काश ! पहले कहा होता...: Story in Hindi
Kaash Pehle Kaha Hota

Story in Hindi: आज मौसी की तेरहवीं की शोक सभा रखी गई है, समय दो बजे का है इसलिए नजदीकी कुछ लोग पहले से आ गए, कुछ लोगों का आना-जाना चल रहा है। सभी के चेहरे देख ऐसा महसूस हो रहा था मौसी के जाने की वजह से काफी दु:खी हैं, जो भी आपस में बातचीत सुनाई दे रही थी, मौसी से ही संबंधित थी, सिर्फ और सिर्फ अच्छाइयों से जुड़ी बातें थी।
चारु मौसी थीं, नहीं मैं तो कहूंगी वो हैं और मेरे लिए हमेशा रहेंगी।
बचपन से अधिक लगाव उनके संग रहा, जिस बात के लिए मां से भी नहीं कहती या बताती उन्हें सब मालूम रहता था।
शादी के पहले मां संग मौसी के यहां आना-जाना लगा ही रहता और बाद में भी ना छूटा। मौसी के दोनों लड़कों ने वैसे इंजीनियरिंग की हुई थी पर मौसाजी का केमिकल बिजनेस होने की वजह से अपने घर के काम में ही हाथ बंटाने लगे।
शादी हुई तो बहू, पोते-पोती संपन्न परिवार था, भौतिक सुख सुविधाओं की भी कोई कमी ना थी। बस! कमी थी तो एक साथ बैठ सुख-दु:ख बांटने की, अपने दिल की बात एक-दूसरे से कह सुनने की।
मौसी सहृदय होने के साथ काफी मिलनसार भी थी, तीज त्यौहार हो या शादी-ब्याह, ना तो कहीं जाने में पीछे रहती थी ना ही अपने यहां बुलावे में कोई कसर छोड़ती थी। दोनों बहुओं प्रीति व अम्बिका के आ जाने से मौसी अंतर्मन से बहुत खुश थी, लगता था अब घर में हर समय उत्सव सा माहौल रहेगा, आपसी बातचीत तथा बच्चों की किलकारी से घर गूंजता रहा करेगा, परंतु ऐसा कुछ भी तो ना हुआ। बड़ी बहू को घर-गृहस्थी के जितने काम करने की इच्छा होती, करती बाकी घरेलू सहायकों से करने को कह देती या फिर करने की जरूरत ही ना समझती। 3-4 किटी पार्टी व समाज सेवा के नाम पर 2-3 संस्थाओं से जुड़ी हुई थी, इसलिए कभी कहीं तो कभी कहीं आना-जाना लगा ही रहता।
कई दफा तो छुट्टी के दिन जब सभी पारिवारिक सदस्य घर पर होते तब भी बड़ी बहू को किसी ना किसी कार्य की वजह से बाहर जाना पड़ जाता, मौसी का मन तो होता मना कर दूं किंतु चुप रह जातीं।
छोटी बहू टीचर है तो दोपहर तक का समय स्कूल में निकल जाता फिर घर आकर खाना वगैरह खा कुछ देर बैठ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लग जाती, इस तरह शाम होती दिखती फिर थकान होना भी स्वभाविक है।
वैसे मौसी जरा भी रूढ़िवादी या संकुचित विचारों की ना थी, उनका यही कहना था पारिवारिक जिम्मेदारियों के अलावा अपनी इच्छाओं के अनुरूप भी मनमाफिक कार्य अवश्य करते रहो। हां, इतना जरूर मानना था इच्छा रहती थी कि शाम के समय व छुट्टी वाले दिन कुछ विशेष आवश्यक काम नहीं हो तो घर के सभी सदस्य बेटा-बहू, पोता-पोती हम दोनों के संग समय बिताएं। हंसे, बोलें, संग-संग टाइम गुजारें।
मौसी के दो ही पोता-पोती थे। दोनों बेटों के एक-एक बच्चा था, बड़े पोते उदय को मौसी के हाथ से बने बेसन के लड्डू और साबूदाने की खीर खाना पसंद था तो पोती निक्की को मटर के समोसे, आलू की सब्जी और कचौरी।
मौसी का मन करता रहता, मैं खिलाती रहूं ये खाते रहें।
अपने पोता-पोती के संग वक्त बिताना मौसी का सबसे पसंदीदा समय था। पोती को कहने लगती, ‘आजा मेरी लाडो, तुझे कहानी सुनाऊं, तेरी गुड़िया को सजाऊं’, तो झट से उसका जवाब होता, ‘आपके साथ कौन खेलेगा, आपके साथ तो हम बोर हो जाते हैं।’ मौसी फिर बुझे मन से मुस्कुरा अपने काम में लग जातीं, खैर! सुबह का काम निपटा मौसी को फोन किया, ‘क्या कर रही हो?’
