सुहाग सेज पर बैठी शिल्पा का मन शांत न था। कभी वह अपने माता-पिता के विषय में सोचती तो कभी एकाएक उसे निखिल का ध्यान आ जाता। फिल्म कंपनी की उस कोठी से निकलते समय उसने निखिल के मुंह पर थप्पड़ मारा था। उसे भय था कि निखिल उससे अपने अपमान का बदला लेने के लिए कुछ और न कर बैठे।
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अखिल से उसने निखिल के विषय में कुछ विशेष न बताया था। सिर्फ इतना ही कहा था कि वह निखिल की कंपनी में नौकरी करती थी और नौकरी उसने इसलिए छोड़ी थी-क्योंकि उसके संबंध में निखिल की नीयत ठीक न थी। निखिल यह नहीं चाहता था कि उसका विवाह हो।
अखिल ने स्वयं भी उससे निखिल के विषय में कुछ अधिक न पूछा था। स्वयं शिल्पा भी अभी तक यह नहीं जान पाई थी कि वही निखिल अखिल का बड़ा भाई था। भाई के संबंध में अखिल ने बताया था कि उसका भाई गुजरात में रहता है। शिल्पा ने भी इस संबंध में कुछ अधिक न पूछा था। शिल्पा इस समय यही सोच रही थी। सोचते-सोचते एकाएक उसकी दृष्टि दाईं ओर वाली दीवार पर पड़ी और इसके साथ ही उसके होंठों से घुटी-सी चीख निकल गई। वह केवल चीखी ही नहीं-बल्कि इस प्रकार उछल पड़ी मानो बिस्तर में छुपे अनगिनत बिच्छुओं ने उस पर एक साथ आक्रमण कर दिया हो।
दीवार पर निखिल की तस्वीर लगी थी।
शिल्पा उस तस्वीर को कुछ क्षणों तक तो थरथराती दृष्टि से देखती रही और फिर बिस्तर से उतरकर तस्वीर के सामने आ गई। वह देखना चाहती थी कि क्या यह तस्वीर उसी निखिल की थी।
एकाएक कोई दबे पांव कमरे में आया और शिल्पा को यों तस्वीर के सामने देखकर उससे बोला- ‘क्या देख रही हो?’
शिल्पा यह आवाज सुनकर पत्ते की भांति कांप गई। मुड़कर देखा- ‘यह अखिल था।
अखिल फिर बोला- ‘यह उसी शैतान की तस्वीर है।’ स्वर में घृणा थी।
‘किन्तु-किन्तु यह यहां?’
‘किसी ने भूल से टांग दी होगी। यह शैतान कभी-कभी स्वर्ग में भी चले आते हैं। किन्तु इनका वास्तविक स्थान तो नर्क में ही होता है।’ इतना कहकर अखिल ने निखिल की वह तस्वीर उतारी और घृणा से दांत पीसते हुए पूरी शक्ति से खिड़की से बाहर फेंक दी।
तस्वीर का शीशा गली की खिड़की से टकराते ही टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। अखिल कुछ क्षणों तक तो खिड़की से बाहर देखता रहा और फिर शिल्पा का हाथ थामकर उससे बोला- ‘चलो अब बैठ जाओ।’
शिल्पा बैठकर उससे बोली- ‘यह क्या किया तुमने?’
‘क्यों?’
‘तस्वीर फेंक दी।’
‘मैंने कहा न था कि शैतान का वास्तविक स्थान नर्क में ही होता है।’
‘तुम बता सकते हो-यह शैतान कौन था?’
‘तुम इसे भली प्रकार जानती हो।’
‘फिर भी।’
‘सुनकर तुम्हें दुःख होगा।’
‘वह क्यों?’
