माफी का दान-गृहलक्ष्मी की कहानी
Maafi ka Daan

Hindi Kahani: हल्के नीले स्लेटी रंग के आसमान में जब सूरज अपनी छटा बिखेरने के लिए उदय हो रहा था तो हरिया और उसकी पत्नी गंगा खेत में बीज बी हो रहे थे।
खेत में काम निपटाकर दोनों घर की ओर चले। घर पहुंच कर गंगा चूल्हा तैयार करती है और अपने इकलौते बेटे गोविंद को स्कूल जाने के लिए उठाती है,
“ गोविंद उठ जा बेटा!”
गोविंद एक बहुत ही आज्ञाकारी और समझदार बच्चा था। पढ़ाई का महत्व उसे बचपन से ही अपने मां पिता के द्वारा मिला था। वह दोनों बहुत कम शिक्षा ग्रहण कर पाए थे इसलिए हमेशा चाहते थे उनका बेटा बहुत ऊंची पढ़ाई करे और अपना नाम कमाए। संस्कार और शिक्षा गोविंद को अच्छे परिवार और विद्यालय के शिक्षकों से मिली थे।
“जी मां!” कहकर गोविंद बिस्तर से उठता है। पलंग संगवाकर स्कूल के लिए तैयार होने लगता है। गंगा उसको हमेशा ताज़ा और पौष्टिक खाना बांधकर स्कूल के लिए देती थी। अपने स्कूल में गोविंदा का बहुत नाम था। उसके ज्ञान और आचरण की सभी प्रशंसा करते थे। इसी दिनचर्या के साथ गोविंद बड़ा होने लगा। स्कूल के आखिरी वर्ष में पहुंचने तक उसने सोच लिया था की वह आगे की क्या शिक्षा ग्रहण करेगा।
“पिताजी मैं आगे की ऊंची शिक्षा के लिए शहर जाना चाहता हूं।” गोविंद ने मां पिता के सामने अपने विचार रखे। उन्होंने उसकी इच्छा समझी और उसको गांव के एक जानकार शिक्षक के साथ बिहार भेज दिया। उस शिक्षक ने गोविंद का हर तरीके से देखभाल कर कॉलेज में दाखिला करा दिया और वहां रहने के लिए उसे कमरा भी दिला दिया।

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कुछ दिन तो गोविंद को बहुत अजीब सा लगा। मां-बाप से दूर और अनजान शहर के अनजान लोग। परंतु अपने मां पिता के सपनों और मेहनत को स्तंभ बनाकर उसने पढ़ाई में मन लगाया और धीरे-धीरे गांव की तरह यहां भी अपनी संस्कारों व शिक्षा से सबका मन जीत लिया। उसने आगे के लिए नौकरी और अपना काम करने का भी पूरा ब्यौरा बना लिया था।
परंतु भाग्य ने हमारे लिए कल में क्या लिखा है कोई नहीं जानता…….
गोविंद को छ: महीने बीत गए और उसके पहले इम्तिहान का नतीजा आया। पूरे कॉलेज में वह पहले नंबर पर आया था। सब ने उसको बहुत बधाइयां दी और सब शिक्षकों से उसे बहुत शाबाशी और आगे के लिए प्रोत्साहन मिला। परंतु उन सब तारीफों और शाबाशियों के बीच कोई एक था जिसकी जलन की चिंगारी भड़कने लगी थी। दिलीप कॉलेज के मालिक का बेटा था। अपने पिता के पैसे और ओहदे का भरपूर फ़ायदा उठाने वाला एक बिगड़ा रईस बेटा।
दिलीप के पिता की पहुंच की वज़ह से उसे हमेशा महत्वता मिलती थी। शिक्षक उसे कभी भी उपस्थिति या पढ़ाई के लिए कुछ नहीं कहते थे या कह पाते थे। चमचे टाइप के दोस्त और झूठी तारीफ़ों के बीच दिलीप कॉलेज का हीरो बना रहता था।
लेकिन छ: महीनों में गोविंद ने वह सब पा लिया था जो कभी दिलीप अपना समझता था। आज जब सब गोविंदा की वाहवाही कर रहे थे तब दिलीप के मन में उसके लिए दुश्मनी पैदा हो रही थी। धीरे-धीरे वक्त के साथ वो जलन बढ़ती गई और दिलीप ने गोविंद को नीचा दिखाने की ठान ली।
