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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

‘मैडम,साहब ने याद किया है,’ चपरासी ने दो बार अर्पिता से कहा। नीचे देखकर काम कर रही अर्पिता की उँगलियाँ कंप्यूटर के की-बोर्ड पर चलती रहीं।

चपरासी इससे अभ्यस्त था। उसने अर्पिता के टेबल पर हाथ की उँगलियों से दस्तक दी और तीसरी बार और जोर से वही वाक्य कहा, ‘मैडम, साहब ने याद किया है।’

अर्पिता ने चपरासी की ओर देखा, साहब के कैबिन की ओर देखा और चपरासी से ‘आ रही हूँ’ का इशारा किया। आगे बैठे हुए ठाकर और मीताली पीछे मुड़कर देख रहे थे। इसलिए उसे खयाल आया, ‘आज भी मगनभाई को दो-तीन बार तो कहना ही पड़ा होगा।’

ऐसा क्यों होता होगा? वह स्वयं एक ही जगह पर पूरी तरह से क्यों रह नहीं सकती होगी? फिर से काम में कोई भूल हुई होगी, तभी तो साहब बुलाएँगे ना। काम करते समय चित्त घर की ओर क्यों दौड़ जाता है? माहीर के पास तो लताबहन होती ही है, तो फिर?

अर्पिता साहब से मिलकर लौट आयी, थोड़ी डांट-डपट भी सुनकर आयी। साहब बोल रहे थे तब भी तो अर्पिता के मन का एक टुकडा घर भाग ही गया था। ‘कल रात माहीर ने ठीक से खाया नहीं था, कुछ बुखार-सा भी था। अभी खाया होगा? बुखार बढा तो नहीं होगा ना?’ इसलिए ही साहब के शब्द अर्पिता के कान के आसपास चक्कर काट रहे थे। बाद में जिसे मौका मिला, वे अंदर चले गए थे और शेष सारे वहाँ कैबिन में ही मँडराते रहे होंगे।

अर्पिता ‘सॉरी सॉरी’ कहती हई बाहर निकल आई। आकर कछ देर तक वह कुर्सी पर बैठी रही। वह स्वयं क्यों ऐसे दो-तीन भागों में बंट जाती थी? सौरभ को तो ऐसा जरा भी पसंद नहीं। वह तो प्रेम करता हो और उसे लगे कि अर्पिता एक क्षण के लिए भी वहाँ से गैरहाजिर हो गई है, तो उसका मूड ऑफ हो जाता था। ‘जब तुम मेरे पास होती हो तब तुम्हें पूरा का पूरा मेरे पास होना चाहिए।’

फिलहाल तो अर्पिता का मन और शरीर- दोनों एकसाथ रह ही नहीं सकते थे। जब ऑफिस में आये तब उसका शरीर कुर्सी पर बैठता था, हाथ कंप्यूटर चालू करते थे, जो कुछ भी पढ़ना होता था, उसकी आँखें पढ़ लेती थीं। और फिर दिमाग का एक टुकड़ा काम में व्यस्त हो जाता था, दूसरा टुकड़ा लगभग घर में ही रहता था- माहीर के पास। घर जाने पर शरीर माहीर को खाना खिलाता, सहलाता, लाड़ करता, सुलाता और तब मन बंद ऑफिस के किंवाड खोलकर ऑफिस में पहुँच जाता था।- ‘कल क्या करना है? काम तो ठीक से करना ही पड़ेगा, नौकरी गंवाना पुसाए ऐसा नहीं है, शरीर को तो उसका किराया चुकाना ही पड़ेगा और माहीर का शरीर तो ज्यादा किराया मांगता था।- खानपान उपरांत डॉक्टर की फीस, लताबहन की तनख्वाह,दवाइयाँ और और बहुत कुछ। उपरांत घर में मन लगता ही नहीं था। कल ऑफिस जाकर जल्दी-जल्दी सारा काम निबटा दूँगी, अच्छी तरह से प्रमोशन मिले तो तनख्वाह भी बढ़ेगी और माहीर के भविष्य के लिए बचत करना भी बहुत जरूरी था। वह जब नहीं रहेगी तब उसे जीवनभर किसी आश्रम में रखने की व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी, कभी धक्कागाड़ी चलाकर हाथ फैला रहे भिखारी दिखाई देने पर वह सिहर उठती थी। सौरभ होते तो! फिर मन उड़कर पुनः जिंदगी के मोहेनजोदरो की सैर कर लेता था।

‘क्या था?’ मीताली ने मुड़कर पूछा, ‘कुछ नहीं, इतना काम आज पूरा कर देना है।’ अर्पिता ने सामने देखा, स्क्रीन ब्लैंक हो गया था, उसकी उँगलियाँ की-बोर्ड पर थिरकने लगीं।

शाम को ऑफिस का काम लेकर वह घर के लिए निकली। रात को माहीर के सो जाने के बाद काम पूरा कर लूँगी। अब तो प्रमोशन मिलनी ही चाहिए। लताबहन तनख्वाह बढ़ाने के लिए कह रही थीं। दवाइयाँ भी कितनी महंगी हो गई हैं!

