Abhishap by rajvansh Best Hindi Novel | Grehlakshmi
Abhishap by rajvansh

संध्या ने ज्यों ही केक काटा-पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। मेहमानों ने उसे जन्मदिन की मुबारकबाद दी। किन्तु उन मेहमानों में मनु न थी। वह तो इस भीड़ से अलग, गैलरी में खड़ी मानो किसी की प्रतीक्षा कर रही थी।

अभिशाप नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

एकाएक किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा। मनु चौंकी गई। मुड़कर देखा, यह उसका मंगेतर प्रोफेसर आनंद था जो उससे कह रहा था- ‘सॉरी मनु! आने में थोड़ी देर हो गई।’

‘कब आए?’

‘ठीक दस मिनट पहले। केक मेरे सामने ही काटा गया है। तुम्हें हॉल में न पाकर यहां चला आया। आओ-अब चलें।’

‘कहां?’

‘हॉल में-वहां सब लोग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। संध्या तो तुम्हारे विषय में रेणु और तारिका से भी पूछ रही थी।’

‘मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं।’

‘क्यों?’

‘सर में भारीपन है। शोर-शराबा बुरा लगता है।’

‘तो आओ-बाहर चलते हैं। थोड़ी देर इधर-उधर घूमेंगे तो ठीक हो जाएगा।’

‘संध्या क्या सोचेगी?’

‘लौटने पर मैं उससे कह दूंगा कि तुम्हारी तबीयत ठीक न थी। मुझे यकीन है-वह बुरा न मानेगी। आओ।’ कहते हुए आनंद ने उसका हाथ थाम लिया।

मनु इंकार न कर सकी और आनंद के साथ चलकर बाहर आ गई। किन्तु बाहर निकलते ही चौंकी। कोठी के सामने निखिल की गाड़ी खड़ी थी। गाड़ी के समीप खड़ा वह द्वार की ओर ही देख रहा था। नीला सूट, काले जूते और वैसी ही मैचिंग टाई में वह किसी राजकुमार से कम न लगता था।

उसे देखकर मनु के बढ़ते कदम रुक गए। आनंद ने उसे यों रुकते देखकर पूछा- ‘क्या हुआ?’

‘आनंद!’ मनु ने कनखियों से निखिल को देखा और आनंद से बोली- ‘हमारा यों पार्टी से जाना ठीक नहीं।’

‘किन्तु तुम्हारी तबीयत।’

‘तुम ऐसा करो-संध्या से कह दो कि मनु की तबीयत एकाएक बिगड़ गई है और हम लोग निकट के किसी क्लीनिक तक जा रहे हैं।’

‘ठीक है-मैं कहकर आता हूं।’ इतना कहकर आनंद कोठी में चला गया। मनु यही चाहती थी। आनंद के चले जाने पर वह निखिल के समीप आई और बोली- ‘तुम यहां?’

‘देखने आया था तुम्हें। विश्वास था तुम पार्टी में जरूर आओगी।’

‘निखिल!’

‘निक्की न कहोगी?’

‘यह अधिकार मैं खो चुकी हूं।’

‘केवल अपनी ओर से।’ निखिल ने सिगरेट सुलगाई और बोला- ‘मेरी ओर से नहीं। मुझ पर और मेरे जीवन पर तुम्हारा आज भी उतना ही अधिकार है, जितना पहले था।’

‘नहीं-नहीं निखिल!’ मनु बोली- ‘अब अधिकार की बात न कहो। तुम जानते हो-मनुष्य लाख प्रयास करके भी बीते हुए समय को नहीं लौटा पाता। अच्छा होगा कि मुझे भूल जाओ।’

‘एक शर्त पर।’

‘वह क्या?’

‘वह यह कि तुम मुझे भूल जाओगी।’

मनु कोई उत्तर न दे सकी। निखिल उसके चेहरे पर फैले एक-एक भाव को पढ़ने का प्रयास कर रहा था। मनु को यों मौन देखकर उसने पूछा- ‘कर पाओगी ऐसा?’

‘यह संभव नहीं।’

‘तो फिर मुझसे भी मत कहो कि भूल जाओ। प्यार तो दोनों ने किया है। फिर उसकी सजा केवल मुझे ही क्यों?’