उसके पिता ने भी समझाने के बजाय अपने बेटे का साथ दिया। ज़ाहिर है दिलीप को जलन की गलत सोच अपने पिता से ही मिली थी।
दिलीप ने गोविंद को परेशान करने के लिए हर हथकंडे इस्तेमाल करने शुरू करे ताकि वह परेशान होकर खुद ही कॉलेज छोड़कर चला जाए। अपने पिता की सलाह से वह बहुत ही देखभाल कर गोविंद के ख़िलाफ़ काम कर रहा था ताकि बाद में उसके ऊपर किसी तरीके का इल्ज़ाम ना आ सके।
दिलीप के पिता ने अपने खास शिक्षकों को समझा दिया था कि जितना हो सके वह गोविंद की पढ़ाई में मदद ना करें बल्कि उसको कम से कम नंबर देने की कोशिश करें। गोविंद जब कभी उन शिक्षकों से कुछ भी सवाल पूछता तो वह टाल जाते। बाकी के कुछ शिक्षक अपनी नौकरी की खातिर चुप थे। गोविंद की कोशिशों में लेकिन कोई कमी ना आई। दिलीप अब कभी तो उसके कमरे की लाइट खराब करवा देता था या कोई तार ही काट देता था ताकि गोविंद पढ़ ना पाए। गोविंद गांव के आम से घर का लड़का था। अंधेरे के लिए मोमबत्ती और गर्मी एवं मच्छरों के लिए हाथ पंखे का इस्तेमाल करता।
उसको अब और परेशान करने के लिए दिलीप गोविंद के कैंटीन के खाने में गड़बड़ी करवाता। गोविंद को कभी बिना खाए भी सोना पड़ता। उसके दोस्त अपनी तरफ़ से उसकी मदद करते थे। दिलीप को यह बात और भी ज़्यादा चुभ गई। उसने गोविंद के तीनों दोस्तों को धमकाना शुरू किया। जब वो लोग नहीं डरे तो उनके घर वालों की धमकी दी। सब बात जानकर गोविंद ने खुद ही उनको अपने से दूर कर दिया। ना चाहते हुए भी बहुत दुखी मन से वह तीनों गोविंद से अलग रहने लगे। पूरे कॉलेज में दिलीप ने गोविंद को बिल्कुल अकेला कर दिया था।
गोविंद अकेला सब परेशानियों को झेलता रहता पर माता-पिता की चिट्ठी और मनी ऑर्डर के सहारे खुद को संभाल लेता। किसी तरह उसने दो साल अच्छे अंकों से पास होकर निकाल दिए। इस पर भी दिलीप को शांति नहीं मिली बल्कि गोविंद की काबलियत और हिम्मत से वह उससे और भी जलने लगा। दिलीप ने आखिरकार गोविंद के माता-पिता की चिट्ठियां गायब करनी शुरू कर दीं। गोविंद को मनी ऑर्डर भी नहीं मिलते थे अब। वह भी समझ गया था कि यह सब कुछ दिलीप की चाल है उसे तोड़ने की।
गोविंद ने अपना संयम पहले की तरह कायम रखा। कॉलेज के बाद उसने कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और अपने इम्तिहान की फीस भरी। फिर से वह अच्छे अंकों से पास हुआ। चापलूस शिक्षकों की मेहरबानी से वह पहले की तरह टॉप तो नहीं कर पा रहा था परंतु अब भी उसने कॉलेज में अपना अच्छा रिकॉर्ड बना रखा था।
दिलीप और उसके पिता की नफ़रत अब चरम सीमा तक पहुंच गई थी। सामने से वह कुछ नहीं कर सकते थे इसलिए गोविंद को आखिरकार कॉलेज से निकलवाने के लिए उन्होंने एक खेल रचा।
जब गोविंद कॉलेज के बाद ट्यूशन पढ़ाने बाहर गया तब दिलीप अपने कुछ साथियों के साथ गोविंद के कमरे में गया और वहां उसके बिस्तर के नीचे बहुत सारा पैसा छुपा दिया। शाम को गोविंद कमरे में वापस आया और कमरा खोलने लगा, तभी कॉलेज के प्रिंसिपल और कुछ लड़के वहां आए। वह लड़के चिल्ला रहे थे, “सर इसी ने हमारे सामान और पैसे चुराए हैं”। गोविंद हक्का-बक्का रह गया, “ नहीं सर यह झूठ है, मैं ऐसा कभी सोच भी नहीं सकता।” गोविंद बोला। “यह तो कमरे की तलाशी लेने पर ही पता चलेगा” प्रिंसिपल ने कहा और गोविंद को कमरा खोलने का आदेश दिया।
