Hundred Dates
Hundred Dates

Hindi Love Story: “कितना धुआं भर रखा है तुमने।” उसने कार में बैठते हुए कहा।

“मैडम, आप जितनी देर से आएँगी; आग क्यों ना भड़कती जाएगी?” मैंने गाड़ी आगे बढ़ा दी।

“कितनी सिगरेट पी रहे हो आजकल?”

“ज़्यादा नहीं, पहले से तो कम की है।”

“हाँ, सीधे जवाब देते तो बनता नहीं है।” मैंने अपनी और उसकी तरफ़ के विंडो ग्लास नीचे कर दिए।

“अरे! बंद करो इसे।” उसने खीजते हुए कहा।

“क्यों? क्या हुआ?” मैंने उसकी तरफ़ देखा, वह परेशान सी थी।

“इतना टाइम लगा था बाल बनाने में। उसका तो नाश कर ही दिया और आँखों में भी पता नहीं क्या चला गया, जल रही है।” उसने रूमाल से आहिस्ता-आहिस्ता अपनी आँखों को दबाते हुए कहा।

“तो क्या हुआ, थोड़ा पानी के छींटे मार लो। रोकूँ?”

“तुम्हें सब मज़ाक लगता है। लड़के हो ना, समझोगे नहीं कभी। काजल जो रायता फैलाएगी उसका क्या करूँगी? छोड़ो, पूरा मूड ही ख़राब कर दिया। मुझे नहीं जाना कहीं; वापस घर ही छोड़ दो।” चिड़चिड़ाते हुए उसने कहा।

“हद हो गई, इतनी छोटी सी बात की इतनी बड़ी सज़ा। तुम्हें ज़रूरत ही क्या थी ऐसे तैयार होने की। बगैर लीपापोती के भी इंसानों की तरह ख़ूबसूरत तो लगती ही हो, वैसे भी रेस्टोरेंट में कौन सी तुम्हारी ननदें मिलने वाली हैं?” थोड़ी तारीफ़ और मज़ाक से ख़ुश करने की कोशिश करते हुए मैंने वापस जाने की उसकी बात को धुएँ की ही तरह उड़ा दिया।

‘ब्लैक फॉरेस्ट’ ही चल रहे हैं न हम?” अपनी ही पिछली बात उसे भी याद रखने लायक़ नहीं लगी।

“निकले तो ‘ब्लैक फॉरेस्ट’ हैं, बाकि आप कहें तो चाँद-सितारों तक का सफ़र भी मुश्किल नहीं।” मैंने घिसा, पर अब तक नहीं पिटा हुआ फ़्लर्ट किया।

“कैसे? चाँद-सितारे मेरे पापा ने तुमको एडवांस दहेज में दे दिए हैं?” चाँद-सितारे क्या तुम्हारे बाप की जागीर हैं, इस बात को कहने का यही शिष्ट और इश्किया तरीका हो सकता था।

“ओ…ओ…ओ…ये चाँद-सितारे ख़ानदानी ज़ेवर की तरह तो नहीं? हो सकता है तुम्हारे नाना ने तुम्हारे पापा को दहेज में दिया हो कि उनकी बेटी को सैर-सपाटे के लिए धरती पर कहीं जगह कम ना पड़ जाए।” उसका बॉयफ्रेंड कमतर होकर उसकी बेइज़्ज़ती नहीं करना चाहता था।

“पूछ लेना मेरे पापा से।” उसने इस बात से निकलना चाहा।

“वैसेएएए…चाँद-सितारे इतने मँहगे क्यों हैं कि दहेज में ही मिल सकें?” मैं ख़ुद की कही लाइन्स पर सोच ही रहा था कि उसने कहा-

“धरती पुत्र! ‘ब्लैक फॉरेस्ट’ पहुँचने में तो आधा घंटा और लगने वाला है, एक-एक बीयर की कैन इधर से ही लेते चलें क्या?”

“अरे वाह! नेकी और पूछ-पूछ…देखा, बड़े बुज़ुर्ग इसलिए कह गए हैं कि संगत अच्छी रखो, इससे बुद्धि बढ़ती है।”

“हाँ, तभी तो मेरी संगत में तुम्हारी अक्ल के पर्दे थोड़े खुल रहे हैं।” उसने हँसते हुए कहा।

पता नहीं वह कौन सा शायर था जिसने मेरे लम्हें जीए थे, शायर का शुक्रिया करते हुए मैंने उसकी शायरी में एक शब्द ‘इश्क़’ को ‘संगत’ कर दिया-

“मिलावट है तेरी संगत में इत्र और शराब की

कभी हम महक जाते हैं, तो कभी बहक जाते हैं।”

“भग तो…” मुझे लगा नहीं था कि उससे इतनी शोख़ी से शरमाना हो पाएगा।

अब भी सितमगर्दी की वह ज़िंदा शक्ल, जब-तब गरदन झुकाकर देख ली जाती है और अल्ही मौसीक़ी के चश्में उबल-उबल पड़ते हैं।