पांच मीटर आंचल: गृहलक्ष्मी की कहानी
Paanch Meter Aanchal

Story in Hindi: कमरे से आती खुल-खुल की आवाज ने मानो सीना चीर के ही रख दिया था उसका। खांस-खांस के कम्मो अम्मा शालू को बुला रही थी, करमजली जरा आके मेरे बर्तन तो उठाले। आज ये नई बात नहीं थी कि शालू को करमजली के नाम से पुकारा जा रहा था, उस नाम को सुनते-सुनते वो अपना नाम शालिनी भूल चुकी थी, जिसे उसके मां-बाप ने प्यार से दिया था। जैसा नाम था, वैसा ही उसका व्यवहार था। चुपचाप रहना, शालीनता से अपनी जिम्मेदारियां निभाना। कहने को शालू बहू थी पर नौकरानी से ज्यादा इज्जत नहीं थी इस घर में उसकी।
सात बरस पहले शालू इस घर में कम्मो की बहू बन के आई थी। शालू कम्मो की एकमात्र बहू थी। कम्मो ने रघु को चार पुत्रियों के जन्म के बाद पाया था। काफी मन्नतों के बाद रघु, पैदा हुआ। बड़ी बहनो का चहेता था रघु। और तो और कम्मो ने भी उसे सिर चढ़ा रखा था। सो पढ़ाई पे कोई ज्यादा ध्यान नहीं था। राजसी ठाठ अभी कम्मो के छूटे नहीं थे। राजा महाराजाओं के समय में कम्मो के पति कुंवरराज राजमहल में राज पुरोहित हुआ करते थे। राजाओं का जमाना अब लद चुका था। कम्मो जब ब्याह के आई तब ठीक-ठाक हालात थे। खान-पान, रहन-सहन काफी नबाबों वाला था। धीरे-धीरे सब खत्म हुआ। नाम के ठाठ रह गए।
एक के बाद एक चार बच्चे हो गए, चार लड़कियां हो गई। बेटे के इंतजार में। पांचवा बच्चा रघु था। खजाना कब तक नबाबी शौक पूरे करता, खाली होता जा रहा था। अंदर से खाली पर बाहर कम्मो का रुआब अभी भी जमींदारों वाला था। इसी खाली खजाने के गम में कुवरराज ने दम तोड़ दिया। अब घर की सारी जिम्मेदारी कम्मो की हो गई। लेकिन उस पर कोई ज्यादा असर नहीं दिखता था। वहीं शाम को मुंह में बीड़ा दबा कर आंगन में पीपल के चबूतरे पर पालती मारे चौपाल लगती। सारे गांव की खबर लेना, किसकी किस से लड़ाई हुई, किसके घर कौन आया, किसका घर में क्या हाल है? ये सब मानो कम्मो को जानना जरूरी था। रो के पूछती और हंस के गाने वालों में से थी वो। अपने फटे का पता नहीं पर दूसरों के फटे में जरूर टांग अड़ाने में आनंद आता था। मां को देख बेटियां भी इसी तरह की हरकतें करतीं। बातों-बातों में फंसा कर कम्मो ने अपनी चारों बेटियां किसी न किसी के पल्ले बांध दीं। बाहरी चमक देख कर लोग मूर्ख बन जाते और कम्मो की बातों में आ जाते और रिश्ता जोड़ लेती थी।

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Grehlakshmi Ki Kahani
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अब बारी रघु की आई। बच्चों की अधूरी परवरिश के कारण पढ़ाई-लिखाई तो कोसों दूर थी। बस राजसी तमगे के कारण रिश्ते आ रहे थे जिन्हें कम्मो इनकार कर रही थी। उसे तलाश थी ऐसे घर की जो उसकी खोई पूंजी वापस से लाकर भर दे। ईश्वर सब देखता है, पास के गांव के जमीदार के घर से रघु के लिए रिश्ता आया। बहुत अमीर थे। अकेली लड़की थी शालू। बस कम्मो को हर हाल में उसे बहू बनाना था। लोगों से जोर लगवा कर कम्मो ने रिश्ता पक्का करवा लिया। खूब धूम-धाम से शादी हुई। गहने कपड़े न जाने क्या-क्या शादी में मिला।
