Gulmohar ki Wapsi
Gulmohar ki Wapsi

Hindi Romantic Story: सुबह 9:10 की ब्लू लाइन मेट्रो हमेशा भीड़ से भरी होती है। स्टेशन अनाउंसमेंट की आवाज़ें, तेज भागते कदमों की हलचल और दिल्ली की भागती-दौड़ती ज़िंदगी । रिद्धिमा, 26 वर्षीया दृष्टिहीन, एक वॉयस टेक स्टार्टअप में ऑडियोबुक एडिटर, इस शोर के भीतर भी अपनी सुनने की कला से एक अलग दुनिया गढ़ लेती है ।ध्वनि उसकी दुनिया है, कहानियां उसकी ज़ुबान और कानों से चलती है। रिद्धिमा हर सुबह नोएडा सेक्टर 62 से कनॉट प्लेस स्थित ऑफिस तक मेट्रो से जाती है— सफेद स्टिक हाथ में, ऑफिस बैग कंधे पर और मन में कल्पनाओं की अपनी दुनिया।
कुछ महीने पहले, इसी सफर में एक नई आवाज़ शामिल हुई। वो आवाज़ नरम, संजीदा, भरोसे से भरी थी।
“मैं साथ चलूं?”
पहली बार किसी ने बिना दया के, आत्मीयता से पूछा था।
उस दिन के बाद, हर सुबह वही अनजान आवाज़ उसका हाथ थामती, उसे भीड़ से बचाकर मेट्रो में बैठाती, और फिर दोनों के बीच शुरु होता संवाद — बारिश की खुशबू, गुलमोहर की लाली, ध्वनि की लय और शब्दों का संगीत
वो 29 वर्षीय वॉयस आर्टिस्ट, दक्षिण दिल्ली के एक स्टूडियो में काम करता है। रेडियो, ऐड, कहानियां… सब कुछ में आवाज़ें भरता है। वह शब्दों से दृश्य रचता है —
“आज आसमान हल्का नीला है,” वो कहता, “गुलमोहर भी खिल गए हैं।”
रिद्धिमा मुस्कुरा देती—“तुम्हारी आवाज़ जैसे रंगों में लिपटी हुई हो।”
रिद्धिमा ने उसका नाम कभी नहीं पूछा। शायद इसलिए कि उसे ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई। वो नाम से परे एक एहसास बन चुका है।
“तुम जब बोलते हो ना,” रिद्धिमा मुस्कुराकर कहती, “ऐसा लगता है जैसे शब्दों की तस्वीरें बन रही हों।”
वो हँसता, “तो तुम उन्हें छू भी लेती हो?”
वो बताता—“आज मेट्रो स्टेशन के बाहर चाय वाले की भाप मीठी थी… और गुलमोहर भी भीग रहे हैं।”
रिद्धिमा मुस्कुरा देती—“क्या तुम्हारी आवाज़ भीगती है बारिश में?”
रिद्धिमा के इस सवाल पर वो मुस्कुराता—“शायद… जब तुम सुनती हो।”
कोई नाम नहीं, कोई चेहरा नहीं—फिर भी दिल जुड़ता जा रहा है।
पर एक सुबह वो आवाज़ नहीं आई।
ना अगले दिन… ना उसके बाद।
वही मेट्रो, वही कोच, वही सीटें… पर अब हर चीज़ अनजानी-सी लगने लगी।
उसकी उंगलियां खाली हवा में भटकतीं, जैसे किसी एहसास को थामने की कोशिश कर रही हों।
वो दीवार पर उंगलियां फिराती और मन ही मन कहती —
न उसका नाम था,
न कोई तस्वीर ज़हन में,
बस उसकी बातों में
एक मौसम बसा था—
गुलमोहर जैसा।
फिर इक्कीसवें दिन…
एक जानी-पहचानी, हल्की थकी हुई आवाज़ फिज़ा में गूंजी — “गुलमोहर फिर खिले हैं!”
उसकी सांस थम सी गई।
“तुम… तुम लौट आए?”
“एक एक्सीडेंट हुआ था… अस्पताल में था। होश में आया तो सबसे पहले तुम्हारी आवाज़ याद आई।”
रिद्धिमा की उंगलियां उसके चेहरे तक पहुँची—थोड़ा खुरदरा, थोड़ा काँपता… पर वही है।
“अब नाम तो बताओ?”
“मैं करण! और तुम?”
“मैं रिद्धिमा!
वो हँसी, भीगी पलकों के साथ—“अब जान लिया… अब कभी खोने नहीं दूँगी।”
“मैं भी!”
कुछ आवाज़ें, चेहरे से ज़्यादा गहरी होती हैं।
और गुलमोहर… वो हर बार खिलते हैं,
जब कोई दिल से पुकारता है।