अस्पताल का भयानक वातावरण।
सुबह के लगभग आठ बजे थे। आनन्द को अब तक होश नहीं आया था। डाक्टरों ने उसके शरीर से गोलियां निकाल दी थीं। उसे रक्त दिया जा चुका था। आवश्यक इंजेक्शन लग चुके थे। फिर भी उसकी स्थिति निराशाजनक थी। उसका बयान लेने के लिए समीप ही पुलिस इंस्पेक्टर बैठा हुआ था। हरिया एक किनारे खड़ा अपने मालिक के जीवन की कामना कर रहा था। परन्तु सुधा वार्ड के बाहर थी। वह अपनी सिसकियों तथा हिचकियों पर काबू नहीं कर पाती थी इसीलिए डाक्टरों ने उसे बाहर एक बैंच पर बैठने की सलाह दे दी थी।
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उसका नन्हा राजा उसकी गोद में सिर रखकर कुछ न समझते हुए भी आंसू बहा रहा था। हरिया कभी-कभी बाहर आकर उसके पास भी बैठ जाता था।
नन्हे राजा को आनन्द के घर में रोज सुबह दूध पीने की आदत पड़ गई थी। कुछ देर बार जब उसे भूख का अहसास हुआ तो हरिया उसके लिये अस्पताल के बाहर से कुछ खाने को लेने चला गया। हरिया ज्यों ही अस्पताल के बरामदे में पहुंचा, एक फिएट कार पोर्टिको में आकर रुकी। कार एक लड़की चला रही थी और बगल में एक नवयुवक डाक्टर बैठा हुआ था। हरिया को लड़की परिचित लगी। वह कार के समीप चला आया-लड़की की ओर। उसे ठीक से पहचानने के लिए वह थोड़ा झुक गया और उसने उसे पहचाना। यह तो डी.आई.जी. साहब की सुपुत्री हैं-किरण मालकिन। किरण का मुखड़ा गुलाब के समान खिला हुआ था। उसके मुखड़े की लाली तथा चहक बता रही थी कि उसे संसार की कोई चिन्ता नहीं है। नया संसार बसाने के बाद मानव को अपना अतीत भूलना ही पड़ता है। डाक्टर कार से बाहर निकल रहा था। उसने जब एक अपरिचित व्यक्ति को इस प्रकार अपनी पत्नी पर दृष्टि जमाये देखा तो उसे टोक देना चाहा। परन्तु तब तक किरण की दृष्टि भी हरिया पर पड़ चुकी थी। वह उसे तुरन्त पहचान गई।
‘‘अरे हरिया ! तुम यहां कैसे !’’
‘‘मालकिन ! आप और यहां ?’’
डाक्टर ने देखा कि उसकी पत्नी उस व्यक्ति से परिचित है तो कार का दरवाजा खोलकर उसने चल देना चाहा। उसकी ड्यूटी का समय हो गया था।
‘‘हां-हां-हम लोग अब दिल्ली में ही आ गये हैं।’’ किरण ने उसी प्रकार चहककर कहा, ‘‘यह मेरे पति हैं-डाक्टर भटनागर। इसी अस्पताल में हैं। तुम्हारे कोई नातेदार अस्पताल में भर्ती हैं तो मैं इनसे सहायता के लिए कह दूं।’’
डाक्टर भटनागर बाहर निकलते-निकलते रुक गया। शायद वह इस गरीब के काम आ जाए।
‘‘मालकिन…मालकिन…’’ हरिया एकदम से फूट-फूटकर रो पड़ा। बोला, ‘‘मालिक…मेरा मतलब आनन्द बाबू को गोली लग गई है। बचने की कोई आशा नहीं।’’
‘‘क्या ?’’ किरण को ऐसा लगा मानो गोली उसकी अपनी छाती पर आ लगी है। कभी उसने भी आनन्द को दिल की गहराई से चाहा था-प्यार किया था-उसने उसके साथ जीवन बिताने का सपना देखा था। आनन्द ने उसे धोखा नहीं दिया था-उसने ही आनन्द को धोखा दिया था-उसकी सच्चाई के कारण। इसीलिए उसे बहुत कठिनाई से भूल सकी थी। आरम्भ में वह यह निर्णय नहीं कर सकी थी कि अपने डैडी के दबाव में आकर जिससे वह विवाह कर रही है वह उसे प्रसन्न रख सकेगा या नहीं ? परन्तु अब वह प्रसन्न थी क्योंकि उसका पति उसकी एक-एक अदा पर जान देता था। शादी के बाद आरम्भ में उसने एकान्त में जब भी आनन्द को याद किया उसकी सारी प्रसन्नताएं नासूर बन गईं, परन्तु धीरे-धीरे अतीत को उसे ठुकराना ही पड़ा। आनन्द एक स्वप्न के समान उसके मस्तिष्क से उतर चुका था। परन्तु जब उसने सुना कि आनन्द को गोली लग गई है तो उसका दिल छलनी हो गया-वह दिल जो कभी केवल आनन्द के लिए ही धड़कता था। उसके चहकते मुखड़े पर हवाइयां उड़ने लगीं। वह झट कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई।
गोली का नाम सुनकर डाक्टर भटनागर भी चौंक गया। उसने बाहर निकलकर अपनी पत्नी से पूछा, ‘‘कौन है यह ?’’
