जमना, सरस्वती और इन्दुमति उस दरीची में से झाँककर देख रही थी और इस आशा में थीं कि अब शंकरसिंह शीघ्र यहाँ आकर हम लोगों को इस कैद से छुटकारा देंगे। जब शंकरसिंह दारोगा को साथ लिए हुए उस मकान की तरफ बढ़े तब उन तीनों औरतों ने अपने विचार की पुष्टि समझी और जमुना के मुँह से निकल पड़ा ‘लो अब तो वे हमारी तरफ चले आ रहे हैं!”
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हम ऊपर लिख आए हैं कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पीछे दारोगा के दो आदमी नंगी तलवार लिए खड़े हो गये थे जबकि वे तीनों खिड़की के नीचे झाँक रही थी, अस्तु उन दोनों नकाबपोशों ने भी झाँककर नीचे की अवस्था देख ली थी। दारोगा का दिल चाहे कैसा ही मजबूत हो परन्तु उन दोनों नकाबपोशों के कलेजे हिल गये और उन दोनों ने निश्चय कर लिया कि अगर शंकरसिंह जी हम दोनों को यहाँ देख लेंगे तो निश्चय ही हम जान से मारे जाएँगे, यह विचार उनका मजबूत ही होता चला गया और जब उन दोनों ने देखा कि दारोगा के साथ लिये हुए शंकरसिंह उसी तरफ चले आ रहे हैं तब तो वे दोनों एकदम से ही भाग खड़े हुए। जमना, सरस्वती और इन्दुमति को मालूम भी न हुआ कि हमारे निगहबान कब और कहाँ भाग गये। शंकरसिंह को अपनी तरफ आते देख प्रसन्नता के साथ घूमकर जब जमना ने इन्दुमति से कुछ कहने के लिए पीछे की तरफ देखा तब मालूम हुआ कि वे दोनों नकाबपोश गायब हो गये। तीनों को आश्चर्य हुआ मगर साथ ही यह भी विश्वास हो गया कि शंकरसिंह के डर से वे दोनों भाग गये।
कई क्षण आश्चर्य करने के बाद जमना ने इन्दुमति और सरस्वती की तरफ देखकर कहा-
जमना : क्या हम लोगों को इसी जगह पर खड़े रहना चाहिये?
सरस्वती : फिर और क्या किया जाएगा?
जमना : अगर उस कमरे में जहाँ हम लोग कैद थे चलें तो क्या हर्ज है? शायद हमारे नारायण जी उसी तरफ आवें।
इन्दुमति : इसका कौन ठिकाना है? देखो इधर भी तो एक दरवाजा है, शायद इसी राह से आवें, उसके अतिरिक्त उन्होंने इस ठिकाने हम लोगों को देख लिया है इसलिए उनका सबसे ज्यादा विचार इसी स्थान पर आने का होगा, दूसरी जगह चले जाने से कदाचित् मुलाकात में देर हो!
सरस्वती : तुम्हारा विचार बहुत ठीक है।
जमना : बेशक् हम लोगों को इसी जगह अटकना चाहिए। (रुककर और किसी आहट की तरफ ध्यान देकर) मालूम नहीं क्या बात है, उन्हें आने में इतनी देर क्यों हुई!
इन्दुमति : बेशक देर तो जरूर हुई, कहीं दारोगा को साथ लिए दूसरी तरफ तो नहीं चले गये।
सरस्वती : ईश्वर ही जाने!
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इसी तरह के विचारों के साथ जमना, सरस्वती और इन्दुमति को इंतजार करते हुए कई घंटे बीत गये मगर शंकरसिंह उनके पास न आये। अंत में पहर-भर से ज्यादा रात बीत जाने के बाद लाचार होकर वे तीनों वहाँ से हटीं और धीरे-धीरे से उस कमरे की तरफ रवाना हुई जिसमें कैद थी मगर उसी समय पीछे की तरफ से किवाड़ खुलने की आवाज आई और जब घूमकर पीछे की तरफ देखा तो दो नकाबपोशों पर निगाह पड़ी।
बात-की-बात में वे दोनों नकाबपोश जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास जा पहुंचे। बिना कुछ कहे-सुने उन दोनों ने अपनी कमर से एक-एक चादर खोल कर उन तीनों औरतों के ऊपर फेंक दी और चेहरे पर दो-तीन दफे लपेटकर हाथ से कुछ क्षण के लिए थाम लिया।

उन चादरों में से एक तरह की बहुत तेज खुशबू आ रही थी जो बेहोशी पैदा करने वाली थी, अस्तु उसकी खुशबू से बहुत जल्द बेहोश होकर जमना, सरस्वती और इन्दुमति जमीन पर गिर पड़ी और जब कई पहर बीत जाने के बाद उनकी बेहोशी दूर हुई और उन्होंने आँखें खोलकर आश्चर्य से चारों तरफ देखा तो अपने को एक भयानक जंगल में पड़े और भूतनाथ को अपने सामने खड़े पाया। अनुमान से इस समय दिन एक पहर से ज्यादा चढ़ चुका था।

