त्रेतायुग में ही महर्षि वाल्मीकि सातों महाद्वीपों में पूज्यनीय हो गए थे। सातों महाद्वीपों में महर्षि वाल्मीकि के जीवन से संबंधित अलग-अलग कहानियां प्रचलित रही हैं। प्राचीन काल में सातों महाद्वीपों के निवासियों ने महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण को सबसे पवित्र ग्रंथ स्वीकार किया। इतिहासकारों का एक वर्ग ऐसा मानता है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में रामायण वहां पहुँच गयी थी। इनके अतिरिक्त अन्य साक्ष्यों से यह भी ज्ञात होता है कि रामकथा दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रवाहित हो रही थी। इतिहासकार एवं रामायण के विद्वानों का मत है कि प्राचीन जावानी भाषा में विरचित रामायण का काबीन है। जिसकी तिथि नौवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। पंद्रहवी शताब्दी में इंडोनेशिया के इस्लामीकरण के बावजूद वहां जवानी भाषा में सेरतराम, सेरत कांड, राम केलिंग आदि अनेक रामकथा काव्यों की रचना हुई। जिनके आधार पर अनेक विद्वानों द्वारा वहां के राम साहित्य का विस्तृत अध्ययन किया गया है। कंपूचिया के अनेक शिलालेखों में रामकथा की चर्चा हुई है। वहां उस पर आधारित मात्र एक कृति रामकेर्ति उपलब्ध है। चंपा अर्थात वर्तमान वियतनाम के एक प्राचीन शिलालेख में वाल्मीकि के मंदिर का उल्लेख है। वहां रामकथा के नाम पर मात्र लोक कथाएं ही उपलब्ध हैं। लाओस के निवासी स्वयं को भारतवंशी मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि कलिंग युद्ध के बाद उनके पूर्वज इस क्षेत्र में आकर बस गये थे। फ्रलक फ्रलाम (रामजातक), ख्वाय थोरफी, ब्रह्मचक्र और लंका नोई यह रचनाएं यहां आज भी उपलब्ध हैं।
थाईलैंड
थाईलैंड में रामकथा पर आधारित प्रमुख रचनाएं हैं :-
1. तासकिन रामायण,
2. सम्राट राम प्रथम की रामायण,
3.सम्राट राम द्वितीय की रामायण,
4. सम्राट राम चतुर्थ की रामायण (पद्यात्मक),
5. सम्राट रामचतुर्थ की रामायण (संवादात्मक), और
6.सम्राट राम षष्ठ की रामायण (गीति-संवादात्मक)।
बर्मा
बर्मा में रामकथा साहित्य के सोलह ग्रंथ मिलते हैं। इसमें रामवत्थु प्राचीनतम कृति है।
मलेशिया
मलयेशिया में रामकथा से संबद्ध चार रचनाएँ उपलब्ध है –
1.हिकायत सेरी राम,
2.सेरी राम,
3. पातानी रामकथा, और
4. हिकायत महाराज रावण।
फिलिपींस
फिलिपींस की रचना ‘महालादिया लावन’ का स्वरुप रामकथा से बहुत मिलता-जुलता है। विद्वानों का मत है कि इसका कथ्य बिल्कुल विकृत है।
चीन
चीन में रामकथा बौद्ध जातकों के माध्यम से पहुँची थीं। चीन में दो ग्रंथ मिले हैं। यथा –
1.अनामक जातक और
2.दशरथ कथानम।
इन दोनों ग्रंथों का क्रमश: तीसरी और पाँचवीं शताब्दी में अनुवाद किया गया था। दोनों रचनाओं के चीनी अनुवाद उपलब्ध हैं।
तिब्बत
तिब्बती रामायण की छह पांडुलिपियाँ तुन-हुआन नामक स्थल से प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त वहाँ राम कथा पर आधारित दमर-स्टोन तथा संघ श्री विरचित दो अन्य रचनाएँ भी हैं।
तुर्किस्तान
तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है। यहां की भाषा खोतानी है। खोतानी रामायण की प्रति पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से प्राप्त हुई है। इस पर तिब्बत्ती रामायण का प्रभाव परिलक्षित होता है।
मंगोलिया
मंगोलिया में राम कथा पर आधारित जीवक जातक नामक रचना है। इसके अतिरिक्त वहाँ तीन अन्य रचनाएँ भी हैं जिनमें रामचरित का विवरण मिलता है।
जापान
जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह होबुत्सुशु में संक्षिप्त रामकथा संकलित है। इसके अतिरिक्त वहां अंधमुनिपुत्रवध की कथा भी है।
श्रीलंका
श्री लंका में कुमार दास के द्वारा संस्कृत में जान की हरण की रचना हुई थी। वहां सिंहली भाषा में भी एक रचना है – मलयराजकथाव।
नेपाल
नेपाल में रामकथा पर आधारित अनेक रचनाएँ जिनमें भानुभक्त कृत रामायण सर्वाधिक लोकप्रिय है।
इंडोनेशिया की रामकथा : काकावीन
वर्तमान इंडोनेशिया में नब्बे प्रतिशत आबादी मुसलमान की हैं। इसके बावजूद उनकी संस्कृति पर रामायण की गहरी छाप है। फादर कामिल बुल्के (1982 ईस्वी) लिखते हैं – “पैंतीस वर्ष पहले मेरे एक मित्र ने जावा के किसी गांव में एक मुस्लिम शिक्षक को रामायण पढ़ते देखकर पूछा था – “आप रामायण क्यों पढ़ते है?”
उस मुस्लिम शिक्षक ने उत्तर दिया- “मैं और अच्छा मनुष्य बनने के लिए रामायण पढ़ता हूँ।”
यहां उपलब्ध प्राचीनतम कृति ‘रामायण काकावीन’ है। यह नौवीं शताब्दी की रचना मानी जाती है। इसके रचनाकार योगीश्वर कहे जाते हैं। यहां की एक अन्य प्राचीन रचना है ‘उत्तरकांड।’ यह रचना गद्य में है। चरित रामायण अथवा कवि जानकी में रामायण के प्रथम छह कांडों की कथा के साथ व्याकरण के उदाहरण भी दिये गये हैं। बाली द्वीप के संस्कृत साहित्य में अनुष्ठभ छंद में पचास श्लोकों की संक्षिप्त रामकथा है। रामकथा पर आधारित परवर्ती रचनाओं में ‘सेरतकांड’, ‘रामकेलिंग’ और ‘सेरी राम’ का नाम उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी की रचना ‘सुमनसांतक’ में इंदुमती का जन्म, अज का विवाह और दशरथ की जन्मकथा का वर्णन हुआ है। चौदहवीं शताब्दी की रचना अर्जुन विजय की कथावस्तु का आधार अर्जुन सहस्त्रवाहु द्वारा रावण की पराजय है।
रामायण काकावीन की रचना कावी भाषा में हुई है। यह जावा की प्राचीन शास्रीय भाषा है। काकावीन का अर्थ महाकाव्य है। रामायण को काकावीन में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। रामायण का कावीन छब्बीस अध्यायों में विभक्त एक विशाल ग्रंथ है। जिसमें महाराज दशरथ को विश्वरंजन की संज्ञा से विभूषित किया गया है और उन्हें शैव मतावलंबी कहा गया है। इस रचना का आरंभ राम जन्म से होता है। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के प्रस्थान के समय अष्टनेम ॠषि उनकी मंगल कामना करते हैं और दशरथ के राज प्रसाद में हिंदेशिया का वाद्य यंत्र गामलान बजने लगता है।