‘कुछ सच इतने कड़वे होते हैं कि सहे नहीं जाते।’
‘सहने तो पड़ते हैं।’
अखिल को कहना पड़ा- ‘मिस्टर निखिल वर्मा मेरे बड़े भाई हैं।’
शिल्पा मानो आकाश से गिरी।
चेहरे पर भूकंप जैसे भाव फैल गए।
‘किन्तु सिर्फ कहने के लिए।’ उसी घृणा के साथ अखिल फिर बोला- ‘सिर्फ दुनिया को बताने के लिए कि श्रीमान राजाराम जी का एक बेटा और भी है। अन्यथा सच्चाई यह है कि हमारा निखिल वर्मा से कोई संबंध नहीं! हमारी दृष्टि में वह मर चुका है।’
‘यह सब तुमने पहले क्यों नहीं बताया?’
‘भय था कि कहीं तुम इस परिवार से घृणा न करने लगो। तुम यह न सोच बैठो कि शैतान जिस घर में पैदा हुआ है-उस घर के दूसरे लोग भी शैतान ही होंगे।’
‘मैं ऐसा क्यों सोचती?’
‘निखिल के कारण। तुम उसका वास्तविक रूप अपनी आंखों से देख चुकी हो। तुम अच्छी तरह जान चुकी हो कि वह इंसानी खाल में छुपा हुआ भेड़िया है। उसकी इससे बड़ी नीचता क्या होगी कि उसने अपने छोटे भाई की होने वाली पत्नी को ही अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा। लूटना चाहा उसे।’
शिल्पा फिर कांपकर रह गई। सोचने लगी-लुटने के लिए उसके पास रहा ही क्या था। न जाने कितनी बार तो लूटा था निखिल ने उसे। कितनी अभागिन रही वह-अपने पति के भाई के हाथों लुट गई। विवशता तो यह थी कि वह इस संबंध में किसी से कुछ कह भी नहीं सकती थी। किन्तु इसमें निखिल का क्या दोष था? लुटी तो वह स्वयं थी। पिता का जीवन बचाने के लिए उसने अपना सतीत्व भी दांव पर लगा दिया था। क्या करती वह-पिता के प्राण बचाने का अन्य कोई उपाय भी तो न था। बेटी थी वह-पिता को बचाने के लिए उसने स्वयं को लुटाया तो कौन-सा पाप किया?’
वास्तव में शिल्पा की दृष्टि में वह कोई पाप भी न था। वह तो विवशता थी उसकी। माता-पिता संतान को अपना रक्त पिलाकर पालते हैं-ऐसे में संतान का भी तो माता-पिता के प्रति कोई कर्त्तव्य होता है।
तभी शिल्पा की विचारधारा टूट गई।
अखिल उससे पूछ रहा था- ‘क्या सोच रही हो?’
‘आं!’ शिल्पा चौंककर बोली- ‘तुम्हारे भाई साहब के विषय में।’
‘नाम न लो उसका। मुझे तो यह सोचकर लज्जा आती है कि निखिल मेरा बड़ा भाई है। आओ-सो जाओ।’ कहकर अखिल ने उसे अपनी और खींच लिया।
‘अखिल!’
‘हूं।’ अखिल ने शिल्पा का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया ओर उसकी आंखों में झांकने लगा।
‘एक बात मेरी समझ में नहीं आती।’
‘वह क्या?’
‘तुम्हारे भइया निखिल इतने दौलतमंद हैं और तुम?’
‘तुम्हें दौलत चाहिए?’