‘तुझे याद ही कर रही थी कि अभी तक बिट्टो का फोन नहीं आया।’
‘हां! मौसी, आज नाश्ता देर से हुआ तो बाकी काम भी देर से ही हुए।’
‘अभी क्या हो रहा है?’
‘आज शाम को तेरे बड़े भाई के स्कूल के कुछ दोस्त आ रहे हैं, खाना तो खाएंगे ही, इसलिए किचन में काम कर रही हूं।’
‘वैसे आलू की सब्जी-छोले व कचौरी बना रही हूं, साथ में दही-बड़े और मीठे में खीर बनाने की सोच रही हूं।’
थोड़ी इधर-उधर की बात कर मैंने कहा, ‘ठीक है मौसी, आप काम कर लो फिर बात कर लूंगी। काश! आपके पास होती तो इतना स्वादिष्ट खाना खा पाती। जल्दी ही खाने आती हूं’, कह फोन रख दिया।
अगले दिन मौसी के फोन उठाते ही मैंने कहना शुरू कर दिया, ‘कितनों की उंगलियां खाना चाटते हुए कट गई, आपने इतना सब कुछ बनाया जरा भी ना बचा होगा।’ मैं अपनी बात कहती ही जा रही थी, कुछेक पल बाद जब मालूम हुआ मौसी जवाब नहीं दे रहीं तो पूछा, ‘क्या हुआ? बोल क्यों नहीं रहीं?’
तब भारी मन से बोलीं, ‘जैसा तू सोच रही है ऐसा नहीं है, सारा खाना रखा हुआ है। सभी लोगों के आने के बाद थोड़ी देर बैठना हुआ फिर मैंने रसोई में कचौरी तलने के लिए तेल चढ़ा दिया और दही-बड़े प्लेट में निकाल ही रही थी कि प्रीति आ के बोली, ‘मां, खाने की तैयारी मत करो, घर में खाना ना खा बाहर जाने का प्रोग्राम बन गया है। बच्चों की इच्छा पिज्जा खाने की हो रही है।’
‘क्या कह रही है बेटा? तुझे तो मालूम है सबकी पसंद का खाना बना हुआ है, सबको जा के बताएगी तो खुशी-खुशी यहीं खाने को बोलने लगेंगे, होटल में बिल्कुल नहीं जाएंगे, बोल सबको बेटा!’
‘नहीं मां, यह खाना कल काम आ जाएगा, हम सभी खा लेंगे, आज आप और पापा खा-पी लेना।’
मैं कहती रही थी पर बाहर रेस्टोरेंट जाना था तो चले गए, जितना तेरे मौसाजी और मेरे से खाया गया खा लिया, अब आज इन लोगों को खाना होगा तो खा लेंगे नहीं तो जो करना हो करें। मौसी का मन दु:खी ना हो इसलिए मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं, आपके हाथ की तो बासी कचोरियां भी नसीब वालों को ही मिलती हैं, जो आटा रखा है उसकी बनाकर रख दो देखना कैसे सब खुश होकर खाएंगे, सारी चट कर जाएंगे।’
फिर इधर-उधर की बात कर मौसी का मन हल्का कर फोन रख दिया।
बड़े भैया के बेटे ने बारहवीं के बाद प्रतियोगी परीक्षाएं दी थीं, एक दिन सुबह भैया का फोन आया आवाज में खुशी साफ झलक रही थी, तेरे भतीजे का इंजीनियरिंग में चयन हो गया है, भोपाल जा रहा है।
‘अरे वाह! यह तो बहुत अच्छी खबर सुनाई, आपको व भाभी को बधाई और हमारे बेटे को बहुत सारा प्यार-आशीर्वाद।’
मौसी को भी फोन कर बधाई दी और इस खुशी के मौके पर आकर मिलने व उनके हाथ का बना खाना खाने की फरमाइश कर दी।
खैर! मौसी से तो तकरीबन रोज ही बातें होतीं, एक दिन आवाज कुछ अलग लगी तो पूछा, ‘क्या बात है मौसी, आवाज से काफी थकी हुई लग रही हो?’