द्वितीय अध्याय में बसंत ऋतु के उल्लेख के साथ इंडोनेशायाई परिवेश विवरण मिलता है। विश्वामित्र के साथ राम और लक्ष्मण के यात्रा-क्रम में हिंदेशिया की प्रकृति का भव्य चित्रण हुआ है। विश्वामित्र आश्रम में दोनों राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्र एवं ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी जाती है और ताड़का वध के बाद विष्णु का अवतार मान कर उनकी वंदना की जाती है। इस महाकाव्य में मिथिला गमन, धनुभंग और विवाह का वर्णन अत्यंत संक्षिप्त है। इस महाकाव्य में श्री राम के अतिरिक्त उनके अन्य किसी भाई के विवाह की चर्चा नहीं हुई है।
अयोध्याकांड में राम के राज्यभिषेक की तैयारी, कैकेयी कोप, राम वनवास, राजा दशरथ की मृत्यु और भरत के अयोध्या आगमन की घटनाएँ यहाँ पलक झपकते ही समाप्त हो जाती हैं। भरत नागरिकों और गुरुजनों को बुलाकर चंद्रोदय के पूर्व पिता का श्राद्ध करने के उपरांत सदल-बल श्री राम की खोज में वन-प्रस्थान करते हैं।
राम भरत को अपनी चरण पादुका देते हैं और उन्हें शासन संचालन और लोक कल्याण से संबद्ध विधि-निषेधपूर्ण लंबा उपदेश देते हैं। राम के उपदेश का सारांश यह है कि राजा की योग्यता और शक्ति की गरिमा प्रजा के कष्टों का निवारण कर उनका प्रेमपूर्वक पालन करने में निहित है।
रामायण का काकावीन में शूपंणखा प्रकरण से सीता हरण तक की घटनाओं का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है।
सुग्रीव मिलन और बालि वध की घटनाओं का वर्णन वाल्मीकीय परंपरा के अनुसार हुआ है। वर्षा वर्णन के उपरांत शरद ॠतु का चित्रण हुआ है। सीतान्वेषण और राम-रावण युद्ध का इस महाकाव्य में बहुत विस्तृत वर्णन हुआ है। रावण वध और विभीषण के राज्याभिषेक के बाद श्रीराम ‘मेघदूत’ के यक्ष की तरह हनुमान से काले-काले बादलों को भेदकर आकाश मार्ग से अयोध्या जाने का आग्रह करते हैं।
राम राज्योभिषेक के बाद महाकवि रामकथा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हैं। उनकी मान्यता है कि राम चरित्र जीवन की संपूर्णता का प्रतीक है। राम के महान आदर्श का अनुकरण जनजीवन में हो, इसी उद्देश्य से इस महाकाव्य की रचना की गयी है। राम के जनानुराग की चरण धूलि के रुप में यह कथा संसार की महानतम पवित्र कथाओं में एक है। इस रचना के अंत में महाकवि योगीश्वर अपनी विनम्रता का परिचय देते हुए उत्तम विचार वाले सभी विद्वानों से क्षमा याचना करते हैं।
कंपूचिया की राम कथा : रामकेर्ति
कंपूचिया की राजधानी फ्नाम-पेंह के एक बौद्ध संस्थान में ख्मेर लिपि में दो हजार ताढ़ पत्रों पर लिपिबद्ध पांडुलिपियां संकलित हैं। ‘ख्मेर’ कंपूचिया की भाषा का नाम है। इस संकलन में कंपूचिया की रामायण की एक प्रति भी है। कंपूचिया की रामायण को वहां के लोग ‘रिआमकेर’ के नाम से जानते हैं। साहित्य जगत में यह ‘रामकेर्ति’ के नाम से विख्यात है। ‘रामकेर्ति’ ख्मेर साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृति है। हिंदी में साधारण अर्थ है – राम की कीर्ति, राम की प्रसंशा आदि। रामकेर्ति ग्रंथ दो खंडों में है।
रामकेर्ति ग्रंथ के पहले खंड की कथा विश्वामित्र के यज्ञ से आरंभ होती है। दूसरे खंड में सीता त्याग से उनके पृथ्वी प्रवेश तक की कथा है। इतिहासकारों एवं रामायण के विद्वानों के एक वर्ग का मत है कि ‘रामकेर्ति’ का रचना किसी बौद्ध भिक्षुक ने की होगी क्योंकि वह राम को नारायण का अवतार मानता है और राम को ‘बोधिसत्व’ की उपाधि प्रदान करता है। इतिहासकारों और रामायण के विद्वानों के दूसरे वर्ग का मानना है कि ‘रामकेर्ति’ का कथानक वाल्मीकि रामायण से अत्यधिक साम्य रखता है। कथानक के पात्रों का चरित्र चित्रण वाल्मीकि रामायण से थोड़ा भिन्न हैं। कथासार वाल्मीकि कृत रामायण समतुल्य ही है।
कंपूचियाई रामायण राजा जनक हल चला रहे थे। उन्होंने सीता को एक बेड़े पर देखा और उसे प्राप्त कर पुत्रीवत पालन-पोषण किया। सीता स्वयंवर के समय तेंतीस देवता बारी-बारी से धनुष परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं। अंत में राम धनुष पर बाण चढ़ा कर उसे छोड़ते हैं। यहां धनुभंग की चर्चा नहीं हुई है, किंतु जनक का दूत दशरथ से कहता है कि धनुष छोड़ने पर मेघ गर्जना से दस हजार गुना विकराल ध्वनि हुई थी।
कैकेयी राम और लक्ष्मण दोनों के लिए चौदह वर्ष वनवास का वर मांगती है। यह सुनकर लक्ष्मण उसकी हत्या कर देना चाहते हैं, किंतु राम उन्हें शांत कर देते हैं। सीता हरण के समय सीता की अंगूठी छीन कर रावण जटायु पर प्रहार करता है। रामकेर्ति के अनुसार हनुमान जब राम के पास जाते है, तब वे उनके कुंडल को देखकर उनको पहचान लेते हैं। सुग्रीव मिलन का उल्लेख यहां दक्षिण-पूर्व एशिया की परंपरा के अनुसार हुआ है।
बाली आहत होने से पूर्व राम के बाण को हाथ से रोक लेता है। राम इस शर्त पर उसे जीवित छोड़ देना चाहते हैं कि उसके शरीर पर बाण के घाव का निशान आजीवन रहेगा। बाली पराजित होकर जीने की अपेक्षा विष्णु के बाण से मरना श्रेयस्कर समझता है। बाण को हाथ से छोड़ देने पर वह उसके शरीर में प्रवेश कर जाता है और उसका प्राणांत हो जाता है।
लंका पहुँचने पर हनुमान रावण के राजभवन में प्रवेश कर रावण और मंदोदरी के बाल एक साथ बांध देते हैं और मंत्र पढ़कर यह लिख देते हैं कि जब तक मंदोदरी रावण के सिर पर थप्पड़ नहीं मारेगी, वह बंधन नहीं खुलेगा।
सेतु निर्माण के समय मछलियों द्वारा बाधा पहुंचाने पर राम समुद्र पर बाण प्रहार करने के लिए उद्यत होते हैं, तब समुद्र द्वारा क्षमा मांगने पर वह शांत होते हैं।
नवीन प्रसंग
