अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

बम्बई का विशाल रेलवे स्टेशन देखते ही आलोक आश्चर्यचकित हो उठा। सिकन्दराबाद से उनके प्रस्थान की सूचना यथासमय बम्बई भेज दी गईं। थी अतः उन्हें लेने के लिए मिलिट्रीवैन स्टेशन पर तैयार खड़ी थी। दसों युवक उस पर सवार हो निश्चित स्थान पर पहुंच गये। उस दिन लोगों को छुट्टी दे दी गईं, क्योंकि सफर से थककर चूर-चूर हो रहे थे वे लोग।

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दोपहर का खाना खाने के बाद, दोस्तों ने सोचा कि चलकर बम्बई की सैर कर ली जाए। एक बग्घी कर, वे घूमने निकल पड़े। दोस्तों को गेट वे आफ इंडिया बहुत पसंद आया। उन्होंने समुद्र कभी नहीं देखा था। आज देखकर अत्यंत प्रफुल्लित हुए। गेट वे आफ इंडिया के सामने दाहिनी ओर ताज और प्रिंस होटल हैं, जो अपनी सुव्यवस्था के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं।

वह सब देखते हुए मित्रगण आगे बढ़े। एक फलांग जाने पर प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम आया। उसके अंदर इन लोगों को बहुत-सी अनोखी चीजें देखने को मिलीं। नेचुरल हिस्ट्री तथा टाटा आर्ट गैलरी आदि विभाग देखकर वे विस्मय से भर उठे। सामने दाहिनी ओर सिर कावसजी जहांगीर-पब्लिक हॉल है, जहां नित्य-प्रति एक से एक सभा हुआ करती है। हॉल के दोनों तरफ रायल इंस्टीट्यूट आफ साइंस की इमारतें हैं।

एसप्लेनेड रोड से आगे बढ़ते हुए ये लोग जनरल स्टोर्स में पहुंचे। कुछ मनपसंद वस्तुएं खरीदी गईं। इस स्टोर्स के पीछे गवर्नमेंट सिक्रेटरियट का इन्फार्मेशन ऑफिस है। सामने ही यूनिवर्सिटी की इमारत है। इसके आगे बाम्बे हाईकोर्ट है और फ़्लोरा फाउंटेन के पास ही सेंट्रल टेलीग्राफ ऑफिस है। पास ही ओरियण्टल इनश्योरेंस कम्पनी की इमारत है जिसके दाहिनी तरफ से हार्नबी रोड गईं है।

हार्न वी -रोड से ये लोग आगे बढ़े। इवान्स फ्रेजर और ह्वाइटलेडला के स्टोर्स देखते हुए ये लोग बोरी बन्दर पहुंच गये। यहीं बाम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के एडमिनिट्रेटिव का ऑफिस है। दाहिनी ओर विक्टोरिया टर्मिनस से कुछ दूर, दाहिनी तरफ जनरल पोस्ट ऑफिस है, जिसकी इमारत मुगल जमाने जैसी है।

क्रोफोर्ड साकट, जवेरी बाजार, मालाबार हिल, हैगिंग गार्डन बालकेश्वर रोड, चौपाटी आदि स्थान, घूमते-घूमते काफी रात हो गईं। जब वे अपने कैम्प में लौटे, तो रास्ता भूल गये। किसी प्रकार एक बजे रात को कैम्प में पहुंच सके।

दूसरे दिन आलोक ऑफिस गया। मेज़ पर बैठा ही था कि उसकी दृष्टि अपने ठीक सामने वाली मेज़ पर गईं। जी कुछ उसने देखा, उससे विस्मित होकर वह प्रस्तर-मूर्ति के समान जड़ बन गया।

उसकी अंगुलियां टाइपराइटर पर अबाध गति से नाच रही थीं। आंखें पत्र की लाइनों पर दौड़ रही थीं। ओहदा उसका सार्जेण्ट का था, आलोक से बहुत ऊंचा। वह अन्य टाइपिस्ट छोरियों की हेड थी। सोलह-सत्रह की उम्र, लम्बा छरहरा शरीर, पाउडर में पुते हुए गाल एवं पतले होंठों पर लगा हुआ लिपस्टिक-अजब था, गजब था, आलोक देखता रह गया।

उसकी अंगुलियां टाइपराइटर पर चलती रहीं।

ऑफिस में लगभग अस्सी छोकरिया और काम करती थीं।

ज्यादातर उनमें टाइपिस्ट थीं। कुछ ऐंग्लो इंडियन थी और कुछ क्रिश्चियन, मगर आलोक ने जो कुछ ‘उसमें’ देखा था, वह दूसरी किसी में नहीं था। बाल उसने अंग्रेजी ढंग से संवारे हुए थे। बदन पर सफेद पोशाक थी, जो उसके सार्जेण्ट होने की द्योतक थी। सिर पर पट्टीदार टेढ़ी टोपी थी, जिस पर डब्ल्यू. ए. सी. का बैंज लगा हुआ था। दोनों हाथ की बांहों पर तीन-तीन रेखाएं थीं।

‘तुम गौर से क्या देख रहे हो युवक?’ उसके इंचार्ज टर्मिनल ने प्रश्न किया। वहां बुड्ढा अंग्रेज बहुत देर से देख रहा था कि आलोक की आंखें सामने देख रही हैं। काम में उनका मन नहीं लग रहा है।

‘ओह! कुछ नहीं…।’ वह चौंक पड़ा, फिर हल्की मुस्कराहट के बीच बोला—‘घर की याद आ गईं थी।’

