अस्वस्थ होने के कारण राजाराम आज बैंक न गया था और चारपाई पर बैठा आज का समाचार-पत्र देख रहा था। कौशल्या देवी पड़ोस में गई थी। कुछ समय पश्चात् वह थकी-हारी-सी घर लौटी और राजाराम से बोली- ‘आप बिलकुल ठीक कहते थे। पूरे मुहल्ले में उसी बात की चर्चा हो रही है।’
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‘कौन-सी बात की?’ अखबार रखकर आंखों से ऐनक हटाते हुए राजाराम ने पूछा।
‘यही कि हम बड़े बेटे के स्थान पर छोटे बेटे का विवाह कर रहे हैं।’
‘तुमने उन लोगों से यह नहीं कहा कि हमारा बड़ा बेटा मर चुका है?’
‘भगवान के लिए ऐसी अशुभ बातें मत बोला कीजिए। औलाद अच्छी हो अथवा बुरी-होती तो औलाद ही है।’
‘नहीं होती कौशल्या!’ राजाराम ने घृणा से कहा- ‘मैं कुपुत्र को पुत्र कभी नहीं मान सकता। जिस तरह सड़े अंग को काटना ही उचित होता है-उसी तरह कुपुत्र को भी त्याग देना चाहिए। मरा हुआ समझ लेना चाहिए उसे। जो चिराग अपने ही घर में आग लगाता हो-मैं उसे बैरी मानता हूं। इसलिए मेरा यह कहना ठीक है कि हमारा बड़ा बेटा मर चुका है। नाम ही मत लो उसका। भूले से भी याद मत करो उसे। सोच लो कि तुमने केवल एक ही पुत्र को जन्म दिया था।’
कौशल्या मौन खड़ी रही।
एक पल रुककर राजाराम ने फिर कहा- ‘अरे फिर तुमने तो अनेक धार्मिक पुस्तकें पढ़ी हैं। गीता पढ़ी है-रामायण पढ़ी है। इन सब पुस्तकों में तुम्हें एक संदेश अवश्य मिला होगा कि संसार में कोई किसी का नहीं। और यदि किसी को हम अपना कहते हैं-तो इस कथन के पीछे हमारा कोई स्वार्थ छुपा होता है। यदि अपना कोई है-तो वह है मनुष्य का कर्म। कर्म मरणोपरांत भी मनुष्य के साथ चलता है। अतः मनुष्य को चाहिए कि वह संसार में उसी प्रकार रहे जिस प्रकार जल में कमल रहता है। संसार में बसो-किन्तु फंसो मत। परिवार के लिए अपने उत्तरदायित्व पूरे करो, किन्तु उसके लिए ऐसा कुछ मत करो-जिसे पाप की संज्ञा दी जाए, क्योंकि उस पाप का फल अकेले तुम्हें ही भोगना है-अन्य किसी को नहीं। बात समझ में आई?’
कौशल्या बोली- ‘मेरी समझ तो वही है, जो आपकी है। मैंने आपसे कभी नहीं कहा कि आप निखिल को क्षमा कर दें अथवा उससे समझौता कर लें।’
‘कहना भी मत कौशल्या! कभी कहना भी मत। और यह भी ध्यान रखना कि जिस दिन तुमने मेरी आज्ञा के बिना उसे घर में घुसने दिया-मैं उसी दिन यह घर त्याग दूंगा।’
‘नहीं, ऐसा न होगा स्वामी।’
‘ठीक है। अब बैठो और यह बताओ कि बहू के लिए क्या-क्या खरीदना है।’
कौशल्या बैठकर बोली- ‘इसमें मैं क्या कह सकती हूं।’
‘कमाल है। बहू तुम्हारी आएगी और तुम कह रही हो…।’
‘वह आपकी भी तो कुछ होगी।’
‘हां-हां-बेटी होगी। किन्तु उसके साथ अधिकांश समय तो तुम्हें ही रहना है। मेरा क्या है-मैं तो सुबह निकलकर शाम को लौटूंगा। बहू सेवा करेगी तो तुम्हारी।’
‘आजकल कोई किसी की सेवा नहीं करता जी!’