‘हां! बेटा भोपाल जाने का रिजर्वेशन हो गया तो आज सुबह से लड्डू-मठरी बनाने में लगी हुई थी, साथ ही थोड़ी-सी पोहे की नमकीन और बेसन के सेव भी बना दिये। अपने पास खाने का सामान रहेगा तो बच्चा भूख लगने पर वक्त-बे-वक्त खा ही लेगा।’
‘हां, सही बात कह रही हो, होस्टल में घर का बना खाने-पीने का सामान तो होना ही चाहिए।’ खैर! उदय होस्टल चला गया पर उसका घर आना-जाना लगा ही रहता, जब भी वापिस जाता उसकी पसंद का सामान जरूर बनाकर रख देतीं और खूब खाने की हिदायतें भी देतीं।
दीपावली का समय था, भैया दूज के दिन हर बार की तरह टीका करने के लिए अपने आने का बताने को फोन लगाया।
कहने लगीं, ‘आजा बेटी अपने भाई-भतीजे को टीका कर जा, पर किसी भी तरह की मिठाई या फल वगैरह ना लाना, अब यहां कोई नहीं खाता, सबकी पसंद बदल गई है।’
‘पर मौसी घर में सभी को रसमलाई अच्छी लगती है, वो तो जरूर लाऊंगी।’
‘ठीक है जैसा करना चाहे, कर ले, परंतु ना ही लाए तो ज्यादा खुश रहेगी’, कह फोन रख दिया। इतना दो टूक जवाब आज तक मुंह से नहीं सुना था, कुछ तो बात जरूर है जिसकी वजह से मौसी मन ही मन अत्यंत दु:खी व परेशान है, जाकर ही मालूम होगा।
जल्दी-जल्दी घर के काम निपटा, नहा-धो तैयार हो एक बजे तक पहुंची, पूजा इत्यादि कर सबने साथ बैठ खाना खाया और बचपन की यादों को ताजा किया।
महसूस कर रही थी आज मौसी हमारी बातों में खास दिलचस्पी नहीं ले रही थी। बीच-बीच में अपनी उपस्थिति का आभास दिलाने के लिए कोई शब्द कह चुप हो जातीं। मौसी की गोदी में पली-बढ़ी थी, हर पल की मनोदशा से वाकिफ रहती थी सो समझ आ रहा था कोई ना कोई ऐसी बात अवश्य है जिससे मौसी के मन को बहुत दु:ख हुआ है, क्योंकि रोजमर्रा की कई बातें तो अनदेखा कर जाती हैं।
मन नहीं मान रहा था तो जरा सी देर मौसी को अकेला देखते ही झट से कमरे में ले आई, ‘क्या हुआ मौसी क्या बात हो गई? आज बहुत चुप-चुप हो।’
‘कहां री, जब से तुम सबके साथ बोल तो रही हूं, बल्कि तुम लोगों को भी लगता होगा बुढ़िया कितना बक-बक करती है’ और फिर बनावटी हंसी हंसने लगीं।
मौसी का हाथ पकड़ मैंने कहा, ‘मुझे मालूम है तुम्हे कोई बात अंदर ही अंदर परेशान कर रही है, जिसका तुम अहसास तक नहीं होने दे रहीं। अपनी बेटी से बता दो, दिल पर लगी बात कह दो, मन हल्का हो जाएगा।’
शायद प्यार के स्पर्श की अनुभूति थी या अपनेपन का प्रभाव, एकदम से मौसी की रूलाई फूट पड़ी। थोड़ी देर रो कर मन शांत होने पर पानी पी कहने लगीं, ‘उदय, भोपाल जा रहा था तो उसके ले जाने के लिए बेसन के लड्डू, बेसन के नमकीन सेव, मठरी, नमकपारे वगैरह बनाए सामान प्रीति को देते हुए बोलीं, ‘बैग में संभालकर रख दे’ और फिर उदय को कहा, ‘खा लियो बेटा, घर का बना है, सेहत बनी रहेगी।’
‘बिल्कुल दादी, रोज ही खा लूंगा।’ कुछ देर बाद याद आया मिर्ची का अचार, पूछ लूं, ‘ले जाएगा क्या?’
