काशी शहर के बाहर उत्तर तरफ लाट भैरव का एक प्रसिद्ध स्थान है, पास ही में एक पक्का तालाब है और स्थान के इर्द-गिर्द कई पक्के कुएँ भी हैं। वही पक्का तालाब कपालमोचन तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। काशी खंड में वहाँ स्नान करने का बड़ा ही महात्म्य लिखा है। इस तालाब के कोने पर (कुछ हट के) एक कुआँ है जिस सकी जगत बहुत ऊँची है और ऊपर बैठने का स्थान भी बहुत प्रशस्त है तथा सीढ़ी के दोनों तरफ छोटे-छोटे दो दालान भी बने हैं जिनसे मुसाफिरों और यात्रियों का बहुत उपकार होता है तथा काशी के मनचले और आशिक-मिजाज लोगों को सैर-सपाटे के समय (यदि बरसात का मौसम हो तो) रोटी-बाटी बनाने में भी अच्छी सहायता मिलती है।
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इस तालाब या कुएँ के पास में सिवाय जंगल-मैदान के किसी गृहस्थ का कोई कच्चा या पक्का मकान नहीं। अगर यहाँ दस-पाँच आदमी आपस में लड़-भिड़ जाएँ तो पास के किसी अड़ोसी-पड़ोसी की सहायता भी नहीं मिल सकती।
इसी कुएँ पर संध्या होने से कुछ पहिले हम काशी के पाँच-सात खुशमिजाज आदमियों को बैठे हँसी-दिल्लगी करते तथा भंग-बूटी के इंतजाम में व्यस्त देख रहे हैं। कोई भंग धो रहा है, कोई पसीने का चिकना पत्थर धोकर जगह साफ करने की धुन में है, कोई टिकिया सुलगा रहा है और कोई गौरैया (मिट्टी के हक्के) में पानी भर रहा है, इत्यादि तरह-तरह के काम में सब लगे हुए हैं और साथ-ही-साथ अपनी बनारसी अधकचरी तथा अक्खड़ भाषा में हँसी-दिल्लगी भी करते जाते हैं। उनकी बातें भी सुनने के ही लायक हैं। यद्यपि इससे किसी तरह का उपकार तो नहीं हो सकता परन्तु मन-बहलाव जरूर है और इस प्रकार की जानकारी भी हो सकती है अस्तु सुनिए तो सही।
एक : (जो भंग धो रहा था) यार, देखो सारे दुकानदार ने मुफ्त ही चार पैसे ले लिए, हमें तो यह भंग दो पैसे की भी जमा नहीं दिखाई देती। यह देखो निचोड़ने पर मुट्ठी-भर के भी नहीं होती!
दूसरा : (उचक के देख के) हाँ यार, यह तो कुछ भी नहीं है। तू हूँ निरे गौखे ही रह्यो, पहिले काहे नहीं कहा, सारे की टोपी उतार लेते और ऐसे गड्डो देते कि जनम-भर याद रखता।
तीसरा : ऐसे ही तो जमा मार के सरवा मुटा गया है। तोंद कैसी निकली हुई है सारे की!
चौथा : अच्छा अब कल समझेंगे चोंधर से।
पाँचवाँ : कल आती दफे धीरे-से उसकी दौरी ही उलट देंगे, ज्यादा बोलेगा तो लड़ जाएँगे और गुल करेंगे कि चार आना पैसा तो ले लिहिस है मगर भाँग देता ही नहीं।
छठा : (जो भला आदमी और कुछ पैसे वाला ही मालूम होता है क्योंकि उसके गले में सोने की सिकरी पड़ी हुई थी) नहीं-नहीं ऐसा न करना, कोई जान-पहिचान का देख लेगा और जाकर कह देगा तो मुफ्त की झाड़ सुननी पड़ेगी।
दूसरा : अरे रहो बाबू साहब, हम लोगन के साथ आया करो तो ऐसी भलमानसी घर छोड़ आया करो, हम लोग ऐसे दबा करें तो दिन-दुपहरिया लुट जाएँ!
