Hindi Kahani: “जी पापा! आपने बुलाया था”, रजत ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा।
“हाँ -हाँ शर्मा जी ने उन्हें बैठने का इशारा करते हुए कहा “बात थोड़ी ज़रूरी थी और तुम सबकी सहमति भी लेना आवश्यक था।”
“अच्छा पापा,… क्या बात है?”
बेटा तुम तीनों जानते हो कि अब मैं रिटायर हूँ,तो तनख्वाह वाली बात तो है नहीँ अभी तक मैंने सब निपटा लिया।
पर अब मुश्किल है,इसलिए अब बिजली के बिल और घर के मेंटेनेंस के तीन हिस्से कर लिया करेंगे।
पर ….पापा तीन क्योँ चार क्योँ नहीँ?
क्योंकि विशाल को अभी घाटा हुआ है व्यापार में ,जब उबर जाएगा तो वो भी देने लगेगा।
शर्माजी की इस बात ने उनके घर में जैसे तूफ़ान ही ला दिया।बेटे तो इस उम्मीद में गये थे कि शायद पापा बंटवारे की बात करने वाले होंगे ।
लेकिन लौटे तो उनपर होने वाले खर्चो का ब्यौरा लेकर।
जिसने उनके घर में महाभारत के बीज बो दिये।
जब वो शहर में आये थे तो किराएदार बनकर।
लेकिन आएदिन के मकानमालिक की पत्नी के दुर्व्यवहार के चलते उनकी पत्नी सावित्री जी बहुत दुःखी हो जातीं।
एकदिन उन्होंने अपने सारे ज़ेवर अपने ससुर के आगे रखते हुए कहा,”कक्का ,अब किसी की फ़िज़ूल बात सुनी नहीँ जाती,ज़ेवर हो चाहे न हो अपनी देहरी ज़रूर होनी चाहिये ,जिसमें जब मर्ज़ी आये तब कोई ये न कहे कि निकलो”।
सहज भाव की ये तार्किक बात शर्माजी के पिताजी जो बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे उन्हें भी पसन्द आयी और उन्होंने मकान खरीदने के प्रयास तेज कर दिये।
कुछ ही दिनों में वो लोग किरायदार से मकानमालिक बन गये ,चूँकि ज़मीन काफ़ी थी ,तो बनवाने में भी समय लगा।अक्सर सावित्री जी परेशान होकर कहतीं इतना बड़ा घर काहे ले डाला।
तो शर्मा जी गर्व से कहते,तुम नाहक दुःखी होती हो हमारे तीन लड़के हैं,शहर में ज़मीन ख़रीद एक मन्ज़िल हमनें बनवा दी ।बाकी एक-एक मन्ज़िल बच्चों ने भी बनवाई तो हमारा घर चार मंजिला तैयार होगा।
लेकिन बहुएँ जिन्हें ससुराल की हर चीज़ पर अपना अधिकार लगता वो दायित्व के नाम पर अपना पराया का गणित लगाकर अलग रहने का अपने पतियों पर दवाब डालने लगीं।
सावित्री जी का घर की साफ-सफ़ाई को लेकर टोकना उन्हें बुरा लगता।
पीठ पीछे कहती कि इन्हें अपने मकान का बड़ा घमण्ड है।
शर्माजी की बूढ़ी और अनुभवी आँखों से कुछ छुपा न था,जिस मकान को घर बनाने में वो और सावित्री न जाने कितनी कंजूसी और त्याग कर बूढ़े हो चले थे वह भी तो बूढ़ा हुआ था उनके साथ ।
महानगर में ज़मीन खरीदना, फिर उसे बनवाना,बहुएँ आती गयीं,कमरे भी बनते गये।
हाँ किसी के भी मनचाहे बनाने खाने पर पाबन्दी न थी कोई पर सेवा निवृत्ति के बाद तो नज़ारा ही बदल गया।
जब तक तन्ख्वाह आ रही थी सब ठीक था,आज की घटना से तो सबका नज़रिया ही बदल गया।
जाड़े की गुलाबी सुबह में वो धूप में बैठे ही थे कि रजत ने आकर कहा,”पापा मैं अलग रहना चाहता हूँ, फिर गुन्नू का स्कूल भी दो कदम पर है उधर से”।
पर बेटा!अपने घर में कमी क्या है?सावित्री जी ने कहा।
जाने दो भगवान!”बागें वीरां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है।हर शाख़ पे उल्लू बैठा है ,अंज़ाम ए गुलिस्तां क्या होगा।”
ये सब तब सुधरेंगें जब या तो ठोकर खाएँगे ,या जब हम न होंगे”,इन्हें भी सँसार में सिर पर छत होने के सौभाग्य की कीमत समझने दो।
