Karbala novel by Munshi Premchand
Karbala novel by Munshi Premchand

बारहवाँ दृश्य: [9 बजे रात का समय। मुसलिम एक अंधेरी गली में खड़े हैं। थोड़ी दूर पर एक चिराग जल रहा है। तौआ अपने मकान के दरवाजे पर बैठी हुई है।]

मुस० – (स्वागत) उफ्! इतनी गरमी मालूम होती है कि बदन का खून आग हो गया। दिन-भर गुजर गया, कहीं पानी का एक बूंद भी न नसीब हुआ। एक दिन, सिर्फ एक दिन पहले, 20 हजार आदमियों ने मेरे हाथों पर हुसैन की बैयत ली थी। आज किसी से एक बूंद पानी मांगते हुए खौफ़ होता है कि कहीं गिरफ्तार न हो जाऊं। साए पर दुश्मन का गुमान होता है। खुदा से अब मेरी यही दुआ है कि हुसैन मक्के से न चले हों। आह कसीर! खुदा तुम्हें जन्नत में जगह दे।

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कितना दिलेर, कितना जांबाज! दोस्त की हिमायत का पाक फर्ज इतनी जवांमरदी से किसने पूरा किया होगा! तुम दोनों बाप और बेटे इस दगा और फरेब की दुनिया में रहने के लायक न थे। तुम्हारी मज़ार पर हूरे फातिहा पढ़ने आएंगी। आह! अब प्यास के मारे नहीं रह जाता। दुश्मन की तलवार से मरना इतना खौफ़नाक नहीं, जितना प्यास से तड़प-तड़पकर मरना। चिराग नज़र आता है। वहां चलकर पानी मांगू, शायद मिल जाये। (प्रकट) ऐ नेक बीबी, मेरा प्यास के मारे बुरा हाल है, थोड़ा-सा पानी पिला दो।

तौआ – आओ, बैठो, पानी लाती हूं।

[वह पानी लाती हैं, और मुसलिम पीकर, दीवार से लगकर बैठते हैं।]

तौआ – ऐ खुदा के बंदे, क्या तूने पानी नहीं पिया?

मुस० – पी चुका।

तौआ – तो अब घर जाओ। यहां अकेले पड़ा रहना मुनासिब नहीं है। जियाद के सिपाही चक्कर लगा रहे हैं, ऐसा न हो, तुम्हें सुबहे में पकड़ लें।

मुस० – चला जाऊंगा।

तौआ – हां बेटा, जमाना खराब है, अपने घर चले जाओ।

मुस० – चला जाऊंगा।

तौआ – रात गुजरती जाती है। तुम चले जाओ, तो मैं दरवाजा बंद कर लूं।

मुस० – चला जाऊंगा।

तौआ – सुभानअल्लाह! तुम भी अजीब आदमी हो। मैं तुमसे बार-बार घर जाने को कहती हूं, और तुम उठते ही नहीं। मुझे तुम्हारा यहां पड़ा रहना पसंद नहीं। कहीं कोई वारदात हो जाये, तो मैं खुदा के दरगाह में गुनहगार बनूं।

मुस० – ऐ नेक बीबी, जिसका यहां घर ही न हो, वह किसके घर चला जाये। जिसके लिए घरों के दरवाजे नहीं, सड़कें बंद हो गई हों, उसका कहां ठिकाना है। अगर तुम्हारे घर में जगह और दिल में दर्द हो, तो मुझे पनाह दो। शायद मैं कभी इस नेकी का बदला दे सकूँ।

तौआ – तुम कौन हो?

मुस० – मैं वही बदनसीब आदमी हूं, जिसकी आज घर-घर तलाश हो रही है। मेरा नाम मुसलिम है।

तौआ – या हजरत, तुम पर मेरी जान फिदा हो। जब तक तौआ जिंदा है, आपको किसी दूसरे घर जाने की जरूरत नहीं। खुशनसीब के मरने के वक्त आपकी जियारत हुई। मैं जियाद से क्यों डरूं? जिसके लिए मौत के सिवा और कोई आरजू नहीं। आइए, आपको अपने मकान के दूसरे हिस्से में ठहरा दूं, जहां किसी का गुजर नहीं हो सकता। (मुसलिम तौआ के साथ जाते हैं) यहां आप आराम कीजिए, मैं खाना लाती हूं।

[बलाल का प्रवेश]

बलाल – अम्मा, आज जियाद ने लोगों की खताएं माफ कर दीं, सबको तसल्ली दी, और इत्मीनान दिलाया कि तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जायेगी। हज़रत मुसलिम का न जाने क्या हाल हुआ।

तौआ – जो हुसैन का दुश्मन है, उसके कौल का क्या एतबार!