किरण ने अपनी अवस्था संभाली। ऐसा न हो कि उसकी एक भूल से उसका बना-बनाया घर बिगड़ जाए। बोली, ‘‘यह डैडी के एक मित्र का नौकर है।’’
‘‘और आनन्द बाबू कौन हैं ?’’
‘‘डैडी के मित्र का लड़का।’’
‘‘मालकिन।’’ हरिया ने कहा, ‘‘हत्यारे ने निहत्थे मालिक पर तीन गोलियां चलायीं। इस समय वह बेहोश पड़े हैं।’’
किरण का दिल काबू से बाहर हो जाना चाहता था परन्तु अपने पति के प्यार का सहारा लेकर उसने स्वयं को संभाल लिया। अब वह अपने पति को सच्चे मन से प्यार करती थी इसलिए नहीं चाहती थी कि उसके पति को किसी प्रकार की चोट पहुंचे।
‘‘राम-राम।’’ डाक्टर भटनागर ने सहानुभूति प्रकट की। पूछा, ‘‘किस वार्ड में हैं ?’’
हरिया ने वार्ड नम्बर बता दिया।
‘‘तुम लोग वार्ड में पहुंचो, मैं रजिस्टर पर अपनी उपस्थिति के हस्ताक्षर करके आता हूं।’’ डाक्टर भटनागर ने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी देखने के बाद कहा, ‘‘मैं देखता हूं आनन्द बाबू की स्थिति कैसी है ?’’
डाक्टर भटनागर चला गया तो किरण ने कार में से पर्स निकाला और फिर लॉक करने लगी। उसे आनन्द से कोई लगाव नहीं था-मतलब भी नहीं था-परन्तु मानवता के नाते सहानुभूति अवश्य थी। जिसकी बांहों में समा जाने के लिए वह स्वप्न देखा करती थी उसके लिए चिन्तित होना स्वाभाविक था। आनन्द के लिए उसके दिल में पहले समान ही श्रद्धा थी। वह चाहता तो उससे कई बार अनुचित लाभ उठा सकता था परन्तु उसने कभी ऐसा नहीं किया था। उसने कार के दरवाजे का शीशा चढ़ाते हुए पूछा, ‘‘यह सब हुआ किस प्रकार ?’’
और हरिया ने उसे सारी बातें संक्षेप में बता दीं-वह सारी ही बातें जो वह जानता था-सजा के बाद मालिक की भेंट सुधा देवी से किन परिस्थिति में हुई-कैसे वह उन्हें प्यार करने लगे-किस प्रकार अपनी भूल का सुधार करना चाहते थे और फिर किस प्रकार पहली बार पिछली रात सुधा देवी ने अपने प्यार का इकरार किया-आदि-आदि और अन्त में बोला, ‘‘वह तो गोली का धमाका तथा हत्यारे का ठहाका सुनकर मैं एक डण्डा लिए वहां पहुंच गया वरना मालिक की छाती में कुछेक गोलियां और उतर जातीं। हत्यारा इस समय पुलिस की हिरासत में है।’’
किरण की आंखें छलक आईं। आनन्द वास्तव में देवता है-साक्षात् देवता। वह उस नारी को देखने के लिए बेचैन हो उठी जिसने अनजाने में उसका स्वर्ग छीन लिया था। सुधा के प्रति उसके मन में कोई डाह नहीं उत्पन्न हुआ जो प्रायः नारी को स्वभाव में मिला है। बल्कि एक नारी होकर उसने दूसरी नारी की मजबूरी समझने का प्रयत्न किया तो उसका मन करुणा से भर गया। भर्राए स्वर में उसने पूछा, ‘‘सुधा देवी कहां हैं ?’’