(लेखक : कंगाल बाँकड़े भी खूब ही लुटा करते होंगे!)
सातवाँ : (सुलग गई हुई टिकिया हाथ में हिलाते हुए) अरे यारो, ये बाबू साहब ठहरे महाजन आदमी, भला ई लोग लड़ना-भिड़ना का (क्या) जानें, चाहे कोई धोती उतार के ले जाय। ई (यह) हम ही लोगन (लोगों) के काम हो कि कोई आँख दिखावे तो कान उपार (उखाड़) लेईं। हमी लोगन की बदौलत बाबू साहब बचत भी जात हैं, नहीं तो गूदड़ सफरदा सरवा ऐसा रंग बाँधे लगा था कि बस कुछ पूछा ही नहीं, ओ रोज (उस दिन) चिथडू न होते तो गले की सिकरिए उतार लिए होता।
छठा : (अर्थात् बाबू साहब) हाँ यह बात तो ठीक है और जी में तो उसी रोज आ गया था कि अब आज से इस रास्ते को छोड़ दें और रंडी-मुंडी का नाम भी न लें बल्कि कसम खाने लिए भी तैयार हो गया था मगर क्या करें, ‘नागर’ की मुहब्बत ने ऐसा करने नहीं दिया, वह बेशक् मुझे प्यार करती है और मुझ पर आशिक है।
सातवाँ : (मुसकराते हुए) बल्कि तुम पर मरती है! एक दिन हमसे कहती थी कि बाबू साहब हमें छोड़ देंगे तो हम जहर खा लेंगे!!
इसी तरह ये लोग बेतुकी और अक्खड़पन लिए हुए मिश्रित भाषा में बातचीत कर रहे थे कि यकायक विचित्र ढंग का एक नया मुसाफिर यहाँ आ पहुँचा और उसने कुएँ के ऊपर चढ़ते हुए इस सातवें आदमी की आखिरी बात बखूबी सुन ली। इस आदमी की उम्र का पता लगाना जरा कठिन है, तथापि बाबू साहब की निगाह में वह पैंतीस वर्ष का मालूम पड़ता था। कद जरा लंबा और चेहरा रोआबदार था, कपड़े की तरफ ध्यान देकर कोई नहीं कह सकता था कि यह किस देश का रहने वाला है। भीतर चाहे जैसी पोशाक् हो मगर ऊपर एक स्याह अबा डाले हुए था और एक छोटी-सी गठरी हाथ में थी।
पहिले से जो लोग उस कुएँ पर बैठे हँसी-दिल्लगी कर रहे थे उनके दिल में आया कि इस नये मुसाफिर से कुछ छेड़छाड़ करें और यहाँ से भगा दें क्योंकि वास्तव में काशी के रहने वाले अक्खड़ मिज़ाज लोगों की आदत ही ऐसी होती है, जहाँ इस मिज़ाज के चार-पाँच आदमी इकट्ठे होते हैं वहाँ वे लोग अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं और दूसरे लोगों से बिना दिल्लगी किये नहीं रहते।
एक : (नये मुसाफिर से) कहाँ रहते हो साहब?
मुसाफिर : गयाजी।
दूसरा : यहाँ कब आये?
मुसाफिर : आज ही तो आये हैं।
दूसरा : तभी आप इस कुएँ पर आए हैं, अगर कोई जानकार होता तो यहाँ कभी न आता।
मुसाफिर : सो क्यों?
चौथा : यहाँ शैतान और जिन्न लोग रहते हैं, जो कोई नया मुसाफिर आता है उसे चपत लगाए बिना नहीं रहते।
मुसाफिर : ठीक है, तो तुम लोगों को भी उन्होंने चपत लगाया होगा?