कहकर वह अपने कार्य से मशीन की तरह जुट गया।

सन्ध्या को जब ऑफिस का काम खत्म हो जाने पर वह कैम्प जा रहा था, तो उसने देखा कि ‘वह’ बस स्टैंड के पास खड़ी होकर बस की प्रतीक्षा कर रही है। आलोक की दृष्टि एकाएक ऊपर की ओर उठ गईं। बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—‘कामदार लिमिटेड।’ सामने नजर दौड़ाई तो देखा, यरोस सिनेमा का भव्य इमारत के सामने दर्शकों की लाइन लगी हुई है। जो जैसे-जैसे आ रहा है, वैसे-वैसे लाइन में खड़ा होता जा रहा है। टिकट-घर पर जरा भी धक्कम-धुक्का नहीं। आधुनिक सभ्यता की यह प्रणाली उसे बहुत पसंद आई।

‘उसका’ नाम था नीनी पिण्टो। मादक रूप था उस छोकरी का। हलाहल था उसकी आंखों में। चलने पर उसकी कमर से नजाकत टपकती थी। आलोक फौजी मस्त जीवन में घटा को भूल चुका था। बम्बई आकर पिण्टो को देखा तो उसका मन इस चंचल छोकरी पर आ गया।

कुछ दिन तक दोनों एक-दूसरे से बोलने में संकोच करते रहे, फिर अब-तब दोनों में वार्तालाप आरम्भ हुआ—और एक दिन वह आया कि आलोक ने उसके सामने सिनेमा का प्रस्ताव रख दिया।

करारी चितवन से उसे घायल करती हुई वह बोली—

‘हां-हां, क्यों नहीं? आपका साथ न दूं, ऐसी गुस्ताख़ी कैसे कर सकती हूं मैं।’

दोनों ने उस रात एक सिनेमा देखा। वह हंसती थी, हंसकर बातें करती थी, घातक चितवन से देखती थी, फिर भी आलोक से उसे छूने का साहस नहीं होता था।

दूसरे दिन सन्ध्याकाल को दोनों पुनः घूमने निकले। चर्च गेट स्टेशन पर आकर व्हीलर की दुकान से ‘फिल्म इंडिया’ की एक काफी खरीदी, फिर समुद्र के किनारे मैरीन-ड्राइव पर आकर थोड़ी देर तक विश्राम किया। वहां से लौटकर, नीनी एक दुकान में अपने बाल घुंघराले करवाने लगी। आलोक बगल की दुकान का निरीक्षण करने लगा। इसके बाद एशियाटिक रेस्तरां में आकर दोनों ने खाना खाया। पुनः यरोस में जाकर खेल देखा। इसके बाद आलोक नीनी को फ़्लोरा फाउंटेन तक पहुंचाकर, अपने कैम्प वापस चला आया।

उसे लगा जैसे नीनी के भीतर की नारी को समझने में वह अभी तक असफल रहा है। वह निश्चय नहीं कर पा रहा था कि वह भी उसे चाहती है या नहीं? यद्यपि घूमने-फिरने पर जो कुछ भी खर्च हुआ था, सब नीनी ने ही किया था। जहां भी पैसे का प्रश्न आया, आलोक को उसने आगे बढ़ने नहीं दिया। आलोक मन मारकर रह जाता, चाहकर भी उसका पैसा जेब में ही रह जाता।

दूसरे दिन आलोक ने खालसा होटल में जाकर दोपहर का खाना खाया। शाम को पुनः नीनी को साथ लेकर शहर घूमने गया। आज नीनी को कुछ ‘शॉपिंग’ करनी थी। वह हार्नबी रोड के बाली बाल एण्ड सन्स की दुकान पर आई। वहां से उसने धूप का चश्मा खरीदा। तारा पोर वाला की दुकान से दो पुस्तकें खरीदी। चर्च गेट स्ट्रीट आकर उन्होंने ‘कामलिंग चायनीज रेस्तरां’ में ‘चाय सुए’ की दो डिशों का डटकर नाश्ता किया। नाश्ते के पश्चात् सिनेमा में जाकर तीन घंटे और व्यतीत किए।

शो खत्म होने पर नीनी ने आलोक का हाथ पकड़कर कहा—‘चलो, तुम्हें रिट्ज होटल तक पहुंचा दूं।’

आलोक चौंक पड़ा। उसने अनुभव किया कि उसका रोम-रोम पुलक उठा है। उसकी जीभ तालू से सट गईं है और वह बोलने में अपने को असमर्थ पा रहा है। सिर्फ इतना ही कह सका—‘चलो।’

‘अल अबाद’ के पास तक वह आई, फिर शेक हैंड करके लौट गईं। आलोक खीझ उठा अपने आप पर। स्वयं को कोसने लगा—नीनी ने शेक हैंड के लिए हाथ बढ़ाया था, तो उसने हाथ छोड़ क्यों दिया? क्यों नहीं खींचकर उसे वक्ष से लगा लिया…? मूर्ख है तू आलोक! एकदम गधा है…इसी तरह मन में बड़बड़ाता वह कैम्प में आ गया। आकर चारपाई पर लेट रहा।

नीनी भी अपने मन में एक विचित्र प्रकार का परिवर्तन अनुभव कर रही थी। उसे पाने के लिए कितने ही अफसर, चोटी का पसीना एड़ी तक बहा रहे थे, परंतु न जाने क्यों, वह इस साधारण पद वाले युवक की ओर आकर्षित होती जा रही थी।

आलोक पुरुष होकर आगे बढ़ने का साहस नहीं कर रहा था, तो वह कैसे साहस करती?

नीनी की अनुपस्थिति में आलोक बहुत कुछ बोलने-चालने की योजना बनाता, परंतु नीनी से साक्षात्कार होते ही उसकी योजनाएं नष्ट हो जाती और वह यन्त्र-चालित-सा उसके साथ-साथ चलता-फिरता रहता।

इसी प्रकार—धीरे-धीरे दिन सरकते जा रहे थे।

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