रात को माहीर के सो जाने के बाद अर्पिता ने लैपटॉप खोला, अपडेट करने पर भी इन्टरनेट की स्पीड बहुत कम हो गई थी। पाँच साल हुए, फिर तो वह पुराना ही पड़ेगा ना? सौरभ लाया था। शादी के तुरंत बाद। प्रेगनन्सी के वक्त तो वह हर हफ्ते उसकी तस्वीरें खींचकर सेव कर लेता था। एक अलग ही फाइल बना रखी थी। अर्पिता कहती थी, ‘तुम तो पगला गए हो।’ वह अर्पिता की बगल में सोकर उसके उभरे हुए पेट को हाथ से सहलाता रहता था, इसे तुम पागलपन कहती हो? पागलपन तो तुम तब देखना जब मैं अपने बच्चे को पहलीबार हाथ में लूँगा, पहला महिना तो मैं रोज उसकी फोटो लेता रहूँगा, फिर हर हफ्ते। रोज-रोज उसका प्रोग्रेस रिपोर्ट लिखकर सेव करता रहूँगा। ‘आई वील बी अ परफेक्ट फादर फॉर माइ चाइल्ड, एक्च्युअली मोर देन परफेक्ट। दो परफेक्ट व्यक्तियों का चाइल्ड डबल परफेक्ट ही होगा ना?’

माहीर का जन्म हुआ उसके बाद सौरभ तो लगभग बौरा ही गया था।न मारे आनंद के नहीं बल्कि आघात से। ईश्वर माहीर की जंघाओं के नीचेवाले पैर बनाना ही भूल गए थे, पहली बार अर्पिता ने उसे देखा तब वह भी चीख पड़ी थी, ‘डॉक्टर उसके पैर?’ फिर चित्तभ्रम हुआ हो ऐसे प्रश्न पूछ बैठी थी, ‘अंदर टूट गए होंगे? नीचेवाला टुकड़ा अंदर तो नहीं रह गया है ना डॉक्टर? प्लीज, देखिये ना।’

उसके बाद सौरभ अस्पताल में आया नहीं था, अर्पिता को उसके शब्द याद आते थे, ‘मैं जिंदगी में कभी भी किसी भी अपूर्णता को स्वीकार कर ही नहीं सकता। मुझे कोई भी चीज टुकड़ों-टुकड़ों में स्वीकार्य नहीं है। आई वोंट इट होल।’ गो कि अर्पिता अस्पताल में अपना मन मना लेती थी, ‘यह तो इनिशियल शॉक है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।’

पर कुछ भी ठीक हुआ नहीं। अर्पिता माहीर में, उसके शरीर के अलग-अलग परीक्षण कराने में, डॉक्टरों से बातचीत में, इन्टरनेट पर उपाय खोजने में व्यस्त हो गई। उस वक्त मानों उसने वैवाहिक जीवन को ताक पर चढ़ा दिया था। सौरभ को अर्पिता से टुकड़ों में मिलनेवाला प्रेम मंजूर नहीं था। उसने नीलिमा में अपना सम्पूर्ण सुख खोज लिया।

अर्पिता ने लैपटॉप बंद किया और सोये हुए माहीर की ओर ताकती रही। ‘चार साल का हुआ होगा। यदि सौरभ-सी हाइट होनेवाली हो और पूरा शरीर होता तो अभी यह चार बाय छः का पलंग आधा रोका होता।

दूसरे दिन तो वह निश्चय करके ही ऑफिस गई थी। ‘आज तो देर तक बैठकर भी काम पूरा कर लेना है।’ साहब ने अल्टिमेटम दिया था। ‘कल सुबह तक यह फाइल मुझे मेरे कंप्यूटर में चाहिए।’ अर्पिता काम करती रही। काम पूरा करके, साहब को फाइल फॉरवर्ड करके जब बाहर निकली तब भीगे मौसम की पहली बरसात हो रही थी। नौ महीनों से आकाश की कैद में धरा हुआ पानी आभ की छाती चीरकर पुरजोर बाहर निकला था। भागे हुए कैदी को खोजने के लिए चपला बारबार चमक रही थी और पीछे आ रहे बादल-पुलिस की हाँकें और ललकारें भी।

बोपल जाने के बसस्टॉप पर कोई ही नहीं था। रास्ते पानी में डूब गए थे। बसें चालू होगी भी या नहीं? दो बार लताबहन का फोन आ चुका था, उन्हें देर हो रही थी। पर इतनी दूर से रिक्सा के तो कितने सारे पैसे होंगे? थोड़ी देर तो बस का रास्ता देखना ही होगा। माहीर क्या करता होगा?