जैसे ही कमरे के बाहर पहुंची सुनाई दिया, ‘मम्मी, मुझे ये अटरम-शटरम नहीं खाना। पिज्जा, बर्गर सब देर रात तक मिलता है वो खाऊं या यह।’
‘मुझे नहीं ले जाना, मेरे साथ मत रखना।’
‘अरे बेटा! सुन तो जितना खाना हो खा लेना यहां से तो ले ही जा।’
‘ऐसा करियो, जो वहां साफ-सफाई वाली बाई आती होगी उसे दे दियो, यहां छोड़कर ना जा, वहीं दे दा के खतम कर दियो।’ और फिर दोनों मां-बेटा की मिली-जुली हंसी सुनाई दी।
‘अब तू ही बता, इतनी मेहनत इसलिए की थी कि घर का स्वाद मिल जाएगा, बच्चा खा लिया करेगा, या फिर जबरदस्ती इधर-उधर बांट खत्म करने को’, इतना कहते बताते मौसी की आंखों में फिर आंसु आ गए, फिर गला रूंध सा गया। ‘बस! मौसी, बस! अब बहुत हुआ। सबका बहुत कर लिया तुमने, बल्कि यही कहना चाहिए कि जरूरत से बहुत ज्यादा कर दिया व कर रही हो।’
‘अब समय आ गया अपने लिए भी जी लो, अपनी इच्छाओं को अपने जीवन में थोड़ी अहमियत दे दो, अपने लिए मनचाहा समय निकालो, सभी कुछ है तुम्हारे पास सिवाय अपने लिए कुछ सोचने कुछ करने के। अभी भी वक्त है मौसी, जो तुमने स्वयं के अरमानों या सपनो को संजोया हुआ है उन्हें साकार करो किंतु यह तभी संभव हो सकेगा जब बेवजह दुनियादारी ना निभाओगी, अब सिर्फ और सिर्फ अपने लिए सोचोगी और सोची बात पर अमल करोगी।’
ख्यालों में, यादों में ही खोई हुई थी तभी पोते उदय की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, सामने क्या हो रहा है? इस हकीकत में वापिस आई।
कह रहा था, ‘मेरी दादी बहुत अच्छी थी, मेरे लिए हमेशा मेरी पसंद के बेसन के लड्डू बनाती थी, मैं खूब खाता था अब किसके हाथों से बने लड्डू खाऊंगा?’
फिर पोती निक्की बोली, ‘सच मेरी दादी बहुत ही अच्छी थी, हम सभी से प्यार और स्नेह करती थीं। उनके साथ बैठकर कहानी सुनना, हमारी पसंद के खेल खेलना सब कुछ बहुत याद आएगा।’
‘जब दादी के संग मम्मी-पापा हम सभी बैठते थे, बातें करते थे तो वो समय बहुत अच्छा होता था, हम सब अपनी प्यारी दादी को हमेशा याद करते रहेंगे।’
अब और नहीं सुना गया, हॉल से बाहर निकल आई तो थोड़ी राहत की सांस आई। काश! यही सब मौसी के बेपनाह प्रेम-दुलार को समझ उनके सामने कहा होता, काश! पहले कहा होता, काश! मौसी ने सुना होता।

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