दूसरा : (चिढ़ कर, जोर से) हम लोगों से वे लोग नहीं बोल सकते क्योंकि हम लोग यहाँ के रहने वाले हैं और उन सभों के दोस्त हैं!
मुसाफिर : बेशक् शैतान के दोस्त शैतान ही होते हैं!
चौथा : क्यों बे, मुँह सम्हाल के नहीं बोलता!
मुसाफिर : अबे-तबे करोगे बच्चा तो ठीक करके रख देंगे! हमें कोई मामूली मुसाफिर न समझना!!
पाँचवाँ : (ललकार कर) मार सारे के, बे अढैया चपत।
इतना कहकर पाँचवाँ आदमी उठा और मुक्का तान कर उस मुसाफिर की तरफ झपटा। मारना ही चाहता था कि मुसाफिर ने हाथ पकड़ लिया और ऐसा झटका दिया कि वह कुएँ के नीचे जा गिरा और बहुत चुटीला हो गया। यह कैफियत देखते ही बाबू साहब तो डर के मारे कुएँ के नीचे उतर गए और किसी झाड़ी में जा जाकर छिप रहे मगर बाकी के सब आदमी उस मुसाफिर पर जा टूटे और एक ने अपनी कमर से एक छुरी भी निकाल ली। मगर मुसाफिर ने उन सभों की कुछ भी परवाह न की। बात-की-बात में उसने और तीन आदमियों को कुएँ के नीचे ढकेल दिया और उसके बाद कमर से खंजर निकालकर मुकाबिले को तैयार हो गया। खंजर की चमक देखते ही सभों का मिजाज ठंडा हो गया और मेल-माकफत के ढंग की बातचीत करने लगे, मगर मुसाफिर का गुस्सा कम न हुआ और उसने लात तथा मुक्कों में खूब सभी की मरम्मत की, इसके बाद एक किनारे हटकर खड़ा हो गया और बोला, “कहो अब क्या इरादा है?”
मुसाफिर की हिम्मत और मर्दानगी देखकर सभों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनको इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि यह अकेला आदमी हम लोगों को इस तरह नीचा दिखा देगा। सभों ने समझा कि यह जरूरी कोई राक्षस या जिन्न है जो आदमी का रूप धर के हम लोगों को छकाने के लिए आया है, अस्तु किसी ने भी उसकी बातों का जवाब नहीं दिया बल्कि डरते हुए अपना सामान और कपड़ा-लत्ता उठा कर भागने के लिए तैयार हो गये मगर मुसाफिर ने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा, “देखो तुम लोगों ने जान-बूझकर मुझसे छेड़खानी की और तकलीफ उठायी अस्तु अब शान्त होकर बैठो और अपना-अपना काम करो। तुम्हारे कई साथियों को सख्त चोट आ गई है सो उसे धोकर पट्टी बाँधो और कुछ देर आराम लेने दो, और हाँ यह तो बताओ कि तुम्हारे वह सुन्दर-सलोने बाबू साहब कहाँ चले गये जिन पर बीवी नागर आशिक हो गई हैं?”
एक : न-मालूम कहाँ चला गया, ऐसा भग्गू आदमी…
दूसरा : जाने दो, अगर भाग गया तो जहन्नुम में जाय, उसी के सबब से तो हम लोग तकलीफ उठाते हैं।
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मुसाफिर : नहीं-नहीं, भागो मत, अपने साथी को आने दो बल्कि खोजो कि वह कहाँ चला गया है। यह कोई भलमनसी की बात नहीं है कि उसे इस तरह छोड़कर सब कोई चले जाओ, हम तुम लोगों को भी कभी न जाने देंगे और खास करके तुम्हारे सुन्दर सलोने से तो जरूर ही बातचीत करेंगे।
मुसाफिर की बातों ने उन लोगों को और भी परेशान कर दिया। उसका रोब इन सभों पर ऐसा छा गया था कि उसकी तरफ आँख उठाकर देख नहीं सकते थे और उसे आदमी नहीं बल्कि देवता या राक्षस समझने लग गये थे, अस्तु उसका रोकना इन लोगों को और भी बुरा मालूम हुआ और सभों ने डरते हुए हाथ जोड़ कर कहा, “बस अब कृपा कीजिए और हम लोगों को जाने दीजिए।”
मुसाफिर : नहीं-नहीं, यह कभी न होगा, पहले तुम अपने साथी को तो खोजो…
एक : अब हम उसे कहाँ खोजें?
