जन्मदिन का उपहार-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Janamdin Ka Uphar
Janamdin Ka Uphar

Janamdin Ka Uphar: विभा और वैभव के विवाह को मुश्किल से पाँच वर्ष ही हुए थे कि दोनों के मध्य वैचारिक मतभेद इतना बढ़ गया कि नौबत तलाक तक आ पहुँची। उन्होंने इस समस्या का समाधान करने के लिए विवाह विच्छेद करना ही उचित समझा। एक बेटा अनिरुद्ध जो कि चार वर्ष का था,दोनों की मनोदशा से अनभिज्ञ नहीं था।विवाह- विच्छेद के पश्चात वह कभी माँ के साथ रहता ,तो कभी पिता के। धीरे-धीरे वह बड़ा होने लगा और उसका बालमन माता-पिता दोनों का प्रेम एवं दोनों का साथ पाने के लिए लालायित होने लगा। वह कभी विभा से पूछता-
“हम पिताजी के साथ क्यों नहीं रहते..? जैसे सब के मम्मी- पापा घर में साथ रहते हैं, वैसे ही मेरे पापा हमारे साथ क्यों नहीं रहते …?”
कभी वह अपने पिता से पूछा करता

“पापा आप खाना क्यों बनाते हो ..?सबके घर पर मम्मी खाना बनाती हैं… हमारे घर पर क्यों नहीं..?”
उसके हृदयस्पर्शी प्रश्नों को सुनकर दोनों निःशब्द रह जाते। उत्तर भी क्या देते …दोनों के बीच दूरियाँ जो इतनी बढ़ गई थीं कि उन्हें पाटना अब नामुमकिन ही था।
अनिरुद्ध का जन्मदिन निकट आ रहा था। विवाह विच्छेद के पश्चात अनिरुद्ध बारी-बारी से दोनों के साथ अपना जन्मदिन मनाता था ..कभी पिता के पास, तो कभी माँ के पास । इसी तरीके से जीवन चल रहा था । अनिरुद्ध हमेशा अपने ईश्वर से यही माँगता था कि काश ! उसके माता-पिता भी एक साथ मिलकर उसके साथ रहें।
एक दिन विभा अनिरुद्ध को मॉल में लेकर गई और उसे आकर्षक उपहार दिखाए।
” अपने जन्मदिन के लिए कोई तोहफा पसंद कर लो।”
विभा ने खुश होते हुए अनिरुद्ध से कहा, किंतु अनिरुद्ध के चेहरे पर इतने महँगे-महँगे उपहार देखकर भी मुस्कान न आ सकी।
अब विभा ने खीझते हुए कहा “आखिर तुम्हें क्या चाहिए..?”
अनिरुद्ध ने धीरे से कहा “पापा”।
इस वाकये के बाद विभा रात भर सो न सकी। अनिरुद्ध की यह चाह वह पूरी तो करना चाहती थी किंतु बीच में विभा का अहम आ जाता था ।आखिर तलाक की माँग भी तो उसी ने की थी । वह वैभव के माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहती थी। वैभव को अपने परिवार के साथ रहना था किंतु विभा को उस छोटे से शहर में ,उस छोटे से मकान में घुटन होती थी। वह तो हमेशा ऊँचे सपने देखती आई है। वह हॉस्टल में पली-बढ़ी लड़की थी। आखिर कैसे अपने सपनों के आकाश को छोटा करके घर की चारदीवारी में कैद होना स्वीकार कर लेती।

उसे उसी जीवन की आदत हो चुकी थी। आखिर कैसे वैभव …उसके माता-पिता और बाकी सारी गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों का निर्वहन करना स्वीकार कर ले। वह तो उन्मुक्त गगन में विचरण करना चाहती थी ।उसे पूरे गगन का परिमाप करना था। उसे अपना ससुराल रत्ती भर भी पसंद नहीं था । उसने वैभव से अलग रहने के लिए कहा किंतु वैभव माता-पिता से अलग रहकर कैसे जी सकता था। और इसी कारण उसने विभा को तलाक दे दिया। विभा के अहम का प्रश्न था और इसी ईगो में उसने वैभव को धमकी दे डाली कि “या तो अपने माता-पिता के साथ रहो या मेरे साथ। यदि तुम माता-पिता के साथ रहोगे तो मैं हरगिज तुम्हारे साथ नहीं रहूँगी ।”
विभा को लगता था कि वैभव को उसकी बात माननी ही पड़ेगी। तलाक तो वह उसे देगा नहीं। किंतु बस इसी कशमकश में उसका और वैभव का तलाक हो गया।
कभी-कभी जीवन का यह एकांत विभा को अत्यधिक खलता था। उसका भी मन करता कि एक ऐसा घर होता जहाँ बूढ़े और छायादार वृक्ष भी होते । यदि घने वृक्षों का साया न मिले तो फूलों की सुंदर क्यारियों को मुरझाते देर नहीं लगती है। विवाह विच्छेद के बाद विभा उसी शहर में नए फ्लैट में रहने लगी थी ।आखिर वह एक निजी कंपनी में कार्यरत थी उसे सैलरी भी अच्छी मिलती थी। किंतु इन सब सुख- सुविधाओं के बीच कहीं कोई कमी सी थी।