‘कौशल्या! यह भूल है तुम्हारी। कमी सेवा करने वालों की नहीं-सेवा कराने वालों की है। यदि तुम अपनी बहू को बेटी के समान समझोगी और हर प्रकार से उसके मान-सम्मान एवं सुख-दुःख का ध्यान रखोगी तो वह भी तुम्हें मां समझेगी और एक बेटी की तरह तुम्हारी सेवा करेगी। किन्तु होता क्या है-हम लोग ही पराई बेटी को अपनी बेटी नहीं समझते। उसे हमेशा नौकरानी समझते हैं और ढेर सारा दहेज न लाने के ताने-उलाहने देते हैं। बात-बात पर चोट पहुंचाते हैं उसके आत्म सम्मान को। अब ऐसी स्थिति में कौन बहू होगी जो अपनी सास को मां समझकर उसकी सेवा करेगी? और यदि विवशतावश सेवा करनी भी पड़ी तो क्या उसके हृदय में अपनी ससुराल वालों के लिए सच्चा आदर होगा? खैर छोड़ो-मैं तो यह चाहता हूं कि बहू के लिए दो साड़ियां और एक अंगूठी तो अवश्य होनी चाहिए। कुल मिलाकर चार हजार में बात बन जाएगी।’
‘और अनिल के कपड़े?’
‘उसका प्रबंध मैं कर दूंगा।’
‘आरती का सूट और भारती की साड़ी?’
‘वह भी हो जाएगा। साथ ही एक साड़ी तुम्हारे लिए भी।’
‘मुझे भला साड़ी क्या करनी है? मैं क्या बारात में जाऊंगी?’
राजाराम ने कहा- ‘भाग्यवान! घर में चार मेहमान आएंगे। ऐसे में ढंग की एक साड़ी तो तुम्हारे पास होनी ही चाहिए।’
कौशल्या बोली- ‘उसकी आप बिलकुल चिंता न करें। मैं भारती की साड़ी से काम चला लूंगी। आप मेरी साड़ी के बजाय अपने कपड़े बनवा लें।’
‘कौशल्या! तुम तो बस कौशल्या ही रहीं।’ कहकर राजाराम हंस पड़ा। कौशल्या उठकर बोली- ‘मैं आपके लिए खाना लाती हूं। हां-एक बात और कहनी थी आपसे।’
‘कह दो।’
‘भारती तो अब अपनी ससुराल जाने से रही।’
‘तलाक तो अभी हुआ नहीं है।’
‘हो जाएगा। वैसे भी अब तलाक में कसर ही क्या है। जब दिल ही अलग-अलग हो गए तो संबंध कैसा। अब तो सिर्फ अदालत का फैसला बाकी है।’
‘चलो-वो भी देखा जाएगा।’
‘मैं कुछ और कह रही थी।’
‘वह क्या?’
‘मैं चाहती हूं कि अखिल के बाद कोई अच्छा-सा लड़का देखकर भारती के हाथ पीले कर दें।’
‘किन्तु इसके लिए भारती की सहमति तो आवश्यक है।’
‘वह इंकार न करेगी।’
‘ठीक है-देख लेंगे।’
इसके पश्चात् कौशल्या चली गई और राजाराम फिर से अखबार की सुर्खियां देखने लगे।
मौसम सुहावना था। आकाश में बादल थे और ठंडी हवाएं चल रही थीं। संभवतः दूर कहीं वर्षा हुई थी। मनु एवं निखिल शहर के कोलाहल से दूर सागर सरोवर में नौकर विहार कर रहे थे। मनु उसकी गोद में सर रखे लेटी थी और निखिल धीरे-धीरे चप्पू चला रहा था। चप्पू चलाते समय एकाएक उसे शरारत सूझी और उसने नीचे झुककर मनु को चूम लिया।
मनु अलसाई-सी बोली- ‘सोने दो न बाबा!’
‘क्या-तुम सो रही हो?’
‘हां-आज वर्षों बाद अच्छी नींद आई है।’
‘इसलिए-क्योंकि लहरों पर सोने का मजा ही कुछ और होता है-है न? तो फिर-क्यों न हम एक काम करे?’
‘वह क्या?’