दक्षिण-पूर्व एशिया की रामकथाओं में सीता त्याग की घटना के साथ एक नया आयाम जुड़ गया है। सीता द्वारा रावण का चित्र बनाना। रामकेर्ति में रावण का निकट संबंधी अतुलय सीता की सखी बन जाती है। वह अनुनय-विनय कर सीता से रावण का चित्र बनवाती है और उसके अंदर स्वयं प्रवेश कर जाती है। सीता के बहुत प्रयत्न करने पर भी वह चित्र मिट नहीं पाता है। वह उसे पलंग के नीचे छिपा देती हैं। राम जैसे ही पलंग पर लेटते हैं, तीव्र ज्वर से पीड़ित हो जाते हैं। यथार्थ से अवगत होने पर वे लक्ष्मण से वन में ले जाकर सीता के वध करने का आदेश देते हैं और मृत सीता का कलेजा लाने के लिए कहते हैं। वन पहुँचकर लक्ष्मण जब सीता पर तलवार प्रहार करते हैं, तब वह पुष्पहार बन जाता है। सीता लक्ष्मण को वह पुष्पहार अर्पित करती है, तब वह फिर तलवार बन जाता है। उसी समय इंद्र मृग रुप धारण कर मर जाते हैं। लक्ष्मण उसी मृत मृग का कलेजा राम को दिखाने के लिए ले जाते हैं।
रामकेर्ति में सीतपुत्रों के नाम
रामकेर्ति में सीता के पुत्रों के नाम ‘राम लक्ष्मण’ और ‘जप लक्ष्मण’ है। वाल्मीकि से धनुर्विद्या की शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह दोनों अपने बाण से एक विशाल वृक्ष को नष्ट कर देते हैं। जिससे अयोध्या में भूकंप होता है। ज्योतिष शास्र के ज्ञाताओं ने राम जानकारी दी कि किसी महान राजा द्वारा बाण प्रहार से भूकंप आया था। उस राजा के तलाशने के लिए राम के द्वारा घोड़ा छोड़ा गया। भरत, शत्रुघ्न और हनुमान उसका अनुसरण कर रहे थे। सीता पुत्रों ने घोड़ा पकड़ लिया। उन्होंने हनुमान को युद्ध में पराजित कर दिया और उनके हाथ-पांव बांध कर उनके चेहरे पर लिख दिया कि उनका स्वामी ही उनके बंधन खोलने में समर्थ हो सकता हैं। भरत और लक्ष्मण के विफल होने पर स्वयं राम उनका बंधन खोलते हैं। बंधन खुलने पर हनुमान दोनों भाईयों को बंदी बनाकर अयोध्या ले जाते हैं। जब लक्ष्मण अपनी माता की अंगूठी की सहायता से अपने भाई को मुक्त करवाता है, तब सीता पुत्रों और राम के बीच युद्ध होता है। अंत में राम लक्ष्मण के बाण पुष्पहार बना गये और राम के बाण मिष्टान्न।
लक्ष्मण से सीता त्याग के यथार्थ को जानकर राम सीता के पास गये। उन्होंने सीता से क्षमा याचना की, किंतु वह द्रवित नहीं हुईं। उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को राम के साथ जाने दिया और स्वयं पृथ्वी में प्रवेश कर गयी। हनुमान ने पाताल जाकर सीता से लौटने का अनुरोध किया। उन्होंने उस आग्रह को भी ठुकरा दिया। रामकेर्ति की खंडित प्रति की कथा यहीं पर आकर अटक जाती है।
वस्तुत: रामकेर्ति ग्रंथ में उपर्युक्त दोनों प्रसंग महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण में उल्लेखित नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार ने क्षेत्रीय आधार पर नवीनता लाने के उद्देश्य से यह कथानक जोड़ा हो। दूसरा कारण यह भी यह भी हो सकता है कंपूचिया में इस तरह की लोककथा प्रचलित रही हो। इस कारण से रचनाकार ने लोकमान्यताओं को सम्मान देते हुए यह प्रसंग जोड़ दिए हों। यह विशेष शोध का विषय है।
थाईलैंड की राम कथा : रामकियेन
सन् 1238 ईस्वी में प्राचीन स्याम नामक भूखंड थाईलैंड के रूप में एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। अपने नवीन नामकरण से पूर्व ही यहां रामायण कालीन संस्कृति विकसित हो गई थी। थाईलैंडवासी राम कथा से सुपरिचित थे। इतिहासकारों के अनुसार तेरहवीं शताब्दी में राम वहां की जनता के नायक के रुप में प्रतिष्ठित हो गये थे। राम कथा पर आधारित सुविकसित साहित्य अठारहवीं शताब्दी में ही उपलब्ध होता है।
राजा बोरोमकोत का शासन काल सन् 1732-58 ईस्वी के मध्य था। इसके रजत्व काल की रचनाओं में रामकथा के पात्रों तथा घटनाओं का उल्लेख हुआ है। कालांतर में जब तासकिन ने सन् 1767 ईस्वी में थोनबुरी की सत्ता का अधिग्रहण किया तब उन्होंने थाई भाषा में रामायण को छंदोबद्ध किया। जिसके चार खंड़ हैं। सम्राट राम प्रथम ने अपने शासनकाल 1782-1809 ईस्वी में अनेक कवियों के सहयोग से रामायण की रचना करवाई। यही थाई भाषा में पूर्ण रामायण है। राम द्वितीय के शासनकाल 1809-24 ईस्वी में एक संक्षिप्त रामायण की भी रचना की गई। तदुपरांत राम चतुर्थ ने स्वयं पद्य में रामायण की रचना की। इसके अतिरिक्त थाईलैंड में राम कथा पर आधारित अनेक कृतियां हैं।
‘रामकियेन’ नामक ग्रंथ में राम और रावण के वंश विवरण शुरू में मिलता है। यही पर अयोध्या और लंका की स्थापना उल्लेख किया गया है। इसके बाद बाली, सुग्रीव, हनुमान, सीता आदि की जन्म कथा का उल्लेख हुआ है। विश्वामित्र के आगमन के बाद कथा तारतम्य के साथ आगे बढ़ती है। जिसमें राम विवाह से सीता त्याग और पुन: युगल जोड़ी के पुनर्मिलन तक की समस्त घटनाओं का समावेश हुआ है। रामकियेन अनेक उपकथाएं भी सम्मिलित की गई हैं। इसकी तुलना हनुमान की पूँछ से की जाती है।
नवीन प्रसंग
रामकियेन ग्रंथ में अनेक ऐसे भी प्रसंग हैं जो थाईलैंड को छोड़कर अन्यत्र अप्राप्य हैं। इसमें विभीषण पुत्री वेंजकाया द्वारा सीता का स्वांग रचना, ब्रह्मा द्वारा राम और रावण के बीच मध्यस्थ की भूमिक निभाना आदि के प्रसंग विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। नाराई अर्थात नारायण ध्यानावस्था में थे। उसी समय क्षीर सागर से एक कमल पुष्प की उत्पत्ति हुई। उस कमल पुष्प से एक बालक अवतरित हुआ। नाराई उसे लेकर शिव के पास गये। शिव ने उसका नाम अनोमतन रख दिया और उसे पृथ्वी का सम्राट बनाकर उसके लिए इंद्र को एक सुंदर नगर का निर्माण करने के लिए कहा।
अयोध्या का नाम ‘अयु’
इंद्र ऐरावत पर आरुढ़ होकर जंबूद्वीप में एक अत्यंत रमणीय स्थल पर पहुंचे। जहां अजदह, युक्खर, ताहा और याका नामक ॠषि तपस्यारत थे। उन्होंने ॠषियों के समक्ष शिव के प्रस्ताव की चर्चा की। ॠषियों ने द्वारावती नामक स्थल को नगर निर्माण के लिए सर्वोत्तम स्थल बताया जहां पूर्व दिशा में राजकीय छत्र के समान एक विशाल वृक्ष था। नगर निर्माण के बाद इंद्र ने उन्हीं चार ॠषियों के नाम के आद्यक्षरों के आधार पर उस नगर का नाम अयु अर्थात अयोध्या रख दिया। अनोमतन उस नगर के प्रथम सम्राट बने। इंद्र ने एक अन्य द्वीप पर जाकर मैनीगैसौर्न नामक एक अपूर्व सुंदरी की सृष्टि की। सम्राट अनोमतन का विवाह उसी महासुंदरी से हुआ। उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम अच्छवन था। अपने पिता के बाद वह अयोध्या का सम्राट बना। उसका विवाह थेपबसौर्न नामक सुंदरी से हुआ। दशरथ उन्हीं के पुत्र थे।