शर्मा जी ने अपने ख़ाली हाथों को सूनी नज़रों से देखते हुए कहा।
हाँ घर से जाते वक्त सोनम अपने कमरे में ताला लगाना न भूली।क्योंकि उसके फर्नीचर और अन्य चीज़ें उस किराये के घर में समा न रहीं थीं।इधर शुभम ने शर्माजी को मकान बेंचकर उसकी जगह आधुनिक अपार्टमेंट में रहने का सुझाव दिया।
परन्तु उन्होंने सख्ती से मना करते हुए कहा,”जब मैं नहीँ रहूँगा तब तुम लोग इस घर की ईंटें बेंचकर खा जाना पर अभी ये बूढ़ा मकान मेरे और तुम्हारी माँ के लिये बहुत जवान हैं।शर्मा जी के सख्ती से नाराज़ शुभम और उसकी पत्नी पायल ने भी रजत के नक्शे कदम पर चलते हुए अलग किराये पर मकान ले लिया।
शुभम का ताला भी उसके कमरे पर लटक गया।तीन महीनों के अन्तराल पर ये बड़े झटके जैसे दो बाजू ही कट गए हों शर्माजी कुछ बीमार रहने लगे।उन्होंने विशाल और उसकी पत्नी नीलू से उनकी मर्ज़ी पूछी तो थोड़ी राहत पड़ गयी,नीलू ने धैर्य बंधाते हुए कहा माँ पापाजी अभी हम दोनों को ही आप लोगों की बहुत जरूरत है।उधर रजत और सोनम अपनी नई आज़ादी का लुत्फ उठा रहे थे ,न कोई रोकने वाला और न कोई टोकने वाला,सब कुछ मनमर्ज़ी का बहुत ही प्लानेड।
एडवांस देने के बावजूद भी मकान मालिक के नख़रे शुरू,जो सोनम सास के जल्दी उठने को कहने पर चिढ़ जाती अब पानी भरने के चक्कर में जल्दी उठती वरना टँकी खाली हो जस्ती।
जबकि घर में तो वह देवरानियों से इस मसले पर कलह भी कर लेती थी उधर घर वापिस आने का समय भी नियत था ,साढ़े दस के बाद देर तक घण्टी बजाने पर गेट खुलता।आज तो हद हो गयी, मकान मालकिन ने दीवारों पर गुन्नू के चलाये कलर देख लिये तो उन्होंने ख़राब दीवारों पर पेंट करवाने का नादिरशाही फ़रमान सुना काफ़ी कुछ कह डाला।गुन्नू को उधर से हटाने के चक्कर में उसे चोट भी लग गयी,ये देख कर तो सोनम का भी पारा चढ़ गया।
वो गुस्से को काबू करते हुए बोली,”कि इसी शहर में मेरा ख़ुद का घर है चार सौ वर्ग ग़ज़ का कोई ऐसे वैसे घर की मत समझना मुझे”
“सूखता होगा तुम्हारी हवेली में बावन बीघे में पुदीना,यहाँ रहना है तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा,वरना ख़ाली कर दो मेरा घर”
मकान मालकिन के तीखे बोल जैसे पिघले सीसे से टपक रहे थे सोनम के कानों में।
उसकी आईलाइनर लगी आँखों से टपटप आँसू बह रहे थे ,कभी वो अपनी बेटी की चोट सहलाती तो कभी अपने आँसू पोंछती।
आज सिर दर्द के चलते उसका मन भी न किया अपने लिये कुछ बंनाने का।आज उसे अपना ससुराल बहुत याद आ रहा था पापाजी तो बहुत खुश होते गुन्नू की कारस्तानियों पर ,उन्हें तो महँगे पेण्ट के ख़राब होने का ज़रा भी मलाल न होता।कितनी ख़ुशी से कहते थे ,जिसके होगा खिलैया,उसी के आँगन रँगीन होते हैं।
रजत के आने पर भी उसके आँसू न थमे,आज दोनोँ बैठकर सुबह की घटना पर विचार कर अपने पिछले छः महीनों के ख़र्च का हिसाब-किताब करने बैठे तो पाया।
न ख़र्च ,न आराम ,हर तरह से घाटे में वही थे।लगभग यही हाल दूसरे एरिया में रह रहे शुभम का भी था।किराएदार होने की तिलमिलाहट भी रोज़ घायल करती।उन दोनोँ ने तय किया कि किराये का घर छोड़कर वापस अपने घर चलेंगें।
सुबह रजत और सोनम गुन्नू के स्कूल जाने के बाद मकान-मालिक के पास उनका हिसाब करने पहुँच गये।
इत्तिफ़ाक़ से उनकी नज़र रजत के फ़ोन में लगी डीपी पर पड़ी ।
शर्माजी और सावित्री की तस्वीर देख बोले
ये कौन है?
