पुरानी बात है। वर्षों पहले राजस्थान के एक गाँव में एक सेठ रहते थे। वे स्वभावतः बड़े सज्जन, मृदुभाषी, सरल तथा सबका हित चाहने वाले थे। एक बार भीषण अकाल पड़ा। सेठ गणेशदास के यहाँ नित्यप्रति आवाज लगाकर प्रचारित किया जाता था कि कोई भूखा प्यासा हो तो आ जाए। और ऐसे लोगों के पहुँचने पर बड़े न-मनुहार के साथ उन्हें भोजन कराया जाता। उनके यहाँ इस प्रकार का सदावर्त प्रायः नित्य चलता था।
एक दिन सेठ साहब दुकान पर बैठे व्यापार का कार्य देख रहे थे। तभी दुकान की पिछली खिड़की से मलमल का थान खींचते हुए एक चोर को नौकर ने पकड़ लिया। वह सेठजी के सामने लाया गया। सेठ ने उसे पहचान लिया, पर बोले कुछ नहीं। नौकर तथा सेठ साहब के पुत्र उसे मारने-पीटने लगे। सेठजी ने उन्हें रोक दिया और उसे अपने पास बैठा लिया। सेठजी शांत और मधुर कोमल स्वर में कहने लगे- “साफे (पगड़ी) के लिए मलमल चाहिए थी इन्हें। यदि ऐसा था तो आप मुझसे कह देते मैं दिलवा देता। “वे तुरंत अपने पुत्र से बोले- वह मलमल ले जाओ तथा इन्हें साफा बंधवा दो। इन्हें साफे की जरूरत है। पैसे इनके पास थे नहीं, माँगना शोभा नहीं देता फिर फटे साफे से संबंधियों के गाँव में रहना अच्छा नहीं लगा होगा। इस प्रकार मजबूरी से इनको चोरी करनी पड़ रही थी। अस्तु, अपने गाँव के संबंधी अपने ही संबंधी हैं। सेठजी ने अपने पास बैठा कर उसको साफा बंधवाया। फिर घर से घी-शक्कर युक्त भोजन मंगाकर उसे भोजन करवाया।
वह महाशय अब क्या कहते? वह तो लज्जावश अंदर ही अंदर गड़े जा रहे थे। वह तथा अन्य लोग भी सोच रहे थे कि प्रायः नेकी का पुरस्कार दिया जाता है, पर यहाँ तो उसे चोरी का पुरस्कार मिला है।
सजा देने के अपने-अपने तरीके होते हैं। इस प्रकार का सद्भावनापूर्ण मानवीय व्यवहार, फिर कोई व्यक्ति पुनः अपराध करने की हिम्मत भला कैसे कर सकता है। सम्भवतः नहीं कर सकता। जीवन का कायापलट प्रायः ऐसे ही घटनाक्रम तथा ऐसे ही परहित भावी महानुभावों के संसर्ग से हो जाया करता है। वस्तुतः बिना किसी स्वार्थभाव के किसी गिरते को उठाना ही तो सबसे बड़ा सेवा कार्य है।
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