लंका द्वीप का नाम ‘रंका द्वीप’
लंका के निर्माण के विषय में एक अलग कथा प्राप्त होती है। यह कहानी महर्षि वाल्मीकि के कथानक से सर्वथा भिन्न है। निम्नलिखित कथा विश्व साहित्य में नहीं मिलती।
लंका निर्माण कथा
ब्रह्मा अपने चचेरे भाई सहमालिवान को रंका (लंका) द्वीप से पाताल की ओर भागते देखकर चिंतित हो गये। लंका द्वीप पर नीलकल नामक एक गगनचुंबी काला पहाड़ था। उसकी चोटी पर कौवों का एक विशाल घोसला था। ब्रह्मा ने उसे शुभलक्षण का संकेत मानकर वहां एक नगर निर्माण करने का निश्चय किया। उनके आदेश से विश्वकर्मा ने उस द्वीप पर दोहरे प्राचीर वाले एक सुरम्य नगर का निर्माण किया। ब्रह्मा ने उस नगर का नाम विजयी लंका रखा और अपने चचेरे भाई तदप्रौम को उसका अधिपति बना दिया। उन्होंने उसे चतुर्मुख की उपाधि प्रदान की। चतुर्मुख रानी मल्लिका के अतिरिक्त सोलह हजार पटरानियों के साथ वहां रहने लग। कालांतर में मल्लिका के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम लसेतियन था। वह पिता के स्वर्गवास के बाद लंकाधिपति बना। उसे पांच रानियां थीं। पांचों रानियों से पांच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनके नाम कुपेरन (कुबेर), तपरसुन, अक्रथद, मारन और तोत्सकान (दशकंठ) थे। कालांतर में रचदा के गर्भ से कुंपकान (कुंभकर्ण), पिपेक (विभीषण), तूत (दूषण), खौर्न (खर) और त्रिसियन (त्रिसिरा) नामक पांच पुत्र और सम्मनखा (सूपंणखा) नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई।
दशग्रीव जन्म कथा
नंतौक (नंदक) नामक हरित देहधारी दानव को शिव ने कैलाश पर्वत पर देवताओं के पादप्रक्षालनार्थ नियुक्त किया था। देवगण ने अकारण उसके बाल नोच उसे गंजा कर दिया। नंदक से शिव उसकी व्यथा सुनने के बाद उसकी तर्जनी ऊँगली में शक्ति दी कि वह जिसकी ओर इंगित करेगा उसकी तत्काल मृत्यु हो जाएगी। नंदक शक्ति का दुर्पयोग करने लगा। देवगण व्यग्र होकर शिव के पास गए। शिव ने नारायण को बुलाकर नंदक का वध करने को कहा। नारायण नर्तकी का रुप में नंदक के पास पहुँचे। नंदक मोहित हो गया। नर्तकी रुपधारी नारायण ने चतुराई से नृत्य कर नंदक को अपनी ऊँगली अपने ओर इंगित करने के लिया विवश किया और उसकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पूर्व उसने नर्तकी को नारायण रुप धारण करते हुए देख लिया। तब नारायण ने कहा- “अगले जन्म में वह दस सिर और बीस भुजाओं वाले दानव के रुप में उत्पन्न होगा और वह मनुष्य रुप में अवतरित होकर उसका उद्धार करेंगे।”
वानर जन्म कथा
अयोध्या के निकट साकेत नामक एक नगर का सम्राट कौदम (गौतम) संतानहीन था। वह वन में तपस्या करने चला गया। तपस्या के काल खंड में उसकी दाड़ी लंबी और सफेद हो गई जिसमें गौरैया की एक जोड़ी ने घोसला बना लिया। एक दिन माद पक्षी ने नर-पक्षई पर विश्वासघात का आरोप लगाया। नर पक्षी ने सारा आरोप कौदम के सिर मढ़ दिया। नर-पक्षी ने कहा कि नि:संतान होना पाप है। कौदम अपने निवास लौट गया। उन्होंने तपोबल से एक सुंदरी का सृजन कर अपनी पत्नी बना उसका नाम अंजना रखा। कौदम अंजना के स्वाहा नामक पुत्री का जन्म हुआ। एक दिन अंजना का इंद्र से संपर्क हुआ और उसने हरित देहधारी एक पुत्र को जन्म दिया। एक बार सूर्य अंजना के संयोग से अंजना ने पुन: एक पुत्र को जन्म दिया जो आदित्य के समान ही देदीव्यमान था। गौतम दोनों को अपना पुत्र समझते थे। एक दिन स्वाहा ने सारा भेद खोल दिया। गौतम ने क्रुद्ध होकर तीनों को यह कहकर जल में फैंक दिया कि उनकी अपनी संतान उनके पास लौट आयेगी और दूसरों की संतति बंदर बन जायेंगे। स्वाहा लौट कर उनके पास आ गयी, किंतु उनके दोनों पुत्र बंदर बन गये। हरित बंदर पाली (वालि) और लाल बंदर सुक्रीप (सुग्रीव) के नाम से विख्यात हुआ।
संपूर्ण ‘रामकियेन’ विचित्र आख्यानों से परिपूर्ण है। रामकथा के मौलिक रूप में अंतर नहीं दिखाई पड़ता।
लाओस की रामकथा : राम जातक
लाओस नामक देश भाषा को ‘लाओ’ कहा जाता है। लाओस का शाब्दिक अर्थ है ‘विशाल’ अथवा ‘भव्य’। लाओवासी स्वयं को भारतवंशी मानते हैं। लाओ साहित्य के अनुसार अशोक (273-237 ईसा पूर्व) द्वारा कलिंग पर आक्रमण करने पर दक्षिण भारत के बहुत सारे लोग असम-मणिपुर मार्ग से हिंद चीन चले गये। लाओस के निवासी अपने को उन्हीं लोगों के वंशज मानते हैं। इतिहासविद रमेश चंद्र मजुमदार के अनुसार थाईलैंड और लाओस में भारतीय संस्कृति का प्रवेश ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ था। उस समय चीन के दक्षिण भाग की उस घाटी का नाम ‘गांधार’ था। लाओस संसार के मानचित्र पर मध्यकाल में अस्तित्व में आया। लाओ साहित्य के अनुसार राजकुमार फाल्गुन को लाओस का संस्थापक माना जाता है।
लाओस में रामकथा पर आधारित अनेक रचनाएं प्राप्त होती हैं। जिनमें मुख्य रुप से फ्रलक-फ्रलाम (राम जातक), ख्वाय थोरफी, पोम्मचक (ब्रह्म चक्र) और लंका नाई के नाम उल्लेखनीय हैं। ‘फ्रलक फ्रलाम’ का शाब्दिक अर्थ है ‘प्रिय लक्ष्मण प्रिय राम’। फ्रलक-फ्रलआम अर्थात ‘रामजातक’ नामक ग्रंथ लाओस के आचार-विचार, रीति-रिवाज, स्वभाव, विश्वास, वनस्पति, जीव-जंतु, इतिहास और भूगोल का विश्वकोश है। राम जातक दो भागों में विभक्त है। इसके प्रथम भाग में दशरथ पुत्री चंदा और दूसरे भाग में रावण तनया सीता के अपहरण और उद्धार की कथा है।
सीता रावण की पुत्री
तप परमेश्वर के इंद्रप्रस्थ से प्रस्थान के बाद रावण ने भी उस नगर को परित्याग दिया। वह अपनी प्रजा के साथ समुद्र के बीच एक निर्जन द्वीप पर चला गया जिसका नाम लंका था। वहां चंदा के गर्भ से सीता का जन्म हुआ। ज्योतिषविदों द्वारा उस कन्या के अनिष्टकारी होने की बात सुनकर रावण ने उसे एक नाव पर सुलाकर समुद्र में छोड़ दिया। वह कन्या एक ॠषि को मिली। ॠषि ने पुत्रीवत उसका पालन किया। तदुपरांत धनुष यज्ञ और राम विवाह का वर्णन हुआ है।