‘सोचती थी-तुम्हारे लिए यह सरल होगा।’

‘नहीं मनु! यह सरल नहीं। यदि सरल होता तो तुम्हारी स्मृतियां मुझे फिर यहां आने पर विवश न करतीं। तुम्हारी स्मृतियों ने मुझे कितनी पीड़ा दी है, यह तुम न जान पाओगी। यदि तुम्हें भूलना आसान होता तो मैंने तुम्हारी याद में इतने आंसू न पिए होते।’

‘निक्की-निक्की मुझे दुःख है कि…।’

‘मत दुखी करो अपने आपको। मैंने पहले ही कहा है कि तुम बेवफा न थीं।’

‘किन्तु आज तो…।’

‘नहीं मनु! मैं तुम्हें आज भी बेवफा नहीं कहूंगा। यह जानकर भी नहीं कि तुम प्रोफेसर आनंद से विवाह कर रही हो। जानती हो क्यों? क्योंकि यह विवाह तुम्हारी नहीं-तुम्हारे पापा की इच्छा से हो रहा है। तुम्हारी आत्मा का इस संबंध से कोई लगाव नहीं। और जब आत्मा ही किसी रिश्ते को स्वीकार न कर रही हो तो इसमें बेवफाई कैसी?’

निखिल यह सब एक ही सांस में कह गया और फिर मनु को ध्यान से देखने लगा।

मनु के चेहरे पर विचारों का तूफान फैला था। वह कुछ कहना ही चाहती थी कि एकाएक कोठी से निकलते आनंद को देखकर यों चेहरा घुमा लिया-मानो निखिल को जानती ही न हो।

फिर भी निखल ने उससे कहा- ‘कल सायं ठीक छह बजे मैं रोशनी बाग में तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।’ इसके उपरांत वह गाड़ी में बैठा और फिर उसकी गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई।

तभी आनंद आ गया।

‘मिस शिल्पा!’ निखिल ने अपने गिलास से शराब का अंतिम घूंट भरा और निकट खड़ी लड़की से कहा- ‘प्यार, वफा-वादे और कसमें-इन सब बातों पर हम यकीन नहीं करते। हमने प्यार को घृणा में बदलते देखा है। वफा को जफा में बदलते देखा है और कसमों को कच्चे धागों की तरह टूटते देखा है। इसलिए भूल जाओ इन शब्दों को। मत कहो कि तुम हमसे प्यार करती हो।’

शिल्पा का चेहरा उतर गया। निखिल की ओर से उसे ऐसे उत्तर की आशा न थी। फिर भी उसने कुछ न कहा और निखिल के लिए दूसरा गिलास तैयार करने लगी।

‘वैसे।’ निखिल फिर बोला- ‘इसका अभिप्राय यह नहीं कि हम तुम्हें नापसंद कर रहे हैं। तुम सुंदर हो-तुम्हारे अंदर वह सब है जो किसी भी पुरुष को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुम एक प्रतिभाशाली लड़की हो।’

‘थैंक्यू सर! आपने मेरे अंदर कुछ तो देखा।’ इतना कहकर शिल्पा ने गिलास निखिल की ओर बढ़ा दिया और एकाएक कुछ सोचकर बोली- ‘वैसे, एक बात पूछूं सर?’

‘वह क्या?’

‘आपने वास्तव में कभी किसी से प्यार नहीं किया?’

‘किया था।’

‘शायद मंजिल न मिली होगी।’

‘हां।’

‘बेवफा कौन था-वह अथवा आप?’

‘वह।’

‘आपकी प्रेमिका?’

‘हां।’ निखिल ने घृणा से कहा- ‘उसे प्यार की नहीं-दौलत की जरूरत थी। उसे प्रेमी के रूप में एक ऐसे साथी की जरूरत थी, जो उसे हर रोज चांदी के सिक्कों में तोलता। जिसके पास आलीशान बंगला होता, नौकर होते, कार होती। मेरी प्रेमिका के लिए प्यार का कोई महत्व न था, उसके लिए महत्व था सिर्फ दौलत का। और इसीलिए उसने मुझे ठुकरा दिया। तोड़ डालीं सब कसमें, झुठला दिए वादे। खून कर दिया मेरे प्यार का।’

‘और।’ शिल्पा उसके समीप बैठ गई और बोली- ‘यह सब इसलिए हुआ-क्योंकि उस समय आपके पास दौलत न थी?’

‘हां।’ गिलास से एक घूंट भरकर निखिल बोला- ‘क्योंकि मैं निर्धन था। किन्तु उसके इस व्यवहार ने-उसकी बेवफाई ने मुझे बहुत बड़ी शिक्षा दी। उसने मुझसे बताया कि प्यार के किस्से सिर्फ किताबों में अच्छे लगते हैं। अन्यथा-हकीकत की दुनिया में कोई किसी से प्यार नहीं करता। धरती के इस छोर से लेकर उस छोर तक कहीं प्यार का महत्व नहीं। महत्व है तो सिर्फ दौलत का?’

