Kahani in Hindi: घर आते ही छोटी बहन सुमन की आवाज़ सुनी तो बड़ा आश्चर्य हुआ पँकज को।
जो बरसों बाद आई थी एक ही शहर में रहने के बाद भी।
उसका बेहद क्रोधी और अपनी ही बात को ऊपर रखने के मुँहफट स्वभाव और उसपर उसकी आये दिन की बेतुकी प्रतिज्ञाओं ने भी उसे हर रिश्ते से काटकर अलग थलग कर दिया था।
यहाँ तक कि उसने मायके के ही पारिवारिक समारोह में अपने साथ हुई मामूली सी लापरवाही पर , क्रोध में भाई भतीजों को भी मृतकों की सूची में डाल दिया था।
उसका मन किया एकबार तो उसे सीने से लगाकर सांत्वना दे ,
पर याद आया कि वह मायके की दहलीज छूकर प्रतिज्ञा करके गयी थी कि अब यहाँ पैर नहीँ रखूँगी।
उसके बाद कदम रखा तो सीधे बड़े भाई की मृत्यु पर होने पर ही।ये याद आते ही उसका मुँह अन्दर से कसैला हो गया।
सुमन का बरसों बाद घर आना ह्रदय के सूखे जख्मों की पपड़ी उखाड़ने जैसा ही था।
उसे अपनी भावनाओं के अलावा किसी और के मन पर लगी चोटों की परवाह कभी हुई ही कहाँ,हाँ उन जख्मों पर नमक मिर्च लगाना उसे बख़ूबी आता था।
बिना क़ुसूर उसके और निशा के बार-बार माफी माँगने पर भी उसने देहरी न लाँघने की प्रतिज्ञा कर ली थी।
आज सुमन की हालत के लिये दुःखी अम्मा-पापा को रोते हुए देखकर बुरा तो बहुत लग रहा था पर न जाने क्यों , वह कहीं न कहीँ अन्दर से अजीब ख़ुशी भी महसूस कर रहा था।
सुमन उसकी सबसे छोटी बहन थी,उसकी हर गलती को नज़रंदाज़ करना ही आज उसके साथ सबके गले की हड्डी बन गया था।
वो थोड़ी देर बैठने के बाद पत्नी निशा के बुलाते ही अपने हिस्से में ,तीर की गति से वापस चला गया।
Also read: बच्चों ने सुधारा-गृहलक्ष्मी की कहानियां
“सुनो…ज्यादा इनके पचड़े में पड़ने की ज़रूरत नहीँ,कबतक अपनी बेइज्जती कराओगे,अब मामला इनके बेटे और बहू का है”
पत्नी निशा ने सावधानी से फुसफुसाहट भरे स्वर में कहा,और चाय नाश्ते की ट्रे थमा दी ।
हूँ कहकर पँकज फिरसे अपनी सोच में ग़ुम होकर कई वर्ष पीछे चला गया ,चाय अम्मा के कमरे में देते समय उसने सुमन की ओर नज़र भी की।
जब वह छोटा था मामूली सी बातों पर सुमन बुरी तरह क्रोध करती थी,बड़े भाई बहनोंको जहाँ समझदारी बरतने के निर्देश मिलते ।
वहीँ उसे अम्मा-पापा उसे डाँटने ,समझाने की बजाय दुलार से , स्वाभिमान से काम लेने की सीख देते ।
यह स्वाभिमान कब सँस्कारों की मजबूत चौखट लाँघकर अभिमान और उद्दंडता में बदल गया उसे वे भी न जान पाये।
उसे याद आया जब अम्मा पापा के शहर से बाहर होने पर क्रोध में आकर सुमन ने निशा को रसोई से बाहर निकाल दिया था वजह खाना बनने में ज़रा सी देर हुई थी बस।
तीन महीने बाद जब अम्मा लौटीं तो गलत निशा ही ठहराई गयी,नतीजा दो चूल्हे हुए एक घर में सुमन की प्रतिज्ञा के चलते निशा बूँद बूँद पानी को तरसी जब तक नया नल नहीं लगा।
