Metro ki wo Seat
Metro ki wo Seat

Hindi Short Story: शाम का वक्त था। ऑफिस से थकी-हारी श्रेया हमेशा की तरह ब्लू लाइन मेट्रो में बैठी थी। भीड़ थोड़ी कम थी। उसने अपनी पसंदीदा प्लेलिस्ट ऑन की, आँखें बंद कीं, और सीट की आराम में डूब गई।
अचानक उसे एहसास हुआ कि कोई उसे देख रहा है।
उसने आँखें खोलीं — सामने वाली सीट पर एक लड़का बैठा था। नीली शर्ट, कानों में एयरपॉड्स, और हाथ में किताब — “Norwegian Wood”। नज़रें मिलीं, और दोनों ने एक हल्की सी मुस्कान दी। पर दोनों ने कुछ नहीं कहा।
हर रोज़ की मुलाक़ात का सिलसिला बन गया था
अगले कुछ दिनों तक, वही वक्त, वही डिब्बा, और वही लड़का — आरव। वो दोनों एक-दूसरे को पहचानने लगे थे। मुस्कुराहटें अब थोड़ी गहरी हो गई थीं। एक अनकहा रिश्ता बन रहा था, जो शब्दों का मोहताज नहीं था।
एक दिन आरव ने आखिरकार बात शुरू की,
“तुम रोज़ इसी वक्त आती हो?”
“हाँ… ऑफिस के बाद। तुम?”
“यही रूटीन है मेरा भी। वैसे… मैं आरव।”
“श्रेया,” उसने हाथ बढ़ाया।
आरव हर दिन नई किताब लेकर आता था। श्रेया को किताबें पसंद नहीं थीं, लेकिन जब आरव बात करता, तो वो हर शब्द को मानो किताब की तरह पढ़ती।
एक दिन उसने पूछा,
“तुम इतनी किताबें क्यों पढ़ते हो?”
आरव मुस्कुराया, “क्योंकि असली दुनिया उतनी रोमांटिक नहीं होती।”
श्रेया ने नज़रों में शरारत भरकर कहा, “शायद मेट्रो में बैठी लड़की कुछ बदल दे?”
कुछ हफ्तों बाद, आरव ने मेट्रो के बाहर मिलने का प्रस्ताव दिया।
“एक कॉफी पिएँ?”
श्रेया को मानो यही इंतज़ार था। कॉफी की चुस्कियों के बीच उन्होंने अपनी कहानियाँ बांटी — टूटे रिश्ते, अधूरी चाहतें, और नए ख्वाब। उस शाम, आरव ने कहा:
“श्रेया, शायद तुम मेरी सबसे खूबसूरत ‘मेट्रो स्टॉप’ हो — जहाँ रुकना दिल को सुकून देता है।”
श्रेया मुस्कुराई, “तो चलो, अगली मेट्रो से नहीं… ज़िंदगी के सफर पर चलें?”
अब वे रोज़ मेट्रो में नहीं मिलते, लेकिन हर सुबह साथ कॉफी पीते हैं, और हर शाम साथ घर लौटते हैं। कभी किसी सीट पर, किसी अजनबी की मुस्कान में अपने अतीत को ढूँढते हुए।
क्योंकि प्यार… कभी-कभी “डेली रूटीन” में ही छुपा होता है।