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सावन मास में भगवान ‘आशुतोष शंकर’ की पूजा का विशेष महत्त्व है। सावन मास में जो प्रतिदिन पूजन न कर सके उसे सोमवार को शिव पूजा, व्रत आदि अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए क्योंकि सोमवार ‘भगवान शिव’ का प्रिय दिन है। सावन सोमवार की महत्ता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। सावन में पार्थिव शिव-पूजा का विशेष महत्त्व है। अत: प्रतिदिन अथवा प्रति सोमवार तथा प्रदोष को शिव-पूजा या पार्थिव-पूजा को अवश्य करना चाहिए। इस मास में लघुरुद्र, महारुद्र, अथवा अतिरुद्र का पाठ कराने का विधान है। सावन मास में जितने भी सोमवार पड़ते हैं उन सब में शिव जी का व्रत किया जाता है। इस व्रत में प्रात: गंगा स्नान अन्यथा किसी पवित्र नदी या सरोवर में अथवा घर में ही स्नान करके शिव मन्दिर में जाकर स्थापित शिवलिंग का या अपने घर में पार्थिव मूर्ति बनाकर यथाविधि षोडशोपचार-पूजन किया जाता है।

धर्म में स्वाध्याय का महत्त्व

यथा संभव विद्वान ब्राह्मण से रुद्राभिषेक कराना चाहिए। इस व्रत में श्रावण माहात्म्य एवं श्री शिवपुराण की कथा सुनने का विशेष महत्त्व है। पूजन के पश्चात ब्राह्मण-भोजन कराकर एक ही बार भोजन करने का विधान है। भगवान शिव का यह व्रत सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। श्रावणी पर्व अर्थात्‌ स्वाध्याय पर्व, वैदिक धर्म में स्वाध्याय की सर्वोपरि प्रधानता और महिमा का बार-बार वर्णन किया गया है। चारों वर्णों में प्रथम वर्ण ब्राह्मण का मुख्य कर्तव्य स्वाध्याय ही है। क्षत्रिय एवं वैश्य की भी द्विजन्मा संज्ञा स्वाध्याय से होती है। स्वाध्याय से यह शरीर ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है। इसलिए इसमें प्रवृत्त रहने के लिए कहा गया है।

मनुस्मृति में ब्राह्मण के लिए पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना-लेना ही ब्राह्मण का कर्तव्य है। गृहस्थ के पश्चात वानप्रस्थ का भी प्रधान कर्तव्य स्वाध्याय एवं तप ही रह जाता है। संन्‍यासी का भी समय परमतत्त्व चिन्तन एवं उपदेश के अंगीभूत स्वाध्याय में ही व्यतीत होता है। संन्यासी के लिए आज्ञा है कि सब कर्मों को त्याग दें केवल वेद को न त्यागे। स्वाध्याय को इतना महत्त्व देने का उद्देश्य यही है कि जिस प्रकार शरीर की स्थिति और उन्नति अन्न से होती है। उसी प्रकार सारे शरीर के राजा मन का भी उत्कर्ष एवं शिक्षण स्वाध्याय से होता है। स्वाध्याय के सातत्य (निरंतरता) से ही मानसमुकुर दर्पण जैसा स्वच्छ एवं पारदर्शी बन जाता है। इसी को मंत्र-दर्शन भी कहते हैं। मंत्र दर्शन से ही मनुष्य ऋषि बन जाते हैं अथवा मंत्र दृष्ठ ही ऋषि कहलाते हैं।अत: ऋषियों के ग्रन्थों का अर्थात्‌ आर्षग्रंथों का ही स्वाध्याय करना चाहिए। जो वस्तु जिसको प्रिय है उसी से उसकी पूजा एवं तृप्ति की पित्त है। अर्थात्‌ स्वाध्याय से ऋषियों की, होम से देवों की, श्राद्ध से पितरों की, अन्न से मनुष्यों की, बलिकर्म से – अन्न प्रदान से शुद्र प्राणियों की यथाविधि पूजा करें। हमारे देश में प्राचीन परम्परानुसार यहां पर वेद-पाठ नित्य ही होता था, किन्तु वर्षा ऋतु में वेद के परायण विशेष आयोजन किया जाता था, उस पर बहुत बल दिया जाता। इसका कारण यह था कि भारत वर्ष कृषि प्रधान देश है। यहां की जनता आषाढ़ एवं श्रावण में कृषि-कार्य में व्यस्त रहती है। श्रावणी की जुलाई-बुवाई आषाढ़ से प्रारम्भ होकर श्रावण के अन्त तक समाप्त हो जाती है।