राम जातक में घटनाओं का वर्णन लाओस की शैली में हुआ है। अन्य जातक कथाओं की तरह इसके अंत में बुद्ध कहते हैं – “पूर्व जन्म में वह ही राम थे, यशोधरा सीता थी और देवदत्त रावण था।”
बर्मा की राम कथा : रामवत्थु
बर्मावासियों को प्राचीन काल से ही रामायण की जानकारी थी। ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि ग्यारहवीं सदी के पहले से ही रामायण अनेक रुपों में वहां के जनजीवन को प्रभावित कर रही थी। लोककथाओं और लोकगीतों में राम कथा की परंपरा वहां विद्यमान थी। बर्मा की भाषा में राम कथा साहित्य का उदय अठारहवीं शताब्दी में ही दृष्टिगत होता है। रामवत्थु (1775 ईस्वी के पूर्व), राम सा-ख्यान (1775 ईस्वी), सीता रा-कान, राम रा-कान (1784 ईस्वी), राम प्रजात (1789 ईस्वी), का-ले रामवत्थु,
महारामवत्थु, सीरीराम (1849 ईस्वी), पुंटो राम प्रजात (1803 ईस्वी), रम्मासुङ्मुई (1904 ईस्वी), पुंटो रालक्खन (1935 ईस्वी), टा राम-सा-ख्यान (1906 ईस्वी), राम रुई (1907 ईस्वी), रामवत्थु (1935 ईस्वी), राम सुम: मुइ (१९३ ई.) और रामवत्थु आ-ख्यान (1957 ईस्वी) आदि ग्रंथ विभिन्न काल खंडों में प्राप्त होते हैं।
राम कथा पर आधारित बर्मा की प्राचीनतम गद्य कृति ‘रामवत्थु’ है। इसकी तिथि अठारहवीं शताब्दी निर्धारित की गयी है। इसमें अयोध्या कांड तक की कथा का छह अध्यायों में वर्णन हुआ है और इसके बाद उत्तर कांड तक की कथा का समावेश चार अध्यायों में ही हो गया है। रामवत्थु में जटायु, संपाति, गरुड़, कबंध आदि प्रकरण का अभाव है।
सीता का जन्म
गंधर्व अप्सरा रावण से बदला लेने के लिए पृथ्वी पर अवतरित होती है। दशग्रीव उसे लोहे के बक्सा में बंद कर समुद्र में डुबा देता है। वह बक्सा मिथिला पहुँच जाता है। मिथिला नरेश उसका पुत्रीवत पालन करते हैं और उसका नाम सीता रखते हैं।
रामवत्थु में पवन पुत्र के संबंध में कहा गया है कि एक ॠषि के शाप से वह सामान्य बंदर बन जाते हैं। शूपंणखा का नाम यहां गांबी है। सीता को तलाशने के क्रम में ‘गियो’ वृक्ष के नीचे राम-लक्ष्मण को थुगइक (सुग्रीव) से भेट होती है। सेतु निर्माण के समय ‘गंधम’ नामक एक विशाल केकड़ा हनुमान को पकड़ लेता है। हनुमान उससे मुक्त हो जाते है।
लंका युद्ध, रावण वध और सीता की अग्नि परीक्षा का परंपरानुसार वर्णन हुआ है। सीता निर्वासन के कई कारण बताये गये हैं।
मलयेशिया की रामकथा : हिकायत सेरीराम
इतिहासकारों के अनुसार मलय रामायण की प्राचीनतम पांडुलिपि बोडलियन पुस्तकालय में सन् 1633 ईस्वी में लाई गई थीं। इससे ज्ञात होता है कि मलयवासियों पर रामायण का इतना प्रभाव था कि इस्लामीकरण के बाद भी लोग उसके परित्याग नहीं कर सके। मलयेशिया का इस्लामीकरण तेरहवीं शताब्दी के आस-पास माना जाता है।
मलयेशिया में रामकथा पर आधरित एक विस्तृत रचना है ‘हिकायत सेरीराम’। इसका रचनाकार कौन है यह अभी तक ज्ञात नहीं हुआ है। इसकी रचना तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच मानी जाती है। इसके अतिरिक्त यहां के लोककथाओं के रूप में रामकथाएं प्राप्त होती हैं। मैक्सवेल द्वारा संपादित ‘सेरीराम’, ‘पातानी रामकथा’ और ओवरवेक द्वारा प्रस्तुत ‘हिकायत महाराज रावण’ नामक पुस्तकें उल्लेखनीय हैं।
‘हिकायत सेरीराम’ विचित्रताओं का अजायब घर है। इसका आरंभ रावण की जन्म कथा से हुआ है। चक्रवर्ती के पुत्र दशरथ इस्पबोगा के राजा थे। वह एक सुंदर नगर बसाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने मंत्री पुष्पजय क्रम को नियुक्त किया। उसने एक पहाड़ की चोटी पर नया नगर बसाने की योजना बनाई। नये नगर का निर्माण हो गया। उसका नाम मदुरापुर रखा गया। संतान के लिए राजा ने एक ॠषि के कहने पर उन्होंने यज्ञ किया। यज्ञोदन को छह भागों में विभाजित किया गया। उसमें से तीन भाग मंडू देवी या मंदुदरी और तीन भाग बलियादारी को दिया गया। बलियादारी के हिस्से का एक भाग एक काक लेकर भाग गया। वह रावण का संबंधी था। ॠषि ने शाप दिया कि काक मंदुदरी के पुत्र द्वारा मारा जायेगा और जो कोई उस यज्ञोदन को खायेगा, उसे एक पुत्री होगी। उसका विवाह मदुदरी के पुत्र से होगा। काक यज्ञोदन लेकर लंका पुरी गया जहाँ रावण उसे खा गया। कालांतर में मंदुदरी को सेरी राम और लक्ष्मण नामक दे पुत्र हुए। बलियादारी ने बेरदन (भरत) और चित्रदन (शत्रुघ्न) को जन्म दिया।
रावण विवाह
रावण को मंदुदरी के अनुपम सौंदर्य का पता चला। वह ब्राह्मण वेश में मदुरापुर पहुँचा और राजभवन के सात तालों को मंत्र द्वारा खोलकर अंदर चला गया और वीणा बजाने लगा। वीणा की ध्वनि सुनकर दशरथ अंत:पुर से बाहर निकले, तो ब्राह्मण वेशधारी रावण ने उनसे मंदुदरी को देने का आग्रह किया। उन्होंने पहले तो उसके अनुरोध को ठुकरा दिया, किंतु बाद में अपनी स्वीकृति दे दी। मंदुदरी ने भी पहले उसके साथ जाने से इन्कार किया, किंतु बाद में उसने अपने समान एक सुंदरी का सृजन कर उसे दे दिया। रावण नकली मंदुदरी को लेकर चला गया। रास्ते में उसकी भेंट एक तपस्वी से हुई। उसने तपस्वी से पूछा कि वह आदमी है अथवा बंदर। वह तपस्वी विष्णु का भक्त था। उसने रावण को शाप दिया कि उसकी मृत्यु आदमी या बंदर के द्वारा होगी। रावण ने धूमधाम से नकली मंदुदरी के साथ विवाह किया। कुछ दिनों बाद उसे एक पुत्री हुई जो सोने के समान सुंदर थी। रावण के भाई बिवुसनभ (विभीषण) ने उसकी कुंडली देखकर कहा कि इस कन्या का पति उसके पिता का वध करेगा। यह जानकर रावण उसे लोहे के बक्से में बंदकर समुद्र में फेंक दिया। लोहे का बक्सा बहकर द्वारावती चला गया। महर्षि कलि समुद्र स्नान कर रहे थे। उसी समय वह बक्सा उनके पैर से टकराया। वे बक्सा लेकर अपनी पत्नी मनुरमा देवी के पास गये। बक्सा खोलने पर पूरा घर प्रकाशमान हो गया। उसमें एक अत्यंत सुंदर कन्या थी। महर्षि कलि ने उसका नाम सीता देवी रखा। उन्होनें उसी समय चालीस ताल वृक्ष रखा। उन्होंने उसी समय चालीस तान वृक्ष इस उद्देश्य से लाग दिया कि जो कोई उन्हें एक ही बाण से खंडित कर देगा, उसी से सीता देवी का विवाह होगा। आदि से अंत तक ‘हिकायत सेरी राम’ इसी प्रकार की विचित्रताओ से परिपूर्ण है। यद्यपि इसमें वाल्मीकीय परंपरा का बहुत हद तक निर्वाह हुआ है। इसमें सीता के निर्वासन और पुनर्मिलन की कथा में भी विचित्रता है।