कमरा खोलने पर गोविंदा की आंखे फ़टी रह गईं। छोटे से कमरे में वह सब सामान देखकर वह घबरा गया। पलंग के गद्दे के नीचे से बहुत सारे पैसे भी मिले। गोविंद ने बहुत सफ़ाई दी परंतु अपने आप को सही साबित करने के लिए उसके पास कोई गवाह ना सबूत था। वह जानता था कि वह सब किसने किया होगा। वह यह भी जानता था कि कॉलेज में सच सब जानते हैं लेकिन डर की वज़ह से कोई सामने नहीं आएगा। प्रिंसिपल ने गोविंद की कोई बात नहीं सुनी। दो महीने बाद फाइनल इम्तिहान देने को भी मना कर दिया और उसे उसी वक्त कॉलेज से दंडस्वरूप निष्कासित कर दिया।
गोविंदा की पूरी पढ़ाई बेकार हो गई। वह बेचारा गिड़गिड़ाता रहा लेकिन किसी ने नहीं सुनी। आंखों में आंसू और बोझिल मन से वह कॉलेज से बाहर आ गया। उसका खास दोस्त मौका देखकर उसके पास आया और कहा, “मैं जानता हूं सच क्या है, पर तू जानता है मैं मजबूर हूं। यह पता और पैसे रख। इस पते पर तुझे कुछ काम ज़रूर मिल जाएगा” कहकर वह दोस्त अनिल वहां से चला गया। गोविंद बहुत हताश था। अपने निष्कासित होने से ज़्यादा उसे मां पिता का सपना टूटने का दुख था। उनका उदास चेहरा उसके सामने आने लगा।
अनिल का दिया पता दूसरे शहर का था। बस पकड़ कर गोविंद उस पते पर पहुंचा। उसे वहां काम मिल गया और एक बहुत ही छोटा सा कमरा भी। गोविंद ने अपने घर पर चिट्ठी लिखी के वह अच्छे अंक से पास हो गया है और उसे नौकरी मिल गई है। वह अपने पास सिर्फ़ खास ज़रूरत के पैसे रखता और ज़्यादातर पैसे घर भेजता। घर से जब चिट्ठी आती तो संतुष्ट हो जाता के माता-पिता आराम से हैं।
यूं तो जीवन पटरी पर आने लगा था पर पढ़ाई पूरी न कर पाने का दुख उसे अक्सर तोड़ देता था। उसने फिर से ट्यूशन भी करने शुरू किए। सुबह से रात तक अपने आप को इतना मसरूफ़ रखता कि दिल और दिमाग कुछ और सोच ही ना पाए सिवाय काम के। रात में जब बिस्तर पर लेटता तो आंखें अपने आप बंद हो जातीं।
पैसों की तंगी के चलते बहुत कभी घर पर फ़ोन से बात कर लेता। अपने दुखों को खुद ही संभालते हुए वह दिन निकाल रहा था कि उस पर दुख की अती हो गई।
रेडियो पर उसने ख़बर सुनी के उसके गांव में बाढ़ आ गई है। वहां तक पहुंचना नामुमकिन सा हो रहा था और फ़ोन पर भी कुछ पता नहीं चल रहा था। कुछ दिनों बाद गांव के एक पहचान वाले ने बताया कि उसके मां पिता बाढ़ में बह गए थे। जिनके लिए उसने सब कुछ बर्दाश्त कर मेहनत करी आज वही उसके जीवन में नहीं रहे। अब उसके पास जीने की कोई वजह नहीं थी। वह अब बिल्कुल ही खत्म हो गया था।
एक दिन परेशान हालत में रेल की पटरी के पास बैठा मरने के लिए सोच ही रहा था कि कुछ लोगों की भीड़ निकली जो गौतम बुद्ध के श्लोक- “बुद्धम शरणम गच्छामि” बोलते हुए जा रहे थे। वह बहुत ध्यान से उनकी तरफ देखने लगा। वह वहां क्या करने के लिए आया था यह बात उसके दिमाग से पलक झपकते ही निकल गई। गोविंद ध्यान मग्न उनको सुन ही रहा था कि एक बुद्ध भक्त उसके पास आया और कहा, “ महानुभाव किस सोच में हैं, आईए!” (न जाने क्या था उसे आवाज में, मानो प्रभु खुद बुला रहे हैं) गोविंद उनके साथ चल दिया और एक बहुत सुंदर और बड़े बुद्ध मंदिर में पहुंच गया।