एक चीज ‘संस्कार’ जिसकी कमी कम्मो के घर में थी, शालू के रूप में वो गलती से आ गई, जिसकी कम्मो को कोई जरूरत नहीं थी।
कुछ दिन तो सब अच्छा रहा। फिर कम्मो की मांग बढ़ती गई। मायके जाती तो शालू को अपने मायके से लाने वाले सामान की लंबी लिस्ट मिलती लाने के लिए। जो उसे अच्छा नहीं लगता था। इस बार जब वो गई तो कुछ नहीं लाई। बस अपनी मां की एक जरी की साड़ी जो शालू की नानी ने उसकी मां को दी थी। उस साड़ी का महत्व केवल उसका परिवार ही जानता था। इतने गरीब घर में आकर कभी उसने अपनी असलियत अपने मां-बाप को न बताई लेकिन अब वहां से कुछ न लाने की सोच बस वो पांच मीटर आंचल लाई (साड़ी) जो हर परिवार की मर्यादा होती है, अगर समझो तो।
अब कम्मो का व्यवहार भी बदल गया वो शालू को करमजली कहने लगी जैसे उसने ही सारा घर खाया हो। दहेज की रकम से अच्छा चल रह था पर शालू ने अब घर से कुछ न लाने की ठान ली। घर के हालात देख रघु अपने दोस्त की दुकान पर बैठने लगा, जो थोड़ा मिलता उसी से शालू घर चलाती।
शालू घर के काम में लगी रहती। इसी बीच शालू पेट से हो गई लेकिन कम्मो वही गाली-गलौज, चौपाल पर बहू की चुगलियों से बाज नहीं आती थी। दूसरों के साथ अपनी घर की भली-बुरी भी पो देती थी। बहू पर बिल्कुल ध्यान नहीं था, बस खुद जवान सी बनी ठनी रहती। थोड़े समय बाद शालू ने नन्ही परी को जन्म दिया। कम्मो ने अंदर से ही चिल्ला कर दाई से पूछा ‘क्या जना है करमजली ने? ‘लक्ष्मी आई है अम्मा।’ दाई की अंदर से आवाज आई।
कम्मो ने तुरंत कहा, ‘अरे नागिन आई है डसने। एक क्या कम थी, घर खाने दूसरी भी आ गई।Ó शालू के धैर्य की मिसाल शायद थी ही नहीं, वो सदा की तरह चुप रही और अपना काम करती रही। बस रघु ही था जो उसे सांत्वना देता रहता था। परिस्थिति और कम खुराक ने शालू को बिस्तर पर ला दिया। सीने में दूध बन नहीं पा रहा था तो बच्ची भूखी ही सो जाती। कम्मो की खुराक में भी कमी नहीं आ रही थी। उसकी आवाज और चौपाल वैसी ही थी जैसी शालू की शादी के समय।
ऐसा नहीं था की शालू की जुबान नहीं थी लेकिन चुप थी तो केवल अपने संस्कारों से। घर में काम की व्यस्तता से कभी वह अपनी मां से मिलने न जा पाई। जब कभी याद आती तो मां का दिया पांच मीटर आंचल बांहों में भर कर सिसक लेती थी।
कम्मो, शालू की मां से बिल्कुल विपरीत थी। जरा-जरा सी बात पर चिल्लाना, गाली-गलौज करना कम्मो के लिए आम बात थी। दूसरों का ख्याल रखने में शालू अपनी तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं दे पाती थी। दिनोंदिन कमजोर और बीमार रहने लगी। कम्मो कुछ कम पड़ती तो उसकी चारों बेटियां बिन बुलाये कई-कई दिनों को मायके पड़ी रहतीं और मां की जली-कटी बातों में सहयोग की जिम्मेदारी बखूबी निभातीं।