फिलिपींस की रामकथा : महालादिया लावन
इंडोनेशिया और मलयेशिया की तरह फिलिपींस के इस्लामीकरण के बाद वहां की राम कथा को नये रुप रंग में प्रस्तुत किया गया। ऐसी भी संभावना है कि इसे बौद्ध और जैनियों की तरह जानबूझ कर विकृत किया गया। डॉ जॉन आर फ्रुैंसिस्को ने फिलिपींस की मारनव भाषा में संकलित एक विकृत रामकथा की खोज की है जिसका नाम मसलादिया लाबन है। इसकी कथावस्तु पर सीता के स्वयंवर, विवाह, अपहरण, अन्वेषण और उद्धार की छाप स्पष्ट रुप से दृष्टिगत होता है।
तिब्बत की रामकथा
तिब्बत के लोग प्राचीन काल से वाल्मीकि रामायण की मुख्य कथा से सुपरिचित थे। तिब्बती रामायण की छह प्रतियाँ तुन-हुआंग नामक स्थल से प्राप्त हुई है। राम कथा की उत्तरवाहिनी धारा कब तिब्बत पहुँची? यह सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है।
रावण का शीष दान
किंरस-पुंस-पा की रामकथा के आरंभ में कहा गया है कि शिव को प्रसन्न करने के लिए रावण द्वारा दसों सिर अर्पित करने के बाद उसकी दश गर्दनें शेष रह जाती हैं। इसी कारण उसे दशग्रीव कहा जाता है।
कैकयी को वरदान
दशरथ देवासुर संग्राम में घायल हो जाते हैं। स्वस्थ होने पर राजा उसकी कोई एक इच्छा पूरी करने का वरदान देते हैं। कालांतर में केकैई अपने पुत्र को राज्य और रामन को बारह वर्ष वनवास का वर मांग लेती है।
रावण की पुत्री सीता
रावण के घर एक रूपवती कन्या का जन्म होता है। ऐसा संकेत मिलता है कि कन्या के लंका में रहने से दानवों का विनाश हो सकता है। उस नवजात को तांबे के बक्से में बंद कर जल में फेंक दिया जाता है। वह कन्या एक कृषक को मिलती है। वह उसका नाम रौल-रेंड-मा रख देता है। उसका विवाह राम से होता है। तब उसका नाम सीता रख दिया जाता है। कुंभकर्ण ने बंदरों के कान में पिघला हुआ कांसा डाल दिया। राम और हनुमान को छोड़कर संपूर्ण सेना कंकाल बन गयी। हिमगिरि से औषधि के बहाने हनुमान पूरे पहाड़ को ही उठाकर ले आये। राम ने स्वयं औषधि ढूंढकर सबका उपचार किया। राम ने हनुमान से पर्वत को पुन: यथा स्थान रख कर आने के लिए कहा गया, तो उन्होंने उसे वही से उठाकर अपनी जगह पर फेंक दिया। जिससे उसकी चोटी टेढ़ी हो गयी। उसी पर्वत का एक भाग टूट कर गिर गया जो तिसे (कैलास) के नाम से विख्यात हुआ। अंत में सीता सहित रामन पुष्पक विमान से अयोध्या लौट गये। भरत ने उनका भव्य स्वागत किया।
चीन की रामकथा
चीनी साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई मौलिक रचना नहीं हैं। बौद्ध धर्म ग्रंथ त्रिपिटक के चीनी संस्करण में रामायण से संबद्ध दो रचनाएँ मिलती हैं। ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’। फादर कामिल बुल्के के अनुसार- “तीसरी शताब्दी ईस्वी में ‘अनामकं जातकम्’ का कांग-सेंग-हुई द्वारा चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था।” जिसका मूल भारतीय पाठ अप्राप्य है। चीनी अनुवाद लियेऊ-तुत्सी-किंग नामक पुस्तक में सुरक्षित है। अहिंसा की प्रमुखता के कारण चीनी राम कथाओं पर बौद्ध धर्म का प्रभाव स्पष्ट रुप से परिलक्षित होता है।
‘अनामकं जातकम्’ में किसी पात्र का नामोल्लेख नहीं हुआ है। कथा रामायण पर आधारित है। यह नायिका विहीन रचना है।
‘दशरथ कथानम्’ के अनुसार राजा दशरथ जंबूद्वीप के सम्राट थे। राजा की प्रधान रानी के पुत्र का नाम लोमो (राम)। दूसरी रानी के पुत्र का नाम लो-मन (लक्ष्मण) था। राजकुमार लोमो में ना-लो-येन (नारायण) का बल और पराक्रम था। उनमें ‘सेन’ और ‘रा’ नामक अलौकिक शक्ति थी तीसरी रानी के पुत्र का ना पो-लो-रो (भरत) और चौथी रानी के पुत्र का नाम शत्रुघ्न था। राजा तीसरी रानी पर आसक्त थे। वह उसकी इच्छापूर्ति हेतु सर्व न्योछावर करने की बात करते थे। रानी ने उनके वचन को धरोहर के रुप में रख छोड़ा था।
खोतानी रामकथा
तुर्किस्तान के पूर्वी भाग को खोतान कहा जाता है। यहां खोतानी भाषा बोली जाती है। एक पाश्चात्य विद्वान एच डब्लू बेली ने पेरिस पांडुलिपि संग्रहालय से खोतानी रामायण को खोजा। उनके अनुसार यह रामायण नौवीं शताब्दी है। खोतानी रामायण अनेक स्थलों पर तिब्बीती रामायण के समान है। इसमें अनेक ऐसे वृत्तांत हैं जो तिब्बती रामायण में नहीं हैं। खोतानी रामायण के अनुसार राजा दशरथ के प्रतापी पुत्र सहस्त्रवाहु एक दिन वन में शिकार खेलने गये। वहां उनकी भेंट एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण से हुई। जिन्होंने अपनी तपस्या से चिंतामणि और कामधेनु गाय को प्राप्त किया था। कामधेनु गाय की कृपा से ब्राह्मण ने राजा का भव्य स्वागत किया। प्रस्थान करते समय राजा की आज्ञा से उनके अनुचर ब्राह्मण की गाय लेकर चले गये। इसकी जानकारी ब्राह्मण पुत्र परशुराम को हुई। उसने सहस्त्रवाहु का वध कर दिया। परशुराम के भय से सहस्त्रवाहु की पत्नी ने अपने पुत्र राम और रैषमा (लक्ष्मण) को पृथ्वी के अंदर छिपा दिया। बारह वर्षों के बाद दोनों बाहर आये। राम धनुर्धर थे। उन्होंने अपने अनुज रैषमा को राज्य संभालने के लिए कहा और स्वयं अपने पिता के हत्यारे परशुराम को ढूंढ़ कर वध कर दिया।
रावण की पुत्री सीता
दानवराज दशग्रीव को एक पुत्री हुई। भविष्यवक्ताओं ने उसकी कुंडली देखकर कहा कि वह अपने पिता के साथ समस्त दानव कुल के नाश का कारण बनेगी। इसलिए उसे बक्से में बंदकर नदी में बहा दिया गया। वह बक्सा एक ॠषि को मिला। उन्होंने उसका पालन पोषण किया। वह रक्षा वलय के बीच एक वाटिका में रहती थी। राम और रैषमा उसे देखकर मोहित हो गये। खोतानी रामायण में यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि राम और रैषमा का उसके साथ कैसा संबंध था।