‘नहीं-नहीं अखिल! मैं तो यह पूछ रही थी कि…।’
‘मत पूछो।’ अखिल बोला- ‘हमारे परिवार ने कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि उसके पास यह दौलत आई कहां से। न ही हमारी उसकी दौलत में कोई दिलचस्पी है। सच तो यह है कि शिल्पा! कि हमारा उससे कोई संबंध ही नहीं है। मर चुका है वह हमारे लिए।’
शिल्पा ने फिर कुछ न पूछा।
अखिल उसके होंठों पर उंगली फिराते हुए बोला- ‘और वैसे भी शिल्पा! जिसके पास दौलत होती है, उसके हृदय में प्रेम नहीं होता। जिसका हृदय सोने के आवरण से ढका हो, ऐसा व्यक्ति कभी किसी से प्रेम नहीं कर सकता शिल्पा! हम में और निखिल में यह ही अंतर है। उसके पास दौलत है और हमारे पास प्रेम से भरा हृदय। वह प्रेम करना नहीं जानता-सिर्फ लूटना जानता है। मगर हम प्रेम भी करते हैं और प्र्रेम में लुटना भी जानते हैं। शिल्पा! इस घर में भले ही तुम्हारे लिए कुछ न हो। भले ही तुम्हें भूखे पेट सोना पड़, -किन्तु यहां तुम्हें इतना प्रेम मिलेगा कि उसे पाकर तुम सब कुछ भूल जाओगी।’
शिल्पा ने अखिल के गले में बांहें डाल दीं और बोली- ‘मुझे प्रेम के अतिरिक्त और कुछ चाहिए भी नहीं अखिल! सिर्फ तुम्हारा प्यार चाहिए।’
‘मनु! तुमने कोई नदी देखी है?’
‘पापा! मेरी बातों का नदी से क्या संबंध?’
‘संबंध है बेटी!’ गोपीनाथ उठे और अपने शब्दों पर जोर देकर बोले- ‘क्योंकि नारी का जीवन भी नदी की भांति होता है। नदी की सीमा उसके किनारे होते हैं और नारी की सीमा उसके ऊपर लगे सामाजिक बंधन। कुछ रीति-रिवाज, कुछ परंपराएं और कुछ कर्त्तव्य। जिस प्रकार किनारों को तोड़ने के पश्चात् नदी एक नदी नहीं रहती, उसे बहते पानी का नाम दिया जाता है। उसी प्रकार समाज की मर्यादाएं और सीमाएं तोड़ने के पश्चात् नारी को भी नारी नहीं कहा जा सकता।’
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मनु ने रोष एवं आक्रोश से पूछा- ‘आप बता सकते हैं-वे मर्यादाएं एवं सीमाएं क्या होती हैं?’
‘किसी एक व्यक्ति के साथ जुड़ना। मैं यह नहीं कहता कि विवाह के पश्चात् नारी अपने पति को परमेश्वर मानकर उसकी पूजा करे। परमेश्वर मानना आवश्यक भी नहीं। क्योंकि यदि पति को केवल परमेश्वर मानकर पूजा जाएगा-तो उस पूजा में केवल श्रद्धा होगी-विवशता भी हो सकती है। किन्तु यदि पति को अपना मित्र, अपना साथी माना जाए तो वहां विवशता न होगी-बल्कि प्रेम होगा। और यह हृदय का सिद्धांत है कि वह केवल एक ही व्यक्ति से प्रेम कर सकता है।’
‘मैं भी निखिल से प्रेम करती हूं पापा!’
‘नहीं मनु! यह सच नहीं है।’ गोपीनाथ फिर से बैठ गए और बोले- ‘ऐसा कहकर तुम अपने आपको धोखा दे रही हो। यदि तुमने निखिल से प्रेम किया होता तो तुम्हारा विवाह उसी से होता।’
‘मेरा निर्णय तो आपने बदला था पापा!’
‘हमने तुम्हारा निर्णय न बदला था बेटी! हमने तो केवल तुम्हारे मन की थाह ली थी। हम तो केवल यह जानना चाहते थे कि तुम्हारा निश्चय कितना अडिग है। यदि तुमने एक बार भी हमारी बात का विरोध किया होता तो जानती हो क्या होता?’
‘क्या होता?’
