अपना पराया भाग-1 - Hindi Upanyas

चार कहार एक डोली लिए हुए ठाकुर की हवेली पर आ रुके भीखम कराहता हुआ लाठी के सहारे नीचे उतरा और ठाकुर की बैठक की ओर बढ़ा।

ठाकुर अकेले बैठक में थे। भीखम को इतना सवेरे आया देख उनकी भौहें तन गईं!

‘जुहार हो बड़े ठाकुर!’ भीखम बोला।

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‘बड़े ठाकुर मत कहो—।’ सरोष बोले ठाकुर—‘सिर्फ ठाकुर कहो, अब छोटे ठाकुर के न रहने से छोटे-बड़े का सवाल ही नहीं रहा…! शरीर को आगे से झुलस कर उस पर नमक झिझकने आए हो, भीखम चौधरी! अच्छा होता कि मैं तुम्हारी हड्डी-पसली तुड़वा देता, ताकि तुम इतना भी चल-फिर न सकते।’

‘सरकार मालिक हैं, राजा है। जो तब नहीं किया, अब कर सकते हैं।’ विद्रूप हंसी हंसते हुए वह बोला—‘मुझे अब जीने की चाह नहीं रही है।’

‘किस लिए आए हो यहां?’

‘जानकर भी पूछते हैं!’

‘जानता हूं! मेरा रुपया देने आए हो न—?’ बोले ठाकुर!

सुनकर भीखम को जैसे काठ मार गया। क्षण भर आवाक् खड़ा-खड़ा वह उनका मुंह देखता रहा, फिर सम्भलकर बोला—‘आपके रुपये? आपके कैसे रुपये सरकार?’

‘बकाया लगान के रुपए।’

‘लगान तो मेरा चुकता है, ठाकुर! एक पैसा भी बकाया नहीं है।’

‘एक पैसा भी नहीं?’ गरजे ठाकुर—‘तुम्हारे जैसे बेईमान से मुझे आज ही पाला पड़ा है। तुम पर मेरे दो सौ सत्तर रुपये लगान के बाकी हैं।’

जो भीखम अभी तक पत्थर-सा दृढ़ था—ईंट का जवाब पत्थर से देने की सोचकर आया था, परंतु ठाकुर की अंतिम बात सुनकर उसकी दृढ़ता बर्फ की तरह पिघल गईं। नम्र होकर बोला।

‘दुहाई राजा की! कारिन्दा साहब की भूल होगी यह।’

‘मैंने खुद हिसाब लगाकर देख लिया है! तुम्हें यह रकम देनी ही पड़ेगी। समझे, भीखम चौधरी!’ ठाकुर की आंखों में प्रतिशोध की भावना लहरा उठी थी, जिसे भीखम जैसा सरल व्यक्ति देखकर भी नहीं समझ सका।

‘इतनी जबरदस्ती, ठाकुर…? खैर मेरे जमा रुपये में से दो सौ सत्तर काट लो, बाकी मुझे लौटा दो।’ भीखम ने मरी जबान से कहा।

‘तुम्हारे कैसे रुपये?’

‘वहीं एक हजार। जिन्हें आपके पास धरोहर रख गया था। इतनी जल्दी भूल गए ठाकुर?’

‘पागल हो गए हो, भीखम चौधरी!’ सांप की तरह फुफकारते हुए बोले ठाकुर—‘एक हजार रुपया तुमने मेरे पास कब धरोहर रखा था? खाने-पीने का तो ठिकाना नहीं लगे, एक हजार रुपये का सपना देखने।’

‘दुहाई हो राजा! इतना अन्याय न करो।’

‘मुझे बेईमान बनाकर दुहाई की भीख मांगते शर्म नहीं आती…।’ ठाकुर का मुंह शैतान के समान भयंकर हो उठा—‘अभी चले जाओ, नहीं तो…नहीं तो…मारे जूतों के…।’

‘हे भगवान!’ भीखम के मुंह से ‘हाय’ निकल पड़ीं—‘हमारे एक हजार रुपयों से तुम्हारे परिवार का पेट जिंदगी भर भरता रहे—! एक जान बाकी रह गईं है ठाकुर, इसे भी ले लो, ताकि, फिर मुंह कहीं न खुल जाए!’

भीखम का तीखा व्यंग्य सुनकर ठाकुर का क्रोध इतना भड़क गया कि मुंह से बोल न फूट सके।

धीरे-धीरे भीखम कम्पित शरीर लिए डोली में आकर बैठ गया। कहारों ने डोली उठाई और चलते बने। ठाकुर एकटक उधर देखते रहे। धीरे-धीरे जाती हुई डोली, उन्हें ऐसा लगा, जैसे उनकी सारी इज्जत, सारा ईमान उसके साथ चला जा रहा हो, जैसे भीखम ने उनके कलेजे पर कसकर एक लात मार दी हो, और अब उनका परिहास करता हुआ चला जा रहा है।

डोली घने वृक्षों की ओट में आकर अदृश्य हो गईं। ठाकुर दीर्घ निःश्वास छोड़कर गद्दी पर बैठ गए।

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