शिल्पा मौन रही।

नशे की अधिकता के कारण निखिल ने उसे अपनी ओर खींच लिया और बोला- ‘और जानती हो-ठीक एक वर्ष पश्चात्, तब मैं उससे एक अमीर व्यक्ति के रूप में मिला तो क्या हुआ? उसकी आंखें भर आईं मुझे देखकर-उसे पश्चाताप हुआ बीते समय पर! प्यार उमड़ आया उसके हृदय में मेरे लिए!’ कहकर निखिल हंस पड़ा।

शिल्पा ने गिलास उसके होंठों से लगाकर कहा- ‘लीजिए-इसे खाली कीजिए और सब कुछ भूल जाइए।’

निखिल ने गिलास खाली कर दिया।

तभी इंटरकॉम बजा।

शिल्पा ने रिसीवर उठाकर निखिल को दिया तो वह बोला- ‘यस।’

‘सर! मिस्टर पंकज आए हैं।’

‘ठीक है-भेज दो।’ कहकर निखिल ने रिसीवर रखा और शिल्पा से बोला- ‘शिल्पा! यह सब उठाओ और अपने केबिन में बैठो।’

‘किन्तु सर!’

‘एक जरूरी मीटिंग है।’

‘ठीक है सर!’

फिर शिल्पा चली गई और निखिल एक सिगरेट सुलगाकर उसके हल्के-हल्के कश खींचने लगा। ठीक उसी समय द्वार खोलकर किसी ने शिष्टता से कहा- ‘श्रीमान! क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’

‘यस-कम इन।’

आगंतुक ने अंदर प्रवेश किया। आयु 40 वर्ष के आस-पास, खिचड़ी बाल और आंखों में संसार भर की निराशा। निखिल के सम्मुख आते ही वह बोला- ‘पंकज-पंकज शर्मा!’

‘बैठिए।’

पंकज शर्मा बैठ गया।

निखिल ने उससे पूछा- ‘क्या करते हैं?’

‘सर! मैं राइटर हूं। अखबार में आपकी कंपनी का विज्ञापन देखकर आया हूं।’

‘क्या-क्या लिखा है आज तक?’

‘बहुत कुछ लिखा है सर! सैकड़ों कहानियां, उपन्यास और यहां तक कि कविताएं भी।’

‘क्या मिला इतना सब लिखकर?’

‘सिर्फ निराशा और ठोकरें। बहुत कोशिश की सर! बहुत से लोगों से मिला। किन्तु उन्होंने मुझे छापना तो दूर मुझसे बात तक न की।’

‘इसमें लोगों का नहीं-आपका दोष था। आप जमाने के साथ नहीं चले। आपने केवल वह लिखा, जो आप चाहते थे। आपने वह नहीं लिखा जो लोग चाहते थे। ये ही बातें आपकी असफलता का कारण रहीं। आप राइटर होकर भी जिंदगी की यह सच्चाई नहीं समझे कि जो लोग जमाने के साथ नहीं चलते-जमाना उन्हें ठोकर मार देता है।’

‘मैं-मैं समझा नहीं सर!’

‘मिस्टर पंकज! आप कल आइए। मैं आपको सब कुछ समझा दूंगा। किन्तु यह सोचकर आइए कि आपको लिखना है। आपको वह नहीं लिखना है, जो आप चाहते हैं। बल्कि आपको वह लिखना है जो मैं चाहता हूं। मैं आपको आकाश की ऊंचाइयों पर पहुंचाने का वादा तो नहीं करता, किन्तु इतना अवश्य विश्वास दिलाता हूं कि आप भूखे पेट न सोयेंगे। और हां-एक बात और। यदि आप स्वयं को आदर्शवादी मानते हैं-तो अपने आदर्शों को घर छोड़ आइए। क्योंकि मुझे सिर्फ आपकी कलम की जरूरत रहेगी-आपके आदर्शों की नहीं।’

‘ठीक है सर!’ पंकज शर्मा ने कहा और उठ गया।

‘आप आएंगे न कल?’ निखिल ने पूछा।

‘यस सर! मैं जरूर आऊंगा।’

इतना कहकर पंकज शर्मा चला गया और निखिल सोफे की पुश्त से सट गया।

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