‘क्यों न हम चार-पांच एकड़ भूमि खरीदकर वहां एक तालाब बनवाएं और उसके बीचों-बीच एक महल बनवा दें। हमारा ख्याल है-उस महल में आपको और भी अच्छी नींद आएगी।’
‘विचार तो बुरा नहीं-लेकिन…।’
‘लेकिन क्या?’
मनु ने उठकर अपने बालों पर हाथ फिराया और निखिल से बोली- ‘उस महल का राजा कौन होगा?’
‘राजा तो कोई-न-कोई मिल ही जाएगा। किन्तु उससे पहले यह बताइए कि रानी कौन होगी?’
‘वह भी मिल ही जाएगी।’
‘न मिली तो…?’
‘तो फिर यह समझिए कि आपकी तकदीर ही ठीक नहीं।’
‘नहीं साहब! अपनी तकदीर में तो कोई कमी नहीं।’
‘तकदीर अच्छी होती-तो क्या हम दोनों यों दुनिया से छुपकर मिलते?’
‘दुनिया से छुपकर मिलने में जो आनंद है-वह सबके सामने मिलने में नहीं।’
मनु नीचे झुककर लहरों से खेलने लगी। बोली- ‘इसका अर्थ तो यह है कि आप हमेशा छुपकर ही मिलना चाहते हैं।’
‘जी नहीं। हम तो यह चाहते हैं कि इस दुनिया में हमारी भी एक छोटी-सी दुनिया हो, जिसमें हम हों और हमारी धर्मपत्नी हो।’
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‘आप विवाह क्यों नहीं कर लेते?’
‘वह तो हो चुका है।’
‘कब?’
‘आज से दो वर्ष पहले।’
‘किन्तु दुलहन?’
‘वह हमारे हृदय में रहती है।’
‘बहुत सुंदर होगी?’
‘हां-बहुत ही सुंदर।’ निखिल ने नाव की दिशा बदली और निःश्वास लेकर बोला- ‘इतनी कि देखते ही चांद शरमा जाए और तारे आकाश से धरती पर देखना छोड़ दें।’
‘अच्छा-फिर तो संसार में अंधकार छा जाएगा।’
‘जी नहीं, हमारी दुलहन भी चांद जैसी है। ज्यों ही वह घूंघट हटाएगी-यह संसार उजालों से भर जाएगा।’
मनु ने इस बार कुछ न कहा और पूर्ववत हाथ से लहरों को छेड़ती रही। निखिल उसे यों मौन देखकर बोला- ‘आप क्या सोचने लगीं?’
‘आपकी दुलहन के विषय में।’
‘वह क्या?’
‘न जाने वह आपके हृदय से निकलकर खुले संसार में कब आएगी?’
‘न आए तो अच्छा है।’
‘क्यों?’
‘जमाना अच्छा नहीं। किसी की नजर लग गई तो…?’
‘उसे अपनी बांहों में छुपाकर रखेंगे तो ऐसा न होगा।’ मनु ने कहा। यह सुनकर निखिल ने चप्पू रखा और मनु को खींचकर अपनी बांहों में भर लिया। मनु उसके हृदय से लग गई। निखिल ने उसे चूमकर कहा- ‘मनु!’
‘कहो न।’
‘मनु! यह दूरी-यह युगों-युगों जैसी दूरी अब मुझसे सहन नहीं होती। किसी दिन तकदीर बदल दो न इस अभागे की।’

‘कैसे बदलूं? चारों ओर समाज की दीवारें जो हैं।’
‘तोड़ डालो न उन दीवारों को।’
‘यह असंभव है निक्की!’
‘असंभव कुछ भी नहीं होता मनु! इंसान चाहे तो समाज से तो क्या पूरी दुनिया से भी लड़ सकता है।’
‘कोशिश करूंगी।’ मनु ने कहा।
‘सच कह रही हो न?’ निखिल ने पूछा।
‘हां-बिलकुल सच।’
तभी नाव रुक गई और निखिल ने शीघ्रता से चप्पू उठा लिया।
अभिशाप-भाग-12 दिनांक 02 Mar. 2022 समय 04:00 बजे साम प्रकाशित होगा

