या-मैंने पूछा
अरे मम्मी कुछ नहीं बस ऐसे ही..सुप्रिया ने कहा
अरे बेटा कुछ तो था.बताओ मुझे-मैंने जब दोबारा ज़ोर देकर पूछा तो उसने कहा-
मम्मी वो आज मेरी फ़्रेंड का जन्मदिन है तो रात में उसके घर पर छोटा सा गेट टू गेदर है”
जन्मदिन शब्द पर मैं अटक गई फिर अपने आपको सम्हालते हुए कहा
“बेटा तो तुम जाओ ..क्यूँ नहीं जा रही?
मेरा मन नहीं है मम्मी-सुप्रिया ने कहा”
तो मैंने थोड़ा दुलार से कहा- “मन नहीं है या तुम मेरे और पापा की वजह से नहीं जा रही हो
अरे मम्मी फिर चली जाऊँगी ,कोई बच्ची थोड़े है वो..जन्मदिन के बाद चली जाऊँगी किसी दिन। एक महीने के लिए तो आप लोग आए हैं। आप लोगों को यूँ छोड़कर जाना मुझे अच्छा नहीं लगेगा-सुप्रिया ने उदास स्वर में कहा ”
“बेटा चुपचाप अपनी सहेलियों को फ़ोन करो कि तुम आ रही हो-मैंने कहा”
इस पर सुप्रिया बोली कि “मम्मी शाम को कितने काम होते हैं,चाय और रात का खाना..मुझे अच्छा लगता है आप लोगों के लिए ये सब करना.
आप ये सब करेंगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.”
“मैंने सुप्रिया के हाथ पर अपना हाथ रखा और कहा कि बेटा अगर तू नहीं जाएगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा ,आज शाम को खाने का मैं देख लूँगी.तुम ख़ुश होकर जाओ यहाँ की चिंता छोड़ दो.”
सुप्रिया और मेरी बौंडिग ऐसी है कि रिश्ते की मर्यादा देखते हुए हम सहेली जैसे भले न हो पर एक दूसरे का लिहाज़ ,ख़ुशियों का ध्यान और एक दूसरे से प्यार बहुत करते हैं.
कहते हैं ना कि किसी रिश्ते में अगर थोड़ा स्पेस बना रहे,साँस लेने भर की जगह बनी रहे तो वो रिश्ते लम्बी उम्र तय करते हैं.
मैंने किया था नोटिस कि जब मैंने सुप्रिया को जाने के लिए राज़ी कर लिया तो उसकी आँखें कुछ पनीली सी हो आईं थीं और उसकी आँखों में मेरे लिए कृतज्ञता का भाव बढ़ गया था.
शाम को जब वो जाने लगी तो मैंने कहा कि सुप्रिया अपनी सहेलियों से कहना कि मैंने याद किया है उन्हें और एक दिन लंच पर बुलाया है.
आप बहू से मत कहिए कि बेटी जैसी रहो बस उसकी छोटी-छोटी ख़ुशियों का ध्यान रखिए,आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब वो आपके बहुत क़रीब हो जाएगी.
सुप्रिया चली गई.मैं और ये शाम में टहलने जाते हैं तो आज जब इन्होंने मुझे आवाज़ दी तो मैंने इनसे कह दिया कि आप आज अकेले टहलने चले जाइए,आज मेरा मन नहीं है.
उनके जाने के बाद अब मैं अकेली थी.बेटा भी आठ बजे से पहले नहीं आने वाला था.
जाने क्यूँ आज मैं अपने लिए कुछ वक़्त का एकांत चाहती थी,मुझे अपने साथ कुछ वक़्त बिताना था
मैंने अपने लिए अदरक वाली चाय बनाई और सोफ़े पर आकर बैठ गई,जैसे ही चाय का पहला घूँट पिया कि दिन भर का जो भरा हुआ मन था,वो आँखों से बहने लगा और मैंने बहने दिया.मेरा मन था कि इस रुलाई के साथ मेरा मन कुछ हल्का हो जाए.
जन्मदिन वाली बात मेरे दिमाग़ में उमड़ने घुमड़ने लगी .
बीता समय अपने साथ मुझे अतीत की गलियों में बहा ले गया .
उन दिनों में ,जब मेरी नई-नई शादी हुई थी और मेरा पहला जन्मदिन आने वाला था.मैं भी छोटे- छोटे सपनों और ख़ुशियों पर दिल हारने वाली एक सामान्य सी लड़की थी.पति की नौकरी की वजह से हम अपनी ससुराल से दूर आगरा में रह रहे थे पर लगभग हर छुट्टियों में घर चले जाते थे और जब तक मैं घर पर यानी ससुराल में रहती तब तक मेरी यही कोशिश रहती थी कि अम्मा को एक गिलास पानी के लिए भी न उठना पड़े.