वह खालीपन वैभव के न होने से था। आज भी उसके मन में कभी-कभी एक हूक सी उठती ।यदि वह अपने अहंकार के चलते वैभव से तलाक नहीं लेती तो उसका कितना सुंदर परिवार होता। एक छोटा सा घर, जिसमें अनिरुद्ध, वैभव और उसके माता-पिता। उसे अनिरुद्ध की कस्टडी तो मिल गयी थी किंतु वह अनिरुद्ध को एक घर नहीं दे पाई …बुजुर्गों का सानिध्य नहीं दे पाई ..।
पूरी रात इसी असमंजस में व्यतीत हो गयी और फिर अगले दिन विभा ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया ।वह अनिरुद्ध को लेकर अपने ससुराल जा पहुँची। उसने वैभव की माँ के चरण स्पर्श किए और पिताजी को नमन किया। वैभव की माँ विभा को देखकर आश्चर्य से भर गयीं। विभा ने अश्रुपूर्ण नैनों से कहा
” माँ मुझे माफ कर दो… मैं आप सबके साथ रहना चाहती हूँ। मैं जानती हूँ कि मैंने जो किया उसकी क्षतिपूर्ति तो नहीं हो सकती, किंतु अपने पोते की खातिर आप वैभव से बात कीजिए ।हम सब साथ रहेंगे।”
अनिरुद्ध दादा -दादी से लिपट गया ।दादाजी उसे पार्क घुमाने ले गए वहाँ उन्होंने ढेर सारी बातें कीं।अनिरुद्ध रात को दादी के पास सोया ।देर रात को जब ऑफिस से वैभव आया तो विभा को घर में देख कर हतप्रभ रह गया ।आज भी विभा को देखकर उसके मन में प्रेम का एक सागर हिलोरे लेता था, किंतु विभा की जिद के सामने उसका प्रेम हार गया था। वह चुपचाप अपने कमरे की ओर बढ़ने लगा ,तो माँ ने आवाज दी
“बेटा हाथ धो कर आ जाओ। हम सब खाने पर तुम्हारा वेट कर रहे हैं ।”
सभी ने एक खुशनुमा माहौल में खाना खाया और फिर रात को वैभव घर के सामने बने लॉन में टहलने के लिए चला गया। वह विभा के मन की बात अभी समझ नहीं सका था। उसने सोचा हो सकता है एक दिन के लिए अनिरुद्ध के कहने पर यहाँ आई हो। कल चली जाएगी ,लेकिन तभी विभा ने पीछे से जाकर धीरे से उसके हाथ को पकड़ते हुए कहा
“वैभव क्या फिर से मेरे साथ जीवन के रास्तों पर चलना स्वीकार करोगे..? क्या हम दोनों मिलकर जिंदगी का यह लंबा सफर तय नहीं कर सकते ..?अब मुझसे और अकेले नहीं जिया जाता ..मैं माँ- बाबूजी के साथ यहीं इसी घर में रहूँगी ।तुम से बिछड़ कर ही मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मेरे जीवन में तुम्हारी उपस्थिति का क्या मूल्य था।”
दोनों के आँसुओं से सारे गिले-शिकवे मानो धुल गए और फिर वैभव ने विभा को अपने सीने से लगा लिया। वैभव की धड़कनें जैसे विभा के निर्णय को सहमति प्रदान कर रही थीं।

फिर अनिरुद्ध के जन्मदिन की तैयारियाँ चलने लगीं।
अनिरुद्ध भी अपने इस जन्मदिन पर बहुत ज्यादा प्रसन्न नजर आ रहा था। आखिर उसे उसका पसंदीदा उपहार जो मिल गया था। पापा मम्मी दोनों का साथ …और साथ में दादा -दादी का आशीर्वाद …जन्मदिन की खुशियों में बढ़ोतरी हो गई।