स्वर्ग में बैठे-बैठे जब ब्रह्माजी ऊब गये, तो उन्होंने सोचा- “क्यों न धरती पर जाकर अपनी सृष्टि देख आऊं।” धरती पर उन्होंने देखा कि एक किसान हाथ में कुदाली लिये एक विशाल पर्वत को खोदने में व्यस्त है। वे किसान के पास जाकर बोले- “भाई, यह तुम क्या कर रहे हो?”
“मैं इस पहाड़ को यहाँ से हटा रहा। इसके कारण मेरे खेतों में पानी नहीं आ पाता। बादल इससे टकराकर उस पार ही खाली हो जाते हैं।”
ब्रह्माजी ने कहा- “यह तो ठीक है, परंतु क्या तुम इसे हटा सकोगे?” आदमी ने उत्तर दिया- “क्यों नहीं? मैं इसे हटाकर ही दम लूंगा।” ब्रह्माजी अविश्वास से मुस्कराकर आगे बढ़ गये। तभी उन्होंने देखा कि पर्वतराज स्वयं उनके आगे हाथ जोड़े खड़े हैं और कह रहे हैं- “भगवन, मुझे कहीं और स्थान दीजिये।”
ब्रह्माजी ने पूछा- “क्या तुम सचमुच किसान से डर गये?” पर्वतराज का उत्तर था- “मेरा डर सच्चा है। किसान के भीतर जो आत्मविश्वास है, वह मुझे उखाड़कर ही छोड़ेगा। अगर अपने जीवन काल में वह नहीं उखाड़ सका, तो उसके बेटे-पोते तो उखाड़ ही देंगे। आत्मविश्वास की जड़ें बहुत लंबी और गहरी होती हैं।”
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