घर सजाना और रसोई में कुछ न कुछ नया बनाते रहना और सबकी आँखों में अपने लिए प्रशंसा के भाव देखना और फिर ख़ुशी से इतराते हुए फिरना.
शादी के बाद मेरा ये पहला जन्मदिन था और इस दिन का मुझे बेसब्री से इंतज़ार था. मैंने सोंच रखा था इस दिन को मैं यादगार तरीक़े से मनाऊँगी और फिर मायके जाकर अपनी सहेलियों पर अपना इंप्रेशन झाड़ूँगी.
ख़ुशी की बात ये थी कि नवमी और दशहरे की छुट्टी भी थी तो मेरे पति की भी ऑफ़िस की छुट्टी रहेगी.
एक दिन के लिए हम दोनों मथुरा वृंदावन घूम आएँगे.कितने दिनों से हम लोग ऐसे कहीं घूमने भी नहीं गए हैं.
बस मैं उंगलियों पर दिन गिन रही थी.मेरे जैसी उत्सव प्रेमी लड़कियाँ ऐसी ही थोड़ी पागल सी होती हैं.
शाम में ये आए तो बोले प्रमिला पिता जी का फ़ोन आया था ऑफ़िस में.
उन्होंने हम लोगों को घर बुलाया है.मैंने जब बताया कि पिता जी प्रमिला का जन्मदिन है तो हम मथुरा जाने की सोंच रहे हैं तो पिता जी ने कहा ऐसी बात है तब तो ज़रूर घर चले आओ.
वहाँ क्या अकेले में मनाओगे ,यहाँ हम सब साथ में मनाएँगे बहू का जन्मदिन.
एक पल को तो मुझे थोड़ा अजीब लगा फिर दूसरे ही पल मैंने ख़ुद को समझाया कि वहाँ इतने लोगों के बीच जब मुझे शुभकामनाएँ मिलेंगी,मैं केक काटूँगी तो उसकी तो बात ही कुछ और होगी.यहाँ दो लोगों के बीच क्या मज़ा आएगा!
अब तुरंत मेरे दिमाग़ ने नई प्लानिंग के हिसाब से सोंचना शुरू कर दिया.समय था कि कट ही नहीं था और रात थी कि इतनी लम्बी कि बीत ही नहीं रही थी.सुबह ही तो हम दोनों को निकलना था.
ख़ुशी से मैं दोहरी हुई जा रही थी.
मेरे पाँवों में बिजली जैसी गति आ गई थी.सुबह तक का इंतज़ार न हो रहा था.
ख़ैर सुबह हुई और हम दोनों तैयार होकर निकल पड़े गाड़ी से.
मैंने लाल रंग की गोटापत्ती की साड़ी पहनी हुई थी,जो ख़ास इस दिन के लिए ख़रीदी थी।मिठाई का डब्बा और अम्मा के लिए एक साड़ी भी ले ली थी.
हम ज्यूँ ज्यूँ सफ़र की तरफ़ बढ़ रहे थे,मेरी आँखें ख़ुशियों भरे आने वाले हर एक पल का इंतज़ार कर रहीं थीं.मन ही मन कल्पनाओं के गोते लगा रही थी.
ऐसा न हो कि पिता जी ने आज के दिन कोई पूजा रखवा ली हो और रिश्तेदार और मोहल्ले वाले भी घर पर जमा हों.पिता जी कई बार कह भी तो चुके थे कि अब की तुम लोग आओ तो गायत्री यज्ञ करवा लें.
गाड़ी के शीशे में ख़ुद को देखते हुए मन ही मन कहा कि मैंने कुछ हल्की साड़ी तो नहीं पहन ली है!
इतनी हड़बड़िया हूँ मैं..मम्मी ने जो पहली विदाई में जो बनारसी साड़ी दी थी ,वो पहननी चाहिए थी,अच्छा ऐसा करूँगी ,सबके पाँव छूने के बाद कोई दूसरी भारी साड़ी पहन लूँगी.
अरे कुछ साड़ी जो ससुराल की अलमारी में बंद हैं ,उनमें वो मोर पंखी रंग की साड़ी तो बहुत सुंदर है..हाँ हाँ वही पहन लूँगी.
केक तो छोटे शहर की वजह से अच्छा मिलेगा नहीं ..
पर इससे क्या फ़र्क पड़ता है!
सबका साथ हो तो जैसा भी हो ,सब अच्छा लगता है.
कोई बात नहीं जैसा भी मिलेगा..इनसे मंगवा लूँगी.लोगों की भावनाएँ महत्व रखती हैं .