मुसाफिर : चलो हम भी तुम लोगों के साथ मिलकर उसे खोजें। वह कहीं दूर न गया होगा, इसी जगह किसी झाड़ी में छिपा होगा। तुम लोग डरो मत, अब हमारी तरफ से तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न पहुंचेगी।
यद्यपि मुसाफिर ने उन लोगों को बहुत दिलासा दिया और समझाया मगर उन लोगों का जी ठिकाने न हुआ और डर उनके दिल से न गया बल्कि इस बात का खयाल हुआ कि यह मुसाफिर बाबू साहब को खोजने के बाद जिद्द करता है तो इसमें कोई भेद जरूर है, बेशक् बाबू साहब को खोज कर उन्हें तकलीफ देगा। मगर जो हो उन सभों को खोजना ही पड़ा।
उधर बाबू साहब उस कुएँ के पास ही एक झाड़ी में छिपे हुए सब देख-सुन रहे थे और डर के मारे उनका तमाम बदन काँप रहा था। जब उन्होंने देखा कि वह राक्षस सभों के लिए हुए उनकी खोज में कुएँ के नीचे नीचे उतरा है तब तो वह एकदम घबड़ा उठे और उनके मुँह से हजार कोशिश करके रोकने पर भी एक चीख की आवाज निकल ही पड़ी। आवाज सुनते ही वह मुसाफिर समझ गया कि इसी झाड़ी के अन्दर बाबू साहब छिपे हुए हैं, झपटकर वहाँ जा पहुँचा और झाड़ी के अन्दर से हाथ पकड़ के बाबू साहब को बाहर निकाला। मालूम होता था कि बाबू साहब को इस समय जडैया बुखार चढ़ आया है। उनका तमाम बदन तेजी के साथ काँप रहा था। बाबू साहब जल्दी से मुसाफिर के पैरों पर गिर पड़े और आँसू बहाते हुए बोले, “ईश्वर के लिए मुझे माफ करो, मैं बड़ा ही गरीब हूँ किसी के भले-बुरे से मुझे कुछ सरोकार नहीं, मैंने आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ा है!”
मुसाफिर : डरो मत, मैंने तुम्हें किसी बुरी नीयत से नहीं ढूँढ़ा है, ये लोग तुम्हें वहाँ जंगल में छोड़कर भागे जाते थे, इसीलिए मैंने सभी को रोक लिया और कहा कि अपने साथी को खोज कर अपने साथ लिए जाओ। अब तुम बेखौफ होकर अपने दोस्तों के साथ अपनी प्यारी नागर के पास चले जाओ, मुझसे बिलकल मत डरो।
मुसाफिर की बातों से बाबू साहब को कुछ ढाँढस हुई, वे सम्हल कर उठ खड़े हुए और मुसाफिर से कुछ कहा ही चाहते थे कि पास की दूसरी झाड़ी में से एक दूसरा आदमी निकलकर झपटता हुआ उन सभों के पास आ पहुँचा और मुसाफिर की तरफ देख के बोला, “तुम क्यों इस बेचारे सीधे और डरपोक आदमी को तंग कर रहे हो, नहीं जानते कि तुम्हारा गुरु चन्द्रशेखर इसी जगह छिपा हुआ तुम्हारी शैतानी का तमाशा देख रहा है!”