वहां पहुंचकर वह उन लोगों के साथ बुद्ध श्लोक और मन्त्रों को सुनने और बोलने लगा। उसका मन अचानक ही से ऐसा शांत हो गया जैसे उसके जीवन में कोई दुख हुआ ही नहीं था और यही उसकी सही मंजिल थी। गोविंद ने धीरे-धीरे वहां के आचरण को सीखा और पूरे ध्यान और मन से मंदिर का हर काम संभाला। वक्त के साथ समाज में वह गौतम बुद्ध का एक सच्चा अनुयाई बन कर सामने आने लगा। लोग अपनी पीड़ा, बेचैनी लेकर उसके पास आने लगे। उसके पास बैठकर और सुनकर लोगों को बहुत शांति मिलती। उसके धीरे-धीरे बहुत भक्त बनने लगे। दुनिया अब उसको ‘गोविंद गौतम’ के नाम से जानने लगी थी। गोविंद अपना भूतकाल भूल चुका था और जीवन में अब एक बिल्कुल अलग चरण पर था।
एक दिन उसका एक शिष्य एक पर्ची लेकर आया। वह कहने लगा, “ प्रभु यह सज्जन पिछले पन्द्रह दिन से लगातार आ रहे हैं और घंटों बैठे रहते हैं। आप बताइए क्या करें?” गोविंद पर्ची पढ़ता है तो शिष्य से उस आदमी को अंदर आने के लिए कहता है। थोड़ी देर बाद एक कमज़ोर और बूढ़ा सा आदमी अंदर आता है और गोविंदा के पैरों में पड़कर फूटकर रोता है। “मुझे माफ कर दो, मुझसे बड़ा पापी कोई नहीं होगा। मैंने तुम्हारी ज़िंदगी बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बहुत फल भुगता हूं उस पाप कर्म का। मुझे माफी दे दो।” गोविंद शांत आवाज़ से कहता है, “ उठो दिलीप! तुमने जो करा वह गलत ज़रूर था, परंतु मैं बर्बाद नहीं हुआ। प्रभु की शरण में आकर मुझे नया सुंदर जीवन मिला। आज दुनिया में सब मुझे आदर से जानते हैं और इसी तरह मेरे माता-पिता का सपना भी पूरा हुआ। लेकिन तुम्हें क्या हुआ?” दिलीप रोते हुए बोला, “ गलत परवरिश का गलत फल मिला। पिता की गलत शिक्षा से तुम्हें बर्बाद कर गलत काम करे, खराब दोस्त और शौक पाले। पिताजी तो चल पैसे लेकिन मैंने सारा धन दौलत अय्याशी में गंवा दिया। कर्ज़ उतारने के लिए सब कुछ बेच दिया। ना परिवार बना पाया और ना ही खुद को। तुम्हारे बारे में देखा सुना तो समझ आया कि सब कुछ खोकर भी तुम कितने बड़े हो गए अपने संस्कारों से और मैं कितना छोटा पड़ गया हूं। सबको कुछ ना कुछ दान में देते हो, मुझे केवल अपनी माफ़ी का दान दे दो, मैं तर जाऊंगा।”
गोविंद मुस्कुरा कर कहता है, “ माफ़ी की बात ही नहीं मुझे तुमसे अब कोई शिकायत नहीं है। फिर भी अगर तुम्हें सच्चा पछतावा है तो मेरी माफ़ी के रूप में तुम्हें आज के बाद एक काम करना होगा।”
“ हां जरूर करूंगा। तुम जो भी बोलो मैं करूंगा।” कहते कहते दिलीप के चेहरे पर चमक आ गई।
“आश्रम के पास में एक विद्यालय है। तुम उसका काम पूरी मेहनत और ईमानदारी से संभालो। बौद्ध शिक्षा ग्रहण करो और बच्चों को भी बौद्ध शिक्षा का ज्ञान पाने में मदद करो। इसी रूप में मैं तुम्हें माफ़ी का दान दे सकता हूं। बोलो क्या तुम्हें स्वीकार है?” गोविंद ने पूछा।
दिलीप ने दोनों हाथ बढ़ाकर गोविंद के हाथ अपने हाथ में लिए और उसके चरणों को आंसुओं से भिगोकर केवल इतना कहा, “स्वीकार है।”