प्रमिला बेटा..बाकी तो कुछ है नहीं जीवन में..मैं ख़ुशी में कुछ दार्शनिक भी हो चली थी.
“सुनो चाय पी लेते हैं “
इन्होंने कहा तो मैं अपने ख़याली पुलाव से बाहर आई.मैंने जैसे तैसे आधी कप चाय पी.
अरे चाय पीने में किसका मन लग रहा था,मैं तो आज एक अलग ही ख़ुमार में थी.
ससुराल का मोड़ आने ही वाला था.मैंने अपनी साड़ी ठीक की,शीशे में चेहरा देखा और कंधे से आँचल ले लिया.
पिता जी बाहर ही खड़े थे. हम लोगों को देखकर ख़ुश हो गए.मुझे घर में कोई हलचल नहीं दिखाई दी.
तब तक अम्मा हमारी आवाज सुनकर बाहर आ गईं.उन्हें देखकर लग रहा था कि वो नींद से उठकर आ रहीं हैं.शाम के चार बज रहे थे और खाना खाने के बाद अम्मा कुछ देर आराम करतीं हैं.
तुम लोग आ गए !
मैंने पाँव छुए तो उन्होंने कहा कि बहू अब जल्दी कोई ख़ुशख़बरी देना,यही आशीर्वाद है.
तुम्हारे पापा बता रहे थे कि बहू का जनमदिन है तो तुम लोग इस बार आ नहीं रहे थे..अम्मा ने ये बात कही और इस तरह हँसी कि मुझे आभास हो गया कि वो तंज मार रही हैं. जो मुझे भीतर कहीं चुभ गया.
मेरे पाँव जो घर के बाहर तक डग-डग भर उलाँचे मार रहे थे.
अब जैसे उनमें ताक़त ही न बची हो,मैं एकदम जड़ खड़ी की खड़ी रह गई.
मेरी तंद्रा तब टूटी जब अम्मा ने कहा बहू तुलसी की पत्ती और अदरक डालकर चाय बनाना.
आज कितने दिनों बाद आराम से बैठकर चाय पियूँगी.
मैंने कहा हाँ अम्मा!!
इसके अलावा कुछ कहने की गुंजाइश कहाँ होती है नयी बहू के पास.
मेरे जन्मदिन की बात तो बहुत पीछे रह गई थी.मेरे लिए शायद ये बड़ी बात थी पर उन लोगों के लिए ये सब चोंचलेबाज़ी थी.
मैंने अपने कमरे में जाकर घर के कपड़े पहने और चल दी रसोई की ओर.
इन्हें भी अहसास नहीं था कि मेरे भीतर क्या तूफ़ान चल रहा है.
जब चाय लेकर मैं बैठक में गई तो ये बोले पापा आज प्रमिला का जन्मदिन है तो चाय पीकर मैं केक ले आऊँगा.
“अम्मा तुरंत हँसते हुए बोलीं कि हाँ भैया अब उल्टी गंगा बहेगी..यही बाक़ी रह गया था इस घर में तो अब ये नई रिवाज भी शुरू कर दो..
जाओ ले आओ नहीं तो बहू को लगेगा अम्मा ने मना कर दिया.”
तब तक पिता जी बीच में बोल पड़े कि हम तो कह रहे हैं देशी घी का हलवा बना लो,कितने दिनों से खाया भी नहीं है और फिर ये केक शेक हम लोगों को तो भैया अच्छा नहीं लगता..मेरी मनोदशा का किसी को दूर-दूर तक अंदाज़ा भी नहीं था.
मैंने कहा रहने दीजिए ,केक मत लाइए । मैं हलवा बना लूँगी.
और मैं आंसुओं का ग़ुबार लिए रसोई की तरफ़ चल दी।.
भरे मन से सबके लिए दम आलू,सोया मेथी की सूखी सब्ज़ी पूड़ी,रायता ,पूड़ी ,कचौड़ी और हलवा बनाया.
“खाना खाते हुए पापा बोले- बताओ तुम लोग केक लेकर आ रहे थे। केक और हलवे की क्या तुलना..इस हलवे के सामने केक क्या है!!”
खाना खाने के बाद पापा बोले बहू आज बहुत दिनों बाद खाना खाकर आत्मा तृप्त हुई है.ईश्वर करे तुम्हारा ऐसा जनमदिन हम लोग हर साल मनाएँ.
उनके कहे गए आख़िरी शब्द मेरे कानों में गर्म शीशे की तरह पिघल कर रिसने लगे.
मैंने मन ही मन कहा कि ऐसा जन्मदिन फिर कभी न मनाऊँ मैं.
