Hindi Short Story: दिल्ली मेट्रो के भीतर हर चेहरा अपनी दुनिया में गुम था। कान में ईयरफोन, आंखें मोबाइल स्क्रीन पर और दिल… शायद किसी ने बंद कर रखे थे। लेकिन एक चेहरा आज थोड़ा अलग था — हल्की सलवटों वाली साड़ी, माथे पर छोटी सी बिंदी और कांपते हाथों में एक सादा थैला। उम्र रही होगी कोई साठ के पार।
“मेडम, बैठ जाइए,” एक युवक ने सीट छोड़ते हुए कहा।
“नहीं बेटा, बस दो स्टेशन ही तो हैं।”
उसने मुस्कुराकर मना कर दिया। मगर युवक ने ज़ोर देकर कहा, “माँ बैठती तो होती आपकी उम्र की।”
बूढ़ी आँखें भर आईं। वह बैठ गई, और कुछ क्षण बाद खुद को रोक न सकी—”तुम लोग आजकल प्यार भी करते हो क्या? या सब ऑनलाइन होता है?”
युवक मुस्कुरा पड़ा, “कभी-कभी दिल भी ऑनलाइन जुड़ते हैं।”
“मेरे पति हर सुबह इसी मेट्रो से ऑफिस जाते थे। 32 साल एक ही डिब्बे में। हम दोनों चुप रहते थे, लेकिन एक दिन उन्होंने कहा — ‘अगर ये मेट्रो रुक जाए, तो क्या तुम साथ चलोगी?’ और मैं चल दी…”
“फिर?” युवक ने उत्सुकता से पूछा।
“फिर ये शहर, ये भीड़, ये नौकरी — सब मिलकर हमें दूर करते गए। अब वो स्टेशन तो कब का निकल गया, बेटा।”
मेट्रो एक झटका खाकर रुकी। वृद्धा उठी, “मेरा स्टेशन आ गया।”
युवक ने थैला उठाया, “मैं छोड़ देता हूँ बाहर तक।”
“तुम आज के हो, पर दिल तुम्हारा पुराना है। थैंक यू बेटा।”
“नहीं मम्मी जी, थैंक यू — आपने सिखाया कि मेट्रो में प्यार अब भी होता है… बस देखने वाली नज़र चाहिए।”
मेट्रो के दरवाज़े बंद हो गए। युवक अपनी जगह बैठा और आंखों में वही बूढ़ी मुस्कान बसी रह गई। शायद “लव इन अ मेट्रो” अब भी ज़िंदा था — दो अजनबियों के बीच,
एक मुस्कान जितनी दूरी पर।
दो स्टेशन की दूरी-गृहलक्ष्मी की लघु कहानियां