उधर ऋषि-मुनि, संन्यासी एवं महात्मा लोग भी वर्षा के कारण अरण्य एवं वनस्थली को छोड़कर ग्रामों की ओर आकर रहने लगते थे और वहीं वेदाध्ययन, धर्मोपदेश तथा ज्ञानचर्चा में अपना चातुर्मास बिताते थे। श्रद्धालु लोग उनके पास जाकर वेदाध्ययन, उपदेश- श्रवण में अपना समय बिताते थे। साथ ही ऋषि जनों की सेवा करते थे। इसीलिए यह समय ऋषि तर्पण भी कहलाता है। यह वेदाध्ययन, श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को प्रारम्भ किया जाता था, अत: इसे श्रावणी उपाकर्म कहा जाता है।

श्रावणी और वेदों का संबंध

चिरकाल के पश्चात वेद के पठन-पाठन का प्रचार न्यून हो जाने पर साढ़े चार मास तक नित्य वेदपरायण की परिपाटी उठ गयी और लोग प्राचीन उपाकर्म एवं उत्सर्जन के स्मारक रूप में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को एक ही दिन उपाकर्म तथा उत्सर्जन की विधियों को पूरा करने लगे। काल के प्रभाव से इस पर्व पर वेद-स्वाध्यायात्मक ऋषि-तर्पण का लोप सा हो गया। होम यज्ञ का प्रचार भी उठ गया। आजकल श्रावणी कर्म का स्वरूप यह है कि धार्मिक आस्थावान यज्ञोपवीतधारी द्विज श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को गंगा आदि नदी अथवा किसी पवित्र सरोवर- तालाब में या जलाशय पर जाकर सामूहिक रूप से सम्पन्न करते हैं। तदुपरांत नवीन यज्ञोपवीत का पूजन, पितरों तथा गुरुजनों को यज्ञोपवीत दानकर स्वयं नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। श्रावणी करते हैं। श्रावणी पर्व से वेदाध्ययन का सीधा संबंध है। श्रावणी पर्व मनाने का उत्तम तरीका यह है कि वेदादि शास्त्रों का स्वाध्याय इस पर्व से अवश्य ही प्रारंभ किया जाए। स्वाध्याय जीवन का अंग होना चाहिए। स्वाध्याय आर्यों के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना आर्यों का परम धर्म है। शतपथ ब्राह्मण में स्वाध्याय की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि स्वाध्याय करने वाला सुख की नींद सोता है। युक्तमना होता है। अपना परम चिकित्सक होता है। उसमें इन्द्रियों का संयम एवं एकाग्रता आती है। साथ ही प्रज्ञा की अभि​वृद्धि​ होती है।

श्रावणी पर्व पर यज्ञोपवीत बदलने की प्रथा भी है। यज्ञोपवीत के तीन सूत्र- पितृ-ऋण, देव, एवं ऋषि ऋण आदि कर्तव्यों का बोध कराता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि जो तन्तु यज्ञोपवीत-तन्तु यज्ञों का प्रसाधक है उसको हम धारण करें। अत: प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि अपनी संस्कृति को स्मरण करते हुए स्वाध्याय को अपने जीवन का अभिन्न अंग बताने में तत्पर रहें तथा कम से कम वर्ष में एक बार आने वाले श्रावणी उपाकर्म में अवश्य सम्मिलित होकर वर्ष भर में जाने-अनजाने होने वाले अपराधों का प्रायश्चित द्वारा निराकरण कर लें।

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