बलाल – नहीं अम्मा, छोटे-बड़े खातिर से पेश आए। उसकी बातें ऐसी होती हैं कि एक-एक लफ़्ज दिल में चुभ जाता है। हज़रत मुसलिम का बचना अब मुझे भी मुश्किल जान पड़ता है। अब खयाल होता है, उनके यहां आने से हम लोगों में निफ़ाक पैदा हो गया। जियाद ने वादा किया है कि जो उन्हें गिरफ्तार करा देगा, उसे बहुत कुछ इनाम-इकराम में मिलेगा।

तौआ – बेटा, कहीं तेरी नीयत तो नहीं बदल गई। खुदा की कसम, मैं तुझे कभी दूध न बख्शूंगी।

बलाल – अम्मा, खुदा न करे, मेरी नीयत में फर्क आए। मैं तो सिर्फ बात कह रहा था। आज सारा शहर जियाद को दुआएं दे रहा है।

[तौआ प्याले में खाना लेकर मुसलिम को दे आती है।]

बलाल – हजरत हुसैन तशरीफ न लाएं, तो अच्छा हो। मुझे खौफ़ है कि लोग उनके साथ दगा करेंगे।

तौआ – ऐसी बातें मुंह से न निकाल । हाथ-मुंह धो ले। क्या तुझे भूख नहीं लगी, या जियाद ने दावत कर दी?

बलाल – खुदा मुझे उसकी दावत से बचाए। खाना ला।

[तौआ उसके सामने खाना रख देती है, और फिर प्याले में कुछ रखकर मुसलिम को दे आती है।

बलाल – यह पिछवाड़े की तरफ बार-बार क्यों जा रही हो अम्मा?

तौआ – कुछ नहीं बेटा! यों ही एक जरूरत से चली गई थी।

बलाल – हज़रत मुसलिम पर न जाने क्या गुजरी।

[खाना खाकर चारपाई पर लेटता है, तौआ बिस्तर लेकर मुसलिम की चारपाई पर बिछा आती है।]

बलाल – अम्मा, फिर तुम उधर गई, और कुछ लेकर गई। आखिर माज़रा क्या है? कोई मेहमान तो नहीं आया है?

तौआ – बेटा, मेहमान आता, तो क्या उसके लिए यहां जगह न थी?

बलाल – मगर कोई-न-कोई धात है जरूर। क्या मुझसे भी छिपाने की ज़रूरत है?

तौआ – तू सो जा, तुझसे क्या।

बलाल – जब तक बतला न दोगी, तब तक मैं न सोऊंगा।

तौआ – किसी से कहेगा तो नहीं?

बलाल – तुम्हें मुझ पर भी एतबार नहीं?

तौआ – कसम खा।

बलाल – खुदा की कसम है, जो किसी से कहूं।

तौआ – (बलाल के कान में) हजरत मुसलिम हैं।

बलाल – अम्मा, जियाद को खबर मिल गई, तो हम तबाह हो जायेंगे।

तौआ – खबर कैसे हो जायेगी। मैं तो कहूंगी नहीं। हां, तेरे दिल की नहीं जानती। करती क्या, एक तो मुसाफिर, दूसरे हुसैन के भाई । घर में जगह न होती, तो दिल में बैठा लेती।

बलाल – (दिल में!) अम्मा ने मुझे यह राज बता दिया, बड़ी गलती की मैंने जिद करके पूछा, मुझसे गलती हुई। दिल पर क्योंकर काबू रख सकता हूं। एक वार से बादशाहत मिलती हो, तो ऐसा कौन हाथ है, जो न उठ जायेगा। एक बात से दौलत मिलती हो, जिंदगी के सारे हौसले पूरे होते हों, तो वह कौन जुबान है, जो चुप रह जायेगी। ऐ दिल, गुमराह न हो, तूने सख्त कसमें खाई हैं। लानत का तौक गले में न डाल। लेकिन होगा तो वहीं, जो मुकद्दर में हैं। अगर मुसलिम की तकदीर में बचना लिखा है, तो बचेंगे, चाहे सारी दुनिया दुश्मन हो जाये। मरना लिखा है, तो मरेंगे, चाहे सारी दुनिया उन्हें बचाए।

