Summary: राजस्थान का सांस्कृतिक स्वाद: घेवर की मिठास और इतिहास
घेवर राजस्थान की एक पारंपरिक और भावनात्मक मिठाई है, जिसकी जड़ें 16वीं शताब्दी से पहले की मानी जाती हैं। इसका नाम संस्कृत के 'घृतपूर' से निकला है, जिसका अर्थ है ‘घी से भरा हुआ’।
History of Ghevar: राजस्थान की पहचान सिर्फ उसके किले, हवेलियां या रंगीन पोशाकें नहीं, बल्कि उसकी मिठाइयां भी हैं, जो हर पर्व को खास बना देती हैं। इन्हीं में सबसे खास नाम है, घेवर। यह कोई साधारण मिठाई नहीं, बल्कि परंपरा, स्वाद और भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक है, जो खासतौर पर तीज और गणगौर जैसे त्यौहारों पर अपने चरम पर होता है।
घेवर शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘घृतपूर’ से मानी जाती है, जिसका अर्थ होता है – घी से भरा हुआ। यह नाम ही इसके स्वाद और बनावट की विशेषता को उजागर करता है। घी, मैदा और चीनी से बनी यह मिठाई बाहर से कुरकुरी और अंदर से रसीली होती है। इसकी जालीदार बनावट, मधुमक्खी के छत्ते की तरह दिखाई देती है, जो इसे अन्य मिठाइयों से बिल्कुल अलग पहचान देती है।
16वीं शताब्दी से पहले की है शुरुआत

घेवर की जड़ें 16वीं शताब्दी से पहले के राजस्थान में खोजी गई हैं। माना जाता है कि यह मिठाई पहले सांभर में तैयार की जाती थी। वहां से घेवर बनाने वाले कुशल हलवाइयों को जयपुर बसाने की कहानी अपने आप में रोचक है। जब सवाई जयसिंह द्वितीय ने 1727 में जयपुर की स्थापना की, तो उन्होंने सांभर से घेवर बनाने वाले कारीगरों को जयपुर बुलाकर उन्हें स्थायी रूप से बसाया। ये कारीगर बाद में जयपुर की मिठाई परंपरा की रीढ़ बन गए।
बिना घेवर अधूरे हैं ये त्योहार
गणगौर की सवारी जितनी प्रसिद्ध है, उतनी ही लोकप्रियता घेवर को भी हासिल है। जयपुर की संस्कृति में गणगौर पर्व पर बहन-बेटियों को सिंजारे में घेवर भेजने की परंपरा आज भी जीवित है। यह सिर्फ मिठाई नहीं, बल्कि स्नेह, आशीर्वाद और परंपरा का प्रतीक बन चुका है। पहले हलवाई दूध से घेवर बनाते थे, वहीं आज रबड़ी, पनीर और दूध वाले घेवरों की भारी मांग है।
जहां पहले घेवर केवल तीज और गणगौर जैसे खास पर्वों तक सीमित था, वहीं अब बढ़ती मांग और पर्यटकों की पसंद ने इसे सालभर उपलब्ध मिठाई बना दिया है। जयपुर की मिठाई दुकानों में आज वनस्पति घी और देसी घी से बने घेवर अलग-अलग साइज और स्वाद में उपलब्ध रहते हैं। फीका घेवर करीब एक महीने तक खराब नहीं होता, जिससे यह अब देश-विदेश तक भेजा जा रहा है। कीमत की बात करें तो वनस्पति घी में बना घेवर 320 से 400 रुपए तक और देसी घी में बना घेवर 650 से 900 रुपए तक उपलब्ध है।
पनीर, दूध और रबड़ी घेवर की बढ़ती लोकप्रियता

आज के दौर में घेवर का स्वरूप और भी विविधतापूर्ण हो गया है। अब बाजार में दूध, पनीर और रबड़ी से बने घेवर खूब बिकते हैं, जो स्वाद और पौष्टिकता दोनों में भरपूर हैं। खास बात यह है कि यह मिठाई अब मिलावट रहित और शुद्धता के लिए भी जानी जाती है। स्थानीय लोग गर्व से बताते हैं कि “घेवर वो मिठाई है, जिसमें संस्कृति भी है और स्वाद भी।”
‘आरा म्हारा देवरा तने खिलाऊं मैं घेवर’
मारवाड़ी संस्कृति में एक पुरानी कहावत है – “आरा म्हारा देवरा तने खिलाऊं मैं घेवर…” जो इस मिठाई के भावनात्मक महत्व को दर्शाती है। यह मिठाई अब सिर्फ खाने की चीज नहीं रही, बल्कि राजस्थानी गर्व, प्रेम और परंपरा का एक स्वादिष्ट रूप बन चुकी है।