खोतानी रामायण के अनुसार चमत्कारी मृग की सौ आंखे थी। राम और रैषमा ने उसकी पीछा किया। इसी अंतराल में दशग्रीव वहां पहुंचा। वह रक्षा वलय को पार नहीं कर सका। इसके बाद वह भिक्षुक वेश में सीता के पास गया और रक्षा वलय के बाहर आने पर उन्हें उठाकर भाग गया।
राम और रैषमा वानरी सेना के साथ समुद्र तट पर गये। नंद के सहयोग से सेतु का निर्माण हुआ और सेना सहित राम और रैषमा लंका पहुंचे।
बंदरों के कोलाहल से दशग्रीव उत्तेजित हो गया। दशग्रीव ने समुद्र से एक विषधर सांप को पकड़ कर बानरी सेना पर प्रहार किया। नागास्र से राम आहत हो गये। नंद अमृत-संजीवनी लाने के क्रम में हिमवंत पर्वत को ही उखाड़कर ले आया। औषधि के प्रयोग से राम स्वस्थ हो गये।
रावण का अंगूठा
रावण का जीवन उसके अंगूठे में है। राम ने उसे अंगूठा दिखाने के लिए कहा। दशग्रीव ने जैसे ही अंगूठा दिखाया राम ने उस पर बाण प्रहार कर उसे मुर्छित कर दिया। आत्मसमपर्ण करने के बाद उसे मुक्त कर दिया गया। बौद्ध प्रभाव के कारण उसका वध नहीं किया गया।
राम और रैषमा ने सीता के साथ सौ वर्ष बिताए। इसी बीच लोकापवाद के कारण सीता धरती में प्रवेश कर गयी। अंत में शाक्य मुनि कहते हैं कि इस कथा का नायक राम स्वयं वे ही थे और मैत्रेय रैषमा था।
मंगोलिया की रामकथा
मंगोलियावासियों को रामकथा की विस्तृत जानकारी है। वहां के लामाओं के निवास स्थल से वानर-पूजा की अनेक पुस्तकें और प्रतिमाएं मिली हैं। वानर पूजा का संबंध राम के प्रिय हनुमान से स्थापित किया गया है। मंगोलिया में राम कथा से संबद्ध काष्ठ चित्र उपलबध हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि बौद्ध साहित्य के साथ संस्कृत साहित्य की भी बहुत सारी रचनाएं वहां पहुंची। इन्हीं रचनाओं के साथ रामकथा भी वहां पहुँच गयी। दम्दिन सुरेन ने मंगोलियाई भाषा में लिखित चार राम कथाओं की खोज की है। इनमें राजा जीवक की कथा विशेष रुप से उल्लेखनीय है जिसकी पांडुलिपि लेलिनगार्द में सुरक्षित है।
जीवक जातक की कथा का अठारहवीं शताब्दी में तिब्बती से मंगोलियाई भाषा में अनुवाद हुआ था। इसके मूल तिब्बती ग्रंथ की कोई जानकारी नहीं है। आठ अध्यायों में विभक्त जीवक जातक पर बौद्ध प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखाई पड़ता है। इसमें सर्वप्रथम गुरु तथा बोधिसत्व मंजुश्री की प्रार्थना की गयी है। कथा के अनुसार जीवक पूर्व जन्म में बौद्ध सम्राट थे। जीवक ने अपनी पत्नी तथा पुत्र का परित्याग कर दिया। इस कारण पत्नी और पुत्र दोनों ने शाप दे दिया कि अगले जन्म में वह संतानहीन हो जायेंगे। जीवक की भेंट भगवान बुद्ध से हुई।
जीवक नामक राजा के तीन रानियां थीं। तीनों को कोई संतान नहीं थी। राजा ने एक बार पुत्र का स्वप्न देखा। वह उंदुबरा नामक पुष्प की तलाश में समुद्र तट पर गये। वहां से पुष्प लाकर उन्होंने रानी को दिया। पुष्प भक्षण से रानी को एक पुत्र हुआ जिसका नाम राम रखा गया। कालांतर में राम राजा बने। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उन्होंने अपने राज्य में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु कुकुचंद को आमंत्रित किया।
राम वानर सेना के साथ लंका पहुंचे। वह दानव राज को पराजित कर अपनी पत्नी के साथ देश लौट गये, जहाँ वे सुख से जीवन व्यतीत करने लगे।
जापान की रामकथा
‘होबुत्सुशू।’ जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह। इस संग्रह की कथावस्तु है राम कथा। यह संक्षिप्त रूप में है। इतिहासकारों का मत है कि इसकी रचना तैरानो यसुयोरी ने बारहवीं शताब्दी में की थी। रचनाकार ने कथा के अंत में घोषणा की है कि इस कथा का स्रोत चीनी भाषा का ग्रंथ ‘छह परिमिता सूत्र’ है। यह कथा वस्तुत: चीनी भाषा के ‘अनामकंजातकम्’ पर आधारित है। इन दोनों में अनेक प्रसंग भिन्न हैं।
कथा के अनुसार तथागत शाक्य मुनि एक विख्यात साम्राज्य के स्वामी थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उसी समय पड़ोसी राज्य ‘किउसी’ में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। वहां के लोगों ने तथागत के राज्य पर आक्रमण कर अन्न प्राप्त करने की योजना बनाई। उन्होंने युद्ध में अनगिनत लोगों के मारे जाने की संभावना को देखते हुए अपने मंत्रियों को युद्ध करने से मना कर दिया और स्वयं अपनी रानी के साथ तपस्या करने पहाड़ पर चले गये। उन लोगों ने बिना युद्ध किये ही शत्रु के समक्ष आत्मसमपंण कर दिया।
राजा पहाड़ पर कंदमूल खाकर तपस्या करने लगे। एक दिन एक ब्राह्मण तपस्वी राजा के पास आया। राजा को उसे देखकर प्रसन्नता हुई। वह राजा के साथ रहकर उनकी सेवा करने लगा। राजा एक दिन पहाड़ पर फल लाने गये. उनकी अनुपस्थिति में ब्राह्मण ने रानी का अपहरण कर लिया। लौटने पर रानी को नहीं देखकर राजा विचलित हो गये। वह रानी की खोज में निकल पड़े। उसी क्रम में उनको एक विशाल मरणासन्न पक्षी से भेंट हुई। उसके दोनों पंख टूटे हुए थे। उसने उन्हें बतलाया का ब्राह्मण सेवक ने रानी का अपहरण किया है।
पक्षी की बात पर विश्वास कर राजा दक्षिण की ओर चल पड़े। उन्होंने रास्ते में हज़ारों बंदरों को गर्जना करते देखा। बंदरों ने बताया कि उनके पहाड़ पर पड़ोसी देश के राजा ने कब्जा कर लिया है। युद्ध होना निश्चित है। बंदर राजा को अपना सेनापति बनाया। युद्ध आरंभ हुआ। वानर विजयी हुए।
राजा ने बंदरों को अपनी पत्नी के अपहरण की बात बतायी। राजा वानर दल के साथ समुद्र तट पर पहुँचे। समुद्र के मध्य स्थित नागराज के भवन तक पहुँचने के लिए बंदरों को लकड़ी और जड़ी-बूटी की सहायता से पुल तैयार किया।
वर्फीले तूफान से आहत वानर योद्धा बेहोश हो गये। लघु कपि ने हिमालय से महावटी की शाखा लाकर उनका उपचार किया। उस दिव्य औषधि के प्रभाव से सब में शक्ति का संचार हुआ। वानरी सेना राजभवन में प्रवेश कर गयी। नाग भवन से रानी की मुक्ति के साथ सात रत्नों की प्राप्ति हुई। राजा रानी के साथ देश लौट गये। उसी समय ‘किउसी’ के राजा की मृत्यु हो गयी। वहाँ की प्रजा ने भी उन्हें अपना राजा मान लिया। इस प्रकार वे अपने देश के साथ ‘किउसी’ के भी सम्राट बन गये।