[उठकर तौआ की चारपाई की तरफ देखता है, और चुपके-से दरवाजा खोलकर चला जाता है।]

तौआ – (चौंककर उठ बैठती है।) आह! जालिम मां से भी दगा की। तुझे यह भी शर्म नहीं आई कि हुसैन का भाई मेरे मकान में गिरफ्तार हो। आकबत के दिन खुदा को कौन-सा मुंह दिखाएगा। एक कसीर था कि अपनी और अपने बेटे की जान अपने मेहमान पर निसार कर दी, और एक बदनसीब मैं हूं कि मेरा बेटा उसी मेहमान को दुश्मनों के हवाले करने जा रहा है।

[बाहर शोर सुनाई देता है। मुसलिम तौआ के कमरे में आते हैं।]

मुस० – तौआ, यह शोर कैसा है?

तौआ – या हजरत! क्या बताऊं, मेरा बेटा मुझसे दगा कर गया। वह बुरी सायत थी कि मैंने अपने घर में आपको पनाह दी। काश अगर मैंने उस वक्त बेमुरौवती की होती, तो आप इस खतरे में न पड़ते। अगर कभी किसी मां को बेटा जनने पर अफ़सोस हुआ है, तो वह बदनसीब मां मैं हूं। अगर जानती कि यह यों दगा करेगा, तो जच्चेखाने में ही उसका गला घोंट देती।

मुस० – नेक बीबी, शर्मिंदा न हो। तेरे बेटे की खता नहीं, सब कुछ वही हो रहा है, जो तकदीर में था, और जिसकी मुझे खबर थी। लेकिन दुनिया में रहकर इंसाफ, इज्जत और ईमान के लिए प्राण देना हर एक सच्चे मुसलमान का फर्ज है। खुदा नबियों के हाथों हिदायत के बीज बोता है, और शहीदों के खून से उसे सींचता है। शहादत वह आला-से-आला रुतबा है जो कि खुदा इंसान को दे सकता है। मुझे अफ़सोस सिर्फ यह है कि जो बात एक दिन पहले होनी चाहिए थी, वह आज दो खुदा के बंदो का खून बहाने के बाद हो रही है।

[जियाद के आदमी बाहर से तौआ के घर में आग लगा देते हैं, और मुसलिम बाहर निकलकर दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं।]

एक सिपाही – तलवार क्या है, बिजली है। खुदा बचाए।

[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर जाता है।]

दूसरा सिपाही – अब इधर चला, जैसे कोई मस्त शेर डकारता हुआ चला आता हो। बंदा तो घर का राह लेता है, कौन जान दे।

(भागता है।)

तीसरा सिपाही – अर…र…र…या हजरत, मैं गरीब मुसाफिर हूं, देखने आया था कि यहां क्या हो रहा है।

[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है]

चौथा सिपाही – जहन्नुम में जाये ऐसी नौकरी। आदमी आदमी से लड़ता है कि देव से। या हज़रत, मैं नहीं हूं, मैं तो हजूर के हाथों पर बैयत करने आया था।

[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है।]

पांचवा सिपाही – किधर से भागें, कहीं जगह नहीं मिलती। या हजरत, अपनी बूढ़ी मां का अकेला लड़का हूं। जान बख्शें, तो हुजूर की जूतियां सीधी करूंगा।

[तलवार पकड़ते ही गिर पड़ता है। सिपाहियों में भगदड़ पड़ जाती है।]

कीस – जवानो, हिम्मत न हारो। तुम तीन सौ हो। कितने शर्म की बात है कि एक आदमी से इतना डर रहे हो।

एक सिपाही – बड़े बहादुर हो, तो तुम्हीं क्यों नहीं उससे लड़ आते? दुम दबाए पीछे क्यों खड़े हो? क्या तुम्हीं को अपनी जान प्यारी है!

