प्रशन आता है कि आदमी प्रिय-अप्रिय संवेदनों को कैसे कम करे? जीवन के ये दो तत्त्व हैं- प्रियता और अप्रियता। इनसे प्रत्येक व्यक्ति संदानित है। इनसे छुटकारा पाना सहज-सरल नहीं है। पर ये निरुपाय नहीं है। जो व्यक्ति प्रिय-अप्रिय संवेदनों से मुक्त होना चाहता है। वह ज्योति-केंद्र पर ध्यान करे। यह एक अनुभूत और महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। इस प्रयोग से कषाय-विजय होती है। प्राण-केन्द्र पर ध्यान करने से प्रमाद आश्रव पर विजय प्राप्त होती है। प्रमाद अनुत्साह पैदा करता है, चेतना को अलस और मन्थर बनाता है, निष्क्रिय बनाता है। जो व्यक्ति प्राण-केन्द्र को साध लेता है वह प्रमाद से छुट्टी पा लेता है उसके मन में अरति नहीं होती, आर्त्त भावना कम हो जाती है। उसका मन विपदाओं से मुक्त हो जाता है। पदार्थनिष्ठ रस समाप्त होने लग जाता है।

वही रस बचता है जो जीवन के लिए अनिवार्य होता है। ध्यान करने वाला व्यक्ति आवश्यकता को नहीं खोता, किन्तु जीवन की व्यर्थताओं से बच जाता है। प्रत्येक आदमी लेखा-जोखा करके देखे तो सही कि वह जीवन में आवश्यक कार्य कितना करता है और कितने व्यर्थ। जीवन की बात छोड़ दें, वर्षभर की बात रहने दें, वह प्रतिदिन यह लेखाजोखा करके देखे कि पूरे दिन में आवश्यक कितना किया और अनावश्यक कितना किया? यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि सामान्यत: आदमी सत्तर-अस्सी प्रतिशत अनावश्यक काम करता है। ध्यान का अर्थ निष्क्रिय और अकर्मण्य हो जाना नहीं है। ध्यान का अर्थ है- अनावश्यक से निष्क्रिय हो जाना और आवश्यक में सक्रिय हो जाना और उसी में सारी शक्ति का नियोजन कर देना। सुघड़ता और कुशलता बढ़ती जाए यह हमारी कौशल-वृद्धि का उपाय है। यह हमारी कुशलता का दर्शन है, सक्रियता का दर्शन है। ध्यान अकर्मण्यता या निष्क्रियता का दर्शन नहीं है।

यह कहना सच है कि समाज के शतप्रतिशत लोग विफलता का काम करते हैं और सफलता का काम पांच-दस प्रतिशत लोग करते हैं। असफलता के जितने काम हैं, हर आदमी उनका आचरण करता है। सफलता के काम का आचरण हर आदमी नहीं करता। यदि सारे लोग सफलता के कार्य का आचरण करते तो वही प्रश्न उपस्थित होता जो पुराने जमाने में उपस्थित हुआ था। धर्म-स्थान में भीड़ को देखकर एक आदमी ने संतों से कहा-महाराज! ये सारे लोग धार्मिक लोग हैं, धर्म करने वाले हैं, अब स्वर्ग में इतनी भीड़ हो जाएगी कि वहां स्थान ही खाली नहीं मिलेगा। जैसे आज के वैज्ञानिकों को भी ऐसी ही चिंता है कि यदि आबादी इस रफ्तार से बढ़ती गई तो वह दिन दूर नहीं है, जिस दिन भूमि पर आदमी को पैर रखने की जमीन भी नहीं मिल पाएगी। ध्यान यदि विफलता का सूत्र होता तो यहां बड़ी भीड़ लग जाती। सब के सब लोग ध्यानी बन जाते। स्वर्ग में अपार भीड़ हो जाती। ध्यान सफलता का सूत्र है इसीलिए उसे सभी लोग अपनाने में झिझकते हैं।

उन्हें संदेह होता है कहीं सफल हो न जाऊं। प्रमाद को निरस्त करने का तथा सफलता की उपलब्धि का एक महत्त्वपूर्ण उपाय है- प्राणकेंद्र और दर्शनकेंद्र पर ध्यान करना। एक समस्या और है। वह है बाहरी आकर्षण। उसका भी संतुलन अपेक्षित होता है। बाहरी आकर्षण के साथ-साथ भीतरी आकर्षण भी पैदा करें। दोनों का संतुलन साधें, जिससे बाहर की गति में अवरोध न हो और भीतर की बेचैनी न बढ़े, भीतर का असंतोष न उभरे। आकर्षण और अतृप्ति पर नियंत्रण करने का उपाय हैविशुद्धिकेंद्र पर ध्यान करना और आनन्दकेंद्र की प्रेक्षा करना। ये दो उपाय ऐसे हैं, जिनसे भीतर का आकर्षण बढ़ता है, बाहर का आकर्षण कम होता है। आनंद-केंद्र वह महान द्वार है, जो हमें अंदर प्राविष्ट à¤•राता है।

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