‘हम स्वयं तुम्हारा रिश्ता लेकर राजाराम के पास जाते और उससे कहते कि वह हमारी मनु को अपने घर की बहू बना ले। किन्तु ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। तुम्हारे यह कहने से कि मैं भविष्य में निखिल से कभी नहीं मिलूंगी-हमने जान लिया कि तुम्हारा प्रेम वास्तव में प्रेम न था और तुम निखिल से एक खिलौने की भांति खेल रही थीं।’
मनु किन्हीं सोचों में डूब गई।
‘और आज।’ गोपीनाथ फिर बोले- ‘जब तुम उसी प्रेम को फिर से स्वीकार कर रही हो तो हमें लगता है कि या तो तुम प्रेम की परिभाषा ही नहीं जानतीं या फिर तुम्हें निखिल से नहीं, उसकी दौलत से प्रेम हो गया है। जिस वक्त तुमने उसे ठुकराया-उस वक्त उसके पास दौलत न थी। किन्तु आज तुम उसके प्रेम को इसलिए स्वीकार कर रही हो क्योंकि उसके पास करोड़ों की दौलत है।’
‘पापा!’ मनु तड़प उठी।
गोपीनाथ कहते रहे- ‘मनु बेटे! यह सब ठीक नहीं। पैसे के अभाव में किसी को ठुकराना और पैसे के लिए उसके प्रेम को स्वीकार करना-यह नैतिकता नहीं। पैसे को किसी महानता, चरित्र एवं प्रेम का मापदंड नहीं मानना चाहिए। हमारी मानो तो आनंद से समझौता कर लो।’
‘पापा! यह नहीं होगा-नहीं होगा।’ मनु गुस्से से चिल्लाई- ‘मैं आनंद से कभी समझौता नहीं कर सकती। मैंने उसे तलाक का नोटिस भिजवा दिया है। अब तो मुझे अदालत में सिर्फ यह ही कहना है कि मैं आनंद से कोई संबंध रखना नहीं चाहती।’
यह सुनकर गोपीनाथ के होंठों पर अजीब-सी मुस्कुराहट फैल गई। बैठकर वह बोले- ‘एक बात पूछें तुमसे?’
‘वह क्या?’
‘तुमने प्रेम किया था आनंद से?’
‘शायद नहीं।’
‘शायद-अथवा वास्तव में।’
‘वास्तव में नहीं।’
‘फिर तुमने यह क्यों कहा था आनंद से कि मैं तुमसे प्रेम करती हूं? क्या जरूरत थी तुम्हें उसे छलने की? क्या आवश्यकता थी तुम्हें उसके जीवन में आने की? और आज-जब वह तुम्हारे प्रेम पर विश्वास करके तुम्हारी दुनिया में आया तो तुमने उसे ठोकर मार दी। नहीं मनु! यह किसी भी दृष्टि से उचित न था।’

‘पापा प्लीज!’ मनु बेचैनी से बोली- ‘मत कहिए मेरे सामने यह सब। मैंने आज से पहले क्या किया यह मैं नहीं जानती। मैं केवल इतना जानती हूं कि मैंने निखिल से प्रेम किया था। मैं-मैं उसके पास जा रही हूं पापा!’
गोपीनाथ थके से अंदाज में कुर्सी पर बैठ गए और निःश्वास लेकर बोले- ‘जाने वाले को कौन रोक सका है मनु! जानता हूं-तुम निखिल के पास जरूर जाओगी। भूल मेरी भी थी। मैं भी निखिल से इतना प्रभावित हुआ कि उसके विषय में कुछ और न सोच सका। उसने मेरे लिए जो कुछ भी किया-मैंने इसे उसकी उदारता एवं महानता ही समझा। काश! मैंने यह भी सोचा होता कि वह केवल तुम्हारे कारण उदारवादी बन रहा है। मैंने यह भी सोचा होता कि वह अपने चेहरे पर महानता का नकाब डालकर मेरे घर में इतनी भयानक आग लगाएगा-तो मैं उसकी दी हुई सहायताओं को कभी स्वीकार न करता। किन्तु एक बात याद रखना मनु! इस संसार में तुम्हें फिर लौटकर आना होगा। यह मेरा अनुभव कहता है कि तुम्हें आनंद के पास फिर लौटना होगा।’ गोपीनाथ ने यह सब एक ही सांस में कहा और इसके पश्चात् वह उठकर बाहर चले गए।
मनु उन्हें जाते देखती रही।
अभिशाप-भाग-19 दिनांक 09 Mar. 2022 समय 04:00 बजे साम प्रकाशित होगा