कीस – हजरत मुसलिम, अमीर जियाद का हुक्म है कि अगर आप हथियार रख दें, तो आपको पनाह दी जाये। (सिपाहियों से) तुम सब छतों पर चढ़ जाओ, और ऊपर से पत्थर फेंको।

मुस० – ऐ खुदा और रसूल के दुश्मन, मुझे तेरी पनाह की जरूरत नहीं है। मैं यहां तुझसे पनाह मांगने नहीं आया हूं, तुझे सच्चाई के राह पर लाने आया हूं।

(एक पत्थर सिर पर आता है) ऐ गुमराहो! क्या तुमने इस्लाम से मुंह फेरकर शराफत और इंसानियत से भी मुंह फेर लिया। क्या तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम अपने रसूल पाक के अजीज पर पत्थर फेंक रहे हो। हमारे साथ तुम्हारा यह कमीनापन!

[तलवार लेकर टूट पड़ते और गाते हैं।]

कूचे में रास्ती के हम अब गदा हुए हैं,

क्या खौफ़ मौत का है, हक पर फ़िदा हुए हैं।

ईमां है अपना मुसलिक, मकरोदगा से नफ़रत,

दुनिया से फेरकर मुंह नकशे-वफ़ा हुए हैं।

क्या उन पे हाथ उठाऊं, जो मौत से हैं खायफ,

जो राहें-हक़ से फिरकर सरफे दगा हुए हैं।

दुनिया में आके इक दिन हर शख्स को है मरना,

जन्नत है, उनकी, जो यां वकफे जफ़ा हुए हैं।

कीस – कलामे पाक की कसम, हम आपसे फरेब न करेंगे। अगर हम आपसे झूठ बोलें, तो हमारी नजात न हो।

मुस० – वल्लाह! मुझे जिंदा गिरफ्तार करके जियाद के तानों का निशाना न बना सकेगा।

कीस – (आहिस्ते से) यह शेर इस तरह काबू में न आएगा। इसका सामना करना मौत का लुकमा बनना है। यहां गहरा गड्ढा खोदो। जब तक वह औरों को गिराता हुआ आए, तब तक गड्ढा तैयार हो जाना चाहिए। यहां अंधेरा है, वह जोश में इधर आते ही गिर जायेगा।

एक सि० – जियाद पर लानत हो, जिसने हमें शेर से लड़ने के लिये भेजा। या हजरत, रहम, रहम!

दू०सि० – खुदा खैर करे। क्या जानता था, यहां मौत का सामना करना पड़ेगा। बाल-बच्चों की खबर लेने वाला कोई नहीं।

[मुसलिम गड्ढे में गिर पड़ते हैं।]

मुस० – जालिमों, आखिर तुमने दगा की।

कीस – पकड़ लो, पकड़ लो, निकलने न पाए। खबरदार, कत्ल न करना। जिंदा पकड़ लो।

अशअस – तलवार का हकदार मैं हूं।

कीस – जिर्रह मेरा हिस्सा है।

अश० – खुद उतार लो, साद को देंगे।

मुस० – प्यास! बड़े जोरों की प्यास है। खुदा के लिये एक बूंट पानी पिला दो।

कीस० – अब जहन्नुम के सिवा यहां पानी का एक कतरा भी न मिलेगा।

मुस० – तुफ़ है तुझ पर जालिम, तुझे शरीफ़ों की तरह जबह करने की भी तमीज नहीं। मरने वालों से ऐसी दिल-खराश बातें की जाती हैं? अफ़सोस!

अश० – अब अफसोस करने से क्या फायदा? यह तुम्हारे फेल का नतीजा है।

मुस० – आह! मैं अपने लिए अफ़सोस नहीं करता। रोता हूं हुसैन के लिए जिसे मैंने तुम्हारी मदद के लिए आमादा किया। जो मेरी ही मिन्नतों से अपने गोशे पर निकलने को राजी हुआ। जबकि खानदान के सभी आदमी तुम्हारी दगाबाजी का खौफ दिला रहे थे, मैंने ही उन्हें यहां आने पर मजबूर किया। रोता हूं कि जिस दगा ने मुझे तबाह किया, वह उन्हें और उनके साथ उनके खानदान को भी तबाह कर देगी। क्या तुम्हारे ख़याल में यह रोने की बात नहीं है? तुमसे कुछ सवाल करूं?

अश० – हुसैन की बैयत के सिवा और जो सवाल चाहे कर सकते हो।

मुस० – हुसैन की मेरी मौत की इत्तिला दे देना।

अश० – मंजूर है।

[कई सिपाही मुसलिम को रस्सियों से बांधकर ले जाते है।]