‘‘आइये मेरे साथ।’’ हरिया ने कहा।
किरण कार बन्द कर चुकी थी। पर्स से रुमाल निकालकर अपने आंसू पोंछते हुए आगे बढ़ गई। सुधा के समीप पहुंचते-पहुंचते उसने हरिया को खामोश रहने का इशारा कर दिया। वह उसके बिल्कुल समीप जाकर खड़ी हो गई। उसका नन्हा राजा गोद में मुंह छिपाये सिसक रहा था। सुधा भी सिसक रही थी। उसकी हिचकियों से उसका पूरा शरीर कांप जाता था। किरण ने देखा-सुधा अन्धी नहीं होती तो आनन्द उसे प्राप्त करने के बाद गर्व कर सकता था। इस दुर्दशा में भी उसके शरीर का हर उभार अपने अन्दर असीमित आकर्षण रखता था। आनन्द ने यदि सुधा को इतना अधिक प्यार दिया तो गलत नहीं किया। उसने सुधा को इस समय आनन्द की वास्तविकता बताना उचित नहीं समझा। आनन्द को इस समय प्यार की आवश्यकता थी-नफरत की नहीं। आनन्द का भेद वह कुछ इस ढंग से प्रकट करेगी कि सुधा उसे क्षमा ही नहीं करेगी बल्कि उसके दिल में आनन्द का प्यार और भी बढ़ जायेगा। वह आनन्द को देखने के लिये वार्ड के अन्दर चली गई।
डाक्टर भटनागर आनन्द को देख चुका था। किरण के समीप आकर उसने धीमे स्वर में कहा, ‘‘नो होप (कोई आशा नहीं)।’’
सुधा का कलेजा मुंह को आ गया। वह आनन्द के समीप जाकर खड़ी हो गई। उसने देखा, आनन्द बिलकुल भी नहीं बदला था। उसके सुन्दर मुखड़े पर वही रौनक थी जो एक साहसी व्यक्ति में होती है। उसकी छाती पर पट्टी बंधी हुई थी। रक्त तब भी बाहर निकल आया था। आनन्द अब केवल कुछेक पलों का ही मेहमान है। उसकी आंखों में आंसू आ गए। अपने आंसू पोंछकर वह अपने पति के पास फिर आई। उसे और किनारे ले गई। पूछा, ‘‘होश में आने की भी आशा नहीं है ?’’
‘‘होश में लाने का प्रयत्न किया जा रहा है। शायद वह कुछ कहना चाहे।’’ डाक्टर भटनागर ने उसे आशा दी।
किरण ने एक पल सोचा। फिर बोली, ‘‘मैं आपसे फिर मिलूंगी।’’ वह वार्ड से बाहर निकल गई। सुधा के समीप जाकर खड़ी हो गई। झुकते हुए उसका हाथ पकड़ लिया। प्यार से बोली, ‘‘सुधा बहन।’’
सुधा चौंक गई। परन्तु तभी हरिया ने बीच में कहा, ‘‘यह डाक्टर साहब की पत्नी हैं। मालिक को जानती हैं।’’
सुधा ने अपनी स्थिति संभाली। चाहा कि आनन्द की स्थिति के बारे में पूछे कि तभी किरण ने उसके समीप बैठते हुए कहा, ‘‘सुधा बहन, क्या आनन्द बाबू की ऐसी भी कोई इच्छा थी जो अधूरी रह गई हो ?’’