अचानक अर्पिता को जोर से उड़े पानी के छींटों ने भिगो दिया। एक नयी-नवेली गाड़ी वहाँ आकर खड़ी हो गई थी। एक युवक उस गाड़ी का दरवाजा खोलकर उसे कह रहा था, ‘सुबह ऑफिस आते समय कई बार आपको बोपल के बस स्टॉप पर देखता हूँ। मैं उससे आगे थोड़ी दूर रहता हूँ। आना है?’

अर्पिता ने शून्य नजर से उसकी ओर देखा।

‘इस समय, ऐसी बारिश में, आपके जैसी सुंदर स्त्री को स्वाभाविक है, किसी पर भरोसा नहीं होगा, पर बिलीव मी, मैं एक निहायत शरीफ इंसान हूँ। आपको आपके घर पहुंचा दूंगा।’

‘घर पहुंचा दूंगा’- इस वाक्य का आखिरी टुकड़ा अर्पिता के दिमाग में प्रविष्ट हुआ और वह गाड़ी में बैठ गई।

‘हाय! मैं मोहित। मैं यहाँ आगे एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता हूँ। आपका ऑफिस भी यहीं कहीं होना चाहिए।’

‘मुझे ख्याल है, रास्ते टूटे-फूटे हुए हैं, पर क्या आप गाड़ी थोडी तेज चला सकते हो?’

सारा रास्ता मोहित चुपचाप गाड़ी चलाता रहा। बोपल का स्टेंड आया, अतः गाड़ी रोककर अर्पिता की ओर देखा।

‘यहाँ नहीं, थोड़ी दूर और आगे, शिलाजित बिल्डिंग।’

ओ.के. मैं यहाँ से आगे पारिजात में रहता हूँ।’

‘बस ,यहाँ पर।’ अर्पिता जल्दी-जल्दी उतरकर बिल्डिंग की ओर दौड़ी, फिर कुछ याद आते ही तुरंत लौटी। गाड़ी चालू करते हुए मोहित ने, उसका घबड़ाहट में कहा गया ‘थेंक यू’ सुनकर, थोड़ा मुस्कराकर गाड़ी को बढ़ा दिया।

अर्पिता घर में गई और तुरंत लताबहन निकल गईं। उन्होंने माहीर को खिलाकर सुला दिया था। अर्पिता मुंह धोने के लिए गई और कान पर लटक रहे शब्दों ने धीरे-धीरे कान में प्रवेश किया, ‘आपके जैसी सुंदर स्त्री…मैं आपको रोज देखता हूँ।’ सुंदर! अर्थात् क्या?

‘सुंदर’ शब्द ने उसे कब छूआ था? माहीर के जन्म के बाद हताश सौरभ से उसने एकबार कहा था, ‘तू एकबार इसकी ओर तो देख! उसका चेहरा कितना सुंदर है! आजकल मेडिकल साइंस कितना आगे बढ़ गया है! माहीर की प्रोब्लेम का भी कोई तो उपाय होगा ही।’ तब सौरभ ने उसे कहा था, ‘सुंदर माय फुट! इंजिनियर हूँ, अर्पिता। इतना तो समझता ही हूँ कि अच्छी वस्तु यदि बिगड़े तो किसी भी तरह रिपेयर हो सकती है, पर मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट हो तो-‘मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट’ बोलते वक्त उसने सविशेष रूप से अर्पिता की आँखों में देखा था। -मेन्युफेक्चरिंग डिफेक्ट हो तो कुछ भी नहीं हो सकता। ऐसी वस्तु को तो कंपनी को वापस ही ले लेना चाहिए।’ तत्पश्चात् सौरभ कुछ विचित्र ढंग से इधर-उधर हाथ उछाल रहे माहीर की ओर देखता रहा था। अर्पिता कांप उठी थी, उसके बाद उसने कभी भी माहीर को सौरभ के पास अकेला छोड़ा नहीं था।

वैसे सुबह ऑफिस जाने के समय तक तो ‘तुम्हारे जैसी सुंदर स्त्री’-इन शब्दों ने अर्पिता के दिमाग में अडिंगा जमा दिया था। रोज लताबहन के पीछे-पीछे चलते हुए उनको सूचनाएँ देते हुए पोनी बांधती रही अर्पिता ने आज आईने के सामने खड़े रहकर उनको सारी सूचनाएँ दी। आईना भी हर्षित हुआ, आज कितने समय के बाद इस रूपसी ने उसके अंतरतम में झाँका था।

