Overview:स्क्रीन कितनी ठीक? बच्चों के मूड पर इसका सीधा असर
आज के डिजिटल दौर में बच्चे घंटों मोबाइल, टीवी या टैबलेट पर बिताते हैं, और इसका सीधा असर उनके मूड और व्यवहार पर पड़ता है। रिसर्च बताती है कि ज्यादा स्क्रीन टाइम बच्चों में चिड़चिड़ापन, ध्यान की कमी, बेचैनी और नींद की समस्याओं को बढ़ा सकता है। छोटी उम्र में लंबे समय तक स्क्रीन से जुड़ाव दिमाग के भावनात्मक विकास को प्रभावित करता है, जिससे बच्चे अक्सर तनाव, एंग्जायटी या सामाजिक दूरी जैसी समस्याएँ महसूस करते हैं।
Screen Time and Kid Emotions: आजकल हर पैरेंट्स के सामने एक बड़ा सवाल है, बच्चों को कितना स्क्रीन टाइम देना ठीक है? चाहे छोटा बच्चा कार्टून देख रहा हो या टीनएजर सोशल मीडिया में डूबा हो, स्क्रीन अब हर घर का हिस्सा बन गई है। अक्सर पेरेंट्स देखते हैं कि बच्चे का मूड बदल जाता है, स्क्रीन देखने के बाद चिड़चिड़ापन, ध्यान लगाने में दिक्कत, या फिर डिवाइस बंद करने पर गुस्सा करना। ये छोटी-छोटी बातें लगती हैं, लेकिन इनका सीधा असर बच्चों के इमोशनल हेल्थ पर पड़ता है।
जब स्क्रीन टाइम बच्चों की इमोशन्स को कंट्रोल करने लगता है

बच्चे असली दुनिया में रहकर ही सीखते हैं कि कैसे अपने इमोशन्स को संभालना है, दूसरों से बात करनी है, और ध्यान लगाना है। लेकिन जब ज़्यादा समय मोबाइल या टीवी पर जाता है, तो दिमाग हमेशा तेज़ी से चलने वाले विजुअल्स और इंस्टेंट रिवॉर्ड्स का आदी हो जाता है। इससे बच्चे बेचैन हो जाते हैं और उन्हें शांत चीज़ें जैसे किताब पढ़ना या बाहर खेलना बोरिंग लगने लगता है।
सारी स्क्रीन टाइम बुरी नहीं होती। अगर बच्चा पैरेंट्स के साथ एजुकेशनल प्रोग्राम देख रहा है, या परिवार से ऑनलाइन बात कर रहा है, तो वो फायदेमंद भी हो सकता है। दिक्कत तब होती है जब स्क्रीन असली बातचीत, क्रिएटिव खेल या आराम की जगह लेने लगती है।
दिमाग के अंदर क्या होता है
जब बच्चे कोई मज़ेदार वीडियो देखते हैं या गेम जीतते हैं, तो उनके दिमाग में डोपामिन नाम का “फील-गुड” केमिकल रिलीज़ होता है। बार-बार ऐसा होने से दिमाग को वही “हाई” बार-बार चाहिए होता है। नतीजा ये कि रोज़मर्रा की चीज़ें उन्हें बोरिंग लगने लगती हैं, और जब स्क्रीन छीन ली जाती है तो गुस्सा या उदासी आ जाती है।
नींद और मूड का कनेक्शन
शाम या रात में स्क्रीन इस्तेमाल करने से नींद पर असर पड़ता है। मोबाइल और टैबलेट की ब्लू लाइट मेलाटोनिन हार्मोन को दबा देती है, जिससे नींद आने में देर होती है। ऐसे बच्चे सुबह उठकर थकान, चिड़चिड़ापन या ध्यान की कमी महसूस करते हैं। लंबे समय तक ऐसा चलने से एंग्जायटी और मूड स्विंग्स भी बढ़ सकते हैं।
टीनएजर्स और सोशल मीडिया का जाल
टीनएजर्स के लिए सोशल मीडिया सबसे बड़ी चुनौती है। ये उन्हें दोस्तों से जोड़ता है, लेकिन साथ ही दूसरों से तुलना करने और “लाइक” पाने के दबाव में भी डाल देता है। इससे आत्मविश्वास कम हो सकता है और कई बार बच्चे खुद को पर्याप्त नहीं समझते।
कैसे करें बच्चों को गाइड?

स्क्रीन को पूरी तरह बंद करने की ज़रूरत नहीं है, बस संतुलन और समझदारी से इस्तेमाल जरूरी है। छोटे बच्चों के लिए दिन में लगभग 1 घंटा एजुकेशनल कंटेंट काफी है। बड़े बच्चों के लिए तय समय और जगह तय करें, जैसे खाने के वक्त या सोने से पहले मोबाइल नहीं। परिवार के साथ समय बिताना, बाहर खेलना, या फोन-फ्री शामें रखना बहुत असरदार है। बच्चे वही करते हैं जो वे अपने पेरेंट्स को करते हुए देखते हैं। अगर मम्मी-पापा खुद स्क्रीन सीमित करेंगे, तो बच्चे भी वैसा ही सीखेंगे।
डिजिटल दुनिया में इमोशनल मजबूती
टेक्नोलॉजी बुरी नहीं है, अगर सही तरीके से इस्तेमाल हो। ये सीखने और जुड़ने का शानदार माध्यम है, लेकिन इसे असली बातचीत, नींद और खेल की जगह नहीं लेनी चाहिए। पेरेंट्स अगर समझदारी से स्क्रीन टाइम गाइड करें और बच्चों के डिजिटल एक्सपीरियंस में शामिल रहें, तो वे बच्चों को इमोशनली मज़बूत और डिजिटली बैलेंस्ड बनाने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
Input by-डॉ. सुप्रिया मलिक, eMbrace X रेनबो चिल्ड्रन्स हॉस्पिटल, मधुकर, दिल्ली