श्रीलंका की राम कथा
श्रीलंका के सिंहली सम्राट पांडुवासव देव के समय ईसा के पांच सौ वर्ष पूर्व मलेराज कथाव अर्थात पुष्प राज की कथा कहने का प्रचलन शुरू हुआ था। यह कथा कोहंवा देवता की पूजा के समय कही जाती थी। मलेराज की कथा के अनुसार राम के रुप में अवतरित हुए भगवान विष्णु पर एक बार शनि की साढ़े साती का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। राम ने शनि की साढ़े साती के दुष्प्रभाव से बचने के लिए हाथी का रूप धारण कर सात वर्ष व्यतीत किया। इस समय सीता उनके साथ नहीं थीं। सात वर्ष का समय पूर्व ही दानवराज रावण ने सीता का अपहरण कर लिया।
लंका विजय
सात वर्ष बाद घर लौटने पर राम ने निवास पर सीता को अनुपस्थित देख वह उनकी तलाश में निकल पड़े। वह जंगल में भटकते रहे। राम ने वानरराज का वध कर दिया। वालि को अपनी पत्नी मिल गयी। पूँछ में आग लग जाने पर वालि उछल कर महल की छत पर चढ़ गया। उसने संपूर्ण नगर को जला दिया। उसी अस्त-व्यस्तता में वह सीता को लेकर राम के पास चला गया। लंका से लौटने के बाद सीता गर्भवती हो गयीं। उसी समय राम देवताओं की सभा में भाग लेने चले गये। लौटने पर रावण का चित्र बनाने के कारण उन्होंने लक्ष्मण से वन में ले जाकर सीता का वध कर देने के लिए कहा। लक्ष्मण ने उन्हें वन में छोड़ दिया और किसी वन्य प्राणी का वध कर रक्त रंजित तलवार लिए राम के पास लौटे।
लव-कुश की जन्म गाथा :
सीता ने वाल्मीकि आश्रम में एक पुत्र को जन्म दिया। एक दिन वह उसे बिछावन पर सुलाकर वन में फल लाने गयीं। बच्चा बिछावन से नीचे गिर गया। वाल्मीकि ने बिछावन पर शिशु को नहीं देखकर उस पर एक कमल पुष्प फेंक दिया। वह शिशु बन गया। वन से लौटने पर उन्होंने दूसरे शिशु का रहस्य जानना चाहा। ॠषि ने सच्ची बात बता दी। सीता को विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने ॠषि को फिर वैसा करने के लिए कहा, तो ॠषि ने कुश के पत्ते से एक अन्य शिशु की रचना कर दी। तीनों बच्चे जब सात वर्ष के हुए। तब वह मलय देश चले गये। वहां उन्होंने तीन राज भवनों का निर्माण करवाया। तीनों राजकुमार सदलिंदु, मल और कितसिरी के नाम से विख्यात हुए। इस कथा के अतिरिक्त सिंहली साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई स्वतंत्र रचना नहीं है।
नेपाल की राम कथा : भानुभक्त कृत रामायण
नेपाल में रामकथा मुख्य रूप से वाल्मिकि तथा अध्यात्म रामायण के आधार पर विकसित मानी जाती है। नेपाली काव्य और गद्य साहित्य में अनेक राम कथाएं मिलती हैं। नेपाल के राष्ट्रीय अभिलेखागार में वाल्मीकि कृत रामायण की दो प्राचीन पांडुलिपियां सुरक्षित हैं। एक पांडुलिपि के किष्किंधा कांड की पुष्पिका पर तत्कालीन नेपाल नरेश गांगेय देव और लिपिकार पंडित गोपति का नाम अंकित है। इसकी तिथि संवत 1076 तदनुसार 1019 ईस्वी है। दूसरी पांडुलिपि की तिथि नेपाली संवत् 795 तदनुसार 1674-76 ईस्वी है। नेपाली में भानुभक्त कृत रामायण को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। नेपालवासी इसे ही अपना आदि रामायण मानते हैं। भानुभक्त का जन्म पश्चिमी नेपाल में चुंदी-व्यांसी क्षेत्र के रम्घा ग्राम में 29 आसढ़ संवत 187 तदनुसार 1814 ईस्वी में हुआ था। संवत् 1910 तदनुसार 1853 ईस्वी में उनकी रामायण पूरी हो गयी थी। अनेक विद्वानों का मत है कि युद्धकांड और उत्तर कांड की रचना 1855 ईस्वी में हुई थी। भानुभक्त कृत रामायण की कथा अध्यात्म रामायण पर आधारित है। इसमें उसी की तरह सात कांड हैं, बाल, अयोध्या, अरण्य, किष्किंधा, सुंदर, युद्ध और उत्तर। भनुभक्त के पूर्व नेपाली राम काव्य परंपरा में गुमनी पंत और रघुनाथ का नाम उल्लेखनीय है। रघुनाथ कृत रामायण की रचना उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की मानी जाती है। इसका प्रकाशन सन् 1932 ईस्वी में हुआ।
विद्वानों के एक वर्ग का कहना है कि भानुभक्त कृत रामायण अध्यात्म रामायण का अनुवाद है। भानुभक्त कृत रामायण शिव-पार्वती संवाद से प्रारंभ होती है।
इतिहासकारों एवं विद्वानों के अनुसार भानुभक्त कृत रामायण में अध्यात्म रामायण के उत्तर कांड में वर्णित ‘राम गीता’ को सम्मिलित नहीं किया गया था। भानुभक्त के मित्र पंडित धर्मदत्त ग्यावली को इसकी कमी खटक रही थी। विडंबना यह थी कि उस समय भानुभक्त मृत्यु शय्या पर पड़े थे। वह स्वयं लिख नहीं सकते थे। मित्र के अनुरोध पर महाकवि द्वार अभिव्यक्त ‘राम गीता’ को उनके पुत्र रामकंठ ने लिपिबद्ध किया। इस प्रकार नेपाली भाषा की यह महान रचना पूरी हुई जो कालांतर में संपूर्ण नेपाल वासियों का कंठहार बन गयी।
राम कथा का विश्वव्यापी रूप हमें दिखाई देता है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। प्रथमतया, इससे पूर्व कोई और इतनी रोचक एवं रोमांचकारी कथा तत्कालीन समाज में प्रचलित नहीं रही होगी। द्वितीय, महर्षि वाल्मीकि को सभी महाद्वीपों में सम्मान प्राप्त था। तृतीय, त्रेतायुग में यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। चतुर्थ, संपूर्ण विश्व आतंकवादी घटनाओं से मुक्त हो गया था। यहां सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इच्छा मृत्यु की यह पहली घटना थी। दशग्रीव ने ब्रह्मा जी से वरदान लेकर इच्छा मृत्यु का एक नया आयाम दिया था। संभवत: दशग्रीव की अंतिम अभिलाषा थी कि शांति प्रिय मानव जाति के एक योद्धा द्वारा उसे मोक्ष मिले। क्योंकि दशग्रीव ने तत्कालीन सभी आतंकी जातियों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था और दशग्रीव जानता था कि तत्कालीन समय में मानव जाति ही विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश देते में सक्षम थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि दशग्रीव ने अपना सर्वस्व त्याग कर संपूर्ण विश्व को आतंकवाद से मुक्त करवा कर वसुधैव कुटुम्बकम् ज्ञान दिया। रावण का योगदान तो सभी ने भूला दिया और संपूर्ण विश्व में राम का का प्रचार-प्रसार हो गया।