‘‘थी-बहुत सी इच्छाएं थीं।’’ सुधा ने सिसकियों के मध्य कहा।
‘‘तो फिर उसे आनन्द बाबू के होश आते-आते पूरी कर दो। अपनी इच्छा का साकार रूप देखकर उन्हें जीने की शक्ति मिलेगी।’’ किरण ने उसे आनन्द की निराशाजनक स्थिति बताना उचित नहीं समझा।
सुधा एक पल सोचती रही। ऐसी अवस्था में वह आनन्द की एक ही इच्छा पूरी कर सकती है। उसने कहा, ‘‘हरिया-मुझे घर ले चलो।’’
‘‘हरिया ही नहीं, मैं भी आपके साथ चलूंगी। आइये-जल्दी कीजिए।’’ किरण ने कहा। उसने सबको साथ लेकर अपनी कार में बिठाया और फिर हरिया के बताये रास्ते पर तेज गति के साथ आनन्द के बंगले की ओर चल पड़ी। रास्ते में सुधा ने किरण को परसों शाम वाली बात बताई। आनन्द बाबू किस प्रकार उसे रेशमी साड़ी तथा गहनों में सजा देखना चाहते थे और उसने क्यों इंकार कर दिया था। वह अपने पिछले व्यवहार पर पछताकर रो रही थी।
बंगले में पहुंचकर किरण के कहने पर हरिया ने आनन्द के कुछेक बक्स खोले। एक बक्स में उसे साड़ी मिल गई। गहने का डिब्बा भी मिल गया। उसने लाकर सुधा को थमा दिया।
‘‘यही साड़ी है न ?’’ किरण ने पूछा।
‘‘हां।’’ सुधा ने अंगुलियों द्वारा कपड़ा पहचान कर कहा। फिर पूछा, ‘‘इसका रंग सफेद है न ?’’
‘‘यह तो लाल साड़ी है।’’
‘‘लाल !’’ सुधा एक पल सोचती रही। आनन्द बाबू उसे अधिक से अधिक सुन्दर बनाकर देखना चाहते थे। कितना प्यार था उन्हें उससे। और वह ? साड़ी को गाल से सटाकर वह सिसक पड़ी। बोली, ‘‘यही साड़ी है।’’
किरण ने अपने हाथों से उसका हाथ-मुंह धुलाया-बहुत प्यार के साथ। उसे तैयार किया। संवारा। उसकी काली लटों को अपने समान बनाया। फिर अपने पर्स से पाउडर की लाली निकालकर उसके गाल पर लगा दिया। होंठों को भी हल्के-से रंग दिया। बड़ी-बड़ी पलकें और तीखी कर दीं। श्रृंगार की सभी वस्तुएं उसके पर्स में थीं। फिर गहनों से सजधज कर सुधा चलने को तैयार हुई तो किरण उसे देखती ही रह गई। आनन्द वास्तव में बहुत भाग्यवान होता यदि उसे जीते-जी सुधा मिल जाती। नन्हा राजा भी अपनी मां को फटी-फटी दृष्टि से देखने लगा। किरण सबको लिए तेजी के साथ अपनी कार की ओर बढ़ गई।
अस्पताल में आनन्द ने एक गहरी सांस ली। डाक्टर भटनागर लपककर उसके समीप चला आया। आनन्द कुछ कहना चाहता था। अपने कान उसने उसके होंठों के समीप कर दिये।
आनन्द की आंखें फड़फड़ाईं। होंठ भी कांपने लगे। उसने पूछा, ‘‘सुधा कहां है ?’’
‘‘मैं बाहर देखता हूँ ।’’ डाक्टर भटनागर ने बाहर लपकना चाहा।
‘‘शी।’’ आनन्द ने उसे जाने से रोका। फिर बड़ी कठिनाई से बोला, ‘‘डाक्टर, मेरी यह आंखें…सुधा को दे देना। उसे…कुछ भी…मत…बताना…वर्ना…वह…वह…’’ आनन्द की आंखों में आंसू आ गए। उसके पाप का प्रायश्चित अब भी अधूरा था। सुधा को अपने वास्तविक रूप में जीतना अभी शेष था परन्तु उसका जीवन साथ नहीं देना चाहता था। यदि वह जीवित रहता तो अपने प्यार द्वारा यह भी कर दिखाता। अब तो उसके लिए प्यार का पथ खुल चुका था। निराशा ने दिल में चुभन उत्पन्न की तो वह अपने होंठ काटने लगा। भीगी पलकें बंद कर लीं।