उस आदमी की सूरत-शक्ल का अंदाजा नहीं मिल सकता था क्योंकि उसका तमाम बदन स्याह कपड़े से छिपा हुआ था और चेहरे पर भी स्याह नकाब पड़ी हुई थी, मगर वह मुसाफिर उसकी बात सुन कर बड़े गौर में पड़ गया और आश्चर्य के साथ उसकी तरफ देखने लगा।
मुसाफिर : तुम कौन हो, पहिले अपना परिचय दो तब मैं तुमसे कुछ बात करूँ।
नया आदमी : तुम्हारा मुँह इस योग्य नहीं है कि मुझ से बात करो और परिचय के लिए यही काफी है कि मेरा नाम चन्द्रशेखर है। लेकिन अगर इससे भी विशेष कुछ जानने की इच्छा हो तो मैं और भी कुछ कहने के लिए तैयार हूँ! आह, वह धोखा देने वाली चाँदनी रात! बात की बात में चन्द्रमा बादलों में छिप गया और अँधकार हो जाने के कारण तरह-तरह की भयानक सूरतें दिखाई देने लगीं। उसी समय पहिले एक स्याह रंग का ऊँट दिखाई दिया जिसके सिर पर लंबे-लंबे सींघ बिजली की तरह चमक रहे थे।

मुसाफिर : (डर के मारे काँपता और पीछे की तरफ हटता हुआ) बस! बस! मैं समझ गया कि तुम कौन हो!!
चन्द्रशेखर : उसके बाद एक सफेद रंग का हाथी दिखाई दिया जिसके ऊपर नागर और मनोरमा मशाल लिए हुई थीं और जोर-जोर से श्यामलाल को पुकार रही थीं क्योंकि वे चाहती थीं कि किसी तरह खून से लिखी हुई किताब उनके हाथ लगे।
मुसाफिर : (हाथ जोड़ कर) मैं कह चुका और फिर भी कहता हूँ कि बस करो, माफ करो, दया करो, मैं तुम्हें पहिचान गया, अगर तुम्हें कुछ कहना ही हो तो किनारे चलकर कहो जिसमें कोई तीसरा न सुनने पावे।
चन्द्रशेखर : नहीं-नहीं, मैं इसी जगह सबके सामने ही कहूँगा क्योंकि इन बाबू साब का इस मामले से बहुत ही घना संबंध है तथा इसके साथी लोग भी इसी जगह आकर इकट्ठे हो गये हैं और आश्चर्य भरी निगाहों से हम दोनों का तमाशा देख रहे हैं। हाँ तो मैं क्या कह रहा था? अच्छा, अब याद आया, उसी अँधेरी रात में एक बिल्ली भी आ पहुँची जो अपने मुँह से लंबी गर्दन वाला स्याह रंग का ऊँट दबाए हुए थी और ऊँट के माथे पर लिखा हुआ था-
“सर्वगुण सम्पन्न चांचला सेठ”
“बस बस बस!” कहता हुआ मुसाफिर पीछे की तरफ हटा और काँपता हुआ जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।
इस नए आए हुए व्यक्ति तथा इस मुसाफिर की बातचीत से सभी को आश्चर्य तो हुआ ही था परन्तु मुसाफिर की अन्तिम अवस्था देखकर सभों को बड़ा विस्मय और आनन्द भी हुआ। इसके बाद जब मुसाफिर खौफ से बेहोश हो गया और नये आदमी अर्थात् चन्द्रशेखर ने बाबू साहब तथा उनके साथियों को बहुत जल्द वहाँ से चले जाने के लिए कहा तब वे लोग इस तरह वहाँ से भागे जैसे बाज के झपट्टे से बची हुई चिड़ियाएँ भागती हैं, जब वे लोग तेजी के साथ चलकर घने मुहल्ले में पहुँचे तब उन लोगों का जी ठिकाने हुआ और उन्होंने समझा कि जान बची।
भूतनाथ-खण्ड-3/ भाग-2 दिनांक 12 Mar. 2022 समय 06:00 बजे साम प्रकाशित होगा