रजत -जी ये मेरे मम्मी पापा हैं।
अरे तुम्हें किराये के मकान की क्या जरुरत ,तुम तो पहचान के निकल आये।कभी हम और शर्माजी एकसाथ किराएदार हुआ करते थे।
आये दिन मकान बदलने की ज़िल्लत से छुटकारा पाने की ख्वाहिश ने तो हमें मकानमालिक बना दिया।
आज सोनम और रज़त को उनकी बातों से पता चला कि मातापिता ने उन्हें किस तरह कितनी तकलीफ़े उठा कर इस मुक़ाम तक लाया था।
अपने शौक़ मारना, ज़रूरतें रोककर सिर्फ़ मकान को ही अपना ध्येय बना डाला था उन दोनोँ ने।मकान-मालकिन ने सोनम के मकान छोड़ने के फैसले पर दुःख व्यक्त करते हुए समझाया,….
मकान बनता है उम्र भर की कमाई और अरमानों से तो ग़ुरूर या परवाह बनती है।पर ये भी दायित्वों और कर्तव्यों का मामला है ।
जो मकान तुम्हें यूँ ही मिल गया माँ बाप से उसकी मेंटेनेंस अब तुम सबका फ़र्ज़ भी है अब ख़ुद सोचलो कि घाटे में कौन है?
महीना पूरे होते न होते रज़त और सोनम अपने घर लौट आये।उसके थोड़े समय बाद शुभम और पायल भी।
शर्मा जी ने किसी से भी एक शब्द न कहा।पर एक चमत्कार ज़रुर हुआ सभी बेटों ने शर्मा जी को एक निश्चित रक़म देना शुरू कर दिया।
वजह पूछने पर दोनोँ बोले पापा इतना तो किराया ही निकल जाता था ।
उस पैसे को वह बैंक में डाल देते और नकचढ़ी बहुएँ भी मकान मालकिन के नख़रे उठा सुधर चुकीं थीं
शर्मा जी भी उस रकम में सहयोग करते और देखते देखते शर्मा-निवास समय के साथ चार-मंजिला भवन बन गया था।
दीवाली पर घर में खूब रौनक थी,और सबके चेहरों पर भी ।शर्माजी ने घर के बाहर वन्दनवार बाँधते रज़त और शुभम से कहा,
“ये रौनक देख रहे हो बच्चों ,ये तुम्हारे अधिकार और कर्त्तव्य के तालमेल को समझने से आई है”।
मैंने उस दिन अपने इसी अरमान के बारे में बात की थी “खैर देर आयद दुरुस्त आयद”
हाँ पापा !उन कड़वे दिनों ने हमें अच्छा सबक दे दिया,अपना घर सौभाग्य होता है,किराये के घर में वो बात कहाँ?
सोनम और पायल थोड़ा सकपका रहीं थीं मगर सावित्री जी ने उनकी दुविधा दूर कर दी। तीनों बहुओं को चाँदी की पायलें देते हुए बोलीं,”माँ-बाप और ईश्वर एक जैसे होते हैं वो रोज़ हमारी गलतियों को भूल जाते हैं और हम उनकी मेहरबानियों को।”