फिर तो लगभग हर रोज सुबह अर्पिता को देखकर मोहित ने गाड़ी को खड़ा करना शुरू कर दिया। शाम के वक्त वह कई बार साथ हो जाता था। अर्पिता के चेहरे ने मेकअप का नए सिरे से परिचय प्राप्त किया। माहीर को केंद्र में रखकर जी रही अर्पिता के जीवनवृत्त की परिधि पर मोहित नामक एक नया बिन्दु शामिल हो गया था। अर्पिता की माहीर तक खींची हुई त्रिज्या के सामने वह बिन्दु भी विस्तारित होकर कभी-कभी केंद्र को छू लेता था। अर्पिता को लगता था कि ये दोनों त्रिज्याएँ मिलकर एक व्यास बन जाता है, जिसके बीच माहीर का बिन्द होता है।

मोहित कई बार अर्पिता के घर भी जाता था, माहीर को लाड लडा रही अर्पिता को देखता रहता था और कॉफी पीकर चला जाता। एक अनंत लग रहे टनल में यकायक एक प्रकाश-कनी उतर आयी थी और उसने टनल को उजियारे से नहला दिया था। अर्पिता को तो कभी कभार टनल के छोर से आ रही रोशनी भी दिखाई दे जाती थी।

उस दिन भी मोहित आया था। बातें कुछ ज्यादा ही हो गईं। कॉफी जरा ज्यादा स्ट्रॉग हो गई। कॉफी की महक अन्य बेडरूम तक फैलती हुई पहुँच गई। उस बेडरूम का पलंग तो मारे खुशी के महकने लगा। एक लम्बे अंतराल के बाद आज उसे इंसान का सहवास प्राप्त हुआ था! अर्पिता को लग रहा था कि बरसों बाद आज शायद पहली बार वह उन टुकड़ों में बंटी हुई नहीं थी। शरीर और मन सब कुछ एक ही जगह पर था।

तभी अचानक माहीर के जोर-जोर से रोने की आवाज आयी और गले में गाउन डालती हुई अर्पिता बगलवाले बेडरूम में दौड़ गई। नींद में करवट लेते-लेते माहीर नीचे गिरा था। हमेशा उसका सहारा बनकर सोनेवाली अर्पिता को आज सिरहाना रखना याद नहीं आया था। अर्पिता ने जोर-जोर से रो रहे माहीर को उठाकर उसका माथा सहलाया। माथे के पिछेवाले हिस्से में भारी सूजन आ गई थी। पीछे-पीछे आए हुए मोहित के हाथ में रो रहे माहीर को रखकर अर्पिता अंदर बर्फ लाने के लिए दौड़ गई। वापस लौटी तब मोहित वहाँ नहीं था और माहीर बिछौने में उलट-पलट हो रहा था।

अर्पिता ने माहीर की सूझन पर बर्फ मली और देर तक उसके टुकड़े शरीर पर हाथ मलती हुई अभी-अभी ही खुलकर बंद हुए किंवाड की ओर ताकती रही। बाहर अचानक मेघ-तांडव शुरू हुआ था बीते हुए तूफान का मौसम फिर से आया? आकाश को जलाकर जलते हुए तीर की भांति नीचे आ रही बिजलियाँ बंद दरवाजे की अपारदर्शकता को बेधकर अर्पिता के धुंधलाकर जलते हुए कलेजे में ज्यादा आग भर जाती थीं। उसके पीछे आ रही सिंह गर्जना जैसे बादलों का गर्जन उसके हृदय में घुसकर दहाड़ता था। हाथी की सूंड सी मेघधाराएँ अर्पिता की कोरी आँखों की जमीन में विलीन हो जाती हो ऐसा लगता था। पवन के भारी बलिष्ट हाथ पूरी ताकत के साथ किवाड को जोर-जोर से हिला रहे थे। पंचमहाभूतों ने किसके विरुद्ध जंग शुरू की थी?

यह क्या? दरवाजे में अनेक दरारें पडी और वह छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गया हो ऐसा अर्पिता को क्यों दिखने लगा? उसे लग रहा था कि उन दरारों से धीरे-धीरे रूम की हवा बाहर खींची जाने लगी थीं। समग्र अस्तित्व पर यह किसका दबाव था? वह दबती गई, कुचलती गई, पिसती गई, चूरचूर होकर दरवाजे की दरारों में समा गई।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’