उसकी छुई चीज़ें अम्मा को भी स्वीकार्य न थीं सुमन के साथ,यहाँ तक कि अपनी शादी में भी भाई भाभी के सारे फ़र्ज़ निभाने के बाद भी सुमन मुँह से न बोली।
और अम्मा-पापा अपनी बेटी की बेसिर पैर की प्रतिज्ञाओं को तबियत से हवा देते रहे।
बिगड़ी आदतों की सुमन दहेज़ की दम पर ससुराल तो चली गयी पर किसी से भी उसका निबाह न हो सका।
देवर -देवरानी को उसने अपने दबंग स्वभाव से घर छोडने पर विवश कर दिया,और भाई के विरुद्ध उसका साथ देने वाले पति ने भी उसके स्वभाव से आजिज आकर ख़ामोशी ओढ़ ली।
अब सब कुछ सुमन और उसके बच्चों का था और बाकी कठपुतली ,आख़िरकार डोर तो अम्मा पापा के हाथ थी।
फिर जब सब ज़रूरी रिश्तों की डोर कट गई तो न जाने कब उनका तैयार किया गया काँच उन्ही के हाथ ज़ख्मी करने लगा।
जब सुमन का एकमात्र शरण स्थल मायका भी उसके स्वभाव का शिकार हुआ, तब से अब लौटकर आई थी सुमन।
जब उसके ये हथियार उसने बेटे-बहू पर प्रयोग किये,और माँ होने के नाते अपनी चालबाजी को उचित भी ठहराया।
पति तो मौन रहे पर बेटे पलाश ने इसबार विरोध तो किया ही उसके सभी कर्मों की सूची भी खोलकर रखते हुए कहा।
माँ आपके इन्ही कर्मों की वजह से सबके होते हुए भी मैँ अकेला हूँ।कोई रिश्ता हमारे पास नहीँ छोड़ा आपने..
पहलीबार सुमन ने अपनी असलियत का आईना देखा था वह भी अपनी औलाद के सामने।सन्तान से मिला अपमान सुमन को शूल बनकर चुभ रहा था।
सुमन के रोने के साथ-साथ अम्मा की भी आवाज़ कानों में पड़ रही थी कि अब मेरा पौरुष नहीं चलता ,घर में तो आने से रोकने की किसी की हिम्मत नहीं ,मेरे आगे…
पर.. आगे की बात पापा ने लपकते हुए कहा,”कब तक?
अरे पँकज को कहो,भाई है समझाए उन लोगों को बस औपचारिकता कर लौट गया ,भाई-भौजाई किस लिए होते हैं,”जोरू का गुलाम”अम्मा गरज कर बोलीं
मैँ प्रतिज्ञा करती हूँ कि अब वहाँ कदम नहीँ रखूँगी जबतक कोई लेने न आये,सुमन आँसू रोते हुए बोली।
नहीँ अम्मा पँकज ने प्रवेश करते हुए कहा,”इसे और इसकी गलतियों को अब आप और पापा ही सहिये”।
अब ये क्यों आई है यह तो किसी के मरने पर भी न आने की प्रतिज्ञा लेकर गयी थी और धीरज भैया के मरने पर ही कदम रखा देहरी पर…
“अरे बहन दुःखी-सुखी है”,अम्मा के स्वर में थकान थी
आप दोनोँ ने इसकी गलतियों की आग में हमेशा घी डाला समझाने की बजाय,इसका व्यक्तित्व बिगाड़ने में आपका बड़ा हाथ हैं सो आप ही जाइये इसके साथ…
क्योंकि सबके मन मर चुके हैं इससे
अम्मा के होंठ इस सच से तालू से चिपक गये,
पँकज -” कैसे साथ दे कोई…इसे कद्र ही कहाँ है रिश्तों की अपने फ़ायदे और ऐंठ को ही इसने पोसा है,
आख़िर आप दोनोँ को हासिल क्या हुआ? सिर झुकाये इस बार तनमन और धन से लाचार होने के बाद अम्मा-पापा मौन थे।
नज़र झुकाकर बोलीं ,सुमन भाई की बात पर कान दे ,प्रतिज्ञा सकारात्मक अच्छी है और नकारात्मक विध्वंसक.हासिल तेरे आगे है?
पहली बार उनसे सहयोग की जगह सबक पाकर सुमन अपना सामान बांधने लगी।