शालू अब और शिथिल होती जा रही थी। काम का कुछ सहारा नहीं बस काम बढ़ाने सारी बेटियां चली आती थीं। संस्कार नाम के नहीं थे, जो कम्मो बेटियों को देती। सिखाया तो बस ताने और गाली, देना।
देखते-देखते बेटी लक्ष्मी भी शालू के आंचल में पांच साल की हो गई। काश, एक संस्कारी आंचल शालू की मां की तरह कम्मो के पास भी होता जिसे वो अपनी बेटियों को विदा करते वक्त देती। जिसे बेटियां शालू की तरह मर्यादा में रह कर सहेजतीं।
रघु की व्यस्तता घर की अशांति को नहीं देख पाई। शांत स्वभाव की शालू भी घर की खातिर उसे कुछ नहीं बताती थी। रघु सोचता था कि सब कुछ ठीक चल रहा है और इसीलिए सब बहनों और मां की मनमानी चल रही थी।
शालू को हमेशा कम्मो ये ही ताने देती थी कि मेरे पांच बच्चे हैं। मैंने इन्हें नाजों से पाला है, इनको वैसे ही रखना जैसे मैने इन्हें रखा है। इन्हें बिल्कुल कष्ट नहीं देना और मुंह से एक शब्द भी न निकालना। रघु चाहकर भी कम्मो के खिलाफ कुछ बोल नहीं पाता था। जब शालू बहुत घुटती तो कमरे में जाकर रो लेती थी। अपनी जिंदगी से समझौता, ख्वाहिशों का कत्ल उसे मजबूर कर रहा था। उसने खुद को जिम्मेदारियों की भेंट चढ़ा दिया था। वो कहीं से भी बहू सी नजर नहीं आती थी। नौकरानी की तरह रहती थी। बेटी लक्ष्मी भी काफी समझदार शांत थी। कम्मो के पास जाने से डरती थी क्योंकि शब्दों को समझ ही नहीं पाती थी। दादी से नागिन नाम सुन कर सहम जाती थी और फिर खेल में व्यस्त हो जाती थी।
रघु दुकान से देर रात लौटता और खाना खाते ही सो जाता। शालू देर रात तक घर के कामकाज करके सोने जाती तब तक रघु गहरी नींद में होता। बहुत सोचती थी कि कभी फुर्सत से वो दिल की बात रघु से करे लेकिन उसे सोता देख उसको उठाने की हिम्मत वो नहीं कर पाती थी। वो भी थक हार के सो जाती और रघु के उठने से पहले ही उठ के चाय- पानी में लग जाती। शादी के सात साल घर में लगे-लगे कब गुजर गए पता भी न चला और इस भागदौड़ में रघु-शालू अपनी जिंदगी जीने की शुरुआत भी न कर सके। शालू की कमजोरी बीमारी में तब्दील हो चुकी थी। समय और पैसे के अभाव ने उसे श्य्या पकड़ने को मजबूर कर दिया।
उस दिन सुबह से ही शालू को बेचैनी हो रही थी। उसकी उठने की क्षमता खत्म हो रही थी, आज पहली बार उसने रघु को घर पर रुकने को कहा। उसे अपने पास बैठाया और उसकी गोदी में सर रख लिया। मानो उसे जिंदगी मिल गई। आज तक कभी इतने करीब से वो रघु से नहीं मिली थी जितना आज। दिल की बात करने का वक्त शायद उस पर बचा ही न था। फिर भी लड़खड़ाई जुबान से बोली, ‘आप अपनी मां को मेरी मां का वो पांच मीटर आंचल जो उसने विदा के वक्त