ससुराल में बहु से सबको अपेक्षा रहती है कि बहू पहले दिन से ही सबको अपना बना ले पर ख़ुद बहू के मन के भाव पढ़ने की,उसके मन को समझने की कोशिश कोई नहीं करता और फिर जब बहू के भीतर ख़लिश सी भरती जाती है तो फिर बहू के माथे पर ही दोषों की लड़ियाँ मढ़ देते हैं.
किसी ने ध्यान भी नहीं दिया कि मैंने कपड़े भी नहीं बदले,खाना खाने से क्यूँ मना कर दिया.
बस बहू का फ़र्ज़ है कि सबको अपने हाथ के बने पकवान खिलाती रहे,ख़ुद कुछ खाया भी है या नहीं इससे किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता!
मैं अपने कमरे में चली आई और सिटकनी चढ़ा कर बिस्तर पर औंधे मुँह गिर पड़ी..जी भर कर रोई और आँखें सुजा लीं..तब तक रोती रही ,जब तक इन्होंने दरवाज़ा नहीं खटखटाया लेकिन दरवाज़ा खोलते ही मैं इनके सीने से लग कर हिचकी ले लेकर रोती रही,ये जितना चुप कराते ,उतनी ही रुलाई और फूटती..जब शांत हुई और उन्हें अपने रोने का कारण बताया तो ये बोले कि इतनी छोटी सी बात पर भी कोई रोता है भला!
इनके ये कहने पर समझ गई कि इनके सीने पर सर रखकर रोना व्यर्थ ही गया..इनकी प्राथमिकताओं में मेरी इन छोटी-छोटी ख़ुशियों का इतना मोल नहीं है.
भले ही उन्होंने मुझे चुप कराने के लिए ये सब कहा हो पर उस दिन से मैं कुछ चुप सी हो गई थी और जीवन के इस पड़ाव तक आते- आते एक हँसमुख लड़की प्रमिला धीमे -धीमे कहीं खोती सी चली गई..
उसकी बेलौस हँसी,बिन बात ठहाके लगाने वाली लड़की..अब बस ज़रूरत भर का मुस्कुराने लगी थी और मेरे इस बदलाव को महसूस करने वाला भी कौन बैठा था वहाँ !
फिर जब मेरे बेटे की शादी हुई तो मैंने सोंच लिया था कि मेरे घर में अब भावनाओं को भीतर दफ़न करके कोई दूसरी प्रमिला नहीं बनेगी.
किसी भी रिश्ते में केवल रिश्ते के नाम भर से प्रेम नहीं पनपता,उस रिश्ते को सींचना पड़ता है प्रेम के जल से ,निराई करनी पड़ती है समय-समय पर,तब जाकर किसी रिश्ते की लहलहाती पौध तैयार होती है.
मैंने सुप्रिया के लिए कोई बंधन नहीं रखा. बस उसे अपने प्यार की ऊष्मा दी.
उसके लिए वो सब करने की कोशिश की ,जो अपेक्षायें मैं अपने लिए एक बहू के रूप में करती रही थी.उसे और बेटे को एक स्पेस दिया कि उनके रिश्ते की जड़ें मजबूत हो जाएँ.
बस इतना ही किया और सुप्रिया मेरे क़रीब और क़रीब आती चली गई.
कि तभी डोर बेल बजी और मैं बीते समय को पीछे धकेल कर लौट आई अपने वर्तमान में.
लेकिन ये क्या मेरे चेहरे पर तो आँसुओं की लकीरों के निशान थे.मैंने झट से साड़ी के पल्लू से अपना चेहरा पोंछा और आँखों पर चश्मा चढ़ाते हुए ख़ुद को सामान्य करने की कोशिश की.
दरवाज़ा खोलते ही सुप्रिया चहकते हुए बोली कि मम्मी ये केक सानिया ने आपके लिए भिजवाया है और मेरी सभी सहेलियों को ,जब से मैंने आज की घटना के बारे में बताया है,वे सब उतावली हो रहीं हैं आपसे मिलने के लिए। इस इतवार सब धमकने वाली हैं.
ये कहते हुए सुप्रिया किचन में गई और प्लेट में मेरे लिए केक ले आई और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोली-“मम्मी आई लव यू एंड आई रियली मीन इट”
मेरे हाथ में केक का टुकड़ा था और आँखों में आँसूओं का ज्वार लेकिन इस बार ये आँखें मेरे बहू के प्यार में भरकर छलक रहीं थीं.मैं और सुप्रिया दोनों अपनी आँखों के कोर पोंछते हुए एक दूसरे के कंधे लग कर मुस्कुरा रहे थे.इस मुस्कुराहट से घर का कोना कोना जगमगा रहा था.
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