तभी वार्ड में सुधा ने प्रवेश किया। किरण उसे कमर से थामे बहुत धीमे-धीमे आगे बढ़ रही थी। इस प्रकार मानो उसे विवाह के मण्डप में ले जा रही हो। पीछे-पीछे हरिया भी था। उसने नन्हे राजा को गाद में उठा रखा था। किरण ने अपने पति को देखा। उसने खड़े-खड़े इशारा कर दिया कि आनन्द होश में आ चुका है। किरण ने सुधा को आनन्द के बिल्कुल समीप ले जाकर खड़ा कर दिया और स्वयं आनन्द के सिरहाने ऐसी जगह खड़ी हो गई जहां वह उसे देख नहीं सकता था। आनन्द से उसे कोई भय नहीं था परन्तु उसे यहां देखकर आनन्द किसी उलझन में अवश्य पड़ सकता था। वह यहां कैसे आई ? आनन्द की अन्तिम सांसों में किसी प्रकार की परेशानी नहीं होनी चाहिए थी। हरिया नन्हे राजा को गोद में लिए सुधा के समीप आ गया।

सहसा आनन्द को अपने समीप जानी-पहचानी सुगंध का आभास हुआ। उसने झट अपनी आंखें खोल दीं। उसने देखा, सुधा उसके बिलकुल समीप खड़ी है। सुधा ने उसकी बात रख ली थी। सुधा को इसी रूप में देखने के लिए वह आरम्भ से ही तड़प रहा था। उसके दिल में जो प्यार की चिन्गारी उसने उत्पन्न की थी वह इस समय सुर्ख साड़ी में उसके शरीर के समान शोला बन चुकी थी। आनन्द देखता ही रह गया। जीवन में पहली बार उसने सुधा को कुछ इस प्रकार बना-संवरा देखा था और अब अन्तिम समय भी देख रहा था। उसे अपनी मृत्यु का विश्वास था। मृत्यु चन्द पग दूर खड़ी उसका तमाशा देख रही थी। सुधा की आंखों में आंसू थे-यह आंसू केवल उसी के लिए थे। उनका वश चलता तो वह इन आंसुओं को चुन लेता। उसने बहुत धीमे स्वर में कराहते हुए पुकारा, ‘‘सुधा !’’
और सुधा उसकी आवाज की डोर थामे आगे बढ़ गई। उसके समीप ही पलंग पर बैठ गई। वह आनन्द की स्थिति से अनभिज्ञ थी। उसने आनन्द का एक हाथ अपने हाथों में ले लिया। उसे कुछ ऊपर उठाया। कुछ खुद भी झुक गई और फिर उसके हाथ पर अपना गाल रख दिया। वह रोते हुए सिसकियों के मध्य बोली, ‘‘मुझे क्षमा कर दीजिये-मुझे क्षमा कर दीजिए।’’
आनन्द गहरी-गहरी सांसें लेता रहा, इस प्रकार मानो ताकत समेट रहा हो। फिर जब उसकी आंखों पर पपोटे बोझ बनकर बन्द होने लगे तो उसने कहा, ‘‘सुधा…मुझे क्षमा कर देना। मैं…तुम्हारा…पापी…हूं।’’
‘‘पापिन मैं हूं-आप तो देवता हैं।’’ सुधा फूट-फूटकर रोते हुए बोली, ‘‘आप तो मेरे भगवान…’’ अचानक सुधा के हाथ में आनन्द का हाथ ढीला हो गया तो वह कांप उठी। उसने कहा, ‘‘आनन्द बाबू।’’ उसे कोई उत्तर नहीं मिला तो उसके दिल की धड़कन और तेज हो गई। वह चीख पड़ी, ‘‘आनन्द बाबू।’’
‘‘बहन।’’ तभी किरण ने अपने आंसू पोंछने के बाद उसे बांहों से थामकर सहारा दिया। भर्राए स्वर में बोली, ‘‘आनन्द बाबू सदा के लिए चले गए।’’
‘‘नहीं।’’ सुधा चीखकर आनन्द की छाती पर गिर पड़ी। फूट-फूटकर रो पड़ी। बोली, ‘‘नहीं-नहीं
…मुझे छोड़कर मत जाइए…मुझे छोड़कर मत जाइए- आनन्द बाबू।’’ उसकी तड़पती सिसकियां सुनकर वार्ड में उपस्थित सभी लोगों की आंखें छलक आईं।
किरण ने आनन्द को अन्तिम बार देखा। आनन्द की पलकों के चारों ओर आंसू छलके हुए थे। शायद सुधा को प्राप्त करने के बाद वह इस संसार को किसी भी अवस्था में नहीं छोड़ना चाहता था परन्तु मृत्यु पर किसका वश चला है ? एक बार फिर अपनी आंखों के आंसू पोंछने के बाद बड़ी कठिनाई से वह सुधा को संभालने में सफल हो गई।