मुझे दिया था दे देना और बता देना कि इसे मेरी बेटी लक्ष्मी को इस घर से विदा होने पर ओढ़ा दे। और वो इस आंचल की इज्जत बनाये रखे। हर मां शायद इसीलिए अपनी बेटी को एक साड़ी देती है कि वो न भूले मां के वचन और मर्यादा। हम उसका मतलब अभी तक समझ न सके। ये वस्त्र जो मायके से मिलते हैं वो संस्कारों को मर्यादित रखने के लिए होते हैं। दोनों घरों की इज्जत को ढांपने के लिए ही होते हैं और शायद भाई-भाभी भी इसी बात को याद दिलाने को हर त्यौहार पर साड़ी देकर इस परंपरा को निभाते हैं। आज दिल की बात कह कर शालू सुकून महसूस कर रही थी लेकिन ये बात काफी देर से कह पाई, इस बात को कहने की हिम्मत जरा जल्दी आती तो आज रघु को शालू को न खोना पड़ता। इस कदर भी संस्कारों को नहीं ओढ़ना चाहिए था तुम्हें, आज रघु ने ऊंची आवाज में बात की। किसके लिए तुम निभा रही थीं। जरा मेरा भी सोचा होता कि मैं अब क्या निभाऊंगा तुम्हें खोकर। तुम रुको मैं डॉक्टर लाता हूं। नहीं, शालू ने कहा और रघु को बांहों में जकड़ लिया।
बस इसी बीच एक लंबी सांस खींच कर शालू ने सिर लुढ़का दिया और हमेशा के लिए शांत हो गई। रघु की आंखों मे सन्नाटा और खामोशी थी, वो अब भी कुछ बोल ना पाया सदा की तरह। रघु में जैसी मानो काटो तो खून नहीं, वो सन्न रह गया। आंखों से कुछ दिख नहीं रहा था। आंसुओं की धारा रघु के कपोलों से टपक रही थी। वो भाग कर मां के कमरे में गया और मां से बोला शालू नहीं रही।
मां से जो उत्तर मिला उससे रघु अचंभित रह गया, सदा की तरह कर्कश आवाज में बोली, ‘कोई बात नहीं और अच्छी आ जायेगी, सब्र रख। बस इस नागिन को भी निकाल दे। जिस दिन से आई है जीना हराम कर रखा है।Ó रघु ने जहर का घूंट पीया और उल्टे पांव अपनी शालू के पास आ गया। उम्मीद नहीं थी कि इतनी बेरहम भी मां होती है। आज रघु को शालू की सहनशीलता पर फक्र हो रहा था। कितने जल्लादों के बीच वो जी रही थी।
एक वो शालू की मां थी और एक मेरी ये मां है। इतना फर्क क्यों है? मां तो दोनों थी। इस पहेली को कोई भी नहीं सुलझा सकता।
आज रघु को मलाल था कि वो किस मां की कोख से पैदा हुआ। बिल्कुल भी मोह नहीं, जिसने दिन -रात केवल इस घर को दिया उसके प्रति इतनी निष्ठुर। पत्थर दिल भी किसी गैर की मौत पर अफसोस तो करता है पर ये क्या? उसने सोचा।
वाकई शालू सही कह गई कि कम्मो के पांच मीटर आंचल में किसी के लिए भी छांव नहीं थी। और शालू ने अपनी मां के आंचल में सभी को समेटे रखा। सबको समेटते-समेटते आज वो खुद ही सिमट गई। भारी कदमों से रघु शालू की विदाई करने लगा। रघु ने शालू की मां की वो संस्कारी साड़ी निकाल कर शालु को ओढ़ा के ही अंतिम विदाई का निर्णय लिया और फिर लक्ष्मी को लेकर बिना सोचे समझे कभी खत्म न होने वाले सफर पर निकल गया। जहां ऐसे बेरहम लोगों का साया भी उसकी लक्ष्मी पर न पड़े।