अभय की खोज हमारे जीवन की महत्त्वपूर्ण खोज है। हम अभय बनें, डरना छोड़ें। जिस व्यक्ति ने अभय का पाठ नहीं पढ़ा, उसका विचार सही नहीं होगा। उसका विचार भय से प्रभावित विचार होगा। दूसरी बात है, समता में से जो विचार स्फूर्त होता है वह विचार संतुलित होता है। जहां हीनता और अहंकार की ग्रंथि आ जाती है वहां विचार अस्वस्थ बन जाता है, विकृत बन जाता है। एक बड़ी कसौटी है स्वस्थ विचार के परीक्षण की कि विचार समता की दृष्टि से किया गया है या नहीं किया गया है। मुझे लगता है, आदमी का जीवन प्राय: दो प्रकार के संवेदनों में ही बीतता है। प्रियता का संवेदन और अप्रियता का संवेदन। विचार की पृष्ठभूमि का यदि हम सूक्ष्म विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि कहीं न कहीं सूक्ष्म बात छिपी हुई है- प्रियता और अप्रियता छिपी हुई है। ऐसा विचार जिसके साथ, जिसकी पृष्ठभूमि में, प्रियता और अप्रियता दोनों न हों, भाग्य से ही शायद वर्षों में आता होगा। हम सोचें, वही बात एक प्रिय व्यक्ति कहता है, बहुत अच्छी लगती है और सारा विचार बदल जाता है और वही बात उन्हीं शब्दों में कोई अप्रिय व्यक्ति कहता है तब मन में घृणा और तिरस्कार का भाव जाग जाता है। यह क्यों? हम विचार की स्वस्थता पर विचार कर रहे हैं। बहुत ध्यान से देखें तो यह बात छिपी हुई नहीं रहेगी कि जिस विचार को हम स्वस्थ मानते हैं वह विचार भी बहुत अस्वस्थ हो जाता है- इस पक्षपात के कारण और प्रियता और अप्रियता की अनुभूति से जुड़े होने के कारण।

हमारे जीवन में अनेक घटनाएं घटित होती हैं। उन घटनाओं के पीछे दो सबसे बड़े कारण होते हैं- राग और द्वेष, प्रियता और अप्रियता। रुचि और अरुचि, प्रियता और अप्रियता, राग और द्वेष, आकर्षण और विकर्षण- ये हमें बांट लेते हैं। हमारा ऐसा कोई धरातल नहीं जहां हम इनसे हटकर सोच सकें, विचार कर सकें।

आदमी बुराइयां करता है, अप्रमाणिक व्यवहार करता है, दूसरों को धोखा देता है, ये सारे चिंतन, ये सारे मनोभाव कहां उभरते हैं? एक ओर प्रियता खींच रही है कि यह मेरा परिवार, मेरा पुत्र मेरी पत्नी सुखी रहे। मेरा घर बड़ा बने, मेरे पास अपार धन हो, पदार्थ की कमी न रहे। जहां प्रियता होगी वहां अप्रियता निश्चित ही होगी, कहने की जरूरत नहीं। एक आदमी बाजार में जाता है और पूरी छानबीन करके शुद्ध घी अपने घर में ले जाना चाहता है, क्योंकि वह अपने परिवार को मिलावटी चीजें खिलाना नहीं चाहता। और वही व्यक्ति दवा बेचता है तो मिलावटी दवा बेच देता है दूसरों को, क्योंकि उसमे अप्रियता है, प्रियता नहीं है। इसलिए वहां संकोच भी नहीं होता कि मैं क्या कर रहा हूं। समत्व का कोण विकसित हुए बिना विचारों की जो मलिनता है, विचारों का जो द्वन्द्व है उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। ध्यान का एक काम होता है प्रियता और अप्रियता के संवेदन से परे हटकर समता के अनुभव को जगा देना। जिस ध्यान के द्वारा समता का अनुभव नहीं जागता वह वास्तव में ध्यान नहीं हो सकता।

धर्म एक आग बने, सब लोगों का ध्यान आकॢषत हो कि यह आग है, ध्यान रखना होगा, तब अपने आप उसके प्रति सावचेतता होगी। मैं सोचता हूं कि धर्म की यह निर्बल अवस्था इसलिए बनी कि उसके साथ ध्यान छूट गया। आन्तरिक चेतना का स्पर्श छूट गया। केवल बाह्यï चेतना का प्रभाव जुड़ा रहा और धर्म निष्प्रभावी हो गया। जब तक आग राख से ढकी हुई आग होगी, ज्योत कभी प्रकट नहीं होगी। ज्योति तभी प्रकट होगी जब राख को हटा दिया जाए, राख को हटाकर आग को शुद्ध रूप में प्रकट किया जाए। ध्यान एक प्रक्रिया है विचार पर आई राख को हटा देने की। जो व्यक्ति राख को हटा देता है, उसकी ज्योति आंच में पका हुआ होगा, सोने की भांति निर्मल होगा, सारे जीवन को प्रभावित और चमक देने वाला होगा। 

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